बलि प्रथा एक अभिशाप क्यों

बलि प्रथा एक अभिशाप क्यों

इस अध्याय में हम बलि जिसे प्रथा कहा जाने लगा है और एक अभिशाप सिद्ध किया जा रहा है इसकी उपादेयता, प्रमाणिकता आदि की चर्चा करेंगे। सब मम प्रिय सब मम उपजाये – ये भगवान राम का कथन है और इसे किसी प्रकार से नकारा नहीं जा सकता कि सारी सृष्टि ईश्वर की ही कृति है।

बलि प्रथा एक अभिशाप क्यों

बलि की चर्चा ही नहीं शास्त्रों में विधि भी वर्णित है, लेकिन इसका विरोध बढ़ता जा रहा है। इसके विरोध में हमें नहीं लगता कि किसी प्रकार का अहिंसाप्रेम प्रकट होता है और हिंसा का विरोध हो रहा हो। अपितु ये सनातनद्रोहियों का षड्यंत्र प्रतीत होता है की जो बलिप्रथा को अभिशाप सिद्ध करना चाहते हैं।

जब सम्पूर्ण सृष्टि ईश्वर की ही कृति है, सभी ईश्वर की ही संतान हैं तो ईश्वर को उसके ही संतान की बलि क्यों दी जाती ? इसी तरह और भी कई प्रश्न उठाये जाते हैं जो वास्तविक ज्ञान का अभाव होने के कारण बलि में जिनका विश्वास होता है उस विश्वास को, धार्मिक आस्था को ठेस पहुंचता है।

बलि प्रथा पर रोक लगाना कौन चाहता है ?

कौन हैं वो लोग जो बलि को प्रथा कहकर उसपर रोक लगाने का पूरा प्रयास कर रहे हैं ? हम बौद्धों के युग की कोई चर्चा नहीं करेंगे वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में गंभीरता से समझेंगे। हमको पहले ये समझने की आवश्यकता है कि आखिर बलि को प्रथा सिद्ध करके रोक लगाना चाहता कौन है ? उत्तर बहुत आसान है जिसे लाभ मिले।

बलि प्रथा एक अभिशाप क्यों ?
बलि प्रथा एक अभिशाप क्यों ?

बलि पर रोक लगने से लाभ किसको मिलता है ?

  • कई पुराने मंदिरों में बलि को रोका गया है कहने के लिये रोकने वाले तो कोई साधु-महात्मा हो सकते हैं जिन्हें ये ज्ञात ही नहीं होता कि उनके माध्यम से उनके ही धर्म को चोट पहुंचाया जाता है और अपनी स्वार्थ सिद्धि की जाती है, अर्थात वास्तव में पर्दे के पीछे कोई और होता है।
  • जो इसके लाभार्थी हैं (अर्थात बलि बंद होने से जिनको लाभ होगा), अथवा येन-केन-प्रकारेण सनातन द्रोही हैं वही पर्दे के पीछे होते हैं और कई बार संस्थाओं के माध्यम से सामने भी होते हैं। किसको लाभ होता है – जो मांस का व्यवसाय करता है।
  • इस वर्ग का राष्ट्रीय उद्दण्ड झुंड ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर तक है जो भारत, भारतीय संस्कृति का शत्रु है, अनेकों प्रकार के षड्यंत्र करके भारत में भारतीय संस्कृति का ह्रास करके एक अन्य घृणित परम्परा-व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं।
  • लाभान्वित होने का तरीका क्या है : जिस जगह बलि दी जाती है वहां इनका कारोबार थोड़ा कम होता है और बलि बंद होने से कारोबार में वृद्धि होती है।

आगे की चर्चा से पहले हम ये प्रश्न उठाने वाले के बारे में चर्चा करेंगे और इन्हें अर्थात बलि को प्रथा कहकर विरोध करने वालों को दो भागों में बांटकर समझेगें : सनातन और भारतीय संस्कृति के द्रोही और वैष्णव साधु-महात्मा-कथावाचक आदि।

१. सनातन और भारतीय संस्कृति के द्रोही : जो लोग बीफ-बीफ चिल्लाने वाले है, गिद्ध से भी निकृष्ट स्तर के प्राणी हैं वो बलि के लिये सनातन धर्म की निंदा करते हैं लेकिन ये भूल जाते हैं कि उनका रोम-रोम हिंसक है। विश्व का सबसे हिंसक समुदाय कौन है इसका उत्तर जानने के लिये किसी प्रकार के सर्वेक्षण की आवश्यकता नहीं है बिना बताये सब जानते हैं।

एक और दूसरा समुदाय भी है जो स्वयं को बुद्धिमान घोषित करता है और इसके हिंसा का स्वरूप थोड़ा हटकर है और इसके बारे में जानकर भी विश्वास करना मुश्किल होता है, लेकिन कोरोना के उदाहरण से समझा जा सकता है, इनकी शक्ति के बारे में इतना ही कथन पर्याप्त है कि लाखों लोगों की मृत्यु हुई लेकिन कोरोना को लेकर किसी विशेष प्रकार की चर्चा नहीं की जा सकती।

बलि पर रोक लगने से लाभ किसको मिलता है ?
बलि पर रोक लगने से लाभ किसको

केवल संकेत से समझने का प्रयास किया जा सकता है कि कोरोना नाम पर किनको-किनको लाभ मिलने वाला था जिसके लिये अपने देश के भी कुछ दलालों ने आवाज लगायी थी। वो तो धन्यवाद मोदी का कि भारत को बचा लिया, नहीं तो भारत कई दशक पीछे जाने वाला था।

ये लोग जब भी कोई बात कहें भले ही वह शहद घोली हुयी क्यों न हो उसके भीतर रहता जहर ही है। और ऐसे तत्व बलि का विरोध करने के लिये कई संस्थाओं को खड़ा करते रहते हैं। इनका उद्देश्य बलि का विरोध नहीं भारतीयों का खून चूसना होता है।

२. वैष्णव साधु-महात्मा-कथावाचक आदि : इस बात को तो कदापि नहीं स्वीकार किया जा सकता कि वैष्णव बलि की समाप्ति चाहते हैं। यदि सच में वैष्णव ये चाहते तो जब से किसी सभ्यता का इतिहास उपलब्ध होता है उससे पूर्व ही भारत में बलि समाप्त हो गई होती। हाँ ये तथ्य अवश्य सत्य है कि ये बलि का समर्थन नहीं करते। वैष्णव धर्म बलि की निंदा करता है परन्तु उस व्यवस्था को समाप्त करने की बात नहीं करता।

लेकिन वास्तव में पहले वर्ग द्वारा ही ऐसा माहौल बनाया गया है जिस कारण परोक्षतः प्रभावित होकर ये वर्ग बलि को बंद कराने के लिये अपनी ऊर्जा का नाश करने लगते हैं।

क्या बलि जीव हिंसा है ?

युद्ध में हुई हिंसा, बलि के लिये हुई हिंसा, आत्मरक्षा में हुई हिंसा यद्यपि अहिंसा नहीं है लेकिन हिंसा भी नहीं है। हिंसा नहीं होने का तात्पर्य ये है कि इसमें हिंसा तुल्य पाप नहीं व्यापता। ये भी सत्य है कि इस प्रकार की हिंसा करने का अधिकार (जिसमें) पाप न लगे सबको नहीं होता और हिंसा की विधि भी सुनिश्चित होती है, निर्दिष्ट विधि का त्यागकर किया गया और निर्दिष्ट हिंस्य के अतिरिक्त की हिंसा उनके लिये भी दोषकारक होता है।

यदि सम्पूर्ण हिंसा में हिंसा दोष देखा जाय तो सब्जी, फल, दूध, दही आदि भक्षण में भी हिंसा होती है। सब्जी और फल भी तोड़ने से पहले सजीव ही होते हैं, उसमें भी जीव की उपस्थिति होती है, दूध और दही तक में भी सूक्ष्म जीवों की उपस्थिति होती है।

यदि सम्पूर्ण हिंसा में हिंसा दोष देखा जाय तो सब्जी, फल, दूध, दही आदि भक्षण में भी हिंसा होती है। सब्जी और फल भी तोड़ने से पहले सजीव ही होते हैं, उसमें भी जीव की उपस्थिति होती है, दूध और दही तक में भी सूक्ष्म जीवों की उपस्थिति होती है। अन्न का दाना-दाना भी सजीव होता है, क्योंकि धरती में बो देने पर उससे भी पौधे उत्पन्न होते हैं। क्या इसे भी हिंसा माना जा सकता है ?

उन सभी तत्वों का जो स्वयं को बुद्धिमान और अहिंसाप्रेमी घोषित करते हैं उनका उत्तर होगा कि इसको हिंसा नहीं माना जा सकता और यदि आपकी सोच भी उन्हीं तत्वों के अनुसार कार्य करती है तो आपका उत्तर भी होगा कि इसे हिंसा नहीं माना जा सकता। लेकिन सनातन इसे भी हिंसा मानता है परन्तु इसे उस श्रेणी का हिंसा मानता है जिसका सरल प्रायश्चित्त है और प्रतिदिन करने की अनिवार्यता है, नित्यकर्म का अङ्ग बना दिया गया है।

अब इस प्रश्न का उत्तर उनसे पूछना चाहिये कि जो सनातन इसको भी हिंसा मानता है और इसके लिये भी प्रतिदिन प्रायश्चित्त करने का निर्देश करता है उसके समक्ष स्वयं को कितना बौना मानते हो ?

क्या तुम उस सनातन को हिंसा के बारे में शिक्षा देने के योग्य हो ?

क्या तुम उस सनातन को हिंसा के विषय में ज्ञान देने के योग्य हो जो युद्ध में भी धर्म का पालन करता है और शत्रु सेना के लिये भी मानवीय सहायता का निर्वहन करता है।

तुमको केवल और केवल सनातन से आध्यात्मिक ज्ञान लेने का प्रयास करना चाहिये सनातन को अध्यात्म से संबंध में किसी प्रकार का ज्ञान देने की मूर्खता का नहीं।

सनातन से आध्यात्मिक ज्ञान
सनातन से आध्यात्मिक ज्ञान

बलि का अर्थ

  • बलि का अर्थ होता है देवताओं के लिये त्याग करना, जिसे भोग या नैवेद्य भी कहा जाता है।
  • एक-एक अन्न के दाना का उपयोग करने में भी हिंसा होती है जिसके बारे में पहले ही हम समझ चुके हैं। प्रत्येक दाना जो अँकुर सकता है उसमें जीव और जीवन की उपस्थिति सिद्ध करता है। दाने का भूसी अलग करना भी हिंसा की श्रेणी में ही आ जाता है।
  • बलि सभी देवताओं को दी जाती है क्योंकि भोग भी बलि संज्ञक होता है।
  • कुछ उग्र देवताओं के लिये प्रत्यक्ष जीव की बलि दी जाती है। जिसका शास्त्रों में विधान पाया जाता है। मांस प्रेम के कारण नहीं शास्त्र विहित होने के कारण कुछ विशेष देवताओं को प्रत्यक्ष जीव की बलि दी जाती है।
  • प्राण प्रतिष्ठा में नेत्रोन्मीलन के समय प्रत्येक देवता के लिये विहित बलि प्रदान करने की विधि है। सनातनद्रोहियों ने कितना भ्रमित कर रखा है कि कुछ स्थानों पर बलि प्रदर्शन के समय शीशा लगाकर स्वयं देवता को ही बलि रूप में प्रदर्शित किया जाने लगा है, और मीडिया वालों ने अत्यधिक प्रचार-प्रसार भी किया है।

बलि प्रथा का इतिहास

बलि के इतिहास में भी भ्रामक तथ्य प्रस्तुत किया जाता है। पुराणों में बलि का वर्णन राजा हरिश्चन्द्र के समय पर भी प्राप्त होता है जो इसकी प्राचीनता को भी सिद्ध करता है। वरुण से पुत्र प्राप्ति हेतु बलि रूप में पुनः पुत्र प्रदान करने का ही प्रसङ्ग मिलता है और शुनःशेप प्रसङ्ग एक लम्बी कथा है।

मुख्य रूप से किस जीव की बलि दी जाती है

  • बलि मुख्य रूप से छाग (बकड़े) की दी जाती है, इसके साथ महिष की भी दी जाती है। अब इन दोनों जीवों के ऊपर विचार करें तो तार्किक रूप से भी बलि का औचित्य ज्ञात समझ आता है। ये दोनों ही अत्यंत कामी होते हैं।
  • लगभग २५-३० वर्ष पूर्व तक लगभग सभी गांवों में महिष पाया जाता था और अब भी जिस किसी गांव में महिष (भैंसा) हो उसकी कामान्धता से वहां के लोग परिचित होंगे ।
  • बकड़ा भी बहुत कामी होता है और राजा ययाति ने एक बार अपनी कामुकता का वर्णन किया था तो बकड़े की उपमा देकर ही किया था।
  • बकड़ा में एक और विशेष दुर्गुण भी होता है और जो बलि का विरोध करते हैं उनके घर में कान काटे हुये बलि के १०-२० बकड़े रखवाना चाहिये उनका जीना दूभर हो जायेगा। यदि बलि देकर बकड़े की संख्या कम न की जाय तो लोगों से अधिक संख्या बकड़ों की होगी। विशेष दुर्गुण होता है दुर्गन्ध।

विचार करने की एक और महत्वपूर्ण बात जो है वह है महिष बलि तो अत्यल्प ही होते हैं फिर भी महिष विलुप्त क्यों हो गया है, क्या अब महिषी ने पाड़ों को जन्म देना बंद कर दिया है अथवा अन्य रूप से हिंसा होती ही है।

अरे कुकर्मियों अन्य रूप में हिंसा करने पर हिंसा का तो दोष भी लगता है, लेकिन तुम सनातन द्रोह के कारण बलि को रोकना चाहते हो जिसमें हिंसा दोष का परिहार संभव है।

बलि प्रथा का इतिहास
बलि प्रथा

अधर्मियों आज बैल विलुप्त क्यों हो गये हैं, हिंसा के कारण या अनुपयोगिता के कारण ? अनुपयोगिता का तर्क तो स्वीकार्य नहीं हो सकता, क्योंकि पूरी सृष्टि में कुछ भी अनुपयोगी है ही नहीं। फिर निःसंदेह हिंसा के कारण ही बैल विलुप्त हो रहे हैं ऐसा नहीं है कि अब बछड़े का जन्म ही नहीं होता।

ये हिंसा किसी को क्यों नहीं दिखती है ? केवल वही हिंसा क्यों दिखती है जो शक्ति को बलि देकर प्रसन्न के लिये की जाती है।

एक और कुतर्क किया जाता है और भोले-भाले सनातनी सब मान भी जाते हैं : देवी तो माँ है, वह जीव जिसकी बलि दी जा रही है वो भी उसी की संतान है क्या कोई माँ अपने संतान की बलि से प्रसन्न हो सकती है।

अरे मूर्खों देवी ने जन्म दिया है तो देवी संहार भी करती है यह क्यों भूल जाते हो ? ईश्वर केवल सृष्टि करते ही नहीं पालन और संहार भी ईश्वर ही करते हैं।

उकसावे में आकर बलि का विरोध करने वाले वैष्णवों से भी कुछ प्रश्न बनते हैं ?

  • महोदय सड़कों पर जो खुले में टंगे रहते हैं वो हिंसा नहीं है क्या ? अरे सड़कों पर चलना मुश्किल होता है। हिम्मत है, दिखायेंगे ?
  • बैल की तो बलि नहीं दी जाती है, लेकिन बैल विलुप्त प्राणी जैसा लगता है ऐसा क्यों हुआ ? आप क्या कर रहे थे ?
  • यदि वैष्णव धर्म की सत्ता शास्त्र से है तो शाक्तधर्म क्या कहीं से टपका हुआ है ?
  • क्या शाक्तधर्म में हस्तक्षेप करने का कोई शास्त्रीय अधिकार आपको है ?
  • यदि आप शाक्तों का विनाश करना चाहते हैं तो क्या ये हिंसा नहीं है ?
  • बलि से सैकड़ों गुना अधिक अन्य विधि द्वारा जीवहत्या होती है, क्या पहले उसे बंद नहीं करना चाहिये ? क्योंकि बलि देने से तो उस जीव की भी सद्गति होती है और देने वाले के ऊपर भगवती प्रसन्न भी होती है।

अहिंसाप्रेमियों के लिये कुछ भी प्रश्न बनते तो हैं :

  • बूचड़खानों में कौन सी अहिंसा होती है ?
  • परीक्षण के नाम पर पश्वादि की ही नहीं लोगों की भी जानें ली जाती है कौन सी अहिंसा है ?
  • आयुर्वेद में न के बराबर हिंसा है फिर अपना अहिंसाप्रेम प्रकट करने के लिये ही सही सम्पूर्ण विश्व में आयुर्वेद क्यों नहीं प्रचलित करते हो ?
  • जो समुदाय विशेष लाखों लोगों की जान उन्माद में ले लेता है उसके विरुद्ध क्या करते हो ?

अंत में बलि के शास्त्रीय औचित्य को भी समझना आवश्यक है :

  • शुनःशेप प्रसङ्ग से यह स्पष्ट हो जाता है कि बलि अशास्त्रीय नहीं है।
  • और कर्मकांड में बलि देने की विशेष विधि व मंत्र हैं जिससे भी सिद्ध होता है कि बलि अशास्त्रीय नहीं है।

बलि के औचित्य पक्ष में शास्त्रीय प्रमाण

अब कदाचित् आपके मन में बलि के लिये शास्त्रीय प्रमाण जानने की उत्सुकता हो रही होगी। यज्ञों में जो बलि विधि थी जो वो वैदिक प्रमाण से ही होते थे। हम यहां उस धार्मिक ग्रंथ का प्रमाण प्रस्तुत करेंगे जो लगभग सभी लोगों के पास होते हैं या आसानी से उपलब्ध किये जा सकते हैं।

  • शक्ति उपासना में चंडी पाठ का अनुपम माहात्म्य है जिसे श्रीदुर्गा सप्तशती नाम से जाना जाता है।
  • श्रीदुर्गा सप्तशती भगवती की अत्यंत प्रिय स्तुति है जो मार्कण्डेय पुराण से लिया गया है।
  • श्रीदुर्गा सप्तशती का पाठ नवरात्रा में ही नहीं भक्ति-श्रद्धा युक्त सज्जन प्रतिदिन भी करते हैं।
  • बलि के औचित्य-अनौचित्य हेतु श्रीदुर्गा सप्तशती से बड़ा प्रमाण किसी अन्य ग्रन्थ का नहीं हो सकता।

यहां रहस्यादि के प्रमाण नहीं मूल सप्तशती के तीन प्रमाण श्लोक प्रस्तुत किये जा रहे हैं :

  1. बलिप्रदाने पूजायामग्निकार्ये महोत्सवे। सर्वं ममैतच्चरितमुच्चार्यं श्राव्यमेव च ॥१०॥ अध्याय १२॥
  2. जानताऽजानता वापि बलिपूजां तथा कृताम्। प्रतीच्छिष्याम्यहं प्रीत्या वह्निहोमं तथा कृतम् ॥११॥ अध्याय १२॥
  3. ददतुस्तौ बलिं चैव निजगात्रासृगुक्षितम् । एवं समाराधयतोस्त्रिभिर्वर्षैर्यतात्मनोः॥१२॥ अध्याय १३॥

अब यहाँ पर एक अन्यप्रकार की समस्या भी उत्पन्न होती है। वर्तमान समय में १ व्यास जी नहीं सहस्रों व्यास हैं जो प्रत्येक ग्रन्थ के उस भाग को प्रक्षिप्त कहते हैं जो उनके विचारधारा को पुष्ट नहीं करती है और ये काम RSS जैसी सनातन की स्वघोषित ठेकेदार संगठन भी करती है। उन सभी सनातनरक्षा का ठेका लेने वाले संगठनों के लिये भी दो-चार बातें अवश्य कहना चाहूंगा :

  • अपनी विचारधारा बनाओ किन्तु जहां तुम्हारी विचारधारा शास्त्रों से खण्डित होती है उसे स्वीकार करना भी सीखो, सुधार भी करो ये नीति कहती है।
  • यदि हमारी विचारधारा का पोषण जो ग्रंथ न करे वो ग्रन्थ ही अशुद्ध है ये कहना अनीति है।
  • आप कोई अवतारी पुरुष हो संभवतः आपके मन में ये भ्रम हो जाता है।
  • यदि सचमुच धर्मरक्षा करना चाहते हो तो पहले शास्त्रों में विश्वास करना सीखो न कि शास्त्र अशुद्ध है कहना।

क्या बलि का विरोध करने के इतने ही कारण हैं या और भी कोई कारण है ?

मूल कारण की चर्चा तो अभी बाकि ही है। भले ही धर्मरक्षा के जो ठेकेदार बनते हैं या बने हुये हैं उनको अपनी विचारधारा सही लगती हो और शास्त्र गलत लगते हों, किन्तु जो वास्तविक आसुरी तत्व हैं उनको अविश्वास नहीं है अथवा गलत नहीं लगता है। ये प्रमाण उनको सही लगता है और अपने लिये सङ्कट भी दिखता है जिस कारण उन लोगों द्वारा RSS तक में भ्रम उत्पन्न कर दिया गया है।

सबसे अधिक विश्वास किस वचन को लेकर है क्या आप जानते हैं ? उन्हें ये तो ज्ञात है कि वो आसुरी तत्व हैं और दैवीय तत्व से उन्हें खतरा है ये भी सनातन की तरह ही सत्य है।

  • सप्तशती में ही भगवती की एक अन्य प्रतिज्ञा है : इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति । तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्॥५५॥ अध्याय ११॥ ग्यारहवें अध्याय के पचपनवें श्लोक में भगवती की उद्घोषणा है कि जब-जब दैवीय तत्व के लिये सङ्कट आयेगा दानवो-असुरों की वृद्धि होगी तब-तब मैं अवतरित होकर उनका संहार करके दैवीय तत्वों का संरक्षण करुँगी।
  • श्रीमद्भगवद्गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा है – यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥४/७॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥४/८॥
  • जिसे रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने भी इस प्रकार अंकित किया है : जब जब होई धरम की हानि। बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी ॥ तब-तब प्रभु धरि विविध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा

आज सनातनियों को ईश्वरीय प्रतिज्ञा पर भले विश्वास हो या न हो, भले ही सभी शास्त्रों गलत लग रहे हों; किन्तु उन आसुरी तत्वों को दृढ विश्वास है और इस लिये सदियों से सनातन को समाप्त करने का दुश्चक्र चल रहा है। सदियों से दुश्चक्र करने के बाद भी सनातन विद्यमान है इससे उनका विश्वास और दृढ हो गया है किन्तु चिंताजनक ये है कि सनातनियों को और सनातन रक्षा के ठेकेदारों को शास्त्रों पर विश्वास नहीं है।

शाक्तों से निवेदन

एक समय ऐसा था जब मैं भी इन अधर्मियों के बहकावे में था और बलि को सही नहीं समझता था। हाँ आज भी मैं बलि देखकर खिन्न ही होता हूँ अर्थात देख नहीं सकता लेकिन इसका तात्पर्य ये नहीं कि उसे अशास्त्रीय सिद्ध करने का अनर्थ करूँ। बलि को प्रथा कहकर विरोध करने वाले के विरुद्ध इस आलेख में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है जिससे आपको औचित्य सिद्ध करने में सहायता प्राप्त होगी।

साथ ही एक निवेदन और है कि इस विषय में पर्याप्त अन्वेषण आपको करना चाहिये और विचार एवं प्रमाण टिप्पणी/ईमेल/व्हाट्सप आदि के माध्यम से हमें अवश्य प्रदान करें।

॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः सुशांतिर्भवतु सर्वारिष्ट शान्तिर्भवतु

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


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