धूमावती की पूजा-अराधना करने से आयु, यश, शक्ति, आरोग्य आदि की वृद्धि होती है। माँ धूमावती के स्तोत्रादि का पाठ करने से नकारात्मक शक्तियां दूर रहती हैं। माता धूमावती ऊर्ध्वाम्नाय की देवी हैं। माता धूमावती (dhumavati devi) की साधना में पवित्रता की विशेष आवश्यकता होती है। यहां धूमावती स्तोत्र (dhumavati stotram) संस्कृत में दिया गया है।
यहां पढ़ें धूमावती माता को प्रसन्न करने वाले स्तोत्र संस्कृत में – dhumavati stotram
धूमावती महाशक्ति स्वयं नियंत्रिका हैं अर्थात इन्हें कोई और नियंत्रित नहीं कर सकता है। काल से परे ले जाने वाली महाविधा हैं, ऋग्वेद में रात्रिसूक्त में इन्हें ‘सुतरा’ कहा गया है अर्थात ये सुखपूर्वक (सरलता से) तारने योग्य हैं। इन्हें अभाव और संकट को दूर करने वाली मां (महाविद्या) भी कहा गया है।
पौराणिक ग्रंथों अनुसार ऋषि दुर्वासा, भृगु, परशुराम आदि की मूल शक्ति धूमावती हैं। सृष्टि कलह की देवी होने के कारण इनको कलहप्रिय भी कहा जाता है। चौमासा (चातुर्मास्य) धूमावती देवी का प्रमुख समय होता है जब देवी का पूजा पाठ किया जाता है।
यहां पहले माता धूमावती का ध्यान मंत्र दिया गया है और तत्पश्चात धूमावती स्तोत्र जिसे धूमावती अष्टक स्तोत्र भी कहा जाता है।
॥ श्रीधूमावती ध्यानम् ॥
विवर्णा चञ्चला दुष्टा दीर्घा च मलिनाम्बरा ।
विमुक्तकुन्तला रूक्षा विधवा विरलद्विजा ॥१॥
काकध्वजरथारूढा विलम्बितपयोधरा ।
शूर्पहस्तातिरूक्षाक्षा धूतहस्ता वरान्विता ॥२॥
प्रवृद्धघोणा तु भृशं कुटिला कुटिलेक्षणा ।
क्षुत्पिपासार्दि ता ध्येया भयदा कलहास्पदा ॥३॥
अत्युच्चा मलिनाम्बराऽखिलजनोद्वेगावहा दुर्मना
रूक्षाक्षित्रितया विशालदशना सूर्योदरी चञ्चला ।
प्रस्वेदाम्बुचिता क्षुधाकुलतनुः कृष्णाऽतिरूक्षप्रभा
ध्येया मुक्तकचा सदाप्रियकलिर्धूमावती मन्त्रिणा ॥४॥
॥ धूमावती स्तोत्रं ~ धूमावत्यष्टकम् ॥
प्रातर्यास्यात् कुमारी कुसुमकलिकया जापमालां जपन्ती
मध्याह्ने प्रौढरूपा विकसितवदना चारुनेत्रा निशायाम् ।
सन्ध्यायां वृद्धरूपा गलितकुचयुगा मुण्डमालां वहन्ती
सा देवी देवदेवी त्रिभुवनजननी कालिकापातु युष्मान् ॥१॥
बद्ध्वा खट्वाङ्गकोटौ कपिलवरजटा मण्डलम्पद्मयोनेः
कृत्वादैत्योत्तमाङ्गैः स्रजमुरसिशिरश्शेखरं तार्क्ष्यपक्षैः ।
पूर्णंरक्तैः सुराणां यममहिषमहाशृङ्गमादायपाणौ
पायाद्वोवन्द्यमानः प्रलयमुदितया भैरवः कालरात्र्याम् ॥२॥
चर्वन्तीमस्थिखण्डं प्रकट कटकटा शब्दसङ्घातमुग्रं
कुर्वाणि प्रेतमध्ये कहहकहकहा हास्यमुग्रं कृशांङ्गी ।
नित्यं न्नित्यप्रसक्तां डमरुडिमडिमां स्फारयन्तीं मुखाब्जं
पायान्नश्चण्डिकेयं झझमझमझमा जल्पमाना भ्रमन्ती ॥३॥
टण्टण्टण्टण्टटण्टाण्रकट टमटमा नाटघण्टां वहन्ती
स्फें स्फें स्फें स्फारकारा टकटकितहसा नादसङ्घट्ट भीमा ।
लोलम्मुण्डाग्रमाला ललहलहलहा लोललोलाग्रवाचं
चर्वन्तीचण्डमुण्डं मटमटमटिते चर्यषन्ती पुनातु ॥४॥
वामे कर्णे मृगाङ्कं पलयपरिगतं दक्षिणे सूर्यबिम्बं
कण्ठे नक्षत्रहारं वरविकटजटाजूटके मुण्डमालाम् ।
स्कन्धेकृत्वोरगेन्द्रध्वजनिकरयुतं ब्रह्मकङ्कालभारं
संहारे धारयन्ती ममहरतुभयं भद्रदा भद्रकाली ॥५॥
तैलाभ्यक्तैकवेणी त्रपुमयविलसत् कर्णिकाक्रान्तकर्णा
लौहेनैकेन कृत्वाचरणनलिनकामात्मनः पादशोभाम् ।
दिग्वासा रासभेन ग्रसतिजगदिदं मायया कर्णपूरा
वर्षिण्यातिप्रबद्धा ध्वजविततभुजा सासिदेवित्वमेव ॥६॥
सङ्ग्रामे हेतिकृत्वैस्सरुधिरदशनैर्यद्भटानां
शिरोभिर्मालामाबद्ध्यमूर्ध्नि ध्वजविततभुजा त्वं श्मशाने प्रविष्टा ।
दृष्टा भूतप्रभूतैः पृथुतरजघना बद्धनागेन्द्र काञ्ची
शूलग्रव्यग्रहस्ता मधुरुधिरसदा ताम्रनेत्रा निशायाम् ॥७॥
दंष्ट्रा रौद्रेमुखेऽस्मिंस्तवविशतिजगद्देवि सर्वं क्षणार्धात्
संसारस्यान्तकाले नररुधिरवशासम्प्लवेभूमधूम्रे ।
कालीकापालिकी सा शवशयनतरा योगिनी योगमुद्रा
रक्तारुद्धिः सभास्था मरणभयहरा त्वं शिवा चण्डघण्टा ॥८॥
धूमावत्यष्टकं पुण्यं सर्वापद्विनिवारकम् ।
यः पठेत् साधको भक्त्या सिद्धिं विन्दति वाञ्छिताम् ॥९॥
महापदि महाघोरे महारोगे महारणे ।
शत्रूच्चाटे मारणादौ जन्तूनां मोहने तथा ॥१०॥
पठेत् स्तोत्रमिदं देवि सर्वत्र सिद्धिभाग्भवेत् ।
देवदानवगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः ॥११॥
सिंह व्याघ्रादिकास्सर्वे स्तोत्र स्मरणमात्रतः ।
दूराद्दूरतरं यान्ति किं पुनर्मानुषादयः ॥१२॥
स्तोत्रेणानेन देवेशि किं न सिद्ध्यति भूतले ।
सर्वशान्तिर्भवेद्देविह्यन्ते निर्वाणतां व्रजेत् ॥१३॥
॥ इत्यूर्ध्वाम्नाये धूमावती स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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