पञ्चश्राद्ध विधि :
उपरोक्त एकादश विष्णु श्राद्ध के उपरान्त पञ्चदेवता श्राद्ध भी नारायण बलि का अङ्ग है और इसके बाद षोडश संख्या की पूर्ति होती है। ये चर्चा पहले भी की जा चुकी है। पञ्चदेवता श्राद्ध या पञ्चश्राद्ध में ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, यम और प्रेत का श्राद्ध होता है।
पञ्चश्राद्ध में भी आसन क्रम एकादशविष्णुश्राद्धवत् ही लगाये : ब्रह्मा – पूर्वाग्र, विष्णु – पूर्वाग्र, रुद्र – पूर्वाग्र, यम – पूर्वाग्र और प्रेत दक्षिणाग्र। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और यम श्राद्ध पूर्वाभिमुख-सव्य-त्रिकुशहस्त होकर करे एवं प्रेतश्राद्ध दक्षिणाभिमुख-अपसव्य-मोटकहस्त होकर करे। सव्यापसव्य विचार आवश्यकतानुसार करते हुये अथवा सव्यासव्य (उपवीति) रहकर करे। यहां क्रमशः सभी क्रियाओं के मंत्र प्रदान किये जा रहे हैं।
पंचश्राद्ध में भी दो पाक होता है, देव पाक अलग और प्रेत पाक अलग।
पवित्रीकरणादि करके पांचश्राद्ध का संकल्प करे : (श्राद्धारम्भ से पूर्व ही पञ्चसूक्त पाठ करे, यदि तर्पण करना चाहे तो तर्पण भी करे।)
पञ्चश्राद्ध संकल्प : त्रिकुशा-तिल-जल आदि लेकर आद्यश्राद्ध का संकल्प करे : ॐ अद्य …….… गोत्रस्य …….. पितुः ……. प्रेतस्य (माता के श्राद्ध में …….. गोत्रायाः ……… मातुः ………. प्रेतायाः कहे) विष्णवादिलोकप्राप्तये दुर्मरण निमित्तक नारायणबलौ विहित श्राद्धपञ्चकमेकोद्दिष्ट विधिना एकतन्त्रेण अहं करिष्ये ॥ स.पू.त्रि. संकल्प कर तिल जलादि भूमि पर गिराये त्रिकुशा सहित।
तीन बार गायत्री मंत्र जप करे। तीन बार देवताभ्यः मंत्र पढ़े : ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥३॥ स.पू.त्रि.
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य (माता के श्राद्ध में – ……… गोत्रायाः ……… प्रेतायाः कहे) कामः पञ्चश्राद्धे ब्रह्मन् इदमासनं ते नमः॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य पञ्चश्राद्धे विष्णो इदमासनं ते नमः॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य पञ्चश्राद्धे रुद्र इदमासनं ते नमः॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य पञ्चश्राद्धे यम इदमासनं ते नमः॥
- ॐ ……… गोत्र ……… प्रेत (माता के श्राद्ध में – ……… गोत्रे ……… प्रेते -कहे) पञ्चश्राद्धे इदमासनं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ – अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-मोटकहस्त-तिल-जल से
तिल विकिरण : ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षा ᳪ सि वेदिषदः ॥ स.द.त्रि. ॥ भोजन पात्र पर तिल बिखेरे।
आवाहन : ॐ आयन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽअग्निष्वाता: पथिभिर्देवयानै: अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ॥ करबद्ध पित्र्यावाहन करे ॥
अर्घ्य : तत्पश्चात सव्य-पूर्वाभिमुख-त्रिकुशहस्त होकर 5 अर्घ्यपात्र स्थापित करे, अर्घ्यपात्रों में पवित्री, जल (शन्नोदेवी०), यव – “यवोऽसि०”, (प्रेत-तिल-“तिलोऽसि०”)-गंध-पुष्पादि दे। फिर चारों अर्घ्यपात्रों से पवित्री निकाल कर भोजनपात्रों पर पूर्वाग्र रखे, पवित्री को जलांतर से सिक्त कर दे। फिर चारों अर्घ्यपात्रों को उत्तानहस्त ढंककर अभिमंत्रित करे :
अर्घ्याभिमंत्रन : ॐ या दिव्या आपः पयसा सम्बभूबुर्या आंतरिक्षा उत पार्थीवीर्या:। हिरण्यवर्णा याज्ञियास्ता न आपः शिवा: स ᳪ स्योना: सुहवा भवन्तु ॥ फिर दाहिने हाथ में जौ-जल से अर्घ्योत्सर्ग करे :
अर्घ्योत्सर्ग : क्रमशः एक-एक अर्घ्यपात्र लेकर मंत्र पढ़कर उत्सर्ग करे और तत्तत् पवित्री पर देकर पवित्री को पुनः अर्घ्यपात्र में वापस रखे और अर्घ्यपात्र को यथास्थान रख दे :
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य (माता के श्राद्ध में – ……… गोत्रायाः ……… प्रेतायाः कहे) पञ्चश्राद्धे ब्रह्मन् एषोऽर्घः ते नमः॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य पञ्चश्राद्धे विष्णो एषोऽर्घः ते नमः॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य पञ्चश्राद्धे रुद्र एषोऽर्घः ते नमः॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य पञ्चश्राद्धे यम एषोऽर्घः ते नमः॥
दक्षिणाभिमुख-अपसव्य होकर प्रेतार्घपात्र को बांये हाथ में लेकर पवित्री निकालकर भोजनपात्र पर दक्षिणाग्र रखे, जलांतर से सिक्त करे। फिर अनुत्तान ढंककर “या दिव्या०” मंत्र से अभिमंत्रित करे। मोटक-तिल-जल से प्रेतार्घ का अगले मंत्र से उत्सर्ग करके पवित्री पर पितृतीर्थ से दे : ॐ ……… गोत्र ……… प्रेत पञ्चश्राद्धे एषोऽर्घः ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥
जल देकर पवित्री को पुनः अर्घ्यपात्र में रखे और अर्घ्यपात्र को यथास्थान रखे। फिर पूर्वाभिमुख-सव्य होकर चारों अर्घ्यपात्रों को तत्तत् आसन के दक्षिण भाग (उत्तर दिशा) में सीधा रखे और अपसव्य-दक्षणाभिमुख होकर प्रेतार्घ पात्र को आसन के वाम भाग (पश्चिम दिशा में) अनुत्तान करके रख दे।
अर्चन : पूर्वाभिमुख-सव्य होकर जौ-जल से चारों देव का गन्धादि अर्चन करे : ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य पञ्चश्राद्धे ब्रह्म-विष्णु-रुद्र-यम एतानिगन्धपुष्पधूपदीपताम्बूल वस्त्रादिऽआच्छादनानि वो नमः॥
प्रेतार्चन : दक्षिणाभिमुख-अपसव्य होकर तिल, जल से यह मंत्र पढ़कर करे : ॐ ……… गोत्र ……… प्रेत पञ्चश्राद्धे एतानि गन्ध पुष्प धूप दीप ताम्बूल वस्त्रादिऽआच्छादनानि ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥
तत्पश्चात सव्यापसव्य विचार करके सभी भोजनपात्रों और आसन के चारों और जल से चतुरस्र मंडल करे। फिर दक्षिणाभिमुख-अपसव्य होकर प्रेत वेदी के पूर्व भाग में भूस्वामी को अन्नादि प्रदान करे : ॐ इदमन्नं एतद् भूस्वामि पितृभ्यो नमः ॥
तदुत्तर पुनः सव्यापसव्य विचार पूर्वक सभी भोजनपात्रों में भोजन परोसे और अलग पुटकों में घृत-जल भी भोजन के निकट रखे।
मधुप्रक्षेप : सभी भोजन में मधु प्रदान करे – ॐ मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः माध्वीर्न: सन्त्वोषधिः मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव ᳪ रजः मधुद्यौरस्तु नः पिता मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमां२ अस्तु सूर्यः माध्वीर्गावो भवन्तुनः ॥ ॐ मधु मधु मधु ॥
सव्यापसव्य विचार पूर्वक क्रमशः सभी भोजनपात्रों का आलंभन कर अवगाहन करे (दोनों हाथों से स्पर्श करे, देव का उत्तान और प्रेत का अनुत्तान) :
पात्रालम्भन :
- ॐ पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखे अमृते ऽअमृतं जुहोमि स्वाहा ॥
- ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् समूढ़मस्य पा ᳪ सुरे ॥
- ॐ विष्णो हव्यं रक्षस्व ॥ (प्रेत – ॐ कृष्ण कव्यमिदं रक्षमदियं ॥)
अवगाहन : ॐ इदमन्नं ॥ इमा आपः ॥ इदं आज्यं ॥ इदं हविः ॥
फिर देवभोजनपात्र के चारों और यव बिखेड़े : ॐ यवोऽसि यवयास्मद्वेषो यवयारातीः ॥
प्रेत भोजनपात्र के चारों और तिल बिखेड़े : ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षा ᳪ सि वेदिषदः ॥
तत्पश्चात सव्यापसव्य विचार करके पहले देवान्न का उत्सर्ग करे फिर प्रेतान्न का उत्सर्ग करे :
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य पञ्चश्राद्धे ब्रह्म-विष्णु-रुद्र-यम इमानि अन्नानि सोपकरणानि वो नमः॥
- ॐ ……… गोत्र ……… प्रेत पञ्चश्राद्धे इदमन्नं सोपकरणं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥
- बाएं हाथ को हटाकर पूर्वा० सव्य होकर तीन बार गायत्री जप करे ।
- दक्षि० अप० “मधुमती ऋचा” और यह मंत्र पढे – ॐ अन्नहीनं क्रियाहीनं विधिहीनं च यद्भवेत्। तत्सर्वमच्छिद्रमस्तु ॥
- गायत्री जप कर आसन के नीचे कुशा रखे ।
- पुनः अपसव्य दक्षिणाभिमुख “मधुमती ऋचा” पाठ करे ।
ॐ कृणुष्वपाजः प्रसितिन्न पृथिवीं याहि राजे वामवां इभेन । तृष्वीमनु प्रसितिं द्रूनाणोऽस्तासि विध्य रक्षसस्तपिष्ठैः । तवभ्रमास आसुया पतन्त्यनुस्पृस धृषता शोसुचानः । तपू ᳪ ष्यग्ने जुह्वा पतङ्गानसन्दितो विसृज विश्वगुल्काः । प्रतिष्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायुर्विशो अस्याऽअदब्धः । यो नो दूरे अघश ᳪ सो यो अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत । उदग्ने तिष्ठ प्रत्या तनुष्वन्य मित्रां ओषता तिग्महेते । यो नो ऽअराति ᳪ समिधानचक्रे नीचा तं धक्ष्यत सन्न शुष्कम् । उर्ध्वो भव प्रतिविध्या ध्यस्मदा विष्कृणुष्व दैव्यान्यग्ने अवस्थिरा तनुहि यातु यूनाम् जामिमजामिं प्रमृणीहि शत्रून् ॥ पाठ कर तिल बिखेरे।
ॐ उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सौम्यासः । असूंऽयईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु अङ्गिरसो नः पितरः सौम्यासः । तेषा ᳪ वय ᳪ सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासोऽअनुहिरे सोमपीथं वशिष्ठाः तेभिर्यमः स ᳪ रराणो हवी ᳪ स्युसन्नुसद्भिः प्रतिकाममत्तु ॥
- ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । भूमि ᳪ सर्वतस्पृत्त्वात्त्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ इत्यादि पुरुषसूक्त पाठ
- ॐ आशुः शिषाणो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभनश्चर्षनिनां । संक्रदनो निमिष एकवीरः शत ᳪ सेना अजयत्साकमिन्द्रः ॥
- ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ॥
- ॐ नमस्तुभ्यं विरूपाक्ष नमस्तेनेक चक्षुषे । नमः पिनाकहस्ताय वज्रहस्ताय वै नमः ॥
- ॐ सप्तव्याधा दशार्णेषु मृगाः कालञ्जरे गिरौ । चक्रवाकाः शरद्वीपे हन्साः सरसि मानसे ॥
- तेऽपि जाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा वेदपारगाः । प्रस्थिता दूरमध्यानौ यूयं तेभ्योवसीदथ ॥
- ॐ रुची रुची रुचिः ॥ पाठ करे।
विकिरदान :- दक्षिणाभिमुख-अपसव्य होकर प्रेतभोजन के पश्चिम त्रिकुश रखकर जल से सिक्त कर दे । एक पूड़ा में अन्नादि (प्रेत) लेकर मधुमती ऋचा पढ़कर और जल से आप्लावित करे, फिर मोड़ा के जड़ से सहारा देकर त्रिकुश पर बांए हाथ के पितृतीर्थ से दे – ॐ अनग्निदग्धाश्च ये जीवा ये प्रदग्धाः कुले मम । भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु तृप्ता यान्तु पराङ्गतिम् ॥
त्रिकुश धारण कर पूर्वा० सव्य हो आचमन कर “ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः” पढ़कर त्रिगायत्री जपे । फिर दक्षि० अप० होकर मधुमती ऋचा पाठ करे ।
तत्पश्चात अलग-अलग पिण्डवेदी बनाये, फिर सभी वेदी पर रेखा (देव वेदी में पूर्वाग्र और प्रेत वेदी में दक्षिणाग्र) उल्लेखन करके अंगारभ्रमण करे :
- उल्लेखन :- ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षा ᳪ सि वेदिषदः ॥ दर्भपिञ्जलि ईशान में त्याग दे।
- अंगारभ्रमण :- प्रादेशप्रमाण रेखा पर थोड़ा आग रख कर कुश के मूल से भ्रमणपूर्वक चलाते हुए देव का पूर्व और प्रेत का दक्षिण में गिरा दे – ॐ ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति। परापुरो निपुरो ये भरंत्यग्निष्टांलोकात् प्रणुदात्यस्मात् ॥
सभी प्रादेशप्रमाण रेखाओं पर छिन्नमूल कुश रखकर जल से सिक्त कर दे।
तीन बार गायत्री मंत्र जप करे। तीन बार देवताभ्यः मंत्र पढ़े : ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥३॥ स.पू.त्रि.
फिर पांच पुटकों में अवनेजन बना ले, देव के लिये जौ-जल-पुष्प-चन्दन दे प्रेत के लिये जौ की जगह तिल दे। फिर सव्यापसव्य विचार पूर्वक क्रमशः उत्सर्ग करके वेदी की कुशाओं पर आधा देकर शेष प्रत्यवनेजन हेतु सुरक्षित रखे :
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धपिण्डस्थाने ब्रह्मन् अत्रावने निक्ष्व ते नमः॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धपिण्डस्थाने विष्णो अत्रावने निक्ष्व ते नमः॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धपिण्डस्थाने रुद्र अत्रावने निक्ष्व ते नमः॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धपिण्डस्थाने यम अत्रावने निक्ष्व ते नमः॥
- ॐ ……… गोत्र ……… प्रेत पञ्चश्राद्धपिण्डस्थाने अत्रावने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ – अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-मोटकहस्त-तिल-जल से
तत्पश्चात प्रथम तिल-घृत-मधु मिश्रित करके देवों के पाक से चार पिण्ड बना ले और फिर प्रेतपाक से 1 पिण्ड बनाये। तत्पश्चात सव्यापसव्य विचार पूर्वक जौ, जल से क्रमशः सभी पिण्ड उत्सर्ग करके वेदी की कुशाओं पर रखे। देव पिण्ड देवतीर्थ से ही दे और प्रेत पिंड तिल-जल से उत्सर्ग करके पितृतीर्थ से दे :
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धे ब्रह्मन् एष ते पिण्डो नमः॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धे विष्णो एष ते पिण्डो नमः॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धे रुद्र एष ते पिण्डो नमः॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धे यम एष ते पिण्डो नमः॥
- ॐ ……… गोत्र ……… प्रेत पञ्चश्राद्धे एष पिण्डः ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ – अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-मोटकहस्त-तिल-जल से
देव पिण्डतलस्थ कुशाों में हाथ पोंछे, पूर्वा० सव्य हो आचमन कर “ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः” पढ़कर हरिस्मरण करे । पुनः अप० दक्षि० –
- ॐ अत्र पितर्मादयस्व यथाभाग मा वृषायस्व ॥ भास्वर मूर्ति पिता का ध्यान करते हुए उत्तर से श्वास ले।
- ॐ अमीमदत पिता यथाभाग मा वृषायिष्ट ॥ पश्चिम की ओर श्वास छोड़े।
पुनः अत्रावन (अवनेजन) के शेष जलयुक्त पुटकों को क्रमशः लेकर उत्सर्ग करे और पिंडों पर प्रदान करे :
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धपिण्डे ब्रह्मन् अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते नमः॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धपिण्डे विष्णो अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते नमः॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धपिण्डे रुद्र अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते नमः॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धपिण्डे यम अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते नमः॥
- ॐ ……… गोत्र ……… प्रेत पञ्चश्राद्धपिण्डे अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ – अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-मोटकहस्त-तिल-जल से
दाहिने कोहनी से नीवीं (डांर) ससार कर, पूर्वा० सव्य हो आचमन करे, सव्यापसव्य विचार करते हुये पिण्डों पर सूत्र देकर मौन रहते हुये अर्चन करे अर्थात पान, सुपारी, पुष्प, चन्दन, अक्षत (विष्णु पिंड पर यव), द्रव्यादि अर्पित करे और पिण्ड शेषान्न पिण्डों के समीप बिखेड़ दे।
अक्षय्योदक :- तदूत्तर पांच पूड़ा में जल, चन्दन, फूल, तिल, घी, मधु देकर अक्षय्योदक बना ले । सव्यापसव्य विचार करते हुये अगले मंत्रों से अक्षय्योदक का उत्सर्ग कर तत्तत् पिण्डों पर पूड़ा का जल दे दे :
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धपिण्डे ब्रह्मणः दत्तैतदन्नपानादिकमक्षय्यमस्तु॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धपिण्डे विष्णोः दत्तैतदन्नपानादिकमक्षय्यमस्तु॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धपिण्डे रुद्रस्य दत्तैतदन्नपानादिकमक्षय्यमस्तु॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धपिण्डे यमस्य दत्तैतदन्नपानादिकमक्षय्यमस्तु॥
- ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य पञ्चश्राद्धपिण्डे दत्तैतदन्नपानादिकमुपतिष्ठताम् ॥ – अपसव्य-दक्षिणाभिमुख-मोटकहस्त-तिल-जल से
जलधारा :- पूर्वा० सव्य हो दक्षिण की ओर देखते हुए अंजलि से प्रेतपिण्ड पर पूर्वाग्र जलधारा दे – ॐ अघोराः पितरः सन्तु ॥
आशीषप्रार्थना :- पूर्वा० प्रणाम कर दक्षिणदिशा देखते हुए पढ़े – ॐ गोत्रन्नो वर्द्धतां दातरो नोऽभिवर्द्धन्तां वेदा: सन्ततिरेव च। श्रद्धा च नो मा व्यगमद् बहु देयञ्च नो ऽअस्तु। अन्नं च नो बहु भवेत् अतिथींश्च लभेमहि। याचितारश्च नः सन्तु मा च याचिष्म कञ्चन। एताः सत्याशिषः सन्तु ॥
त्रिकुशा से पिण्डस्थ पान-पुष्पादि हटाकर त्रिकुशा को पिण्ड पर पूर्वाग्र (प्रेत-दक्षिणाग्र) करके रख दे ।
वारिधारा :- अलग-अलग पूड़ा में जल तिल, पुष्प, चंदन या दूध लेकर इस मंत्र से पिण्डस्थ त्रिकुश पर पूर्वाग्र (प्रेत-दक्षिणाग्र) धारा दे – ॐ ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिश्रुतम् । स्वधास्थ तर्पयत् मे पितॄन् ॥
जलधारा : सभी पिंडों के ऊपर कुशा रखे। एक ताम्रपात्र में जल, दुग्ध, सर्वौषधि, तिल, जौ, तुलसी, चन्दन, स्वर्ण आदि प्रक्षेप करे। शंख में जल लेकर क्रमशः सभी पिण्डों पर दे –
फिर तिल-जल से संकल्प करे : ॐ ……… गोत्रस्य ……… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धे महातृषानिवृत्यर्थ द्वाभ्यां मंत्राभ्यामेकैकाञ्जलिदानं करिष्ये॥
प्रथम पिण्ड पर –
- ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम् ॥१॥
- ॐ ब्रह्म यज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्विसीमतः सुरुचो वेनऽआवः। सबुध्न्या उपमाऽअस्य विष्ठाः सतश्च योनिमसश्च विवः॥२॥
द्वितीय पिण्ड पर –
- ॐ इषेत्वोर्ज्जे त्वावायवस्थ देवोचः सविता प्रापयतु श्रेष्ठतमायकर्मण आप्यायध्वमध्न्या इन्द्राय भागं प्रजापतिरनमीवा अयक्ष्मावस्तेन ईशत माघश ᳪ सोध्रुवा अस्मिन् गौपतौस्यातबह्वीर्यजमानस्य पशून्याहि ॥१॥
- ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् समूढ़मस्य पा ᳪ सुरे स्वाहा ॥२॥
तृतीय पिण्ड पर –
- ॐ अग्न आयाहिवीतये गृणानो हव्यदातये। निहोता सत्सि वर्हिषि ॥१॥
- ॐ नमः शम्भवाय च मयो भवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च। नमः शिवाय च शिवतराय च ॥२॥
चतुर्थ पिण्ड पर –
- ॐ शन्नोदेवीरभिष्टयआपो भवन्तु पीतये। शंय्यो रभि स्रवन्तुनः ॥१॥
- ॐ यमायत्वामखायत्वा सूर्यस्त्वा तपसे देवस्त्वा सवितामध्वाऽनक्तु पृथिव्याः । संस्पृशस्पाहि अर्चिरसिशोचिरसि तपोऽसि ॥२॥
पंचम पिण्ड पर –
- ॐ प्रेता जयता नर इन्द्रोवः शर्मयच्छतु। उग्रावः सन्तुवाहवोनाधृष्यायथासथ ॥१॥
- ॐ अक्रन्कर्म कृतः सहवाचमयो भुवा। देवेभ्यः कर्मकृत्वाऽस्तं प्रेत स चा भुवः ॥२॥
इस प्रकार अलग-अलग जल देने के बाद अपसव्य होकर एक ही साथ पाँचों पर शेष जल गिरावे और “अनादि निधनो०” इत्यादि पाँच श्लोक पढ़ता जाय :
- ॐ अनादिनिधनोदेवः शङ्खचक्रगदाधरः । अक्षय्यः पुण्डरीकाक्षः प्रेतमोक्षप्रदो भव ॥१॥
- अतसीपुष्प संकाशं पीतवाससमच्युतम् । ये नमस्यन्ति गोविन्दं न तेषां विद्यते भयम् ॥२॥
- कृष्ण कृष्ण कृपालुस्त्वमगतीनां गतिर्भव । संसारार्णवमग्नानां प्रसीद पुरुषोत्तम ॥३॥
- नारायण सुरश्रेष्ठ लक्ष्मीकान्तवरप्रद । अनेन तर्पणेनाथ प्रेतमोक्षप्रदो भव ॥४॥
- हिरण्यगर्भपुरुष व्यक्ताव्यक्तस्वरूपधृद् । अस्य प्रेतस्य मोक्षार्थं सुप्रीतो भव सर्वदा ॥५॥
तत्पश्चात ॐ …… गोत्रस्य …… प्रेतस्य नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धे उत्तमलोकप्राप्तिकामः इदमुदकमुपतिष्ठतु ॥ – पढ़े
- विनम्रभाव से पिण्डों को सूंघकर दोनों हाथों से थोड़ा उठाकर फिर रख दे ।
- पिण्डतलस्थ कुशों और अंगारभ्रमण वाली अंगार को आग में दे दे ।
- सव्य होकर देवार्घपात्रों का पूर्वाग्र हिला दे ।
- पुनः अप० दक्षि० होकर प्रेत के अधोमुखी अर्घ्यपात्र को उत्तान कर दे ।
दक्षिणा :- ॐ अद्य ……. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य कृतैतत् नारायणबलौ विहित पञ्चश्राद्धप्रतिष्ठार्थम् एतावत् द्रव्यमूल्यकं रजतं चन्द्र दैवतं ……… गोत्राय ……… शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे ॥
तीन बार गायत्री मंत्र जप करे। तीन बार देवताभ्यः मंत्र पढ़े : ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥३॥ स.पू.त्रि.
विष्णुस्मरण : ॐ यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु। न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम् ॥ प्रमादात्कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्णं स्यादितिश्रुतिः ॥ ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः हाथ-पैर धोकर पुनः पञ्चश्राद्ध करे।
॥ इति पं० दिगम्बर झा सुसम्पादितं “करुणामयीटीकाऽलंकृतं” वाजसनेयिनां नारायण बलि श्राद्ध विधिः ॥
आशा है नारायण बलि विधि आपके लिये उपयोगी सिद्ध होगा। यदि आप नारायण बलि पुस्तक pdf डाउनलोड करना चाहते हैं तो यहां क्लिक करके PDF भी डाउनलोड कर सकते हैं। यदि किसी प्रकार की त्रुटि दिखे अथवा कोई सुझाव प्रदान करना चाहें तो व्हाट्सअप पर सन्देश के माध्यम से अवश्य प्रदान करें – 7992328206
श्राद्ध कर्म और विधि से सम्बंधित महत्वपूर्ण आलेख जो श्राद्ध सीखने हेतु उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं :
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।