प्रधान पूजा विशेष रूप से की जाती है। रामार्चा बहुत विस्तृत पूजन है एवं कई भागों में है अतः भगवान राम की जितनी विस्तृत पूजा कर सकें करें, अन्य देवताओं की पंचोपचार पूजा ही करें। अन्य सभी देवताओं की षोडशोपचार पूजा करने से समय व्यतीत हो जाता है एवं भगवान राम की जो विशेष पूजा-कथा होनी चाहिये उसमें समयाभाव हो जाता है, हवन के लिये भी समयाभाव हो जाता है जबकि हवन के लिये कदापि समयाभाव नहीं होना चाहये। हवन विधि पूर्वक ही करना चाहिये क्योंकि हवन में प्रत्यक्षतः भगवान को भोजन समर्पित किया जाता है। किसी भी कर्म का वास्तविक मुख्य अंग हवन ही होता है जिसे समझने में लोग भूल करते हैं।
संपूर्ण पूजन विधि
- सर्वप्रथम ग्रंथिबंधन, पवित्रीकरण करें।
- पवित्रीकरण के बाद दिग्बन्धन करें।
- तत्पश्चात स्वस्तिवाचन करें।
- तत्पश्चात गणेशाम्बिका पूजन करें।
संकल्प मंत्र : त्रिकुशा-तिल-जल-पुष्प-चंदन-पान-सुपारी-तुलसी-द्रव्यादि लेकर संकल्प करे –
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु: श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्यैतस्य ब्रह्मणोह्नि द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविशतितमे युगे कलियुगे कलिप्रथमचणे भूर्लोके भारतवर्षे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तस्य ……….. क्षेत्रे ..……… प्रदेशे ..……… नाम्निनगरे (ग्रामे वा) श्रीगड़्गायाः ………… (उत्तरे/दक्षिणे) दिग्भागे देवब्राह्मणानां सन्निधौ श्रीमन्नृपतिवीरविक्रमादित्यसमयतः …..…… संख्या -परिमिते प्रवर्त्तमानसंवत्सरे प्रभवादिषष्ठि-संवत्सराणां मध्ये ..……… नाम संवत्सरे, ……… अयने, ……… ऋतौ, ……… मासे, ……… पक्षे, ……… तिथौ, ……… वासरे, ……… नक्षत्रे, ……… योगे, ……….… करणे,
….……… राशिस्थिते चन्द्रे, ………… राशिस्थिते श्रीसूर्ये, ………… राशिस्थिते देवगुरौ शेषेशु ग्रहेषु यथा-यथा राशिस्थान–स्थितेषु सत्सु एवं ग्रहगुणविशेषण विशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ ………… गोत्रोत्पन्नः ………… शर्मण: (वर्मण:, गुप्तः वा) सपरिवारस्य ममात्मन: श्रुतिस्मृति पुराणोक्त पुण्यफलावाप्त्यर्थं मम ऐश्वर्याभिवृद्धयर्थं अप्राप्तलक्ष्मीप्राप्त्यर्थं प्राप्त लक्ष्म्याश्चिरकाल संरक्षणार्थं सकलमन: इप्सितकामनासंसिद्धयर्थं लोके व सभायां राजद्वारे वा सर्वत्र यशोविजयलाभादि प्राप्त्यर्थं समस्तभय व्याधि जरा पीडा मृत्यु परिहारद्वारा आयुरारोग्यैश्वर्याद्यभिवृद्धर्थं
तथा च मम जन्मराशे: साकाशाद्ये केचिद्विरुद्धचतुर्थाष्टम द्वादश स्थान स्थिता: क्रूरग्रहा: तै: संसूचितं सूचयिष्यमाणञ्च यत्सर्वारिष्टं तद्विनाशद्वारा सर्वदा तृतीयैकादश स्थानस्थितवच्छुभफल प्राप्त्यर्थं पुत्रपौत्रादि सन्ततेरविच्छिन्न वृद्धयर्थम् आदित्यादिन्नवग्रहानूकूलता सिद्धर्थं इन्द्रादि-दशदिक्पाल प्रसन्नतासिद्धर्थम् आधिदैविकाधिभौतिकाध्यात्मिक त्रिविधतापोपशमनार्थं धर्मार्थकाममोक्षफलावाप्त्यर्थं श्रीसीतारामप्रीतये यथाज्ञानं यथाशक्ति सम्पादित सामग्रया कलशस्थापनपूजन पूर्वकं ततः आवरण देवता पूजन पूर्वकं श्रीसीतारामौ पूजनं श्रीरामार्चामाहात्म्य कथा श्रवणं ततः अष्टोत्तरशताहुति शाकल्य/आज्य होमं चाऽहं करिष्ये॥
आचार्य वरण (आचार्य विद्वान ब्राह्मण को ही बनाना चाहिये) : ॐ अद्यैतस्य संकल्पित श्रीरामार्चा कर्मणि आचार्य कर्म कर्तुं एभिः वरणीय द्रव्यैः ……… गोत्रं …….. शर्माणं ब्राह्मणं आचार्यत्वेन त्वामहं वृणे। ब्राह्मण कहें – वृत्तोस्मि। यजमान पुनः कहे यथाविहितं कर्म कुरु। आचार्य पुनः कहें – कर्वाणि। इसी प्रकार सहायक ब्राह्मण का भी वरण करें।
आचार्य संबंधी विशेष नियम – निकटवर्ती विद्वान ब्राह्मण को छोड़कर दूरस्थ सामान्य ब्राह्मण को ग्रहण करने में अतिक्रमण नामक दोष कहा गया है। विशेष विद्वान ब्राह्मण को आमंत्रित करने में अतिक्रमण दोष नहीं होता। एक अन्य विषय ब्राह्मणकर्म हेतु ब्राह्मण का ही वरण किया जाना चाहिये शास्त्रानुसार ब्राह्मणातिरिक्त के पास कर्मकांड संपादन के योग्य नहीं होते है।
स्वयं भगवान राम ने रावण जैसे ब्राह्मण को भी आचार्य स्वीकार किया, कभी ब्राह्मण की अवज्ञा नहीं किये फिर वही भगवान श्रीराम अपनी विशेष अर्चना में विद्वान ब्राह्मण की अवज्ञा को क्या स्वीकार कर सकते हैं। और यदि करते हैं तो शास्त्रों के बहुत सारे वचन मिथ्या हो जायेंगे।
श्रीरामार्चा में मात्र तिलक प्रकार, तुलसी की कंठी धारण के आधार पर आचार्य ग्रहण करने परम्परा प्रयुक्त होती दिखती है विद्वता के आधार पर नहीं। यहां पर यह प्रश्न अनुत्तर ही रहेगा फिर स्वयं श्रीराम ने रावण को क्यों आचार्य बनाया ? क्या रावण तुलसी कंठी धारण करने वाला ब्राह्मण था ? क्या रावण उर्ध्वपुण्ड्री था ? या रावण विद्वान था ?
ब्राह्मण वरण के पश्चात् कलश स्थापन पूजन करें।
कलश पूजनोपरांत अन्य चार कलशों पर पूर्वादि क्रम से 1. इंद्र – ॐ इन्द्राय नमः। 2. ब्रह्मा – ॐ ब्रह्मणे नमः। 3. विष्णु – ॐ विष्णवे नमः। 4. रूद्र – ॐ रुद्राय नमः। पूजा करें।
पुनः उसी क्रम से चारों कलशों पर वेदों की पूजा करें 1. ऋग्वेद – ॐ ऋग्वेदाय नमः। 2. यजुर्वेद – ॐ यजुर्वेदाय नमः। 3. सामवेद – ॐ सामवेदाय नमः। 4. अथर्ववेद – ॐ अथर्ववेदाय नमः।
यदि चार द्वार बनाये गये हों तो सभी द्वारों पर दोनों और कलश स्थापित करके उन आठों कलशों की भी यज्ञविधि से पूजा करें। तत्पश्चात यदि वास्तुवेदी बनायें तो वास्तु पूजन करके आवरण पूजा करें। यदि वास्तु पूजा न कर रहे हों तो आवरण पूजा आरंभ करें। आवरण पूजा में सबकी विशेष पूजा अनिवार्य नहीं होती पंचोपचार पूजा की जा सकती है। विशेष पूजा भगवान राम की होनी चाहिये और हवन में विधिलोप नहीं करना चाहिये।
तत्पश्चात वास्तु मंडल पूजन करें।
प्रथम चरण द्वितीय चरण तृतीय चरण चतुर्थ चरण