कर्मकांड में सर्प की पूजा का विधान मिलता है, वास्तव में सर्पभय से मुक्ति के लिये भी अनेकानेक उपाय शास्त्रों में बताये गये हैं। सर्पों से संबंधित मंत्र वेदों में भी दिये गये हैं। वेद में सर्प स्तुतिपरक ऋचाओं का समूह सर्पसूक्त कहलाता है। इसके साथ ही पौराणिक सर्पसूक्त भी है। इस आलेख में वेदोक्त और पौराणिक दोनों सर्पसूक्त दिया गया है।
इस लेख में हम सर्प सूक्त के बारे में जानेंगे साथ ही शुद्ध सर्पसूक्त भी देखेंगे। सर्पों के लिये जो स्तुति हो उसे सर्प सूक्त कहते हैं। सर्प सूक्त पाठ करने के कई लाभ भी होते हैं।
सर्प सूक्त के पाठ से होने वाले लाभ :
- सर्प सूक्त पाठ करने से सभी प्रकार के सर्प भय का निवारण होता है।
- सर्प सूक्त पाठ करने से विषवाधा की शांति होती है।
- सर्प सूक्त पाठ करने से कालसर्प योग का दोष भी शांत होता है।
- सर्प सूक्त पाठ करने से आयु की वृद्धि होती है।
- सर्प सूक्त पाठ करने से यश की वृद्धि होती है।
- सर्प सूक्त पाठ करने से बल की वृद्धि होती है।
- सर्प सूक्त पाठ करने से ऐश्वर्य की वृद्धि होती है।

सर्प सूक्त
ॐ नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिविमनु ।
ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥१॥
येऽदो रोचने दिवो ये वा सूर्यस्य रश्मिषु ।
येषामप्सूषदः कृतं तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥२॥
या इषवो यातुधानानां ये वा वनस्पती ᳪ रनु ।
ये वाऽवटेषु शेरते तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥३॥
स्वप्नस्स्वप्नाधिकरणे सर्वं निष्वापया जनम् ।
आ सूर्यमन्यांस्त्वापयाव्युषं जाग्रियामहम् ॥४॥
अजगरोनाम सर्पः सर्पिरविषो महान् ।
तस्मिन्हि सर्पस्सुधितस्तेनत्वा स्वापयामसि ॥५॥
सर्पस्सर्पो अजगरसर्पिरविषो महान् ।
तस्य सर्पात्सिन्धवस्तस्य गाधमशीमहि ॥६॥
कालिको नाम सर्पो नवनागसहस्रबलः ।
यमुनाह्रदेहसो जातो यो नारायण वाहनः ॥७॥
यदि कालिकदूतस्य यदि काः कालिकात् भयात् ।
जन्मभूमिमतिक्रान्तो निर्विषो याति कालिकः ॥८॥
आयाहीन्द्र पथिभिरीलितेभिर्यज्ञमिमन्नो भागदेयञ्जुषस्व ।
तृप्तां जुहुर्मातुलस्ये वयोषा भागस्थे पैतृष्वसेयीवपामिव ॥९॥
यशस्करं बलवन्तं प्रभुत्वं तमेव राजाधिपतिर्बभूव ।
सङ्कीर्णनागाश्वपतिर्नराणां सुमङ्गल्यं सततं दीर्घमायुः ॥१०॥
कर्कोटको नाम सर्पो योद्वष्टी विष उच्यते ।
तस्य सर्पस्य सर्पत्वं तस्मै सर्प नमोऽस्तुते ॥११॥
सर्पगायत्री – भुजङ्गेशाय विद्महे सर्पराजाय धीमहि । तन्नो नागः प्रचोदयात् ॥१२॥
सर्प सूक्त – 2
ब्रह्मलोकुषु ये सर्पाः शेषनाग पुरोगमाः।
नमोऽस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ॥१॥
इन्द्रलोकेषु ये सर्पाः वासुकि प्रमुखादयः।
नमोऽस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ॥२॥
कद्रवेयाश्च ये सर्पाः मातृभक्ति परायणा।
नमोऽस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ॥३॥
इंद्रलोकेषु ये सर्पाः तक्षका प्रमुखादयः।
नमोऽस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ॥४॥
सत्यलोकेषु ये सर्पाः वासुकिना च रक्षिता।
नमोऽस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ॥५॥
मलये चैव ये सर्पाः कर्कोटक प्रमुखादयः।
नमोऽस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ॥६॥
पृथिव्यांचैव ये सर्पाः ये साकेत वासिता।
नमोऽस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ॥७॥
सर्वग्रामेषु ये सर्पाः वसंतिषु संच्छिता।
नमोऽस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ॥८॥
ग्रामे वा यदिवारण्ये ये सर्पाः प्रचरन्ति च।
नमोऽस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ॥९॥
समुद्रतीरे ये सर्पा ये सर्पाः जलवासिनः।
नमोऽस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ॥१०॥
रसातलेषु या सर्पाः अनन्तादि महाबलाः।
नमोऽस्तुतेभ्यः सर्पेभ्यः सुप्रीताः मम सर्वदा ॥११॥
॥ इति पौराणीकम् श्रीसूक्तं समाप्तम् ॥
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