शुक्र शांति के उपाय | शुक्र शांति मंत्र : Shukra shanti ke upay 8th

शुक्र शांति विधि

शुक्र शांति

आधार : शुक्र शांति के लिये भी कर्मठगुरु में वर्णित विधि का आधार ग्रहण किया गया है।

मुहूर्त : शुक्र शांति के लिये शुक्रवार के दिन यदि ज्येष्ठा नक्षत्र प्राप्त हो तो उस दिन से नक्त व्रत का आरम्भ करना चाहिये और 7 शुक्रवार तक नक्त व्रत करना चाहिये। सातवें शुक्रवार के दिन विधिवत शुक्र शांति करनी चाहिये। प्रथम शुक्रवार को ज्येष्ठा नक्षत्र का योग शुक्र शांति के मुहूर्त का विशेष निर्धारक है। सातवें शुक्रवार को अन्य शांति मुहूर्त या अग्निवास आदि देखने की आवश्यकता नहीं होती।

नियम : प्रथम शुक्रवार से ही भूमि पर बैठकर नक्तव्रत करे।

मंत्र जप : मंत्र जप का तात्पर्य निर्बलता और अशुभता दोनों का निवारण करना है। शुक्र के लिये मंत्र जप की संख्या 11000 बताई गयी है। यदि 11000 जप करना हो तो स्वयं 7 शुक्रवार को किया जा सकता है किन्तु यदि चतुर्गुणित अर्थात 44000 जप करना हो तो 25 ब्राह्मणों की आवश्यकता होगी जो 44000 जप करेंगे। आचार्य अलग से होंगे।

शांति कब करे : जैसा की बताया जा चुका है ज्येष्ठा नक्षत्रयुक्त शुक्रवार से नक्तव्रत का आरम्भ और शुक्र की अर्चना करे। इस प्रकार से प्रत्येक शुक्रवार को करते हुये सातवें शुक्रवार को शांति करे। अथवा यदि तत्काल आवश्यक हो तो उस समय किसी भी शुक्रवार को अथवा शुक्र नक्षत्र में किया जा सकता है। उस समय अग्निवास का विचार करना अपेक्षित होगा।

शुक्र शांति विधि

पूर्वोक्त विधि से 6 शुक्रवार व्रत करके सातवें शुक्रवार को शुक्र शांति करे। शांति हेतु पूजा स्थान पर मध्य में हवन वेदी बनाये व पूर्व में शुक्र पूजा निमित्त वेदी (अष्टदल) बनाये। ईशानकोण में नवग्रह वेदी बनाये। नवग्रह वेदी के ईशान कोण में कलश स्थापन हेतु अष्टदल बना ले। शुक्र की स्वर्ण प्रतिमा वंशपात्र (डलिया आदि) में वस्त्र देकर स्थापित करे। सातवें शुक्रवार को प्रातः काल पूर्ववत नित्यकर्म संपन्न करके भगवान सूर्य को ताम्र पात्र में रक्तपुष्पाक्षतयुक्त जल से अर्घ्य देकर पूजा स्थान पर सपत्नीक आकर आसन पर बैठे :

शुक्र शांति विधि - Shukra shanti
शुक्र शांति विधि

तत्पश्चात त्रिकुशा, तिल, जल, पुष्प, चन्दन, द्रव्यादि लेकर संकल्प करे। यहां ऐसा माना जा रहा है कि जप पूर्व ही कर लिया गया होगा। यदि जप भी शांति के दिन ही करना हो तो संकल्प में जप को भी जोड़ ले। यदि जप नहीं करना हो तो जप न जोड़े।

संकल्प : ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद् भगवतो महापुरूषस्य, विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीये परार्धे श्रीश्वेत वाराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलि प्रथमचरणे भारतवर्षे भरतखण्डे जम्बूद्वीपे आर्यावर्तैक देशान्तर्गते ………… १ संवतसरे महांमागल्यप्रद मासोतमे मासे ………. २ मासे ………… ३ पक्षे ………… ४ तिथौ …………५ वासरे ………… ६ गोत्रोत्पन्नः ………… ७ शर्माऽहं (वर्माऽहं/गुप्तोऽहं) ममात्मनः श्रुति स्मृति पुराणतन्त्रोक्त फलप्राप्तयर्थं मम कलत्रादिभिः सह जन्मराशेः सकाशात् नामराशेः सकाशाद्वा जन्मलग्नात् वर्षलग्नात् गोचराद्वा चतुर्थाष्टमद्वादशाद्यनिष्ट स्थान स्थित शुक्रेण सूचितं सूचीष्यमाणं च यत् सर्वारिष्टं तद्विनाशार्थं सर्वदा तृतीयैकादश शुभस्थानस्थितवदुत्तमफल प्राप्त्यर्थं तथा दशांतरदशोपदशा जनित पीडाल्पायुरधिदैवाधिभौतिक आध्यात्मिक जनित क्लेश निवृत्ति पूर्वक दीर्घायु शरीरारोग्य लाभार्थं परमैश्वर्यादि प्राप्त्यर्थं श्रीशुक्र प्रसन्नतार्थं च शुक्रशांति करिष्ये ॥

(१ संवत्सर का नाम, २ महीने का नाम, ३ पक्ष का नाम, ४ तिथि का नाम, ५ दिन का नाम, ६ अपने गोत्र का नाम, ७ ब्राह्मण शर्माऽहं, क्षत्रिय वर्माऽहं, वैश्य गुप्तोऽहं कहें)

  • तत्पश्चात पुण्याहवाचन करे।
  • फिर आचार्यादि वरण करके दिग्रक्षण करे।
  • फिर हवन विधि के अनुसार पञ्चभूसंस्कार पूर्वक अग्निस्थापन करे।

अग्नि स्थापन विधि

  1. परिसमूह्य : ३ कुशाओं से स्थण्डिल या हस्तमात्र भूमि की सफाई करें। कुशाओं को ईशानकोण में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे । 
  2. उल्लेपन : गोबर से ३ बार लीपे।
  3. उल्लिख्य – स्फय या स्रुवमूल से प्रादेशमात्र पूर्वाग्र दक्षिण से उत्तर क्रम में ३ रेखा उल्लिखित करे।
  4. उद्धृत्य – दक्षिणहस्त अनामिका व अंगुष्ठ से सभी रेखाओं से थोड़ा-थोड़ा मिट्टी लेकर ईशान में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे।
  5. अग्नानयन व क्रव्यदांश त्याग – कांस्यपात्र या हस्तनिर्मित मृण्मयपात्र में अन्य पात्र से ढंकी हुई अग्नि मंगाकर अग्निकोण में रखवाए । ऊपर का पात्र हटाकर थोड़ी सी क्रव्यदांश अग्नि (ज्वलतृण) लेकर नैर्ऋत्यकोण में त्याग कर जल से बुझा दे ।
  6. अग्निस्थापन – दोनों हाथों से आत्माभिमुख अग्नि को स्थापित करे :- ॐ अग्निं दूतं पुरोदधे हव्यवाहमुपब्रुवे । देवां२ आसादयादिह ॥ अग्नानयन पात्र में अक्षत-जल छिरके।
  7. अग्निपूजन-उपस्थान – अग्नि को प्रज्वलित कर पूजा करे, नैवेद्य वायव्यकोण में देकर स्तुति करे : ॐ अग्निं प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनं। हिरण्यवर्णममलं समृद्धं विश्वतोमुखं ॥

अग्नि स्थापन करने के बाद अग्नि रक्षणार्थ पर्याप्त ईंधन देकर आगे का पूजन कर्म करे।

  • फिर नवग्रह मंडल स्थापन-पूजन करे।
  • फिर नवग्रह मंडल के ईशान में अष्टदल बनाकर कलश स्थापन पूजन करे।
  • हवन वेदी के पूर्व में अन्य वेदी पर अष्टदल बनाकर, चावल के पुञ्ज पर रजत  कलश स्थापन करे पूर्णपात्र हेतु रजत का प्रयोग करे।
  • फिर शुक्र की सुवर्ण प्रतिमा का अग्न्युत्तारण करके वंशपात्र (डलिया आदि) में वस्त्र देकर रखे ।
  • उन्हें युगल श्वेत चंदन, श्वेतकमल (अभाव में श्वेत पुष्प), श्वेत वस्त्र, पायस आदि से युक्त करके फिर षोडशोपचार पूजन करे।
  • तत्पश्चात ब्रह्मावरण करके आगे का हवन कर्म करे। यदि जप किया गया हो तो जप का दशांश होम करे, अन्यथा अष्टोत्तरशत अथवा अष्टोत्तरसहस्र करे। हवन द्रव्य : दधि-मधु, घृताक्त गुल्लर समिधा, शाकल्य सहित।
  • आरती आदि करके रजत कलश में गोरोचन, कस्तूरी, शतपुष्पी, शतावरी दे।
  • फिर रजतकलश के जल से आचार्य यजमान का अभिषेक करें।
  • फिर ग्रहस्नान करके शुक्र प्रतिमा, चित्रित वस्त्र, श्वेताश्व, गो, वज्र (हीरा), मणि, सुवर्ण, रजत, तंडुल आचार्य को प्रदान करे।
  • दान मंत्र : ॐ भार्गवो भर्गः शुक्रश्च श्रुतिस्मृतिविशारदः। हित्वा ग्रहकृतान् दोषान् आयुरारोग्यदोऽस्तु सः ॥

शुक्र मंत्र जप विधि

विनियोग : अन्नात्परिस्रुतेति मंत्रस्य प्रजापति ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः शुक्रो देवता शुक्र प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः॥

न्यास विधि :

देहन्यास : ॐ अन्नात्परिस्रुतः शिरसि ॥ रसं ब्रह्मणा ललाटे ॥ व्यपिबत्क्षत्रं मुखे ॥ पयः सोमं हृदये ॥ प्रजापतिः नाभौ ॥ ऋतेन सत्यं कट्यां ॥ इन्द्रियं विपान ᳪ गुदे ॥ शुक्रं वृषणे ॥ अन्धस ऊर्वोः॥ इन्द्रस्येन्द्रियं जानुनोः ॥ इदं पयः गुल्फयोः ॥ अमृतं मधु पादयोः॥

करन्यास : अन्नात्परिस्रुतो रसं अंगुष्ठाभ्यां नमः ॥ ब्रह्मणा व्यपिबत्क्षत्रं तर्जनीभ्यां नमः ॥ पयः सोमं प्रजापतिः मध्यमाभ्यां नमः ॥ ऋतेन सत्यमिन्द्रियं अनामिकाभ्यां नमः ॥ विपान ᳪ शुक्रमन्धस कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥ इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः ॥

हृदयादिन्यास : अन्नात्परिस्रुतो रसं हृदयाय नमः ॥ ब्रह्मणा व्यपिबत्क्षत्रं शिरसे स्वाहा ॥ पयः सोमं प्रजापतिः शिखायै वषट् ॥ ऋतेन सत्यमिन्द्रियं कवचाय हुँ ॥ विपान ᳪ शुक्रमन्धस नेत्रत्रयाय वौषट् ॥ इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु अस्त्राय फट् ॥

ध्यान :

श्वेताम्बरः श्वेतवपुः किरीटी चतुर्भुजो दैत्यगुरुः प्रशान्तः ।
तथाक्षऽसूत्रं च कमण्डलुञ्च दण्डञ्च बिभ्रद्वरदोऽस्तु मह्यं॥

मंत्र : ॐ अन्नात्परिस्रुतो रसं ब्रह्मणा व्यपिबत्क्षत्रं पयः सोमं प्रजापतिः । ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपान ᳪ शुक्रमन्धस इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु ॥

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