सूर्य शांति विधि
पूर्व आलेख में नवग्रह शांति विधि दिया गया था, नवग्रह शांति विधि में सभी ग्रहों की शांति विधि है जिसकी पद्धति वर्णित है। किन्तु ग्रहों के पृथक-पृथक शांति की पद्धति अभी प्राप्य नहीं है। प्राप्य नहीं है का तात्पर्य यह नहीं लेना चाहिये कि ग्रंथों में वर्णित नहीं है, अपितु यह लेना चाहिये कि जिस किसी ग्रन्थ में वर्णित होगा वर्त्तमान तक उसका अध्ययन नहीं किया जा सका है। यदि किन्हीं विद्वान के पास पृथक-पृथक ग्रह शांति विधि उपलब्ध हो तो प्रदान करने की कृपा अवश्य करें।
वर्तमान में किसी भी ग्रह शांति का तात्पर्य यही समझा जाता है कि उस ग्रह के मंत्र का निर्दिष्ट संख्या में जप करके हवन, सामग्री दान, रत्नादि धारण करना आदि। किन्तु ग्रह शांति की विशेष विधि है और जो-जो ग्रह अनिष्टकारक हो उसके बारे में ज्योतिषी से जानकारी लेकर यथासमय उपर्युक्त मुहूर्त प्राप्त होने पर तत्तत् ग्रह की शांति कर लेना चाहिये।
रत्नादि धारण करने का तात्पर्य ग्रह शांति नहीं होता है प्रत्येक ग्रहों के लिये उसके मंत्रों के जप की एक विशेष संख्या कही गयी है। निर्दिष्ट संख्या में यजमान स्वयं भी जप कर सकता है अथवा ब्राह्मणों द्वारा भी कराया जा सकता है। सूर्य शांति के लिये 7000 जप संख्या बताई गयी है और कलयुग में जप संख्या चतुर्गुणित करने का विधान है इस प्रकार 28000 जप सिद्ध होता है।
एक ब्राह्मण सूर्य के वैदिक मंत्र का एक दिन में 4100 – 5100 जप किया जा सकता है। हम प्रतिदिन 4500 जप संख्या मानकर विचार करेंगे, किन्तु यदि एक दिन में ही सम्पूर्ण करना हो तो 2500 से ही विचार किया जायेगा। 2500 जप संख्या के अनुसार 11 जापक ब्राह्मण होंगे एवं आचार्य सहित 12 ब्राह्मण। किन्तु यदि एक ब्राह्मण ही जप करें तो 5 दिन लगेंगे।
यहां जो विधि दी जा रही है उसमें शांतिक कर्म विधि का अनुसरण किया गया है व एक दिन में 12 ब्राह्मणों द्वारा शांति करने के अनुसार दिया गया है। यदि एक ब्राह्मण 8 दिन में करें तो तदनुसार विधि करें, अर्थात पहले 7 दिन जप करके आठवें दिन हवन आदि करें।

मुहूर्त : सूर्य शांति के लिये सूर्य के अनुसार दिन आदि का निर्धारण करना चाहिये। आगे सूर्य के वार, तिथ्यादि दिये जा रहे हैं। किन्तु प्रत्येक की प्राप्ति संभव नहीं होती। अतः रविवार के दिन शुभ तिथि और शुभ नक्षत्र प्राप्त होने पर शांति करनी चाहिये। हस्त नक्षत्र युक्त रविवार से आरम्भ करके अगले 7 दिन (अर्थात 7 रविवार) नक्तव्रत करने की विशेष विधि प्राप्त होती है। इस विधि से नक्तव्रत करते हुये सातवें रविवार को शांति करनी चाहिये।
- दिन : रविवार
- तिथि : सप्तमी
- नक्षत्र : कृत्तिका, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़
- राशि : सिंह
शांति विधि क्या होती है : शांति विधि में सामान्य रूप से मध्य में हवन वेदी, पूर्व में प्रधानवेदी और 5 कलश, ईशान कोण में नवग्रह वेदी स्थापन किया जाता है। नित्यकर्म के उपरांत पवित्रीकरण, स्वस्तिवाचन, गणेशाम्बिका पूजन, संकल्प, वरण, पञ्चगव्य प्रयोग, रक्षाविधान/भूतोत्सारण, वरुण कलश स्थापन पूजन, पुण्याहवाचन, अग्निस्थापन, पञ्च कलश पूजन व प्रधान पूजा, नवग्रह पूजन, नवग्रह वेदी के ईशान कोण में कलश स्थापन, ब्रह्मा वरण से आगे का हवन कर्म, दान, सचैल स्नान, अभिषेक, विसर्जन, दक्षिणा आदि किया जाता है। पद्धति भेद से कुछ विधियों के क्रम में अंतर भी देखा जाता है।
हस्तनक्षत्रयुक्त रविवार से 7 रविवार तक नक्त व्रत करने की विधि मदनरत्न से प्राप्त होती है ऐसा कर्मठगुरु में वर्णित है। इस विधि के अनुसार हस्तनक्षत्र युक्त रविवार से आरम्भ कर प्रत्येक रविवार को प्रातः काल रक्तपुष्पाक्षत युक्त जल का अर्घ्य देकर भक्तिभाव से सूर्य की अराधना करे। मंत्र जप, स्तोत्रादि पाठ करे।
यदि तत्काल करना आवश्यक हो तो हस्तनक्षत्रयुक्त रविवार की प्रतीक्षा के बिना भी करना चाहिये तथापि यदि तत्काल अपरिहार्य न हो तो हस्तनक्षत्रयुक्त रविवार को ही ग्रहण करे। तत्काल करना आवश्यक हो तो 7 दिनों में प्रतिदिन 4 हजार जप करने से 28000 जप संख्या की पूर्ति हो जाएगी। अर्थात यदि स्वयं जप करना हो तो करे अथवा ब्राह्मण से कराये। यदि 7 रविवार व्रत करना हो तो प्रत्येक रविवार को जप करना अनिवार्य नहीं है, सातवें रविवार को भी 12 ब्राह्मण रखकर किया जा सकता है। ये सुविधा के अनुसार ग्रहण करना चाहिये। किन्तु 7 रविवार का व्रत करना आवश्यक है।
अग्निवास : इस विधि से यदि सूर्य ग्रहशांति की जाय तो हवन हेतु अग्निवास की आवश्यकता नहीं होगी। वो इसलिये कि सातवें रविवार को ही शांति करनी है। शांति विधि से पूर्व जप विधि दी जा रही है।
सूर्य मंत्र जप विधि
विनियोग : ॐ आकृष्णेति मंत्रस्य हिरण्यस्तूपाङ्गिरा ऋषिस्त्रिष्टुप्छन्दः सूर्यो देवता सूर्य प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः॥
न्यास विधि :
देहन्यास : आकृष्णेन शिरसि ॥ रजसा ललाटे ॥ वर्त्तमानो मुखे ॥ निवेशयन् हृदये ॥ अमृतं नाभौ ॥ मर्त्यं च कट्यां ॥ हिरण्ययेन सविता उर्व्वोः ॥ रथेना जान्वोः ॥ देवो याति जंघयोः ॥ भुवनानि पश्यन् पादयोः ॥
करन्यास : आकृष्णेन रजसा अंगुष्ठाभ्यां नमः ॥ वर्त्तमानो निवेशयन् तर्जनीभ्यां नमः ॥ अमृतं मर्त्यं च मध्यमाभ्यां नमः ॥ हिरण्ययेन अनामिकाभ्यां नमः ॥ सविता रथेना कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥ देवो याति भुवनानि पश्यन् करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः ॥
हृदयादिन्यास : आकृष्णेन रजसा हृदयाय नमः ॥ वर्त्तमानो निवेशयन् शिरसे स्वाहा ॥ अमृतं मर्त्यं च शिखायै वषट् ॥ हिरण्ययेन कवचाय हुँ ॥ सविता रथेना नेत्रत्रयाय वौषट् ॥ देवो याति भुवनानि पश्यन् अस्त्राय फट् ॥
ध्यान :
पद्मासनः पद्मकरो द्विबाहुः पद्मद्युतिः सप्ततुरङ्गवाहनः।
दिवाकरो लोकगुरुः किरीटी मयि प्रसादं विदधातु देवः ॥
मंत्र : ॐ आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मर्त्यं च । हिरण्येन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥
सूर्य प्रार्थना मंत्र : ग्रहाणामादिरादित्यो लोकलक्षण कारक:। विषम स्थान संभूतां पीड़ां दहतु मे रविः ॥