षोडश संस्कारों में से कई संस्कार व्यवहार में प्रचलन से बाहर हो गये हैं तथापि कुछ संस्कार हैं जो संस्कार की विधि से करें या स्वछंद व्यवहार करें परन्तु नाममात्र के लिये प्रचलित अवश्य हैं जैसे उपनयन, विवाह। द्विजत्व सिद्धि हेतु उपनयन संस्कार की शास्त्रों में अनिवार्यता सिद्ध होती है। उपनयन संस्कार होने के बाद ही वेदाध्ययन और यज्ञ का अधिकार प्राप्त होता है। इस आलेख में उपनयन के विषय में विस्तृत चर्चा की गयी है, जिसमें शास्त्रोक्त प्रमाणों को भी समाहित किया गया है जिससे प्रामाणिकता की सिद्धि होती है।
क्या आप उपनयन संस्कार के इन महत्वपूर्ण तथ्यों को जानते हैं ? – upnayan sanskar
शास्त्रों द्वारा गुण और कर्म के आधार पर मनुष्य को चार वर्गों में विभाजित किया गया है। ये विभाजन शास्त्रों के प्रमाण से होता है परन्तु विभाजक स्वयं भगवान ही हैं और इसीलिये श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण का कथन है : चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्॥ वेद की भी ऋचा है : ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद्बाहू राजन्यः कृतः । ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽअजायत ॥ – अर्थात भगवान के मुख से ब्राह्मण, बाहु से क्षत्रीय, जानू से वैश्य और पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई।
उपरोक्त चारों वर्णों में प्रथम तीन अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को द्विज भी कहा जाता है। द्विज का तात्पर्य दुबारा जन्म लेने वाला होता है। अर्थात उपनयन के द्वारा इन तीनों वर्णों का नया जीवन आरम्भ होता है जिसमें गायत्री, वेद, यज्ञ आदि का अधिकार प्राप्त होता है। उपनयन होने के बाद ही उपनीत को श्रौत और स्मार्त कर्म का अधिकार प्राप्त होता है।
जीवन को चार आश्रमों में भी बांटा गया है – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। चारों आश्रमों में प्रथम आश्रम ब्रह्मचर्याश्रम का आरम्भ उपनयन से ही होता है। उपनयन होने के बाद ही उपनीत ब्रह्मचारी संज्ञक होता है। तत्पश्चात वेदाध्ययन करके समावर्तन से ब्रह्मचर्याश्रम का त्याग होता है एवं विवाह होने पर गृहस्थाश्रम का आरम्भ होता है।
उपनयन संस्कार क्या है – upnayan sanskar kya hai
उपनयन का अर्थ : उपनयन शब्द में उप का अर्थ निकट या पास होता है और नयन का अर्थ ले जाना होता है। अर्थात उपनयन का अर्थ होता है पास ले जाना। अब आगे प्रश्न उत्पन्न होता है कि किसके पास ले जाना, क्यों ले जाना, कैसे ले जाना इत्यादि ? प्रथमतः तो गुरु के पास ले जाना ज्ञान प्राप्ति हेतु, कैसे ले जाये का कोई उत्तर प्राप्त नहीं होता।
किन्तु यदि यही सही अर्थ हो तो उसका उपनयन कैसे होगा जो गुरु का ही पुत्र हो अर्थात गुरु के पास ही हो, उसे कौन ले जायेगा ? अर्थात यदि उपरोक्त अर्थ को ही स्वीकार किया जाय तो जो गुरु का पुत्र हो उसे उपनयन की आवश्यकता सिद्ध नहीं होगी क्योंकि वह तो गुरुपुत्र होने के कारण गुरु के निकट ही है। अर्थात जो अर्थ सामान्य रूप से बताये समझाये जाते हैं वो सिद्ध नहीं होते।
उपनयन का उपरोक्त अर्थ जो सर्वत्र बताया जाता है एक अन्य विधि से भी खण्डित होता है। यदि मात्र गुरु के निकट ले जाना उपनयन है तो संस्कार की जो विधि है वह पूर्व ही कर्तव्य होगा किन्तु संस्कार गुरु के निकट जाने के उपरान्त होता है अतः उपरोक्त अर्थ पुनः खण्डित हो जाता है।