द्वारपूजा (द्वारलगी – द्वरलगी – दुअरलग्गी)
- द्वारोपस्थित वर को सुवासिनी स्त्रियां मङ्गलगान करते हुये दधि कुंकुम का तिलक लगाये।
- सजाई हुई आरती थाली में घी का चौमुख दीप जलाकर वर की आरती करें।
- फिर देशाचार की विधियां संपन्न करे।
तत्पश्चात मंच आदि पर ले जाकर पूजन हेतु आगे कि क्रियायें करे। ब्राह्मण स्वस्तिवाचन, मंगलाष्टक आदि का पाठ करें।
मङ्गलाष्टक
हेरम्बः सुरपूजितो गुणमयो लम्बोदरः श्रीयुतः
श्रीशुण्डो गजकर्णको गजमुखो गम्भीरविद्यागुणी ।
गौर्याः पुत्रगणेश्वरो हरसुतो गोविन्दपूजाकृतो
यात्राजन्म-विवाहकार्यसमये कुर्यात्सदा मङ्गलम् ॥१॥
श्रीमत्पङ्कजविष्टरो हरिहरौ वायुर्महेन्द्रोऽनल–
श्चन्द्रो भास्करवित्तपालवरुण-प्रेताधिपो नैर्ऋतिः ।
प्रद्युम्नो नलकूबरः सुरगजश्चिन्तामणिः कौस्तुभः
स्वामी शक्तिधरश्च लाङ्गलधरः कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥२॥
गङ्गागोमति-गोपतिर्गणपति-गोविन्दगोवर्धनो
गीता-गोमय-गौरिजो-गिरिसुता–गङ्गाधरो गौतमः ।
गायत्री गरुडो गदाधरगया गम्भीरगोदावरी
गन्धर्वग्रहगोपगोकुलगणाः कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥३॥
नेत्राणां त्रितयं शिवं पशुपतिमग्नित्रयं पावनं
यत्तद्विष्णुपदत्रयं त्रिभुवनं ख्यातं च रामत्रयम् ।
गंगावाहपथत्रयं सुविमलं वेदत्रयं ब्राह्मणं
सन्ध्यानां त्रितयं द्विजैरपि युतं कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥४॥
बाल्मीकिः सनकः सनन्दनमुनिर्व्यासो वसिष्ठो भृगु–
र्जाबालिर्जमदग्निरामजनका गर्गागिरोगौतमाः ।
मान्धाता भरतो नृपश्च सगरो जन्यो दिलोपो नृपः
पुण्यो धर्मसुतो ययाति-नहुषः कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥५॥
गौरी श्रीरदितिः सपर्णजननी कद्रुमहेन्द्रप्रिया
सावित्री च सरस्वती च सुरभिः सत्यव्रताऽरुन्धती ।
सत्या जाम्बवती च रुक्मभगिनी स्वाहा पितॄणां प्रिया
वेला चाम्बुनिधेः समीनमकराः कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥६॥
शेषस्तक्षककालकूटकुमुदाः पद्मा तथा वासुकि-
र्यः कर्कोटकशङ्खपद्मक इति ख्याताश्च ये पन्नगाः ।
अन्ये काननगह्वरेषु जलधौ ये चान्तरिक्षस्थिता–
स्ते प्रातः स्मरणेन च प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥७॥
गङ्गा सिन्धु सरस्वती च यमुना गोदावरी नर्मदा
कावेरी सरयू महेन्द्रतनया चर्मण्वती वेणिका ।
क्षिप्रा वेत्रवती महासरनदी ख्याता गया गण्डकी
पूर्णाःपूर्णजलैः समुद्रसहिताः कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥८॥
लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुरा धन्वन्तरिश्चन्द्रमाः
गावः कामदुघाः सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवाङ्गनाः ।
अश्वः सप्तमुखस्तथा हरिधनुः शङ्खो विषश्चामृतं
रत्नानीह चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥९॥
ब्रह्मज्ञानरसायनं श्रुतिकथा सद्वैद्यकं ज्योतिषं
व्याकरणं च धनुर्धरं जलतरं मन्त्राक्षरं वैदिकम् ।
कोकं वाहनवाजिनं नटनृतं सम्बोधनं चातुरी
विद्यानाम चतुर्दशप्रतिदिनं कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥१०॥
ब्रह्मा वेदपतिः शिवः पशुपतिः सूर्यो ग्रहाणां पतिः
शुक्रो देवपतिर्नलो नरपतिः स्कन्दश्च सेनापतिः ।
विष्णुर्यज्ञपतिर्यमः पितृपतिस्तारापतिश्चन्द्रमाः
इत्येते पतयः सुपर्णसहिताः कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥११॥
अश्वत्थो वटचन्दनौ सुरतरुर्मन्दारकल्पद्रुमौ
जम्बू-निम्ब–कदम्ब चूतसरला वृक्षाश्च ये क्षीरिणः ।
स्वर्गे ये पारिजातकसुरा वैभाजिते राजिते
रम्ये चैत्ररथे च नन्दनवने कुर्वन्तु नो मङ्गलम् ॥१२॥
कुल परिचय (धूआ-पानी)
धूआ-पानी क्या है : धूआ का अर्थ सुनिश्चित, निर्धारित बिंदु होता है जो विवाह काल में मूल-गोत्र आदि का भाव ग्रहण करता है। जैसे कबड्डी के खेल में बीच में जो रेखा रहती है उसे धूआ कहा जाता है, जिसके दोनों ओर दोनों पक्ष होते हैं और खेल में धूआ का निश्चय और ज्ञान अपेक्षित होता है। पानी का भाव रहन-सहन-भाषा-व्यवहार अर्थात परिचयात्मक भी होता है। विवाह में धूआ-पानी का अर्थ दोनों पक्षों के गोत्र/प्रवर सहित कुल-परम्परा आदि का परस्पर परिचय का आदान-प्रदान करना होता है।
व्यवहार में विद्वान ब्राह्मणों को यदि आमंत्रित न किया गया हो तो यह विधि विकृत रूप में देखी जाती है। कुलीनता का परिचय तो दूर मंच पर जयमाला आदि करते हुये अमर्यादित और निंदित परम्परा का भी आरम्भ किया गया है।
ये अकुलीन, म्लेच्छान्नभक्षी नट-नर्तकों को आदर्श स्थापित करने के कारण मात्र नहीं, ससमय अर्थात बाल्यकाल से ही सदाचार, कुलीनता आदि की शिक्षा नहीं देने और उन स्कूलों में जहां सनातनद्रोही टीचर (गुरु/शिक्षक नहीं) होते हैं पढ़ने के लिये वहां भेजना है। अर्थात उस बच्चे का भी दोष नहीं है वास्तविक दोषी अभिभावक ही हैं जो उचित शिक्षा नहीं देते। और तत्पश्चात भुक्तभोगी भी बनते हैं जब वही बच्चा अमर्यादित आचरण करने वाला स्वेच्छाचार करने लगता है।
अभी भी समय है, जब जागो तभी सबेरा का आश्रय लेते हुये विवाह काल से पूर्व ही बच्चे को उचित सदाचार सिखाते हुये सविधि विवाह करने के लिये अर्थात संस्कारित होने के लिये प्रेरित करें।
जब तक कन्या का पिता परस्पर अवलोकन करने की आज्ञा न दे दे तब तक एक-दूसरे से कैसे मिल सकते हैं। जयमाला यदि करना भी हो तो विवाह काल में कन्यादान के समय जब परस्पर अवलोकन करने के लिये कहा जाता है उस समय करें। और मञ्च पर दोनों पक्ष स्वयं की कुलीनता प्रकट करें न कि …….
धूआ-पानी हेतु दोनों पक्षों के विद्वान ब्राह्मणों की उपस्थिति आवश्यक होती है। यहां धूआ-पानी की विस्तृत विधि दी गयी है । धूआ-पानी हेतु लोकाचार विधि यथा वस्त्र से ढंके हुये हांडी, तलवार आदि के साथ कोई पुरुष मध्य में खड़ा रहे। उच्चासनों पर वर पक्ष के आचार्य पूर्वाभिमुख बैठें, कन्यापक्ष के आचार्य पश्चिमाभिमुख बैठें, एवं परस्पर एक-दूसरे से परिचय का आदान-प्रदान करते गोत्र/प्रवर/सापिण्ड्यादि विचार करके विवाह की सम्मति प्रदान करें :
कन्यापक्ष के आचार्य मङ्गलाचार पूर्वक वरपक्ष के आचार्य से गोत्र-प्रवरादि पूछें, यदि यजमान का शाखा, वेद ज्ञात न हो तो कुलपुरोहित का ग्रहण करे –
अविरलमदधाराधौतकुम्भः शरण्यः फणिवरवृतगात्रः सिद्धसाध्यादिवन्द्यः ।
त्रिभुवन जन विघ्न ध्वान्त विध्वंसदक्षो वितरतु गजवक्त्रः संततं मंगलं वः ॥
किम् गोत्रस्य किम् प्रवरस्य किम् शाखिनः किम् वेदाध्यायिनः किम् शर्मणः प्रपौत्राय, किम् शर्म्मणः पौत्राय, किम् शर्म्मणः पुत्राय आयुष्मते कन्यार्थिने विष्णुस्वरूपिणे वराय ॥