विवाह पद्धति | विवाह विधि और मंत्र | जयमाला विधि सहित – वाजसनेयी – vivah vidhi

विवाह पद्धति | विवाह विधि और मंत्र | जयमाला विधि सहित – वाजसनेयी – vivah vidhi

लाजाहोम

फिर उसी प्रकार अग्नि के चारों ओर प्रदक्षिणा करे, थोड़ा-बहुत गिरे तो गिरे किन्तु जान-बुझ कर न गिराये, एक पूरी प्रदक्षिणा करके पुनः पश्चिम भाग में खड़ा होकर अगले तीन मंत्रों से तीन बार में अञ्जलि का लाजा अग्नि में दे :

  1. एक तिहाई अग्नि में दे – ॐ अर्यमणं देवं कन्या अग्निमयक्षत । स नो अर्यमा देवः प्रेतो मुञ्चतु मा पतेः स्वाहा । इदमर्यमणे ॥
  2. पुनः एक तिहाई अग्नि में दे – ॐ इयं नार्युपब्रूते लाजानावपन्तिका । आयुष्मानस्तु मे पतिरेधन्तां ज्ञातयो मम स्वाहा। इदमग्नये ॥
  3. शेष तिहाई भाग भी अग्नि में दे दे – ॐ इमांल्लाजानावपाम्यग्नौ समृद्धिकरणं तव। मम तुभ्यं च संवननं तदग्निरनुमन्यतामिय ᳪ स्वाहा। इदमग्नये ॥

फिर वर अपने दाहिने हाथ से वधू के पांचों अंगुलियों सहित हाथ को पकड़ कर अगली ऋचायें पढ़े : ॐ गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथा सः । भगो अर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यं त्वाऽदुर्गाहपत्याय देवाः ॥ ॐ अमोऽहमस्मि मात्व ᳪ मात्वमस्यमो ऽअहम् । सामाहमस्मि ऋक् त्वं द्यौरहं पृथिवी त्वम् ॥ तावेहि विवहावहै सहरेतो दधावहै। प्रजां प्रजनयावहै पुत्रान् विन्दावहै बहून् ते सन्तु जरदष्टयः संप्रियौ रोचिष्णू सुमनस्यमानौ। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत ᳪ शृणुयाम शरदः शतम् ॥

  1. फिर वर दाहिने हाथ से वधू का दाहिना पैर पकड़कर अगला मंत्र पढ़ते हुये फिर अग्नि के उत्तर दिशा में पूर्व रखे हुये पत्थर पर रखे : ॐ आरोहे ममश्मानमश्मेव त्व ᳪ स्थिराभव । अभितिष्ठ पृतन्यतोऽववाधस्व पृतनायनः
  2. पत्थर पर वधू पैर रखे रहे और वर ये मंत्र पढ़े : ॐ सरस्वति प्रेदमव सुभगे वाजिनीवति यान्त्वा विश्वस्य भूतस्य प्रजायामस्याग्रतः । यस्यां भूत ᳪ समभवद्यस्यां विश्वमिदं जगत्। तामद्य गाथां गास्यामि या स्त्रीणामुत्तमं यशः ॥
  3. पुनः वधू को आगे करके वर के अञ्जलि में वधु की अञ्जलि रखे, भ्राता पूर्ववत शमीपत्र-घृतमिश्रित लाजा वधू के अञ्जलि में दे और अगला मंत्र पढ़ते हुये अग्नि की प्रदक्षिणा करे। प्रदक्षिणा करते समय प्रणीता और ब्रह्मा के मध्य न जाये अर्थात प्रणीता और ब्रह्मा सहित अग्नि की प्रदक्षिणा करे : ॐ तुभ्यमग्ने पर्यवहन्त्सूर्यां वहतुना सह । पुनः पतिभ्यो जायां दाग्ने प्रजया सह ॥
  • उपरोक्त सभी क्रियायें 3-3 बार करने के बाद चतुर्थ बार भ्राता शूर्प के कोने वाले भाग से अग्नि के पश्चिम भाग में खड़े वर-वधू के अञ्जलि में सभी लाजा दे, इस समय बिना प्रदक्षिणा किये सभी लाजा एक बार में ही होम कर दे – ॐ भगाय स्वाहा। इदं भगाय ॥
  • तत्पश्चात बिना किसी मंत्र के एक प्रदक्षिणा और करे (कुल चार प्रदक्षिणा), पुनः अग्नि के पश्चिम भाग में वर-वधू पूर्ववत आसन पर बैठे।
  • ब्रह्मणान्वारब्ध (कुशा द्वारा ब्रह्मा से संपर्क) करके मानसिक रूप से अर्थात मंत्र को बिना पढ़े एक आज्याहुति दे : ॐ प्रजापतये स्वाहा । इदं प्रजापतये ॥ हुतशेष प्रोक्षणी में प्रक्षेप करे।

सप्तपदी

फिर अग्नि के उत्तर दिशा में सप्तपदी हेतु पिष्ट, आटा, हरिद्रादि का आलेपन करते हुये सात घर वाला एहिपन बना ले। कई बार पूर्वाग्र अथवा प्रदक्षिण क्रम से किया जाता है और कुछ लोगों ने तो सप्तपदी को अग्नि की सात प्रदक्षिणा (फेरा) बना दिया। सातों घर उत्तराग्र हो अर्थात पहले घर से उत्तर भाग में दूसरा घर हो। साथ ही प्रत्येक घर इतना बड़ा हो कि वर-वधु दोनों का एक-एक पैर उस घर में समा सके ।

कुछ लोग चार अंगुल मात्र भी नहीं बनाते अंगुष्ठ मात्र वर के हाथ से रखवाते हैं। सप्तपदी में वर-वधू दोनों को सात वाक्य बोलते हुये सात पद चलना होता है, सप्तपदी में पैर पकड़ने की आवश्यकता नहीं होती है। सात पद चलने का क्रम यह होता है कि दाहिना पैर क्रमशः सातों मंत्रों से एक-एक घर में रखे, किन्तु बांया पैर सदा पीछे ही रहे, एक बार भी आगे न हो। ऐसा भी पाया जाता है कि केवल वधू के दाहिने पैर को रखवाये और वर खड़े-खड़े प्रत्येक पद के साथ ऋचा पढ़े।

स्थानाभाव के कारण भी घर छोटा बनाना पड़ता है इसलिये इसका विचार मण्डप बनाते समय ही करे कि उत्तर दिशा में स्थानाभाव न हो। मण्डप न ही दक्षिण, न ही पूर्व, न ही उत्तर में बनाये मंडप मध्य में बनाये। मंडप के पश्चिम कौतुकागार (कोहबर) और उत्तर या ईशान में वेदी। प्राचीन पद्धतियों में मात्र ऋचायें ही कही गई हैं किन्तु नये पद्धतियों में प्रत्येक पद के लिये कुछ श्लोक भी दिये जाने लगे हैं। यहां प्राचीन पद्धति का ही अनुकरण किया गया है। अगली ऋचाओं से क्रमशः सप्तपदी करे :

  1. प्रथम पद : ॐ एकमिषे विष्णुस्त्वा नयतु ॥
  2. द्वितीय पद : ॐ द्वे ऊर्जे विष्णुस्त्वा नयतु ॥
  3. तृतीय पद : ॐ त्रीणि रायस्पोषाय विष्णुस्त्वा नयतु ॥
  4. चतुर्थ पद : ॐ चत्वारि मायोभुवाय विष्णुस्त्वा नयतु ॥
  5. पञ्चम पद : ॐ पञ्चपशुभ्यो विष्णुस्त्वा नयतु ॥
  6. षष्ठ पद : ॐ षड्ऋतुभ्यो विष्णुस्त्वा नयतु ॥
  7. सप्तम पद : ॐ सखे सप्तपदा भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वा नयतु ॥

वधू अभिषेक

सप्तपदी के उपरान्त पुनः वर-वधु अग्नि के पश्चिम भाग में यथावत बैठे। पूर्व में कलशधारित पुरुष से वर कलश ले ले फिर आम्रपल्लव (दूर्वा/कुशा) द्वारा कलश जल से वधू के को अभिषिक्त करे :

  1. ॐ आपः शिवाः शिवतमाः शान्ताः शान्ततमाः तास्ते कृण्वन्तु भेषजम् ॥
  2. ॐ आपोहिष्ठामयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातनः । महे रणाय चक्षसे ॥
  3. ॐ यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः ॥
  4. ॐ तस्मा अरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ आपो जन यथाचनः ॥

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