उपनयन संस्कार और व्रात्य

व्रात्य - Vraty

आपात्काल संबंधी विशेष नियम भी शास्त्रों में वर्णित हैं और व्रात्य के सन्दर्भ में भी आपात्काल विशेष नियम और ऊपर दिया गया है। “सावित्रीपतितायस्य दश वर्षाणि पञ्च च। सशिखं वपनं कृत्वा व्रतं कुर्य्यात् समाहितः। एकविंशतिरात्रञ्च पिबेत् प्रसृतियावकम्। हविषा भोजयेच्चैव ब्राह्मणान् सप्त पञ्च वा। ततो यावकशुद्धस्य तस्योपनयनं स्मृतम् ॥” यमस्मृति के इस वचन में दस और पांच अर्थात पंद्रह वर्ष का उल्लेख जन्म से पंद्रह वर्ष का है, जो लगभग गर्भ से सोलह वर्ष ही होता है।

उपरोक्त कथन में यह कहा गया है कि शिखासहित वपन करके समाहित चित्त होकर 21 दिनों तक प्रसृतयावकाहारी रहकर व्रत करे, सात अथवा पांच ब्राह्मण को हविष्यभोजन कराये फिर यावकशुद्ध का उपनयन करे।

प्राचीन विद्वानों ने इसी आज्ञा का ग्रहण करते हुये चूडाकरण के उपरांत शिखा सहित केशवपन का निर्णय किया जो व्यवहार में देखा जाता है यद्यपि जो व्रात्य न हुआ हो उसका शिखासहित केशवपन सिद्ध नहीं होता। शिखा सहित केशवपन व्रात्यमात्र के लिए सिद्ध होता है। प्रायश्चित्त व्रत के संबंध में असमर्थता के कारण उसका ग्रहण नहीं किया गया तथापि अयाचित ग्रहण के लिये प्रतीकात्मक रूप से भीखनि (भीखैन या अयाचित भिक्षाटन) भी कराया जाता है।

वर्त्तमान मिथिला में इस प्रकार प्रतीकात्मक रूप से व्रात्य का प्रायश्चित्त किया जाता है। अङ्गिरा स्मृति का वचन है : देशं कालं तथाऽत्मानं द्रव्यं द्रव्यप्रयोजनं। उपपत्तिमवस्थां च ज्ञात्वा कर्म समाचरेत्॥

यद्यपि चूडाकरण विधि में कर्मकांड विधि द्वारा यह प्रश्न उठाया गया कि चूडाकरण का तात्पर्य शिखा स्थापन है न कि शिखा सहित केशवपन और इस विषय में मार्गदर्शन-परामर्श की अपेक्षा थी। किन्तु शिखा सहित केशवपन का प्रयोजन व्रात्यता निवारण है भले ही व्रत न किया जाता हो किन्तु प्रतीकात्मक रूप से एक दिन ही सही अयाचित (भीखैनि) भी कराया जाता है। तथापि इस सम्बन्ध में पुनर्विचार की आवश्यकता है कि सशिखा केशवपन व्रात्यमात्र के निमित्त कहा गया है जो व्रात्य नहीं है उसके लिये शिखा स्थापन ही सिद्ध होता है सशिखा केशवपन नहीं

वर्त्तमानयुग में जो विधान परम्परा से प्राप्त हो रहा है वह पूर्वकाल में विद्वानों द्वारा सम्यक चिंतन करके ही ग्रहण किया गया होगा। हां कुछ अन्य विकृत्ति भी समाहित हो गई है जो अज्ञानता के कारण संभव है और पुनर्विचार करके उसका संशोधन किया जा सकता है। तथापि इस ग्लानि से ग्रसित रहना कि हम व्रात्य हैं और हमने प्रायश्चित्त नहीं किया है यह युगानुसार उचित धारणा नहीं सिद्ध होती।

पूर्ववर्ती विद्वानों ने युगानुसार आपद्धर्म ग्रहण करते हुये जिस विधान को ग्रहण किया हो यदि उस परम्परा का निर्वहन करते हुये भी वर्त्तमान युग में उपनयन किया जाता हो तो उसे व्रात्य घोषित करना उचित नहीं होगा। वर्त्तमान में कुछ ऐसे विद्वान भी हैं जो सम्पूर्ण समाज को व्रात्य घोषित करना चाहते हैं। यहां व्रात्यतानिवारण के नाम पर धनार्जन भी उद्देश्य हो सकता है।

बीती बात बिसारिये आगे की सुधि लेहु
बीती बात बिसारिये आगे की सुधि लेहु

यहां हमें “बीती बात बिसारिये आगे की सुधि लेहु” का आश्रय ग्रहण करते हुये अगली पीढ़ियों का ससमय उपनयन हो यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है भले ही अपना उपनयन कालातिक्रमण करके क्यों न हुआ हो।

वर्त्तमान में जो व्रात्य हो गये हैं उनके लिये अपने कुलपरम्परा का निर्वहन करते हुये उपनयन करना चाहिये और जो व्रात्य नहीं हुये हैं वो व्रात्य न हो यह सुनिश्चित करना अपेक्षित है। अगली पीढ़ियों का ससमय किस प्रकार उपनयन किया जाय, क्या व्यवधान है, कैसे निवारण करें इन सभी बिंदुओं की चर्चा उपनयन सम्बन्धी आलेख में सविस्तार की गयी है। उपनयन संस्कार

यहां जो भी विमर्श किया गया है वह व्रात्य के सन्दर्भ में है। पुनरुपनयन अलग विषय है एवं इस आलेख का पुनरुपनय संबधी किसी प्रकार का अर्थ ग्रहण नहीं किया जाना चाहिये। पुनरुपनयन संबंधी विमर्श अन्य आलेख में करेंगे।

युगानुसार समाधान

मिथिला के विद्वानों में एक विशेष विशेषता पाई जाती रही है, यदि किसी कर्म या विधि में देश-काल-परिस्थिति वा आपत्काल वशात् व्यवधान उत्पन्न हो, लोप की संभावना हो तो उसके लिये भी प्रतीकात्मक विधि का सृजन कर लिया करते थे जिससे विधि का लोप भी न हो, भविष्य में अनुकूलता प्राप्त होने पर उसे पुनः विधिवत भी करना चाहे तो करे, किन्तु उक्त कर्म या विधि को विसरे नहीं।

इसका एक सटीक उदाहरण है कन्यापरीक्षण-कन्यावरण, यह विधि मिथिला के विद्वानों ने प्रतीकात्मक रूप से विवाहकाल में ही कन्यादान से पूर्व विधि निर्धारण कर दिया जो कुलपरम्परा से वर्त्तमान में भी पाया जाता है। इसी कारण मिथिला की विशेष महत्ता भी इस प्रकार बताई गयी है कि जब धर्म के विषय में किसी प्रकार का संशय उत्पन्न हो तो उसका निर्णय करने हेतु मिथिला के व्यवहार का अवलोकन करना चाहिये। “धर्मस्य निर्णयः कार्यो मिथिला व्यवहारतः” यह बृहद् याज्ञवल्क्य का वचन है जिसे प्रमाण मानना ही होगा।

“धर्मस्य निर्णयः कार्यो मिथिला व्यवहारतः” को प्रमाण मानते हुये कुलपरम्परा से जिस प्रकार भी उपनयन विधि प्राप्त हुई हो और यदि उसका निर्वहन किया गया हो तो व्रात्यता का अभाव ही मानना पड़ेगा अन्यथा सम्पूर्ण समाज (अत्यल्प ब्राह्मण परिवारों को छोड़कर) व्रात्य सिद्ध हो जायेगा। इस प्रसङ्ग में यही मानना समीचीन है कि पूर्वकाल के विद्वानों ने “यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धं” का आश्रय लेते हुये जो भी विधि ग्रहण किया था वह उचित ही था, क्योंकि कुछ शताब्दी पूर्व आपात्काल था जो वर्तमान में भी समाप्त नहीं हुआ है।

यदि ऐसा प्रतीत हो कि हमारा उपनयन सविधि न हुआ, तो पुरुपनयन का विधान है। दुबारा उचित विधि से पुनरुपनयन किया जा सकता है, परन्तु पूर्व का उपनयन भले ही वह कुलपरंपरा से जिस किसी प्रकार भी किया गया हो (भले ही विवाहकाल की कुलपरम्परा से क्यों न हुआ हो) उसे उपनयन माना जाना चाहिये तत्पश्चात ही पुरुपनयन की सिद्धि होगी अन्यथा पुनरुपनयन की भी सिद्धि नहीं हो सकती।

इस विषय में “देश-काल-परिस्थिति” का आश्रय लेना अपरिहार्य है। हाँ जो अत्यल्प ब्राह्मण परिवार शास्त्रोक्त विधि का निर्वहन कर रहे हैं विशेषतः दक्षिणभारतीय वो वंदनीय हैं। तथापि ऐसा भी सिद्ध नहीं होता कि मिथिला का व्यवहार अप्रमाणिक मान्य हो जाये, सबको व्रात्य घोषित कर दिया जाय, इसके लिये प्रमाण है कि मिथिला का व्यवहार से ही धर्म का निर्णय समझे। मिथिला के व्यवहार में ही वो सभी तथ्य समाहित कर दिये गये हैं जो धर्मानुकूल है। भले ही वो प्रतीकात्मक मात्र क्यों न हो।

व्यवहार में विसंगति या त्रुटि संभव है जिसे गंभीरता पूर्वक अवलोकन करने की भी आवश्यकता है। किन्तु भविष्य के लिये शनैः-शनैः सुधारवादी होना भी आवश्यक है। जैसे जो वर्तमान में व्रात्य न हुआ हो उसे व्रात्य न होने दिया जाय, यदि व्रात्य न हुआ हो तो सशिखा केशवपन सिद्ध नहीं होता अतः जो व्रात्य नहीं हैं उसके चूडाकरण में शिखा स्थापन करे इत्यादि।

लेकिन मिथिला के व्यवहार से धर्म का निर्णय होगा इसका तात्पर्य यह भी नहीं हो सकता कि जो विधि अप्रमाणित हो, प्रतीकात्मक न होकर पद्धति के विरुद्ध हो उसे भी प्रमाण मान लिया जाय या उचित मान लिया जाय। जैसे विवाह के समय अग्नि के चारों ओर लाजा छिड़क देना, यह प्रतीकात्मक नहीं है इसके लिये पद्धति में हवन का वर्णन है अतः इसे विसंगति ही समझना चाहिये और सुधार करते हुये लाजाहोम की विधि आरम्भ करनी चाहिये।

इसी प्रकार कुछ क्षेत्रों में नान्दीमुख श्राद्ध का व्यवहार नहीं पाया जाना। ये मिथिला का व्यवहार नहीं है मिथिला के व्यवहार में नान्दीमुख श्राद्ध होता है किन्तु गंगातट स्थित कुछ समीपवर्ती गावों में मात्र लोप देखा जा रहा है सम्पूर्ण मिथिला में लोप नहीं हुआ है। मिथिला की पद्धति में नान्दीश्राद्ध का ग्रहण किया गया है अतः जहां कहीं भी नान्दीश्राद्ध का लोप पाया जा रहा है उसे विसंगति माना जाय न कि मिथिला का व्यवहार सिद्ध किया जाय।

जब हम कुछ क्षेत्रों की विसंगति को भी मिथिला का व्यवहार कहकर प्रमाणित करने का प्रयास करेंगे तो मुंह की खानी पड़ेगी। इसलिये कौन सा व्यवहार प्रमाण माना जाये और किसे विसंगति माना जाय इसके लिये नीर-क्षीर-विवेक का प्रयोग करना होगा। वर्त्तमान युग में नीर-क्षीर-विवेकी जनों से निवेदन है कि आप अपना अमूल्य परामर्श हमें प्रदान करने की कृपा करें – 7992328206.

इस आलेख के विषय में आप सभी के विचारों का स्वागत है। जिनके पास जो प्रमाण, परम्परा, परामर्श हो अवश्य प्रदान करें, जिससे अधिकतम लोग लाभान्वित हो सकें।

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

0 thoughts on “उपनयन संस्कार और व्रात्य

  1. महाराज जी की जय हो, बहुत ही गूढ जानकारी🙏🙏चरण स्पर्श

    1. जय श्री राधे कृष्ण 🚩
      यदि किसी प्रकार का कोई सुझाव-जानकारी प्रदान करना हो तो अवश्य प्रदान करें । कुछ षड्यंत्रकारी इस प्रकार हंगामा खड़ा कर रहे हैं जैसे सबके सब व्रात्य हो गये हों । हंगामा के पीछे विद्वत्तापूर्ण समाधान प्रस्तुत करें तो सराहनीय कार्य होता किन्तु प्रयोजन धनलोभ की पूर्ति ही प्रकट होता है।

  2. गुरु जी यज्ञ समाप्ति या पूजन समाप्ति के पश्चात उत्तर पूजा विधि के लिए भी मार्गदर्शन करने की कृपा करें।

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