इस आलेख का विषय अशौच है जिस कारण अशौच के ऊपर बहुत विस्तृत और ज्ञानवर्द्धक शास्त्रीय एवं प्रामाणिक चर्चा की गयी है। अशौच सनातन में एक गंभीर विषय है और इसका ज्ञान होना मात्र ब्राह्मण के लिये नहीं प्रत्येक सनातनी के लिये अपेक्षित है। अशौच को समझने के लिये यह आलेख बहुत उपयोगी सिद्ध होगा।
अशौच निर्णय pdf सहित । भाग १ । अशौच के प्रकार । सूतक क्या होता है
शुचि का अर्थ होता है पवित्र, शुद्ध, निर्मल, देव-पितृ कर्म के योग्य, आदि। इसी के आगे अशुचि का अर्थ होता है शुचि अर्थात शुद्धता, पवित्रता, निर्मलता, देवपितृ कर्म की योग्यता आदि का अभाव होना। अतः अशुचि अपवित्रता, अशुद्धि, देव-पितृ कर्म में अयोग्यता का बोधक है।
अशौच का अर्थ : अशौच का तात्पर्य वो अवस्था है जब किसी कारण (जन्म-मृत्यु आदि) से वेद-पुराणोक्त कर्मों की वाध हो जाती है। धर्मशास्त्रों में अशौच के कई प्रकार होते हैं और सबके व्याप्ति भी अलग-अलग प्रकार से होती है एवं व्याप्तिकाल में भी अंतर होता है। शङ्ख का वचन है :
दानं प्रतिग्रहो होमः स्वाध्यायः पितृकर्म च। प्रेतपिण्डक्रियावर्जमाशौचे विनिवर्तते ॥ – दान, प्रतिग्रह, होम, स्वाध्याय और पितृकर्म आदि कर्म; प्रेतपिण्ड को छोड़कर अशौच में वर्जित हो जाते हैं।
जब पञ्चमहायज्ञ (नित्यकर्म) और षट्कर्म (यजन, याजन, अध्यापन, अध्ययन, दान और प्रतिग्रह) इन कर्मों के निषिद्ध होने की अवस्था अशौच कहलाती है।
अशौच किसे कहते हैं : जब शरीर और शरीर सम्बन्धियों में किसी प्रकार की वृद्धि या हानि होती है तो कुछ काल के लिये अशुद्धि की व्याप्ति होती है जिसे अशौच कहते हैं। अशौच किसी व्यक्ति मात्र को प्रभावित नहीं करता यह सपिण्ड और सकुल्य तक को प्रभावित करता है। यह अशुद्धि अन्य प्रकार से भी होती है अस्पृश्य-स्पर्श एवं संसर्ग जो गौण पक्ष है एवं व्यक्ति मात्र प्रभावित प्रभावित होता है।
सूतक क्या होता है – sutak kya hota hai
सूतक का अर्थ : सूतक को प्रायः अशौच का पर्याय या समानार्थी समझा जाता है लेकिन यह वास्तविकता नहीं है। क्योंकि सूतक ग्रहण का भी लगता है किन्तु अशौच में निषिद्ध कार्य ग्रहण के सूतक में भी निषिद्ध नहीं होते। ग्रहण का सूतक ही होता है अशौच नहीं होता। जिससे यह सिद्ध होता है कि अशौच और सूतक में ढेरों समानतायें होने पर भी दोनों न तो समानार्थी है और न ही पर्याय, तथापि भाव दोनों का लगभग समान ही लिया जाता है, एवं अशौच के लिये सूतक शब्द का प्रयोग भी होता है।
कुछ लोग सूतक और अशौच के अंतर को भी अत्यधिक आँकने की गलती करते हैं और मरणाशौच को अशौच मानते हैं एवं जन्माशौच को सूतक मानते हैं, अर्थात जन्म को अशौच नहीं सूतक एवं मरण में सूतक नहीं अशौच मानते हैं।
सूतक विश्लेषण को सुत (पुत्र) से जोड़ते हुये अतिसंकुचित भी कर देते हैं। लेकिन यदि जन्म में ही सूतक व्याप्त हो तो एक यक्षप्रश्न का उनको उत्तर ढूंढना चाहिये कि ग्रहण में किस जन्म का सूतक होता है।
अशौच और सूतक में अत्यल्प अंतर है जिसे अशौच के प्रकार संबंधी चर्चा में समझेंगे।
अशौच के प्रकार
अशौच के प्रकारों को हम अन्य आलेख में विस्तार से समझेंगे किन्तु संक्षिप्त चर्चा यहां भी करेंगे । मुख्य रूप से अशौच के दो प्रकार माने गये हैं : किसी बच्चे के जन्म होने पर 1. जननाशौच और किसी की मृत्यु होने पर 2. मरणाशौच। लेकिन वृद्धि और हानि के निमित्त से प्रभावी होने वाले अशौच के वास्तव में ३ प्रकार होते हैं : जन्माशौच, मरणाशौच और स्रावाशौच।
- जननाशौच : जन्माशौच में वृद्धि और हानि दोनों होती है। नये बच्चे का जन्म होना वृद्धि है, किन्तु माता के शरीर से रक्त, मांस आदि की हानि होती है जो योनिमार्ग से बच्चे के साथ ही निःसृत होता है।
- मरणाशौच : मरणाशौच में मृत्यु अर्थात हानि होती है वृद्धि नहीं। हानि पूर्णरूप से होती है, एक शरीर मृत होने के बाद उसे पंचतत्व में विलीन करने के लिये नष्ट करना पड़ता है।
- स्रावाशौच : स्रावाशौच में हानि होती है। मृत्यु में शरीर की पूर्ण हानि होती है किन्तु जीवन काल में कई बार कटने, छिलने आदि से आंशिक क्षति भी होती है, रक्तस्राव होता है, व्रण आदि में भी स्राव होता है, चर्म-मांस-अस्थि आदि की भी क्षति होती है। ये सभी स्रावाशौच में आते हैं। रजस्वला होना भी स्रावाशौच की श्रेणी में आता है क्योंकि रजस्वला स्त्री के योनिमार्ग द्वारा रक्त का स्राव होता है। क्षतजाशौच भी स्रावाशौच का ही अंग है। अजीर्णहोने पर वमन होना भी स्रावाशौच में आता है। स्रावाशौच के भय से ही किसी भी निमित्त पर क्षौरकर्म एक दिन पूर्व करने की विधि कही गयी है; क्योंकि क्षौरकर्म में कटने-छिलने से रक्तस्राव संभावित रहता है।

पुनः अधिष्ठान भेद से भी अशौच के तीन अन्य प्रकार होते हैं :- स्पर्शाशौच, कर्माशौच और मङ्गलाशौच।
- स्पर्शाशौच : स्पर्श का निषेध होना और स्पर्श से अशौच का संचार होना स्पर्शाशौच कहलाता है। सूतक मुख्यरूप से स्पर्शाशौच का ही बोध कराता है। स्पर्शाशौच पूर्ण अशौच का तृतीयांश होता है। दशाहाशौच में ३ दिन स्पर्शाशौच होता है। इसी कारण तीन दिन में स्पर्शाशौच निवृत्ति के बाद चौथे दिन अस्थिसंचय करने का निर्णय प्राप्त होता है। हारीत – सर्वेषामेव वर्णानां त्रिभागात्स्पर्शनं भवेत् ॥
- कर्माशौच : पञ्चमहायज्ञों और षट्कर्मों का निषेध होना कर्माशौच कहलाता है। अर्थात कर्माशौच होने पर वेद-पुराणोक्त यजनादि कर्म निषिद्ध हो जाता है लेकिन इसका एक अपवाद प्रेतपिण्डक्रिया बताया गया है, अर्थात प्रेतपिण्डक्रिया निषिद्ध नहीं होता और इसीलिये अशौच होने पर भी दशगात्र पिण्डदान व उदकक्रिया किया जाता है। कर्माशौच यदि प्राप्त हो रहा हो तो पूर्ण अशौच काल के लिये प्राप्त होता है।
- मङ्गलाशौच : विवाह-उपनयनादि मांगलिक कार्य, अपूर्वतीर्थयात्रा आदि का निषेध होना मङ्गलाशौच कहलाता है। मङ्गलाशौच माता-पिता की मृत्यु में केवल पुत्र को प्राप्त होता है और यह वर्षपर्यंत होता है। कुछ लोग मात्र कर्मकर्ता पुत्र के लिये मङ्गल कार्यों को निषिद्ध समझने की भूल करते हैं, मङ्गलाशौच सभी पुत्रों को प्राप्त होता है। यहां पुत्र का अर्थ पुत्र मात्र है, भ्रातृज्य, पौत्र आदि नहीं।
अशौच के निमित्त : अशौच के 4 निमित्त होते हैं : 1. जन्म, 2. मृत्यु, 3. क्रिया और 4 दोष। इन चार निमित्तों से भी अशौच प्रभावित करता है अतः निमित्त के अधिष्ठान से अशौच के 4 प्रकार होते हैं – 1. जननाशौच, 2. मरणाशौच, 3. उत्तरक्रियाशौच और 4. दोषाशौच।
- जननाशौच – जातक के जन्म होने पर माता-पिता-सगे-सम्बन्धियों को कुछ काल के लिये होने वाली मलिनता या अशुद्धि जननाशौच कहलाता है।
- मरणाशौच – मृत्यु होने पर मृतक के पुत्रादि सम्बंधिवर्ग में कुछ काल के लिये मलिनता/अशुद्धि होती है जिसे मरणाशौच कहते हैं।
- उत्तरक्रियाशौच – मृतक के मरण में उत्तरक्रिया (रुदन,दाह, उदक दान आदि अष्टक्रिया) में सम्मिलित होने वाले असम्बन्धियों को भी अशुद्धि की प्राप्ति होती है, यह उत्तरक्रियाशौच कहलाता है।
- दोषाशौच – इसके अतिरिक्त बहुत सारे मलिनता या अशुद्धि प्रदायक कारक होते हैं, उन दोषों से सम्बन्ध होने पर दोषाशौच की व्याप्ति होती है।
अशौच के प्रकार संबंधी इससे अधिक विस्तृत चर्चा अन्य आलेख में करेंगे, एवं आलेख प्रकाशित होने पर उसका लिंक यहां समाहित करेंगे।
अशौच निर्णय
- शुद्धयेद्विप्रो दशाहेन द्वादशाहेन भूमिपः । वैश्यः पंचदशाहेन शूद्रो मासेन शुद्धयति ॥ कूर्मपुराण
- सन्ध्या दानं जपं होमं स्वाध्यायं पितृतर्पणं । ब्रह्मभोज्यं व्रतं नैव कर्तव्यं मृतसूतके ॥ गरुड़पुराण
- सर्वेषामेव वर्णानां सूतके मृतके तथा । दशाहाच्छुद्धिरेतेषामिति शातातपोब्रतीत् ॥ अंगिरा
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं। इन चारों वर्णों की अशौच-निवृत्ति क्रमशः 10, 12, 15 और 30 दिनों में होती है । लेकिन अङ्गिरा द्वारा सभी वर्णों के लिये १० दिन अशौच का वचन कलयुग में विशेष प्रचलित है।
- जन्म से छह माह तक – सद्यःशौच एवं मृत शरीर का भूमि निक्षेप :- चारों वर्णों के लिए ।
- 7 माह से 2 वर्ष तक क्रमशः 1, 2, 3 और 5 दिन में ब्राह्मणादि चारों वर्णों की शुद्धि व मृतशरीर का भूमि-निक्षेप।
- 3 – 6 वर्ष तक – 3, 6, 9 व 5 दिन में :- क्रमशः ब्राह्मणादि चारों वर्णों की शुद्धि । अग्नि-संस्कार व पिण्डोदक क्रिया।
- 6 वर्ष से अधिक का चारों वर्णों में वर्णानुसार सम्पूर्ण अशौच, अग्नि-संस्कार व श्राद्ध ।
कन्यामरण में चारों वर्णों का जन्म से 2 वर्षों तक सद्यः शौच व भूमि निक्षेप । 2 वर्ष से विवाह पर्यन्त चारों वर्णों की 3 दिनों में शुद्धि व पिण्डोदक क्रिया। कन्या के विवाहोपरान्त माता-पिता की 3 दिनों में शुद्धि। पति के घर में वर्णानुसार अशौच एवं श्राद्ध। मृत दिवस निर्धारण हेतु दिन की गिनती सूर्योदय से सूर्योदय तक की जाती है।
जननाशौच या मरणाशौच के विषय का समाचार दस दिन के अंदर सुनता है तो दस रात्रि बीतने में जितना समय शेष रहता है, उतने समय के लिए उसे अशौच होता है। दस दिन बीत जाने के बाद और एक वर्ष के पहले तक ऎसा समाचार मिलने पर तीन रात तक अशौच रहता है। संवत्सर अर्थात एक वर्ष बीत जाने पर समाचार मिले तो स्नान मात्र से शुद्धि हो जाती है।
मरणाशौच में पुत्र को स्पर्शाशौच, कर्माशौच और मङ्गलाशौच तीनों प्राप्त होता है, सपिण्डों को स्पर्शाशौच व कर्माशौच होता है लेकिन मङ्गलाशौच नहीं होता एवं संसर्गिकों को स्पर्शाशौच मात्र की प्राप्ति होती है कर्माशौच व मङ्गलाशौच नहीं।
जननाशौच
येषु स्थानेषु यच्छौचं धर्माचारश्च यः स्मृतः । तत्र तावन्नावमन्येत धर्मस्तत्रैव तादृशः ॥ मरीचि
सूतके तु मुखंदृष्ट्वा जातस्यजनकस्ततः । कृत्वासचैलं स्नानन्तु शुद्धोभवति तत्क्षणः ॥ आदित्यपुराण
जननाशौच में माता दश दिन में और पिता सचैल (वस्त्र-सहित) स्नान करने मात्र से तत्क्षण ही शुद्ध हो जाता है । माता के अतिरिक्त अन्य किसी को जननाशौच नहीं होता है। व्यवहार से भी यही सिद्ध होता है । सूतक होने पर चाहे जितने ही दिन में करे सारी क्रियायें व शुद्धिकरण माता ही करती है । प्रसूता स्पर्श करने वाले व प्रसूतिगृह में प्रवेश करने वालों को भी शुद्धि करना परता है ।
अशौचपञ्जिका में जननाशौच का निर्णय आगे इस प्रकार बताया गया है कि माता-पिता व सौतेली माताओं को भी स्पर्शाशौच और कर्माशौच प्राप्त होता है। सपिण्डों को कर्माशौच मात्र प्राप्त होता है और बच्चे के माता–पिता आदि से संसर्ग करने वालों को कर्माशौच मात्र प्राप्त होता है। जननाशौच में मङ्गलाशौच किसी को भी प्राप्त नहीं होता है।
अशौच शङ्कर विचार
प्रथम अशौच के पूर्वाद्ध (5, 6, 7 व 15 दिन तक चारों वर्णों का क्रमशः) में द्वितीय अशौच होने पर पहले अशौच से शुद्धि एवं उत्तरार्द्ध (6, 7, 8 व 16 से 9, 11, 14 व 29 दिनों तक चारों वर्णों का क्रमशः) में द्वितीय अशौच होने पर द्वितीय अशौच से शुद्धि।
क्षौरकर्म के दिन 56 दण्ड तक अर्थात् अगले सूर्योदय से 1 घंटा 36 मिनट पहले तक द्वितीय अशौच होने पर पुनः 3 दिनों में शुद्धि ।
क्षौर कर्म के दिन 56 दण्ड के बाद (अगले दिन के सूर्योदय के 1 घंटा 36 मिनट पहले से) सूर्योदय तक द्वितीय अशौच होने पर पुनः अगले चार दिनों में शुद्धि । सूर्योदय के बाद अर्थात् एकादशाह के दिन सूर्योदय होने के बाद द्वितीय अशौच होने पर सम्पूर्णाशौच विधि से निवृत्ति होगी।
आद्यश्राद्ध (एकादशाह) का संकल्प (पाकारम्भ) हो जाने के बाद व मासिक-सपिण्डनादि के संकल्प से पूर्व द्वितीय अशौच होने पर आद्यादि संकल्पित श्राद्ध तो होंगे पर असंकल्पित श्राद्ध नहीं होगा । पुनः पूर्ण अशौचोपरांत दूसरे मृतक के एकादशाह दिन पहले मृतक का शेष मासिकादि व सपिण्डनश्राद्ध होगा ।
सम्पूर्णाशौच में त्रिरात्राशौच की व मरणाशौच में जननाशौच की मान्यता नहीं होती है । त्रिरात्राशौच के मध्य में द्वितीय त्रिरात्राशौच होने पर दूसरे त्रिरात्राशौच से शुद्धि होती है ।
विशेष अशौच शंकर : पत्नी को पति का अर्द्धांगिनी कहा गया है और पति-पत्नी का परस्पर अशौच शंकर हो तो उपरोक्त सामान्य अशौचशंकर नियम नहीं लगता, यह सामान्य अशौच शंकर नियम का अपवाद होता है और पति-पत्नी के अशौच शांकर्य हेतु विशेष निर्णय प्राप्त होता है। यह शङ्ख का वचन है :
मातुर्यग्रे प्रमीताया मशुद्धौ म्रियतेपिता । पितुःशेषेणशुद्धिः स्यान्मातुः कुर्याच्च पक्षिणीम् ॥ शंख
पहले यदि माता की मृत्यु हो और अशौचमध्य में कभी भी पिता की मृत्यु हो जाये तो अशौच व श्राद्ध सम्पूर्ण क्रिया पितृप्रधान होगा अर्थात् अशौचनिवृत्ति भी पिता की मृत्यु के दशवें दिन होगा और श्राद्ध भी प्रथम पिता का फिर माता का होगा। यदि इसका विपरीत मरण हो अर्थात् पहले पिता की मृत्यु हो पीछे पितृअशौचमध्य में कभी भी माता की मृत्यु हो जाये तो अशौच में पक्षिणी वृद्धि होगी। पक्षिणी दो प्रकार से कही जाती है – दो दिन के मध्य एक रात अथवा दो रात के मध्य एक दिन। लेकिन श्राद्ध पिता का आगे और माता का पीछे होगा।
मरणादेव कर्तव्यं संयोगो यस्य नाग्निना । दाहादूर्ध्वमशौचं स्याद् यस्य वैतानिकोविधिः ॥ शातातप – जो अग्निहोत्री नहीं हैं उनके अशौच की गणना मृत्युदिन से तथा अग्निहोत्री की दाहदिवस से करनी चाहिए ।
सूतक के नियम
अशौच की व्याप्ति : अशौच निर्णय में यह भी एक आवश्यक तथ्य है कि अशौच की व्याप्ति कब होती है ? अशौच की व्याप्ति के लिये अशौच का ज्ञात होना अनिवार्य होता है। अशौच का यदि ज्ञान न हो तो अशौच की व्याप्ति भी नहीं होती है, भले ही एक घर के भीतर ही क्यों न रहे, और यदि ज्ञान हो जाये तो सैकड़ों मील दूर होने पर भी अशौच व्याप्त हो जाता है।
मरणाशौच में आशीर्वाद, देवपूजा, प्रत्युत्थान (आगन्तुक के स्वागतार्थ उठना) अभिवादन, पलंग पर शयन अथवा किसी अन्य का स्पर्श नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार संध्या, दान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण, ब्राह्मणभोजन नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति सूतक में नित्य–नैमित्तिक अथवा काम्य कर्म करता है, उसके द्वारा पहले किये गये नित्य–नैमित्तिक आदि कर्म विनष्ट हो जाते हैं।
व्रती, मन्त्रपूत, अग्निहोत्री ब्राह्मण, ब्रह्मनिष्ठ, यती और राजा, ‘इन्हें सूतक नहीं लगता।
अशौच निर्णय pdf
अशौच निर्णय pdf डाउनलोड करने के लिये यहां क्लिक करें। यहां क्लिक करने के बाद डाउनलोड का अनुरोध हमारे ईमेल पर प्राप्त होगा जिसे स्वीकार करने के बाद ईमेल पर आपको सूचना प्राप्त होगी। सूचना मिलने के बाद दुबारा क्लिक करने पर डाउनलोड होगा। यदि आप हमारे साथ अपना ईमेल साझा नहीं करना चाहते तो क्लिक न करें। आलेख में किया गया संशोधन या त्रुटिनिवारण आलेख में ही दृष्टिगत होगा, pdf में नहीं।
सारांश : वास्तव में अशौच संबंधी ये संक्षिप्त चर्चा ही हुई है, अर्थात अशौच संबंधी सभी तथ्यों को सक्षेप में रखने का प्रयास किया गया। अशौच के विषय में भविष्य में एक और विस्तृत आलेख प्रकाशित करने का प्रयास भी किया जायेगा। आशा है इस आलेख से भी अशौच निर्णय संबंधी बहुत सारी दुविधायें व संशय का निवारण होगा।
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
बहुत-बहुत धन्यवाद आपका इसके लिए बहुत ही अच्छा जानकारी है।
आभार,