भक्ति की शक्ति भाग 2

भक्ति की शक्ति भाग २

भक्ति की शक्ति को सही-सही समझना और वर्णन करना असंभव कार्य है। भक्ति की शक्ति का वर्णन नहीं किया जा सकता है और जितना किया जाय उतना कम ही रहेगा। भक्ति की शक्ति का वर्णन यदि भगवान भी करना चाहें तो बड़ी विकट स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। भगवान स्वयं भी स्वयं का पूर्ण वर्णन नहीं कर सकते हैं और जैसे भगवान स्वयं का वर्णन नहीं कर सकते वैसे ही भक्ति की महिमा या शक्ति का वर्णन भी नहीं कर सकते।

तथापि इस कारण से चर्चा ही न की जाय यह भी उचित नहीं माना जा सकता। हम शत-प्रतिशत इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि किसी भी प्रकार से वर्णन करने में सक्षम नहीं हैं तथापि क्षमा की आश रखते हुये स्वविवेकानुसार प्रयास कर रहे हैं। ईश्वर से तो क्षमा प्राप्ति हेतु भी झगड़ा किया जा सकता है, भक्तों से भी क्षमा की पूर्ण आशा रखते हैं और जो भक्त नहीं भी हैं।

भक्ति की शक्ति भाग २

ऐसा तो नहीं है कि ज्ञानी भक्त नहीं हो सकता, तथापि ज्ञानियों में ज्ञान का अहंकार उत्पन्न होने की संभावना रहती है जो भक्ति के लिये बाधक होता है। तथापि अधिकतर वही लोग भक्तिमार्ग पर चलते हैं जो ज्ञानी नहीं होते भक्तों के इतिहास से यही ज्ञात होता है। यदि ज्ञानी भी भक्त हो जायें तो सोने में सुगंध होता है, तथापि ज्ञानियों का भक्त होना ही कठिन होता है। अटल भक्ति किसी विशेष घटना के साथ उत्पन्न होती है। विशेष घटना इस प्रकार की होती है जो आश्चर्यचकित कर देती है, चमत्कार होता है और उसके पश्चात् उस व्यक्ति का ईश्वर में अडिग विश्वास उत्पन्न हो जाता है।

भक्तप्रह्लाद के जीवन में दो प्रकार की घटना बताई जाती है, पहली तो यह कि जब वो गर्भ में थे तभी कयाधू को नारद जी ने भगवद्कथा सुनाई थी, जिसका प्रभाव भक्तप्रह्लाद पर पड़ा था। दूसरी घटना जो संतों द्वारा बताई जाती है वो है आवा (कच्चे घड़े की ढेर को पकाने के लिये) में आग लगायी गयी थी और उसमें एक बिल्ली थी जो बच गयी और ये घटना भक्तप्रह्लाद ने देख लिया था, जिसका प्रभाव ऐसा हुआ कि उनके मन में ईश्वर के प्रति अविचल भक्ति उत्पन्न हो गयी। इसी प्रकार पमुख भक्तों के जीवन में भी कोई विशेष घटना घटित होने का वर्णन मिलता है।

वैसे विशेष घटनायें सभी के जीवन में घटित होती ही है किन्तु सबकी आँखें नहीं खुल सकती यह भी एक सिद्धांत ही है : “सोई जानत जेहि देहु जनाई” अर्थात आखें भी उसी की खुलती है जिसकी आंख स्वयं भगवान ही खोलना चाहते हैं। क्योंकि आँखें खुलने के बाद की जो स्थिति है वो है : “जानत तुम्हहिं तुमहिं होई जाई”, अर्थात तुम जिसकी आँखें खोल देते हो वह तुम्हें जान लेता है और तुम्हें जानने के बाद वह तुहारा ही होकर रह जाता है।

सर्वोत्कृष्ट भक्त वही होते जो “जानत तुम्हहिं तुमहि होई जाई” वाली स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं। वैसे भक्तों को संसार में अनुकूलता और विपरीतता का कोई विचार ही नहीं होता और अनेकानेक भक्तों के चरित्र में यही देखा गया है कि संसार की विपरीततायें भी अनुकूलता में परिवर्तित हो जाती है। ये भगवान की ही प्रतिज्ञा है : “अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥” वैसे भक्तों के योग और क्षेम दोनों का भार स्वयं भगवान ही वहन करते हैं।

योग और क्षेम

भक्ति की शक्ति को समझने हेतु यही वास्तविक प्रमाण है कि उसके योग और क्षेम का भार स्वयं भगवान उठा लेते हैं। विभिन्न भक्तों के चरित्र में यही चरितार्थ होता दिखता है। योग की व्याख्या अनेकानेक प्रकार से की जाती है, यदि सरल शब्दों में कहा जाय तो आवश्यकतापूर्ति कहा जा सकता है। किसी भक्त की आवश्यकता आग से सुरक्षा थी तो उसके लिये अग्नि भी जल के सामान शीतल हो गया, किसी भक्त की विष से सुरक्षा आवश्यक थी तो उसके लिये विष भी निष्प्रभावी हो गया, किसी के लिये भगवान वाहनचालक बनकर उपास्थित हो गये तो किसी के लिये सेवक बनकर।

भक्ति में कितनी शक्ति होती है इसके लिये इतना ही समझना पर्याप्त है कि भक्त के लिये स्वयं भगवान सभी व्यवस्थायें करने में लगे रहते हैं। भक्त के जीवन में कामनायें ही नहीं होती और जब कामना ही न हो तो कामनापूर्ति का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं हो सकता। सुदामा जी की अपनी कामना नहीं थी तथापि पत्नी द्वारा प्रेरित किये जाने पर लज्जाभाव से ग्रसित होकर भगवान कृष्ण से मिले, इच्छा बताई नहीं परन्तु जब वापस आये तो अपने घर-परिवार को भी नहीं पहचान पा रहे थे।

सरल पूजा विधि

तात्पर्य यह है कि भगवान के अतिरिक्त भक्त की कोई अन्य इच्छा होती ही नहीं है किन्तु यदि किसी अन्य की भी इच्छा से यदि भक्त प्रभावित हो जाये अथवा भक्त की कोई सांसारिक आवश्यकता भी हो तो उसकी पूर्ति स्वयं भगवान ही करते हैं। भक्त दुःख हो अथवा सुख जीवन व संसार की चिंता से ही रहित रहता है, किन्तु यदि किसी कारणवश कोई जीवन की सांसारिक आवश्यकता उत्पन्न भी हो जाये तो भक्त को उस आवश्यकतापूर्ति हेतु किसी प्रकार के परिश्रम करने की आवश्यकता नहीं होती वह कार्य भगवान ही करते हैं।

मात्र आवश्यकतापूर्ति ही योग नहीं है योग का तो वास्तविक तात्पर्य भगवान से योग होना ही सिद्ध होता है, और उसी का परिणाम होता है अन्य सभी आवश्यकताओं की पूर्ति। लेकिन स्वयं कामना करके यदि कुछ प्राप्त किया जाय तो उसका संरक्षण भी कठिन होता है। किन्तु भक्त को जो कुछ प्राप्त होता है भले ही वह सांसारिक ही क्यों न हो उसका संरक्षण भी भगवान स्वयं ही करते हैं यही क्षेम कहलाता है।

भक्त की आवश्यकता ही नहीं भक्त से प्रीति रखने वालों की आवश्यकताओं की पूर्ति भी सहज हो जाती है। यदि कोई भक्त से ही प्रीति रखता है स्वयं भक्त नहीं है उसकी कोई आवश्यकता है जो वह भक्त के समक्ष प्रकट करता है तो भक्त यदि पूर्ति का वचन मात्र दे दे इतने से ही भगवान उसकी भी आवश्यकता पूर्ति कर देते हैं और इसी के लिये कहा गया है “वृथा न होइ देव ऋषि वाणी” यद्यपि यहां भक्त का उल्लेख नहीं है तथापि आशय अवश्य लिया जाता है। वही “त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति” वचन से यह सिद्ध हो जाता है कि भगवान का आश्रित अर्थात भक्त अन्य के लिये आश्रय बन जाता है।

उदहारण : चीरहरण काल में जब द्रोपदी की आवश्यकता वस्त्र थी तब भगवान ने आवश्यकतानुसार इतना वस्त्र प्रदान किया कि दुःशासन वस्त्र खींचते-खींचते थक गया किन्तु वस्त्र नहीं कमा। जब सहस्रों शिष्यों के साथ दुर्वासा उस काल में पांडवों के पास पहुंचे जब द्रोपदी भोजन कर चुकी थी उस समय आवश्यकता सबके पेट भरने की थी और भगवान कृष्ण ने एक दाना का भोग लगाकर सबका पेट भर दिया। किसी भोले भक्त की आवश्यकता यदि भगवान के भोग लगाने की थी तो भगवान मूर्ति से बाहर निकलकर उसके सामने भोग लगा लेते थे।

आवश्यकताओं की पूर्ति

आवश्यकताओं की पूर्ति होती है किन्तु आवश्यकतायें क्या है यह स्वयं ही सिद्ध हो जाती है, इच्छायें या कामना आवश्यकता नहीं होती है। भक्त की कोई इच्छा या कामना हो और उसकी पूर्ति न हो यह भी संभव नहीं है तथापि भक्त तो अनन्य भाव रखता है। अनन्य = अन् + अन्य अर्थात भगवान के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं, अनन्य भाव का तो तात्पर्य ही हो जाता है कि भगवान के अतिरिक्त अन्य कुछ भी चिंतन का विषय नहीं है। यदि अनन्य भाव प्रकट हो गया तो फिर इच्छायें या कामनायें शेष कहां बची ? कामनायें तो उनकी होती है जो अनन्यभाव से रहित हो।

तात्पर्य यह है कि भक्त की इच्छायें, कामनायें तो होती ही नहीं है लेकिन जीवनपर्यन्त आवश्यकतायें समाप्त भी नहीं होती। जब तक जीवन है तब तक भूख भी लगेगी, प्यास भी लगेगा, वस्त्र भी फटेंगे, आवास की भी आवश्यकता रहेगी, व संसार (अन्य व्यक्ति) भी अपेक्षायें रखेगा, कहीं चोर-लुटेरे विषैले या हिंसक जीव मिलेंगे, कभी शासन रुष्ट होगा, कभी कोई व्यक्ति ईर्ष्या-द्वेष करेगा, यही आवश्यकता है। इस प्रकार की विभिन्न आवश्यकताओं के काल में भक्त को स्वयं प्रयास करने की कोई आवश्यकता नहीं होती है, जो भी आवश्यक है उसकी व्यवस्था स्वयं भगवान करते हैं।

साधना, सिद्धि और भक्ति

साधना, सिद्धि आदि मार्ग का अवलंबन लेने वाले भी लोगों की इच्छापूर्ति मंत्रशक्ति, सिद्धि के माध्यम से करते हैं। किन्तु साधना व सिद्धि द्वारा जो लोगों की इच्छापूर्ति की शक्ति होती है वो भी वास्तव में भक्तिप्राप्ति के लिये ही साधन होती है भले ही इसे स्वीकारें अथवा नहीं। साधना-सिद्धि आदि के माध्यम से भी यदि लोगों की इच्छाओं की पूर्ति की जाय तो उसमें भी अनिवार्य शर्त्त रहती है प्रतिफल की अपेक्षा से रहित होकर करें। तात्पर्य यही रहता है कि अन्य की इच्छापूर्ति करने में भी समर्थ हो किन्तु तुम स्वयं की अपेक्षाओं का, इच्छाओं का त्याग करो, भक्तिमार्ग का आश्रय लो।

साधना अथवा सिद्धि से कामनाओं, भय, लोभ आदि का निवारण नहीं होता है। यदि निवारण होता तो वो ब्राह्मण जो कृत्या प्रयोग करके बालकृष्ण की हत्या के प्रयोजन से कंसप्रेरित होकर गया था वो नहीं जाता। भक्तप्रह्लाद भी मंत्र जपता था किन्तु भक्त होने के कारण कामना, भय, लोभादि से मुक्त था। हिरण्यकशिपु ने हत्या के अनेकानेक प्रयास किये किन्तु वह भयभीत नहीं हुआ।

भक्त और ज्ञानी यह जानता और स्वीकारता है कि मृत्यु अटल है भले ही तत्क्षण हो अथवा वर्षों पश्चात् इससे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है, यदि शरीरत्याग न करें तो मुक्ति ही न मिले, संसार में ही अटके रहेंगे, इसलिये मृत्यु से भी भयभीत नहीं होता। दो सौ वर्ष या दो लाख-करोड़ वर्ष जीने की अपेक्षा ही नहीं करता भले ही मुक्ति की इच्छा रखे या वो भी न रखे। किन्तु साधक मृत्यु से भयाक्रांत रहता है, मृत्यु को टालने का प्रयास करता है और टाल भी नहीं पाता।

सांसारिक जीवन जीने वाले साधक-सिद्ध और भक्त में अंतर भी नहीं ज्ञात कर पाते। भक्त यदि कोई वचन दे दे तो उससे कुछ कर्मकांड की अपेक्षा रखते हैं, वचन पर विश्वास नहीं कर पाते और साधक-सिद्धों से कर्मकांड की नहीं वचन मात्र से कामना पूर्ति की इच्छा रखते हैं। ज्ञानियों से ज्ञान की नहीं येन-केन-प्रकारेण सांसारिक सुख-भोग आदि प्राप्ति की कामना रखते हैं। ज्ञानी के वचन से भी कामनापूर्ति होती है किन्तु ज्ञानी भक्तों की तरह वचन देते नहीं हैं। ज्ञानी कर्मफल या होनी कहकर समझाने का प्रयास करते हैं, ज्ञानचक्षु खोलने का प्रयास करते हैं।

भक्ति की शक्ति

अब तक लगभग यह स्पष्ट हो गया है कि :

  • भक्त की अपनी इच्छायें नहीं होती हैं, आवश्यकतायें भले होती हैं।
  • भक्त अन्यों को भी यदि कोई किसी प्रकार की अपेक्षा रखता है तो कामनापूर्ति का वचन बिना किसी सोच-विचार के, बिना किसी लोभ के दे देते हैं।
  • भक्त के वचन मात्र से ही सांसारिक लोगों की कामनापूर्ति होती है।
  • भक्त को भक्ति की शक्ति प्रमाणित करने की भी इच्छा नहीं होती।
  • भक्त की आवश्यकता व वचनों की पूर्ति स्वयं भगवान ही करते हैं अर्थात कुछ भी असंभव नहीं होता।

साधना और सिद्धि के साथ-साथ भक्ति की शक्ति जिनके पास होती है वह इसका व्यापार करते ही नहीं हैं, उन्हें व्यापार करने की आवश्यकता ही नहीं होती। व्यापार करने वाले ही पाखंडी होते हैं, वो न तो भक्त होते हैं, न ज्ञानी होते हैं, न साधक न सिद्ध होते हैं। इन सबको किसी की पीड़ा दूर करने के लिये, जनकल्याण करने के लिये ट्रस्ट बनाकर चंदा-दान मांगने की आवश्यकता नहीं होती। किसी की पीड़ा दूर करने के लिये, जनकल्याण करने के लिये जो ट्रस्ट बनाते हैं, दान और चंदा मांगते रहते हैं वास्तव में उनका भी भगवान में विश्वास नहीं होता है अर्थात भक्त नहीं होते हैं।

दूरदर्शन पर बड़े-बड़े बाबाओं की कथा होती रहती है और कथा में ही याचना भी करते रहते हैं। जनकल्याण के नाम पर ट्रस्ट बनाकर दान-चंदा मांगते हुये स्वयं ही सिद्ध कर देते हैं कि न तो भक्त हैं, न ज्ञानी हैं, न साधक या सिद्ध हैं, व्यापारी मात्र हैं, कथा का व्यापार करते हैं। हाथरस भगदड़ प्रकरण के बाद यह भी स्पष्ट हो गया कि कुछ ऐसे ठग भी होते हैं जो मीडिया से छुपकर भी अपनी दुकान चलाते हैं। एक पानी फूंकने वाला बाबा भी सामने आया, जिसे इतना भी ज्ञात नहीं कि सनातन में फूंकने का निषेध है वो पानी फूंककर क्या करता था, कितना बड़ा बाबा था, ये सभी समझ सकते हैं।

एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है। कर्मकांड विधि पर कर्मकांड, धर्म, अध्यात्म, व्रत-पर्व आदि से संबंधित आलेख निरंतर प्रकाशित किये जाते हैं। नये आलेख संबंधी सूचना के लिये आप ब्लॉग को सब्सक्राइब कर सकते हैं साथ ही हमारे व्हाट्सअप, टेलीग्राम व यूट्यूब चैनल को भी सब्सक्राइब कर सकते हैं। यहां सभी नवीनतम आलेखों को साझा किया जाता है, सब्सक्राइब करे : Telegram  Whatsapp  Youtube


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