भक्ति माहात्म्य : इस आलेख में भक्ति की शक्ति या भक्ति की महिमा पर विस्तृत चर्चा उदाहरण व प्रमाणों द्वारा प्रकाशित करते हुये की गयी है। शास्त्रों में मोक्ष प्राप्ति का मुख्य मार्ग ज्ञान ही बताया गया है किन्तु जब ज्ञान ही मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है फिर अज्ञानियों का क्या होगा ? “साधनधाम मोक्ष कर द्वारा” मानव शरीर को मोक्ष का द्वार जो बताया गया है वह तो सिद्ध नहीं होगा, क्योंकि मानव मात्र मोक्ष प्राप्त कर सकता है। जो ज्ञान मार्ग का अवलम्बन लेने में सक्षम नहीं होते हैं उनके लिये भी दूसरा मार्ग भक्ति बताया गया है।
भक्ति की शक्ति भाग – 1
शास्त्र-पुराणों में ज्ञान को भक्ति का पुत्र कहा गया है अर्थात भक्ति से ज्ञान उत्पन्न होता है और मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। ज्ञान के साथ भक्ति हो तो सोने में सुगंध, यदि ज्ञान न हो तो भी भक्तिमार्ग का अवलम्बन लेकर ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। लेकिन भक्ति स्वतंत्र है, भक्ति सभी सद्गुणों की खान है। इस विषय की विस्तृत चर्चा करेंगे कई आलेखों में करेंगे किन्तु प्रथमतया भूमिका अनिवार्य है और वर्तमान युग की घटनाओं की अनदेखी किये बिना समझेंगे। इससे समझना ही नहीं स्वीकारना भी सरल हो जायेगा। भूमिका की आवश्यकता समझने के लिये नहीं स्वीकार्यता के लिये है।
सनातनी से असनातनी का द्वंद
सनातन में सनातनियों के लिये भी एक अटल सिद्धांत है : “सोइ जानत जेहि देहिं जनाउ” अर्थात परमात्मा को वही जान सकता है जिसे स्वयं परमात्मा जनाते हैं, भगवान यदि स्वप्रकाशित न हों तो उन्हें नहीं देखा जा सकता या जाना जा सकता है। भगवान स्वयं ही निर्णय करते हैं किसे स्वयं के बारे में ज्ञान देना है, कब देना है, कहां देना है ? सनातनी भी स्वयं यह निर्णय या निर्धारण नहीं कर सकता कि उसे कब भगवान को जानना है, कहां जानना है, किस प्रकार से जानना है। एक ही जन्म पर्याप्त है अथवा अनेक जन्म लेना होगा इसका निर्धारण नहीं कर सकता।
जब सनातनी भी आत्म व परमात्म ज्ञान के विषय में काल, स्थान आदि का निर्धारण नहीं कर सकता, प्रयास मात्र कर सकता है फिर जिसे सनातन में विश्वास ही नहीं हो अर्थात असनातनि किस प्रकार जान सकता है अर्थात किसी भी प्रकार से नहीं। सनातन का तात्पर्य ही है जो पहले भी था, वर्त्तमान में भी है और आगे भी रहेगा उससे संबद्ध। सत्य का संबंध सनातन से ही है, सत्य का ज्ञान सनातन ही प्रदान करता है। इस तथ्य को असनातनि भी जानते व समझते हैं। तदपि सनातन को स्वीकारना सरल नहीं होता, व पंथप्रचार के दुराग्रह से ग्रसित होने के कारण असनातनि नाना प्रकार से भ्रमित करने का प्रयास करते रहते हैं।
उन्हीं प्रयासों में है पाखंडियों की सेना खड़ी करना। प्रथम तो पाखंडी को स्थापित करो पुनः पाखंडी का भेद खोलकर सनातन, सनातनी सिद्धांत पर प्रहार करो। आये दिन बाबा-बाबा, पाखंडी बाबा, बाबा का पाखंड आदि करके जो नौटंकी चलाया जा रहा है यह उसी षड्यंत्र का हिस्सा है। यदि बाबा है तो पाखंडी नहीं होगा और यदि पाखंडी है तो उसे बाबा नहीं कह सकते। चिल्लाने वाले पाखंडी कहने का भी साहस नहीं करते और जानबूझकर बाबा, पाखंडी बाबा, बाबा का पाखंड आदि प्रयोग करते हैं जिससे बाबाओं में अविश्वास उत्पन्न किया जा सके, शास्त्रों में अविश्वास उत्पन्न किया जा सके, धर्म में अविश्वास उत्पन्न हो।
अविश्वास क्यों उत्पन्न करना चाहते हैं इसका कुछ कारण तो होना चाहिये। ये इतिहास में अंकित है कि सनातन को न तो तलबार से विचलित किया जा सका न गोलियों से। न तो तर्क से खंडित किया जा सका न विज्ञान से। अबकी बार जो प्रयास किया जा रहा है वो भी रामायण से ही प्रेरणा लेकर, कालनेमि का स्वांग रचकर। कालनेमि के साथ हुआ क्या था यह भी समझ रहा है तथापि सद्गति ही प्राप्त होगा यह भी तो सत्य है। कालनेमि वो था जिसके दोनों हाथों में लड्डू ही लड्डू था, यदि हनुमान जी को भ्रमित करने में सफल रहता तो रावण की कृपा प्राप्त करता और यदि मारा गया तो सद्गति।
विज्ञान और अध्यात्म
इसी कड़ी में विज्ञान भी आता है, अंतःकरण चतुष्टय में से विज्ञान मात्र बुद्धि का ही प्रयोग करता है और बुद्धि से ही सिद्ध होने पर किसी तथ्य को स्वीकार करता है। मन, चित्त अहंकार तक विज्ञान की पहुंच नहीं है तथापि मन को समझने और प्रयोग करने का प्रयास कर रहा है। विज्ञान की अज्ञानता ऐसी है कि मस्तिष्क में ही मन, चित्त अहंकार को ढूंढने का प्रयास कर रहा है। जो वस्तु जहां है ही नहीं वहां अनंतकाल तक ढूंढने पर भी नहीं मिल सकता है।
जब हम मूर्ख, बुद्धिहीन आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं तब मस्तिष्क के प्रति संकेत करते हैं। दिमाग नहीं है, दिमाग में भूसा भरा हुआ है, दिमाग खाली है आदि शब्दों का प्रयोग करते हैं। वास्तव में यह धारणा विज्ञान की है और विज्ञान इस विषय में भ्रमित करने में सफल रहा है। इसके साथ ही मस्तिष्क में ही मन के होने का भी भ्रम उत्पन्न करता है इसका कारण भी है तात्कालिक स्मृति (जीवन की स्मृति) का मस्तिष्क में भी होना।
विज्ञान तात्कालिक स्मृति को ही मन मानता है, और मन ही बुद्धि का प्रयोग करता है इसलिये मन और बुद्धि का स्थान मस्तिष्क को ही सिद्ध करता है। इससे आगे जो अंतःकरण के अन्य दो अंग हैं चित्त और अहंकार उसे विज्ञान स्वीकार करने में भी असफल है, क्योंकि बुद्धि के द्वारा जानने और समझने का प्रयास करता है, जबकि अहंकार और चित्त के अनुसार ही मन और बुद्धि कार्य करती है, बुद्धि के द्वारा अहंकार और चित्त का ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है, इसकी अनुभूति की जा सकती है।
चित्त वो है जहां जन्म-जन्मांतर की स्मृति होती है जिसका अहंकार उपस्थिति, सत्ता का भाव है। किन्तु विज्ञान की पहुंच चित्त और अहंकार तक नहीं है। वास्तविक पहुंच मन और बुद्धि तक भी नहीं है तथापि मन और बुद्धि का प्रयोग करना सरल है, इसलिये प्रयोग करके मस्तिष्क में ही स्थान निर्धारण करती है। किन्तु आगे का जो प्रश्न है वो यह है कि जब कोई व्यक्ति हम या मैं शब्द का प्रयोग करता है तो कहां संकेत करता है ?
जब भी कोई व्यक्ति मैं या हम शब्द का प्रयोग करता है तो उसका संकेत हृदय की ओर होता है न कि मस्तिष्क की ओर। बहुत लोग ऐसे होते हैं जो हम प्रयोग को उचित नहीं मानते, मैं शब्द के प्रयोग करने का अभ्यास करते हैं, तथापि कितना भी अभ्यास कर लें, जब अकस्मात आत्मसंबोधन करना हो तो हम शब्द का ही प्रयोग कर देते हैं। हम शब्द का प्रयोग इसी कारण किया जाता है जिससे कि अन्तःकरण चतुष्टय की सिद्धि हो सके। हम शब्द का प्रयोग करते समय संकेत हृदय की ओर ही होता है जिससे यह सिद्धि होती है कि अंतःकरण चतुष्टय का स्थान नाभिदेश से दश अंगुल ऊपर हृदय है; न कि मस्तिष्क।
मस्तिष्क मात्र सेवक है जो अंतःकरण चतुष्टय के अनुसार कार्य करता है। मस्तिष्क अंतःकरण चतुष्टय का निवास स्थान नहीं है। यदि मस्तिष्क अंतःकरण चतुष्टय का निवास स्थान होता तो मैं या हम शब्द का प्रयोग करते समय संकेत मस्तिष्क की ओर किया जाता न कि हृदय की ओर।
अब प्रश्न ये है कि विज्ञान इस प्रकार भ्रमित क्यों है, यदि विज्ञान ही भ्रमित है तो उसे विज्ञान कैसे माना जाय। वास्तव में वर्तमान का विज्ञान, इतिहास, राजनीति आदि सभी विषय उन्हीं असनातनियों के अधिपत्य में है, वो सनातन द्रोह के कारण दुराग्रह करके सभी विषयों के माध्यम से यही सिद्ध करना चाहते हैं कि सनातन के सिद्धांत असत्य हैं, मान्यता मात्र हैं सत्यता रहित है आदि-आदि। यदि वो सनातन के सत्य को अंगीकार कर लें तो उन्हें भय है कि वो सनातन को भी अंगीकार कर लेंगे। सनातन को अंगीकार न करना पड़े इस दुराग्रह को पालते हुये सनातन से सिद्धांतों के खंडन का पुरजोर प्रयास करते हैं।
दुराग्रह का कारण
क्या दुराग्रह अकारण है ? नहीं ऐसा नहीं है, दुराग्रह अकारण नहीं है। दुराग्रह का कारण पंथ है जो सनातन से प्रतिस्पर्द्धा करना चाहता है। वर्तमान विश्व लोकतंत्र को स्वीकार करता है और संख्याबल के आधार पर निर्णय लेता है न कि सत्य के आधार पर, सिद्धांत के आधार पर। न्याय भी संख्या बल से प्रभावित है, संख्याबल के अनुसार संतुलन स्थापित करने का प्रयास करना इसका प्रमाण है। उसे न्याय कहा जायेगा या समझौता जब दो पक्षों में संतुलन-सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया जाता हो? न्याय का कार्य ये है ही नहीं न्याय का कार्य अपराधी को दंडित करना है, अपराधी से पीड़ित का समझौता कराना नहीं।
वर्त्तमान विश्व में विभिन्न पंथों के अनुयायी अधिक हैं जिनमें कट्टरता भी कूट-कूट कर भरी होती है। भले ही वो किसी पद पर स्थापित क्यों न हो जायें, पद की मर्यादा कुछ भी क्यों न हो वो अपनी कट्टरता को नियंत्रित नहीं करेंगे। वो ये स्वीकार नहीं करेंगे कि धर्म एक ही है शेष पंथ हैं। पंथ और धर्म की तुलना भी नहीं की जा सकती किन्तु पंथ की तुलना और प्रतिस्पर्द्धा धर्म से करने के लिये दुराग्रह अनिवार्य है। इसलिये दुराग्रह का त्याग नहीं करते हैं। और जब दुराग्रह का त्याग नहीं करते हैं तो सत्य को भी स्वीकार नहीं करते अपितु सत्य के विपरीत सिद्धांत स्थापित करने का प्रयास करते हैं जिससे सनातन पर प्रहार किया जा सके।
भक्ति की शक्ति का एक उदाहरण
इस आलेख में हम विषय की चर्चा पर आते हुये भक्ति की शक्ति का एक मात्र संक्षिप्त उदाहरण प्रस्तुत करेंगे; अन्य चर्चायें भविष्य के आलेखों में करेंगे। आज के भारत में जो बाबा नहीं उन्हीं तत्वों के द्वारा स्थापित किये पाखंडी होते हैं वो भक्ति की शक्ति का ही स्वांग रचते हैं और भक्ति की शक्ति को कलंकित करने का कुचक्र करते हैं षड्यंत्र रचते हैं।
ये सब षड्यंत्र रचा जा रहा है, कोई भी पाखंडी जिसका भेद खुलने से पहले बाबा-बाबा के रूप में प्रसिद्धि रहती है वो न तो बाबा होता है न ही सनातन को जानता व समझता है उसे ये षड्यंत्रकारी ही बाबा के रूप में स्थापित करते हैं। वास्तविक बाबाओं को तो ये प्रताड़ित करने का प्रयास करते हैं और उदहारण है बागेश्वर धाम के धीरेन्द्र शास्त्री। मीडिया के माध्यम से प्रताड़ित करने का कैसा प्रयास किया गया था यह किसी से छुपा हुआ नहीं है।
ये पाखंडियों के भेद का उद्भेदन भी नहीं चाहते अपितु उसके माध्यम से अपनी सोच का विस्तार करना चाहते हैं, अपनी मान्यताओं को स्थापित करना चाहते हैं। किन्तु जब दुर्योग से किसी पाखंडी का भेद खुल जाता है तो उसे बलि का बकड़ा बनाकर पुनः सनातन को ही कलंकित करने का प्रयास करते हैं और इस कार्य में सहयोगी होती है मीडिया और राजनीति। मीडिया उसे पाखंडी नहीं कहती है अपितु बाबा-बाबा ही जपती रहती है जिससे बाबा के प्रति जनसामान्य में विरोध और विद्रोह उत्पन्न हो पाखंडी के प्रति नहीं, क्योंकि ये तो पाखंडियों के सहारे ही अपनी दुकान चला रहे हैं।
भक्ति की शक्ति का एक सर्वश्रेष्ठ उदहारण वो है जिसके नाम के साथ ही भक्त जुड़ा रहता है। हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद का जब भी नाम लिया जाता है तो भक्त प्रह्लाद ही कहा जाता है, प्रह्लाद नहीं। भक्ति में क्या शक्ति है ये प्रह्लाद चरित्र से प्रकट होता है। भक्ति में असीम शक्ति है, यह अटल सिद्धांत है, भक्ति जड़ को चेतन व चेतन को जड़ बना सकती है और भक्त प्रह्लाद के चरित्र में ऐसी घटनायें हुयी है।
भक्त प्रह्लाद के पिता हिरण्यकशिपु ने पुत्र प्रह्लाद पर भी अत्याचार की सीमाओं का अंत कर दिया था। हिरण्यकशिपु भी पाखंडी था और भक्त प्रह्लाद भले ही पुत्र था किन्तु पाखंडी ने भक्त को भक्ति से विचलित करने के लिये, पाखंड करने के लिये नाना प्रयास किया। कभी हाथी से कुचलवाया तो कभी पहाड़ से गिराया, कभी समुद्र में फेंक दिया तो कभी चिता में बैठाकर आग लगवा दिया। किन्तु भक्ति की शक्ति ऐसी थी कि कुछ नहीं बिगाड़ पाया। भक्ति की शक्ति तो ऐसी थी कि भक्त की रक्षा के लिये भगवान खम्भा फाड़कर प्रकट हो गये और हिरण्यकशिपु का वध कर दिया।
इन पाखंडियों का दुराग्रह समझिये करोड़ों सनातनी जिसने चमत्कार देखा है, वो चमत्कार नहीं बोल सकता है। व्यक्ति चमत्कार नहीं कर सकता ये सत्य है, किन्तु जब भक्त की बात आती है तो वहां भगवान भी जुड़ जाते हैं और भगवान कुछ भी कर सकते हैं। भगवान कुछ भी कर सकते हैं किन्तु भक्त के वश में होते हैं यही शास्त्रों का सिद्धांत है, भक्तप्रह्लाद चरित्र प्रमाण है। चमत्कार भक्त स्वयं नहीं करता है चमत्कार भक्ति करती है और सबसे बड़ा चमत्कार तो ये होता है कि भगवान भी वश में हो जाते हैं। तथापि आवश्यकतानुकूल सांसारिक जीवन में भी चमत्कार होते हैं।
- बड़े-बड़े पहलवानों द्वारा हत्या का प्रयास किया फिर भी भक्तप्रह्लाद बच गये। ये चमत्कार नहीं तो क्या था ?
- हाथी से कुचलवाया फिर भी भक्तप्रह्लाद बच गये। ये चमत्कार नहीं तो क्या था ?
- पहाड़ से गिरवाया फिर भी भक्तप्रह्लाद बच गये। ये चमत्कार नहीं तो क्या था ?
- समुद्र में फिंकवाया फिर भी भक्तप्रह्लाद बच गये। ये चमत्कार नहीं तो क्या था ?
- आग में जलवाया फिर भी भक्तप्रह्लाद बच गये। ये चमत्कार नहीं तो क्या था ?
चमत्कार के संबंध में ये स्पष्ट है कि कोई व्यक्ति कर नहीं सकता, व्यक्ति की सीमा जादू, हाथ की सफाई, विज्ञान तक है किन्तु भक्त न तो चमत्कार करता है, न ही दावा करता है, न ही दुनियां से कोई अपेक्षा करता है और ऐसे भक्त के लिये स्वतः ही चमत्कार होते रहते हैं। वर्त्तमान युग में जिसे भक्तिकाल कहा जाता है अनेकों भक्त चरित्र से भरे-पड़े हैं जिनके जीवन में चमत्कार ही चमत्कार होते रहे। लेकिन चमत्कार के नाम पर किसी भक्त ने स्वयं न तो कोई दावा किया, न कभी किसी से कोई अपेक्षा रखा, किन्तु जब कभी भी आवश्यकता हुयी स्वतः चमत्कार हो गया।
समाज में निंदा व स्तुति दोनों होती रही किन्तु वो भक्त न तो निंदा से पीड़ित होता था, न ही स्तुति से फूलता था वो मात्र भक्तिपथ पर अडिग रहता था। भक्त की भावना को प्रकट करने वाला बिंदु जी का एक भजन अतिप्रसिद्ध है जिसकी पंक्ति है “जीवन का मैंने सौंप दिया सब भार तुम्हारे हाथों में, उद्धार पतन अब मेरा है सरकार तुम्हारे हाथों में”
ये विज्ञान का अहंकार है जो चमत्कार को अस्वीकार करता है। ये विज्ञान की तानाशाही है जो ऐसे कानून बनवा देता है जिससे चमत्कार संबंधी वार्तालाप भी अपराध सिद्ध हो जाये। हमें उस कानून के बारे में विशेष ज्ञात तो नहीं कि वो कानून क्या कहता है और हमारा आलेख किसी प्रकार से उस कानून का उल्लंघन भी करता है या नहीं, तदपि यदि ऐसा कानून है जिसका इस आलेख से उल्लंघन हो रहा हो तो वो कानून गलत है उस कानून को बदलने की आवश्यकता है।
उसी कानून की ओट में किसी व्यक्ति या संस्था ने धीरेन्द्र शास्त्री को कलंकित करने का प्रयास किया, बागेश्वर धाम के प्रति लोगों के मन में अश्रद्धा उत्पन्न करने का कुप्रयास किया, मीडिया ने भरपूर सहयोग किया। दिन-रात चमत्कार-चमत्कार-चमत्कार चिल्लाते रही ऐसा भी दिखाने का प्रयास किया कि ये तो मनोविज्ञान है, हम भी कर सकते हैं, अरे धूर्त यदि ये मनोविज्ञान ही था तो आघात क्यों किया ? अब मैं बताता हूँ चमत्कार क्या हुआ था।
हजारों-लाखों की भीड़ में से सौ-पचास लोगों के संबंध में बिना जानकारी के कुछ बता देना मनोविज्ञान नहीं है। यदि ये माना जाय कि पूर्वनियोजित तरीके से ऐसा किया जाता है तो मनोविज्ञान से ऐसा करके दिखाओ। लगातार अनेकों जगह घूम-घूम कर लाखों लोगों की सभा लगाओ, उसमें से प्रतिदिन सौ-पचास चयनित लोगों की ही सही किन्तु किसी उपकरण (मोबाइल, मेमोरी, कम्यूटर आदि) का प्रयोग किये बिना पर्चा बनाकर दिखाओ। नहीं कर सकते, कैमरे में 5 लोगों को बिठाकर ही मनोविज्ञान से भ्रमित कर सकते हैं। और यदि कर सकते तो जैसे कैमरे में 5 लोगों को बिठाकर किया था वैसे ही सभा लगाकर भी कर दिया होता। बताओ ये चमत्कार नहीं तो क्या है ?
यदि तुम ये मनोविज्ञान से नहीं कर सकते, किन्तु तुम्हें चुनौती देकर लगातार धीरेन्द्र शास्त्री ऐसा करते रहे और तुमने झूठा सिद्ध करने का अथक प्रयास भी किया किन्तु सिद्ध नहीं कर पाये अपितु अपना भेद छुपाने के लिये ही परेशान हो गये कि किसकी होटलबाजी व काले कारनामे भी प्रकट न कर दें। पानी पिलपिला कर सबको कूटा, सबके ठठड़ी की गठड़ी बांध दिया। बताओ ये चमत्कार नहीं तो क्या है ?
भक्ति की शक्ति से संबंधित आगे की चर्चा से पूर्व पाखंडियों, ठगों, दुराग्रहियों आदि का भूमिका में उल्लेख आवश्यक था। इस भूमिका के बिना पाखंडियों, ठगों, धूर्तों से बचाव की दिशा में आगे बढ़ते हुये विमर्श करना और भक्ति की शक्ति को समझाना व स्वीकारना कठिन होता अतः न चाहते हुये भी ऐसी भूमिका अपेक्षित थी।
निष्कर्ष : भक्ति की शक्ति जानने और समझने के लिये सनातन के धार्मिक ग्रंथों के अवलोकन-अध्ययन, कथा-सत्संग आदि की आवश्यकता होती है। किन्तु कुछ तत्व हैं जो इस दुराग्रह से पीड़ित हैं कि उनका पंथ ही श्रेष्ठ है, और इस प्रयास में कई प्रकार के षड्यंत्र रचते रहते हैं। वैश्विक स्तर पर ऐसे कुछ लोगों का अलग-अलग झुंड है जो इस प्रयास में है कि जनसामान्य वही सोचें, वही बोलें, वही करें जो वो चाहते हैं। जनसामान्य विशेष रूप से सनातनी जो कि भारत में रहते हैं अभी भी अपने शास्त्रों में विश्वास रखते हैं उन षड्यंत्रकारियों में नहीं, जो कि षड्यंत्रकारियों की पीड़ा है।
अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिये वो षड्यंत्रकारी विज्ञान, इतिहास, राजनीति, संचार, चिकित्सा आदि सभी पद्धतियों का दुरुपयोग भी करते हैं। पाखंडियों का जो झुंड दिखाई दे रहा है वो भी उसी षड्यंत्र का एक भाग प्रतीत होता है। भक्ति की शक्ति असीमित है और किसी भी प्रकार का चमत्कार हो सकता है किन्तु जनसामान्य को ठगने के लिये धूर्त, पाखंडी, ठग भी स्वयं को भक्त सिद्ध करते हैं और अपना व्यापार करते हैं।
एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है। कर्मकांड विधि पर कर्मकांड, धर्म, अध्यात्म, व्रत-पर्व आदि से संबंधित आलेख निरंतर प्रकाशित किये जाते हैं। नये आलेख संबंधी सूचना के लिये आप ब्लॉग को सब्सक्राइब कर सकते हैं साथ ही हमारे व्हाट्सअप, टेलीग्राम व यूट्यूब चैनल को भी सब्सक्राइब कर सकते हैं। यहां सभी नवीनतम आलेखों को साझा किया जाता है, सब्सक्राइब करे : Telegram Whatsapp Youtube