भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका और राम लला की प्राण प्रतिष्ठा

भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका और राम लला की प्राण प्रतिष्ठा

भारतीय संविधान में जिस प्रकार भी सेकुलर शब्द जोड़ा गया हो ये धर्म का मार्ग अवरुद्ध नहीं कर सकता। क्योंकि सेकुलर से पंथनिरपेक्ष अर्थ ही प्रकट होता है।

जो लोग सेकुलर का अर्थ धर्मनिरपेक्ष अर्थ बताते हैं उन्हें धर्म के विषय में कोई ज्ञान ही नहीं है। ऐसे सभी लोगों को पहले धर्म के बारे में न्यूनतम १ वर्ष अध्ययन करना चाहिये और बिना अध्ययन किये किसी भी प्रकार के वक्तव्य से बचना चाहिये।

धर्म और पंथ या समुदाय

जब पंथ को धर्म बोलते हैं तो धर्म का अपमान होता है । धर्म की महत्ता को संक्षेपतः इस प्रकार समझना चाहिये :

  • धर्म सूर्य है तो पंथ जुगनू।
  • धर्म सागर है तो पंथ एक छोटा सा गड्ढा।
  • धर्म वृक्ष है तो पंथ टूटा हुआ एक पत्ता।
  • धर्म विशाल हिमालय है तो पंथ एक छोटा सा पत्थर का टुकड़ा।
  • धर्म समग्र जीवन का सूत्र है तो पंथ मात्र पूजा पद्धति।

अब जबकि पंथ की धर्म से किसी प्रकार तुलना ही नहीं की जा सकती तो पंथनिरपेक्ष को धर्मनिरपेक्ष बताना क्या धर्म का अपमान/तिरष्कार नहीं है ?

जब कभी भी धर्मनिरपेक्ष बोला जाता है तो धर्म का अपमान किया जाता है, जिनकी धर्म में आस्था है उनकी धार्मिक भावना का अपमान किया जाता है। ये अलग बात है कि धर्म सहिष्णु बनाता है, धैर्यवान बनाता है।

  • इसी प्रकार एक और शब्द बोला जाता है – सर्वधर्म। सर्वधर्म का तात्पर्य होता है व्यक्ति के लिये विविध प्रकार/भूमिका से जो पालनीय होता है वह धर्म; जैसे पितृधर्म, मातृधर्म, पुत्रधर्म, पतिधर्म, पत्नीधर्म, ब्राह्मणधर्म, क्षात्रधर्म, वैष्णवधर्म, शाक्तधर्म इत्यादि।
  • लेकिन चूंकि व्याख्या ही अज्ञानियों द्वारा की जाती है और लोगों के सामने (मीडिया आदि द्वारा) जो व्यक्ति व्याख्या करते दिखते हैं वो एक विशेष विचारधारा को पुष्ट करने के लिये धर्मद्रोही संस्था-संगठनों के द्वारा अधिष्ठित व्यक्ति होते हैं।
  • वर्त्तमान राजनीति में भी जो नेता-प्रवक्ता (०.०००१% को छोड़कर) हैं वो भी इस विषय को बिना समझे रट्टूमल तोता की तरह जपा करते हैं। उन्हें भी धर्म और पंथ का अंतर ज्ञात नहीं होता और उन्हें भी अध्ययन की आवश्यकता है।
  • यदि पंथों का समूह हो तो सर्वपंथ कहना चाहिये।
सर्वधर्म समभाव या सर्वपंथ समभाव
सर्वधर्म समभाव या सर्वपंथ समभाव

यहां उद्देश्य मात्र इतना है कि आगे की चर्चा को समझने से पहले ये अपेक्षित है कि यदि पंथ को धर्म समझने की भूल कर रहे हैं तो इस भाव का त्याग कर लें, क्योंकि पंथ कई हैं किन्तु धर्म कई होकर भी एक ही है। धर्म भी कई है मगर मात्र इस भाव से कि कोई व्यक्ति किसी एक भूमिका में नहीं होता कई भूमिका में होता है।

भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका और राम लला की प्राण प्रतिष्ठा

जब हम राजनीति कहते हैं तो नीति धर्म का ही बोध कराता है। जब आप ये कहते हैं कि राजनीति में धर्म नहीं होना चाहिये तब आप राज अपने पास रखते हैं नीति (धर्म) को अलग करने की बात करते हैं।

ये अलग बात है कि कितनी भी डिबेट करो आप शास्त्रार्थ करना नहीं चाहते इन विषयों पर विस्तृत शास्त्रार्थ की अपेक्षा है ताकि जा आप राजनीति बोलें तो आपको ये स्पष्ट समझ में आये कि सत्ता/शासन/प्रशासन/न्यायतंत्र (सामूहिक रूप से) राज को बोधक है और नीति धर्म का बोधक है।

सांस्कृतिक स्वतंत्रता की याचना

परतंत्र भारत में आक्रांताओं द्वारा धर्म को क्षति पहुंचाते हुये पंथ को ही धर्म सिद्ध करने का प्रयास हुआ और ये प्रयास स्वतंत्र हुये विखण्डित भारत में भी दशकों तक अनवरत रूप से चलता ही रहा, जिसकी पुष्टि विभिन्न पंथों की भागीदारी में अप्रत्याशित वृद्धिदर से सिद्ध होती है।

काशी, अयोध्या, मथुरा व अन्य मंदिरों की प्रतीक्षा भी यही सिद्ध करती है कि वास्तविक स्वतंत्रता (जिसे सांस्कृतिक, धार्मिक आदि भी कहा जा सकता है) प्राप्त नहीं हो पायी है।

अयोध्या में राम लला की प्राण प्रतिष्ठा से मात्र ये सिद्ध हुआ कि देश सांस्कृतिक स्वतंत्रता की भी अभी याचना कर रहा है, इच्छा रखता है और शांतिपूर्ण तरीकों से उपलब्धि का प्रयास कर रहा है।

सांस्कृतिक स्वतंत्रता की भी अभी याचना
सांस्कृतिक स्वतंत्रता की याचना
  • बिडम्बना तो ये है की देश सांस्कृतिक स्वतंत्रता की याचना कर रहा है और इसे कुछ देशविरोधी तत्वों द्वारा धार्मिक कट्टरता, भगवा आतंकवाद और न जाने क्या-क्या कहकर तिरष्कृत और अपमानित किया जाता है।
  • जो तत्व देश की सांस्कृतिक स्वतंत्रता में वाधा उत्पन्न करते हैं, देश को सांस्कृतिक स्वतंत्र नहीं होने देना चाहते उन्हें देशविरोधी तत्व क्यों न माना जाय ?
  • अथवा दूसरी सच्चाई तो ये है कि इन्हीं लोगों ने देश को सांस्कृतिक रूप से परतंत्रता की बड़ी में जकड़ रखा है और यदि देश सांस्कृतिक रूप से स्वतंत्र होता है तो इनका आधिपत्य (सांस्कृतिक) समाप्त हो जायेगा।
  • और इसी कारण ये सांस्कृतिक आधिपत्य सुरक्षित रखने के लिये राजनीति से नीति (धर्म) को अलग रखने के पक्षधर हैं।

सांस्कृतिक आधिपत्य क्यों चाहते हैं ?

वास्तव में ये तत्व भारतीय संस्कृति में आस्था ही नहीं रखते ये सभी आक्रन्ताओं और उपनिवेशवादियों की संस्कृति के अनुयायी हैं। सत्ता सुख भी इनकी चाह नहीं है, इनकी चाह दीर्घकालीन सत्ता प्राप्ति है। यदि सत्ता सुख इनकी चाह होती तो ये तत्व जनभावना का सम्मान करते ये तो जनभावना का भी निरादर मंचों से अर्थात सार्वजानिक रूप से करते हैं।

इन तत्वों से एक जटिल प्रश्न है क्या संस्कृति को स्वतंत्र रहने का अधिकार नहीं है ?

  • यद्यपि इनसे नीतिसङ्गत उत्तर की अपेक्षा भी नहीं है ये अत्यंत निकृष्ट श्रेणी के निर्लज्ज तत्व होते हैं। इनको अपना स्वार्थ सिद्ध करना है तो ये कोई उचित और नीतिसङ्गत उत्तर क्यों देंगे ये तो इस विषय में वार्तालाप/विमर्श करना भी स्वीकार नहीं करेंगे।
  • लेकिन प्रश्न तो अपना उत्तर प्राप्त करेगा ही। प्रश्न का अर्थ ही होता है कि भले विलम्ब क्यों न हो उसका उत्तर उपस्थित होगा।
  • इस विषय पर विचार-विमर्श करो न करो, संस्कृति को भी स्वतंत्रता का अधिकार है स्वीकार करो या न करो लेकिन संस्कृति भी अपनी आत्मरक्षा का अधिकार सुरक्षित रखती है।
सांस्कृतिक स्वतंत्रता
सांस्कृतिक स्वतंत्रता

सांस्कृतिक स्वतंत्रता क्यों आवश्यक है ?

संस्कृति और सत्ता में प्रत्यक्ष सम्बन्ध है। संस्कृति विरोधी छल-बल से सत्ता प्राप्त कर भी लें तो भी संस्कृति उन्हें कालक्रम से विस्थापित कर ही देती है। संस्कृति अपने संरक्षक को ही सत्ता में स्थापित करती है।

संस्कृति मात्र विशिष्ट पहचान ही प्रदान नहीं करती अपितु सुरक्षा भी करती है। अर्थात संस्कृति के समाप्त होने से पहचान और उपस्थिति दोनों समाप्त हो जाती है और इस तथ्य को इतिहास सिद्ध करता है कि कई देश और संस्कृति जो कुछ हजार वर्ष पूर्व थे आज नष्ट हो गये।

  • चूंकि भारतीय संस्कृति अर्वाचीन है और कई बार आक्रमण व अधीनता देख चुकी है, बार-बार संघर्ष कर चुकी है और गिरकर खड़ा होना जानती है।
  • भारतीय संस्कृति का मूल अत्यंत गहराई तक है जिसे समाप्त नहीं किया जा सकता भले ही ऊपर दिखने वाला भाग पूर्णतः नष्ट भी क्यों न कर दिया जाय समय के साथ फिर से पनप कर पल्लवित-पुष्पित-फलित होना जानती है।
  • यदि मूल को भी किसी प्रकार नष्ट कर दिया जाय तब भी यह उस पीपल वृक्ष के समान है जो बीज रूप में सुरक्षित रहेगी ही और यथा समय किसी घर के ऊपर, किसी अन्य वृक्ष के ऊपर भी उत्पन्न हो सकती है।

एक मनुष्य ही नहीं प्रत्येक जीव के अपनी प्रकृति होती है जिसके अनुसार उसकी प्रवृत्ति दिखती है। इसी तरह किसी भूखंड की भौगोलिक स्थिति के अनुकूल वहां की लोगों की विशेष प्रकृति होती है उसी को संस्कृति कहते हैं।

आज विश्व साम्राज्यवाद/उपनिवेशवाद की समाप्ति चाहता है तो उस स्थिति में मात्र भौगोलिक क्षेत्र (जिसे देश कहा जाता है) की स्वतंत्र सत्ता मात्र पर्याप्त नहीं है, भौगोलिक क्षेत्र (देश) की स्वतंत्र सत्ता से अधिक आवश्यकता स्वतंत्र संस्कृति की है।

भारतीय संस्कृति का इतिहास धरती के ऊपर ही नहीं धरती के भीतर तक लिखा हुआ है, नदियों से समुद्र तक लिखा हुआ है, पत्थरों पर ही नहीं पहाड़ों पर भी लिखा हुआ है, सूर्य-चन्द्रमा-नक्षत्र-तारों तक लिखा हुआ है जिसे पन्नों में इतिहास लिखने-पढ़ने वाले कैसे पढ़ें ? उन्हें तो यह भाषा/विधा ही नहीं आती है।

संस्कृति और राजनीति

संस्कृति और राजनीति में बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। भारतीय संस्कृति की विशेषता है कि राजनीति (सत्ता) को संस्कृति के अनुकूल होना ही पड़ता है जब राजनीति (सत्ता) संस्कृति के विरुद्ध हो जाती है तो भारतीय संस्कृति उसका अंत कर देती है और ऐसा पीछे कई बार हो चुका है।

धर्म और संस्कृति

  • धर्म व्यवहार है और संस्कृति पहचान है।
  • धर्म क्रिया है संस्कृति उसका स्वरूप है।
  • धर्म विचार है संस्कृति उसका प्रकटीकरण है।
  • धर्म बीज है संस्कृति वृक्ष है।

इस प्रकार धर्म और संस्कृति एक दूसरे से संबद्ध है।

धर्म और राजनीति

धर्म क्रिया है जो अपने संरक्षण के लिये संस्कृति रूप में राजनीति अर्थात सत्ता को शक्ति प्रदान करती है। धर्महीन राजनीति (सत्ता) मृत है क्योंकि राजनीति (सत्ता) का प्राण शक्ति है।

चूंकि सनातन अनादि और अनंत है इसलिये संस्कृति का भी अंत नहीं किया जा सकता और चूंकि संस्कृति का अंत नहीं किया जा सकता अतः संस्कृति अपने रक्षक को समय-समय पर उत्पन्न करती ही रहती है जिससे उसे पुनर्जीवन प्राप्त होता है। कालांतर से पुनः आघात सहते हुये घायल होने पर भी नया रक्षक उत्पन्न करती है।

राजनीति से यदि नीति को अलग नहीं किया जा सकता तो इसका तात्पर्य है कि धर्म को अलग नहीं किया जा सकता। मूलरहित संस्कृति को इतिहास में समाहित किया जा सकता है किन्तु समूल संस्कृति को इतिहास में समाहित नहीं किया जा सकता वो अपना वर्तमान और भविष्यनियन्ता स्वयं होती है जो भारतीय संस्कृति की विशेषता है।

वर्त्तमान भारत में भारतीय संस्कृति संघर्ष कर रही है और राजनीतिक संरक्षक का पोषण कर रही है जिससे सांस्कृतिक उपनिवेश स्थापित करने वाले का अस्तित्व संकट में है और वो बुझते हुये दिये के लौ की तरह भभक रहा है जिसकी प्रतिभूति विपक्ष और उनके द्वारा पोषित पत्रकार व तंत्र के व्यवहार में आभाषित होती है।

राम लला की प्राण प्रतिष्ठा

२२ जनवरी २०२४ को अयोध्या में हुये राम लला की प्राण प्रतिष्ठा से संस्कृति अपने जीवंतता की उपस्थिति का आभास कराते हुये धर्म का बीजारोपण और राजनीतिक संरक्षण का पोषण करती है, जिससे सांस्कृतिक उपनिवेशवादियों को अपना अस्तित्व संकट में दिख रहा है।

राम लला की प्राण प्रतिष्ठा से ये सिद्ध होता है कि :

  • संस्कृति ने अपने संरक्षक का चयन कर लिया है।
  • संस्कृति ने पुनः धर्म का (राजनीतिक धरातल पर) बीजारोपण कर दिया है।
  • सांस्कृतिक उपनिवेशवादियों का अंत निकट है।
  • भारत पुनः विश्वगुरु बनने की दिशा में यात्रा आरंभ कर चुका है।

॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः सुशांतिर्भवतु सर्वारिष्ट शान्तिर्भवतु

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

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