दुर्गा सप्तशती पाठ – मूल दुर्गा सप्तशती संस्कृत पाठ

दुर्गा सप्तशती पाठ – मूल दुर्गा सप्तशती संस्कृत पाठ

दुर्गा सप्तशती का पाठ नवरात्री में विशेष रूप से किया जाता है। नवरात्रा व देवी उपासना के अवसर पर जन-जन दुर्गा सप्तशती का पाठ करते-कराते हैं। यहां हम संपूर्ण दुर्गा सप्तशती जो कि मूल संस्कृत पाठ है उसके बारे में महत्वपूर्ण विमर्श करते हुये पाठ विधि और सम्पूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ का अध्ययन करेंगे। यहां दुर्गा सप्तशती पाठ को शुद्धतम रखने का विशेष प्रयास किया गया है।

दुर्गा सप्तशती क्या है ?

  • श्री दुर्गा सप्तशती भगवती दुर्गा का सबसे महत्वपूर्ण एवं अत्यंत प्रभावशाली स्तोत्र है।
  • मूल रूप से यह मार्कण्डेय पुराण के ७०० श्लोकों का संग्रह है जिसमें भगवती के चरित्रों (कथाओं) और माहात्म्य का वर्णन किया गया है।
  • सप्तशती का अर्थ होता है ७०० संख्यात्मक और दुर्गा सप्तशती का अर्थ होता है दुर्गा के ७०० श्लोकों वाला स्तवन।
  • सम्पूर्ण दुर्गा सप्तशती को कुल १३ अध्यायों में बांटा गया है।
  • दुर्गा सप्तशती पाठ विधि में १३ अध्यायों के अतिरिक्त भी कई अङ्ग हैं।
  • अधिकतम उपलब्ध पुस्तकों में उवाच को भी गिना गया है।
  • किन्तु कुछ पुस्तकों में उवाच की गिनती नहीं भी की गई है।

दुर्गा सप्तशती को तीन भागों में बांटा गया है जिसे चरित्र कहा गया है –

  • प्रथम चरित्र – प्रथम चरित्र में १ अध्याय है जिसके देवता महाकाली हैं।
  • द्वितीय चरित्र – द्वितीय चरित्र में कुल ३ अध्याय है २, ३ और ४। द्वितीय चरित्र के देवता महालक्ष्मी हैं।
  • तृतीय चरित्र – तृतीय चरित्र में शेष ८ अध्याय (अध्याय ५ – १३) तक है। तृतीय चरित्र के देवता महासरस्वती हैं।

दुर्गा सप्तशती पाठ के लाभ या माहात्म्य

दुर्गा सप्तशती पाठ के लाभ अर्थात माहात्म्य का वर्णन मुख्य रूप से बारहवें अध्याय में देवताओं को भगवती ने स्वयं बताया है :

  • एभिः स्तवैश्‍च मां नित्यं स्तोष्यते यः समाहितः। तस्याहं सकलां बाधां नाशयिष्याम्यसंशयम्॥
  • सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः। मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः॥
  • दुर्गा सप्तशती पाठ से व्यक्ति को समस्याओं से लड़ने की क्षमता मिलती है।
  • दुर्गा सप्तशती पाठ से आजीविका संबंधी लाभ प्राप्त होता है।
  • दुर्गा सप्तशती पाठ से आरोग्य अर्थात स्वास्थ्य संबंधी लाभ होता है।
  • दुर्गा सप्तशती पाठ से सुख और सौभाग्य की वृद्धि होती है।
  • दुर्गा सप्तशती पाठ से सभी प्रकार के भय का नाश होता है।
  • दुर्गा सप्तशती पाठ से सभी प्रकार के बाधाओं का शमन होता है।
  • संकट में पड़े लोगों को दुर्गा सप्तशती पाठ से अत्यधिक लाभ प्राप्त होता है।
  • दुर्गा सप्तशती पाठ से धन-धान्य-पुत्रादि की वृद्धि होती है।
दुर्गा सप्तशती पाठ
दुर्गा सप्तशती पाठ

दुर्गा सप्तशती पाठ के नियम

जब दुर्गा पाठ के नियम की बात करते हैं तो इससे सप्तशती पाठ के नियम का बोध होता है लेकिन सामान्यतः लोग नवरात्रि नियम या नवरात्री में दुर्गापाठ का नियम अर्थ लगा लेते हैं।

नवरात्रि में दुर्गा सप्तशती पाठ विधि

  • नवरात्रि में प्रत्येक तिथि को एक आवृत्ति (अथवा संकल्पित) पाठ करने का नियम है।
  • सामान्य रूप से प्रातः काल ही पाठ करने का नियम है।
  • यदि किसी दिन तिथि क्षय (लुप्त तिथि) हो तो उस दिन दोगुना पाठ होता है।
  • अंतिम दिन अर्थात नवमी को भी पाठ करने के बाद ही हवन किया जाता है।

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि :

  • दुर्गा सप्तशती पाठ के समय मुख्य भारतीय परिधान (धोती+गमछा) ही पहने।
  • पाठ से पूर्व शुद्धिकरण, शिखा बंधन, प्राणायाम आदि अवश्य करें।
  • दुर्गा सप्तशती पाठ करने से पहले पूजा कर लें।
  • दुर्गा सप्तशती पाठ करने से पहले पुस्तक की भी पूजा करें।
  • दुर्गा सप्तशती पुस्तक को बिना आसन के (नीचे या हाथ में) न रखें।
  • नवार्ण मंत्र जप करने के लिये गोमुखी में माला ले लें।
  • आसन संबंधी नियमों (आसन पर खड़ा न होना, लंघन न करना, पैर से न खिंसकाना) का पालन करें।
  • दुर्गा सप्तशती पाठ यथासंभव निराहार रहकर करें अर्थात फलाहार या हविष्यान्न ग्रहण करके भी कर सकते हैं।
  • दुर्गा सप्तशती पाठ करते समय मन को शांत रखना चाहिये।
  • यदि अत्यंत आवश्यक हो तो ही मध्य में (चरित्र पाठ पूर्ण होने पर) उठना चाहिये अन्यथा नहीं।
  • पाठ न तो अधिक उच्च न ही अत्यंत हीन स्वर में करें, मध्यम स्वर में ही पाठ करें।
  • न तो अधिक तीव्र गति से और न ही अधिक धीमी गति से पाठ करें।
  • दुर्गा सप्तशती पाठ करते समय शरीर या शिर को हिलाना नहीं चाहिये।
  • दुर्गा सप्तशती पाठ संस्कृत में ही करें, यदि संस्कृत पाठ नहीं कर सकते तो संस्कृत पाठ का श्रवण मात्र करें।
  • पाठ करने के बाद पुस्तक को खुला न रखें, किसी लाल-पीले वस्त्र में लपेटकर ही रखें।

माधुर्यमक्षरव्यक्तिः पदच्छेदस्तु सुस्वरः। धैर्यं लयसमर्थं च षडेते पाठका गुणाः॥

मधुरता, स्पष्ट बोलना, बड़े-बड़े शब्दों को तोड़ना, सुंदर स्वर (मीठे स्वर) में बोलना, धैर्यपूर्वक बोलना, लय सहित बोलना, ये पाठकों के छः गुण हैं। और भी बहुत नियम हैं :

गीती शीघ्री शिरःकम्पी तथा लिखितपाठकः । अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठश्च षडेते पाठकाधमाः ॥

पाठ करने वाले बड़े ग्रंथ को आसन-पीढ़ा-पीठ पर बिराज कर पाठ करना चाहिये।हाथ में ग्रंथ रखकर पाठ से उसका संपूर्ण फल प्राप्त नहीं होता। स्त्रोतादि का पाठ मानसिक नहीं होना चाहिये। वाणी स्पष्ट स्फुरित होनी चाहिये तभी उसका संपूर्ण फल प्राप्त होता है।

अज्ञानात्स्थापिते हस्ते पाठे ह्यर्धफलं ध्रवम्। न मानसे पठेत्स्तोत्रं वाचिकं तु प्रशस्यते ॥

हाथ में ग्रंथ रखकर पाठ से उसका संपूर्ण फल प्राप्त नहीं होता। स्त्रोतादि का पाठ मानसिक नहीं होना चाहिये। वाणी स्पष्ट स्फुरित होनी चाहिये तभी उसका संपूर्ण फल प्राप्त होता है।

उच्चैः पाठं निषिद्धं स्यात्त्वरां च परिवर्जयेत्। शुध्देनाचलचित्तेन पठितव्यं प्रयत्नता॥

बहुत उच्च स्वर से तथा शीघ्रता से पाठ नहीं करें।अस्थिर चित्त होकर भी पाठ करने से पूरा फल प्राप्त नहीं होता। शब्द शुद्धि का भी ध्यान रखना चाहिये।

यथा सुमत्तनागेन्द्रः पदात् पदं निधापयेत् ।
एवं पदं पदाद्यन्तं दर्शनीयं पृथक् पृथक् ॥

शङ्कितं भीतिमुद्घृष्टमव्यक्तमनुनासिकम् । काकस्वरं शिरसि गतं तथा स्थानविवजिर्तम् ॥

उपांशु दष्टं त्वरितं निरस्तं विलम्बितं गद्गदितं प्रगीतम् । निष्पीडितं ग्रस्तपदाक्षरं च वदेन्न दीनं न तु सानुनास्यम् ॥

  • यदि एक सहस्र से अधिक श्‍लोकों का या मन्त्रों का ग्रन्थ हो तो पुस्तक देखकर ही पाठ करें; इससे कम श्‍लोक हों तो उन्हें कण्ठस्थ करके बिना पुस्तक के भी पाठ किया जा सकता है।
  • अध्याय समाप्त होने पर “इति”, “वध”, “अध्याय” तथा “समाप्त” शब्दका उच्चारण नहीं करना चाहिये।
  • यदि पाठ कण्ठस्थ न हो तो पुस्तक से करें। अपने हाथ से लिखे हुए अथवा ब्राह्मणेतर पुरुष के लिखे हुए स्तोत्र का पाठ न करें।
  • जबतक अध्याय की पूर्ति न हो, तबतक बीच में पाठ बन्द न करें। यदि प्रमादवश अध्याय के बीच में पाठ का विराम हो जाय तो पुनः प्रति बार पूरे अध्याय का पाठ करें।
  • अज्ञानवश पुस्तक हाथ में लेकर पाठ करने का फल आधा ही होता है। स्तोत्र का पाठ मानसिक नहीं, वाचिक होना चाहिये। वाणी से उसका स्पष्ट उच्चारण ही उत्तम माना गया है।

दुर्गा सप्तशती पाठ संस्कृत में

किसी भी स्तोत्र-मंत्र-कथा आदि का वास्तविक फल संस्कृत पाठ करने से ही सिद्ध हो सकता है। संस्कृत भाषा मात्र नहीं देववाणी कहलाती है। यदि संस्कृत पाठ न किया जा सके तो श्रवण करने (सुनने) पर भी समान फल ही प्राप्त होता है। इसलिये जितने भी मूल मंत्र-स्तोत्रादि संस्कृत में ही हैं और पाठ फल की सिद्धि के लिये संस्कृत में ही पाठ करना चाहिये।

श्री दुर्गा सप्तशती पाठ का भी पूर्ण फल प्राप्त करने के लिये संस्कृत में ही पाठ करना चाहिये। यदि संस्कृत पाठ करना न आता हो तो सुनना चाहिये और पाठ सीखने का प्रयास करना चाहिये।

दुर्गा सप्तशती पाठ हिंदी में

  • हिन्दी में या अन्य अनुवादित भाषाओं में पाठ करना – हिन्दी या अन्य भाषाओं में पाठ करने पर मूल पाठ की फल प्राप्ति संभव नहीं है, हां बारबार भगवती के अनेक नामों का उच्चारण होगा इस कारण नामोच्चारण का फल निःसंदेह सिद्ध होता है।
  • पुनः अन्य भाषाओं में भी पाठ करने से किसी न किसी प्रकार से मन में भगवती का ध्यान-चिंतन अवश्य ही होता है और उसका फल भी अवश्य ही सिद्ध होता है, भले ही श्री दुर्गा सप्तशती पाठ का फल हो या न हो।
  • लेकिन यदि हिन्दी में भी पाठ करते हों तो भी जहां कहीं संस्कृत में पाठ किया जा रहा हो उसे श्रवण करने का प्रयास करना चाहिये।
  • इसी कारण गांवों में प्रायः ब्राह्मण द्वारा ही पाठ कराया जाता है यजमान केवल श्रवण करते हैं।
  • किन्तु निःसंदेह कुछ सदियों से सनातन विरोधियों के कुछ संगठन सक्रिय रहे हैं जिन्होनें सनातन को समाप्त करने का पूर्ण प्रयास किया जिसमें सफल न हो सके किन्तु प्रभाव तो अवश्य पड़ा है और हिन्दी में पाठ करने की परम्परा आरम्भ होना इसी की छाप लगती है।

मूल पाठ (संस्कृत पाठ) के अनन्तर हिन्दी अनुवाद भी दिया जा गया है ।

दुर्गा सप्तशती पाठ – मूल दुर्गा सप्तशती संस्कृत पाठ

या चण्डी मधुकैटभादिदैत्यदलनी या माहिषोन्मूलिनी
या
धूम्रेक्षणचण्डमुण्डमथनीया रक्तबीजाशनी।
शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलनी
यासिद्धिदात्री परा
सा देवी
नवकोटि मूर्ति सहिता मां पातु विश्वेश्वरी

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दुर्गा सप्तशती संस्कृत पाठ
दुर्गा सप्तशती संस्कृत पाठ

नवरात्रा में प्रतिदिन की नैवेद्य वस्तु क्या है ?

  1. पवित्रीकरण मंत्र : ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थाङ्गतोऽपि वा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स: बाह्याऽभंतर: शुचि:॥ ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥ हाथ में गंगाजल/जल लेकर इस मंत्र से शरीर और सभी वस्तुओं पर छिड़के ।
  2. आसन पवित्रीकरण मंत्र : ॐ पृथ्वि त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुनाधृता। त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥ इस मंत्र से आसन पर जल छिड़क कर आसनशुद्धि करें।
  3. आचमन : ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥ ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥ ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥ हस्तप्रक्षालन : ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा॥
  4. फिर तिलकधारण, शिखाबंधन, प्राणायामादि करके देवताओं का पूजन करे, साथ ही पुस्तक की पूजा भी करे।

पूठा-पाठ-जप के संकल्प से अलग होता है नवरात्र व्रत संकल्प

  • पाठ का संकल्प : ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः। ॐ नमः परमात्मने, श्रीपुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्रीब्रह्मणोह्नि द्वितीयपरार्द्धे श्रीश्‍वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्तैकदेशे पुण्यप्रदेशे बौद्धावतारे वर्तमाने ………. नामसंवत्सरे अयने महामाङ्गल्यप्रदे मासानाम्‌ उत्तमे ………. मासे ………. पक्षे ………. तिथौ ………. वासरान्वितायाम्‌ ……… नक्षत्रे ………. राशिस्थिते सूर्ये ……… राशिस्थितेषु चन्द्रभौमबुधगुरुशुक्रशनिषु सत्सु शुभे योगे शुभकरणे एवंगुणविशेषणविशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ सकलशास्त्रश्रुतिस्मृति-पुराणोक्तफल प्राप्तिकामः ……….. गोत्रोत्पन्नः ………. नाम अहं ममात्मनः सपुत्रस्त्रीबान्धवस्य श्रीनवदुर्गानुग्रहतो ग्रहकृतराजकृतसर्वविधपीडा-निवृत्तिपूर्वकं नैरुज्य दीर्घायुः पुष्टिधनधान्यसमृद्ध्यर्थं श्रीनवदुर्गाप्रसादेन सर्वापन्निवृत्तिसर्वाभीष्ट फलावाप्ति धर्मार्थकाममोक्ष चतुर्विधपुरुषार्थ सिद्धिद्वारा श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वती देवताप्रीत्यर्थं शापोद्धारपुरस्सरं कवचार्गलाकीलकपाठ वेदतन्त्रोक्तरात्रिसूक्तपाठ देव्यथर्वशीर्षपाठ न्यास-विधिसहितनवार्णजपसप्तशतीन्यासध्यानसहित-चरित्रसम्बन्धि विनियोग न्यासध्यानपूर्वकं च “मार्कण्डेय उवाच॥ सावर्णिः सूर्यतनयो यो मनुः कथ्यतेऽष्टमः।” इत्याद्यारभ्य “सावर्णिर्भविता मनुः” इत्यन्तं दुर्गासप्तशतीपाठं तदन्ते न्यासविधिसहितनवार्णमन्त्रजपं वेदतन्त्रोक्तदेवीसूक्तपाठं रहस्यत्रयपठनं शापोद्धारादिकं च करिष्ये॥

शापोद्धार

  • शापोद्धार – ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा॥ इस मन्त्र का आदि और अन्त में ७-७ बार जप करे। यह शापोद्धार मन्त्र कहलाता है।
  • उत्कीलन – इसके अनन्तर उत्कीलन मन्त्र का जप किया जाता है। इसका जप आदि और अन्तमें २१-२१ . बार होता है। यह मन्त्र इस प्रकार है – ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा॥
  • इसके जप के पश्‍चात्‌ आदि और अन्त में सात-सात बार मृतसंजीवनी विद्या का जप करना चाहिये, जो इस प्रकार है – ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा॥
  • मारीचकल्प के अनुसार सप्तशती शापविमोचन का मन्त्र यह है – ॐ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ॐ ऐं क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं॥ इस मन्त्र का आरम्भ में ही एक सौ आठ बार जाप करना चाहिये, पाठ के अन्त में नहीं।

अथवा रुद्रयामल महातन्त्र के अन्तर्गत दुर्गाकल्प में कहे हुए चण्डिका-शाप-विमोचन मन्त्रों का आरम्भ में ही पाठ करना चाहिये। वे मन्त्र इस प्रकार हैं-

ॐ अस्य श्रीचण्डिकाया ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्र शापविमोचन मन्त्रस्य वसिष्ठनारदसंवाद सामवेदाधिपतिब्रह्माण ऋषयः सर्वैश्‍वर्यकारिणी श्रीदुर्गा देवता चरित्रत्रयं बीजं ह्री शक्तिः त्रिगुणात्मस्वरूपचण्डिकाशापविमुक्तौ मम संकल्पितकार्यसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः॥.

  1. ॐ (ह्रीं) रीं रेतःस्वरूपिण्यै मधुकैटभमर्दिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्रशापाद्विमुक्ता भव॥१॥
  2. ॐ श्रीं बुद्धिस्वरूपिण्यै महिषासुरसैन्यनाशिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्रशापाद्विमुक्ता भव॥२॥
  3. ॐ रं रक्तस्वरूपिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्रशापाद्विमुक्ता भव॥३॥
  4. ॐ क्षुं क्षुधास्वरूपिण्यै देववन्दितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्रशापाद्विमुक्ता भव॥४॥
  5. ॐ छां छायास्वरूपिण्यै दूतसंवादिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्रशापाद्विमुक्ता भव॥५॥
  6. ॐ शं शक्तिस्वरूपिण्यै धूम्रलोचनघातिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्रशापाद्विमुक्ता भव॥६॥
  7. ॐ तृं तृषास्वरूपिण्यै चण्डमुण्डवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्रशापाद्विमुक्ता भव॥७॥
  8. ॐ क्षां क्षान्तिस्वरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्रशापाद्विमुक्ता भव॥८॥
  9. ॐ जां जातिस्वरूपिण्यै निशुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्रशापाद्विमुक्ता भव॥९॥.
  10. ॐ लं लज्जास्वरूपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्रशापाद्विमुक्ता भव॥१०॥
  11. ॐ शां शान्तिस्वरूपिण्यै देवस्तुत्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्रशापाद्विमुक्ता भव ॥११॥
  12. ॐ श्रं श्रद्धास्वरूपिण्यै सकलफलदात्र्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्रशापाद्विमुक्ता भव॥१२॥
  13. ॐ कां कान्तिस्वरूपिण्यै राजवरप्रदायै ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्रशापाद्विमुक्ता भव॥१३॥
  14. ॐ मां मातृस्वरूपिण्यै अनर्गलमहिमसहितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्रशापाद्विमुक्ता भव॥१४॥
  15. ॐ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै सं सर्वैश्‍वर्यकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्रशापाद्विमुक्ता भव॥१५॥
  16. ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिवायै अभेद्यकवचस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्रशापाद्विमुक्ता भव॥१६॥
  17. ॐ क्रीं काल्यै कालि ह्रीं फट् स्वाहायै ऋग्वेदस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्‍वामित्रशापाद्विमुक्ता भव॥१७॥
  18. ॐ ऐं ह्री क्लीं महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीस्वरूपिण्यै त्रिगुणात्मिकायै दुर्गादेव्यै नमः॥१८॥
  19. इत्येवं हि महामन्त्रान्‌ पठित्वा परमेश्‍वर। चण्डीपाठं दिवा रात्रौ कुर्यादेव न संशयः॥१९॥
  20. एवं मन्त्रं न जानाति चण्डीपाठं करोति यः। आत्मानं चैव दातारं क्षीणं कुर्यान्न संशयः॥२०॥

इस प्रकार शापोद्धार करने के अनन्तर अन्तर्मातृका-बहिर्मातृका आदि न्यास करे, फिर श्रीदेवी का ध्यान करके रहस्य में बताये अनुसार नौ कोष्ठोंवाले यन्त्र में महालक्ष्मी आदि का पूजन करे, इसके बाद छः अंगोंसहित दुर्गासप्तशती का पाठ आरम्भ किया जाता है।

कवच, अर्गला, कीलक और तीनों रहस्य – ये ही सप्तशती के छः अंग माने गये हैं। इनके क्रम में भी मतभेद हैं। चिदम्बर संहिता में पहले अर्गला फिर कीलक तथा अन्त में कवच पढ़ने का विधान है। किंतु योग-रत्नावली में पाठ का क्रम इससे भिन्न है।

कवचं बीजमादिष्टमर्गला शक्तिरुच्यते।
कीलकं कीलकं प्राहुः सप्तशत्या महामनोः॥
– योगरत्नावली

उसमें कवच को बीज, अर्गला को शक्ति तथा कीलक को कीलक संज्ञा दी गई है। जिस प्रकार सब मन्त्रों में पहले बीज का, फिर शक्ति का तथा अन्त में कीलक का उच्चारण होता है, उसी प्रकार यहाँ भी पहले कवचरूप बीज का, फिर अर्गलारूपा शक्ति का तथा अन्त में कीलकरूप कीलक का क्रमशः पाठ होना चाहिये। यहाँ इसी क्रम का अनुसरण किया गया है।

यहाँ ३ भागों में विभाजित करके वीडियो में सम्पूर्ण दुर्गा सप्तशती पाठ दिया गया है जो संस्कृत पाठ सीखने वालों के लिये उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

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