गृह प्रवेश पूजा विधि – Grihpravesh vidhi

गृह प्रवेश पूजा विधि

संकल्प :

त्रिकुशा, पान, सुपारी, तिल, जल, पुष्प, चंदन, द्रव्यादि लेकर संकल्प करे :

वास्तु मंडल चक्र
वास्तु मंडल चक्र

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद् भगवतो महापुरूषस्य,विष्णुराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य (रात मे : अस्यां रात्र्यां कहे) ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीये परार्धे श्रीश्वेत वाराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशति तमे कलियुगे कलि प्रथमचरणे भारतवर्षे भरतखण्डे जम्बूद्वीपे आर्यावर्तैक देशान्तर्गते …………  संवतसरे महांमागल्यप्रद मासोतमे मासे ……….  मासे …………   पक्षे ………… तिथौ …………  वासरे …………  गोत्रोत्पन्नः …………  शर्माऽहं/(वर्माऽहं/गुप्तोऽहं) अस्मिन् नूतनगृहे चिरकालनिवासार्थं  करिष्यमाण गृहप्रवेश कर्मणि सर्वोपद्रव शान्तिपूर्वक, दीर्घायु शरीरारोग्य ऐश्वर्याभिवृद्धये पुत्र-पौत्र-धन-धान्यादि-द्विपद- चतुष्पदादि वृद्धये श्रीपरमेश्वर प्रीत्यर्थे शालाकर्म पूर्वक वास्तु शान्तिम्   करिष्ये॥

तदङ्गत्वेन पुण्याहवाचनं मातृकापूजनं नान्दीश्राद्धं चाहं करिष्ये॥ ब्राह्मण आज्ञा दें – कुरुष्व  ।

किसी भी कर्म को करने में ब्राह्मण की आज्ञा का विशेष महत्व होता है। इसलिये संकल्प के उपरांत ब्राह्मण आज्ञा प्रदान करें। संकल्प में नान्दीमुख श्राद्ध भी दिया गया है, यदि आमश्राद्ध भी न कर सके तो हेम श्राद्ध/सांकल्पिक मात्र भी कर ले किन्तु पितरों को निराश कदापि न करे।

आचार्य वरण : आचार्य वरण सामग्री, तिल, जल लेकर पढ़े –  ॐ अद्यैतस्य संकल्पित गृहप्रवेश  कर्मणि आचार्य कर्म कर्तुं एभिः वरणीय द्रव्यैः ……… गोत्रं …….. शर्माणं ब्राह्मणं आचार्यत्वेन त्वामहं वृणे॥ ब्राह्मण कहें – वृत्तोस्मि॥ यजमान पुनः कहे यथाविहितं कर्म कुरु॥ आचार्य पुनः कहें – कर्वाणि॥ आचार्य पूजन करके प्रार्थना करे – आचार्यस्तु यथा स्वर्गे शक्रादीनां बृहस्पतिः । तथा त्वं ममयज्ञेऽस्मिन्चार्यो भव सुव्रत ॥ फिर अन्य  ब्राह्मण का भी वरण करें।

अग्निस्थापन

  • परिसमूह्य : ३ कुशाओं से स्थण्डिल या हस्तमात्र भूमि की सफाई करें। कुशाओं को ईशानकोण में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे । 
  • उल्लेपन : गोबर से ३ बार लीपे।
  • उल्लिख्य – स्फय या स्रुवमूल से प्रादेशमात्र पूर्वाग्र दक्षिण से उत्तर क्रम में ३ रेखा उल्लिखित करे।
  • उद्धृत्य – दक्षिणहस्त अनामिका व अंगुष्ठ से सभी रेखाओं से थोड़ा-थोड़ा मिट्टी लेकर ईशान में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे।
  • अग्नानयन व क्रव्यदांश त्याग – कांस्यपात्र या हस्तनिर्मित मृण्मयपात्र में अन्य पात्र से ढंकी हुई अग्नि मंगाकर अग्निकोण में रखवाए । ऊपर का पात्र हटाकर थोड़ी सी क्रव्यदांश अग्नि (ज्वलतृण) लेकर नैर्ऋत्यकोण में त्याग कर जल से बुझा दे ।
  • अग्निस्थापन – दोनों हाथों से आत्माभिमुख बिना स्थापन मंत्र के हीअग्नि को स्थापित करे, अग्नानयन पात्र में अक्षत-जल छिरके। अग्नि को प्रज्वलित कर पूजा करे व अग्नि रक्षार्थ पर्याप्त ईंधन दे दे।
वास्तु मंडल चक्र

अग्निस्थापन करने के पश्चात् वास्तु वेदी निर्माण व पूजन करे : वास्तु वेदी पर श्वेत वस्त्र पसारे । फिर वेदी के चारों पादों में अग्निकोण से आरम्भ करके ईशानकोण तक द्विगुणित सूत्र (दोहरा धागा) से चार कील बांधे :

ॐ विशन्तु भूतले नागा लोकपालश्च सर्वतः । अस्मिन् गृहे तु तिष्ठन्तु आयुर्बलकराः सदा॥

फिर चारों कील के निकट दही, भात, उड़द आदि की बलि दे –

  1. अग्निकोण – ॐ अग्निभ्यो ऽप्यथसर्पेभ्यो येचान्ये तत्समाश्रिताः । तेभ्योबलिं प्रयच्छामि पुण्यमोदनमुत्तमम् ॥
  2. नैर्ऋत्यकोण – ॐ नैर्ऋत्यधिपतिश्चैव नैर्ऋत्यांयेचराक्षसाः । तेभ्योबलिं प्रयच्छामि पुण्यमोदनमुत्तमम् ॥
  3. वायव्यकोण – ॐ नमोवायुरक्षोभ्यो ये चान्येतान्समाश्रिताः । तेभ्योबलिं प्रयच्छामि पुण्यमोदनमुत्तमम् ॥
  4. ईशाणकोण – ॐ रुद्रेभ्यश्चैव सर्पेभ्यो येचान्येतान्समाश्रिताः । तेभ्योबलिं प्रयच्छामि पुण्यमोदनमुत्तमम् ॥

इस प्रकार उपरोक्त मंत्रो से बलि प्रदान करे ।

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