यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धम्। सही-सही कैसे समझें ?

यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धम्। सही-सही कैसे समझें ?

इस आलेख में हम वैदिक कर्म और लौकिक कर्म को समझते हुये उसमें किसकी प्रधानता होती है और इस वचन का वास्तविक तात्पर्य क्या है इसे समझने का प्रयास करेंगे। कई बार इस वचन को शस्त्रविरुद्ध कर्म करने के लिये भी प्रमाण माना जाता है या शास्त्र-विधि का त्याग करने के लिये भी प्रमाण स्वरूप उद्धृत किया जाता है। हम इसे भी विस्तार से समझेंगे कि यह कितना उचित और कितना अनुचित है।

यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धम्। सही-सही कैसे समझें ?

सृष्टि में दो प्रकार के प्राणी होते हैं एक ज्ञानी और दूसरा अज्ञानी या मुर्ख।

  1. ज्ञानी : ज्ञानी का तात्पर्य है जो शरीर को अनित्य और आत्मा को नित्य जानता है। जो आत्मा और आत्मसंबद्ध विषयों को जानने का प्रयास करता है। भौतिकवाद का शिकार नहीं बनता है। वर्तमान में इनकी संख्या अत्यल्प होती है।
  2. अज्ञानी : अज्ञानी का तात्पर्य है कि तार में उपलब्ध बिजली दिखे तो माने, नहीं दिखती है तो नहीं मानेगें, आत्मा तो दिखती नहीं है दिखता शरीर ही है अतः शरीर को ही मानते हैं; आत्मा व आत्मसंबद्ध विषयों अर्थात अध्यात्म में विश्वास नहीं करते हैं। इन्हें और कई नामों से जाना जा सकता है नास्तिक, भौतिकवादी जो नास्तिक से थोड़ा ऊपर है न आस्तिक है और न नास्तिक। वर्तमान में नास्तिक की भी संख्या अत्यधिक नहीं है किन्तु भौतिकवादियों की संख्या अत्यधिक है।
यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धम्।
यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धम्।

यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धम् का अर्थ

यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धम्। नाऽचरणीयं नाऽचरणीयं ॥ का अर्थ यद्यपि शुद्ध हो अर्थात सही हो किन्तु लोक विरुद्ध हो अर्थात हानिकारक हो या हानि संभावित हो तो वह वैसा आचरण मत करो वह कर्म मत करो।

ध्यान देने की बात यह है कि इसमें वैदिक कर्म या कर्मकाण्ड विधि समाहित नहीं है। आचरण-व्यवहार आदि की बात की गयी है। तथापि राजकीय विधि से जो वैदिक कर्म भी निषिद्ध कर दिये गये हों वो समाहित हो जायेंगे। क्योंकि राजकीय विधि का पालन करना भी धर्म है और राजकीय विधि का उल्लंघन करना भी मात्र अपराध नहीं पाप भी होता है।

राजकीय नियम का उदहारण :

  1. बाल विवाह विधि : बाल विवाह शास्त्रोचित है किन्तु वर्तमान में राजकीय विधि से बाधित है अतः बाल विवाह में लोक विरुद्ध मान्य है।
  2. सती प्रथा : सती प्रथा शास्त्रोचित है किन्तु राजकीय विधि द्वारा बाधित है अतः लोक विरुद्ध है।
  3. छुआ-छूत : छुआ-छूत शास्त्रोचित होने के बाद भी राजकीय नियम से बाधित है अतः घर से बाहर किसी भी सार्वजानिक स्थल पर छुआ-छूत करना लोक विरुद्ध है। राजकीय नियम होते हुये भी घर में छुआ-छूत करना बाधित नहीं होता क्योंकि शास्त्रोचित है। साथ ही छुआ-छूत के बाधक राजकीय नियम का यह भी अर्थ नहीं है कि किसी के द्वारा दिया गया जल पीने के लिये या भोजन करने के लिये कोई बाध्य है।
  4. अंतर्जातीय विवाह : अंतर्जातीय विवाह शास्त्र विरुद्ध है किन्तु राजकीय विधि से विहित कर दिये जाने के कारण निषिद्ध मान्य नहीं। किन्तु यह स्वजातीय विवाह को बाधित नहीं करता है न ही अंतर्जातीय विवाह से उत्पन्न पुत्र द्वारा सद्गति प्राप्ति सुनिश्चित करता है। अंतर्जातीय विवाह से उत्पन्न संतान वर्णशङ्कर संज्ञक ही होंगे और उनके द्वारा श्राद्धादि करने के बाद भी सद्गति सुनिश्चित नहीं होती अपितु असद्गति सुनिश्चित होती है। अतः अंतर्जातीय विवाह का तात्पर्य यह लिया जाना चाहिये कि जो नास्तिक, भौतिकवादी हैं उन्हें अंतर्जातीय विवाह करने की स्वतंत्रता है। किन्तु जो आस्तिक हैं, आत्मकल्याण चाहते हैं उन्हें स्वजातीय विवाह करने की भी स्वतंत्रता है।
  5. बहुविवाह : बहुविवाह शास्त्रोचित है किन्तु राजकीय विधि से बाधित है। राजकीय विधि से बाधित होने के कारण बहुविवाह लोक विरुद्ध है।

किन्तु सदैव राजकीय नियम से ही बाधित हो यह अपेक्षित नहीं है। सामाजिक रूप से वाधित होने पर भी लोक विरुद्ध सिद्ध होता है। सामाजिक वाधित कर्मों के उदहारण इस प्रकार हैं :

वृषोत्सर्ग : वृषोत्सर्ग करना शास्त्रोचित है, किसी राजकीय नियम से बाधित भी नहीं है। तथापि निवास स्थान के निकट की समस्त भूमि कृषियोग्य बना लिया गया है और जनसंख्या बढ़ने से भूमि की कमी भी हो गयी है; साथ ही कृत्रिम गर्भाधान के कारण वृष की समाज को आवश्यकता भी नहीं है; और प्रत्येक समाज में विधर्मी की भी उपस्थिति हो गयी है जो वृष को प्रताड़ित करेगा अतः सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध है इसलिये लोक विरुद्ध है।

उपरोक्त उदाहरणों के माध्यम से लोकविरुद्ध का वास्तविक तात्पर्य स्पष्ट हो जाता है। किन्तु व्यवहार में लोग अधिकांशतः पण्डितजन लोकविरुद्ध का अनर्थ करते देखे जाते हैं। लोकविरुद्ध के अनर्थ सम्बन्धी कुछ उदहारण भी आगे दिए जा रहे हैं :

नाऽचरणीयं नाऽचरणीयं
नाऽचरणीयं नाऽचरणीयं

व्रतादि में रोगी को ओषधि भक्षण का अधिकार देना

ओषधि भक्षण से व्रत नष्ट हो जाता है। किन्तु कई बार पण्डितजन यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं कहकर व्रत-यज्ञादि में ओषधिभक्षण को मान्यता प्रदान करते हैं। किन्तु शास्त्र की इस आज्ञा का उल्लंघन होता है कि रोगी, बाल, वृद्ध आदि को अक्षमता के आधार पर व्रतादि से मुक्त रहना, मुक्त रहने का तात्पर्य है कि ओषधिभक्षण करना आवश्यक है तो यज्ञ-व्रतादि न करे। जो किसी भी कारण से व्रतादि के नियमों का पालन नहीं कर सकते उनको व्रतादि करना ही नहीं चाहिये, अक्षमता के कारण छोड़ने में दोष नहीं है उद्यापन करके छोड़ा जा सकता है।

जो व्रत आजीवन का है उसके लिये भी विधि है कि ब्राह्मण भोजन कराकर अथवा भोजन का दोगुना अन्नादि देकर भोजन कर सकते हैं। अक्षम के लिये यज्ञ करना अनिवार्य नहीं है। यज्ञ के अतिरिक्त पूजा-अनुष्ठानों में जो अक्षम हैं उनको संकल्प मात्र करके सभी विधि के लिये आचार्य का वरण कर लेना चाहिये। व्रतादि से सम्बद्ध इस विषय की विस्तृत चर्चा अन्य आलेख में की जाएगी।

द्वादशाह भोज

सक्षम लोग जब विस्तृत भोज का आयोजन करते हैं तो उस समय भी यह उद्धरण सुना जाता है और श्राद्ध संपन्न होने से पूर्व ही भोज आरम्भ करने को दोषरहित बताया जाता है। श्राद्ध संपन्न होने से पूर्व भोज आरम्भ करने में कई प्रकार के दोष हैं और इसकी विस्तृत चर्चा अन्य आलेखों में की जा चुकी है। यहां यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धं का अनर्थ लगाया जाता है।

अनुपानितों से हवन-यज्ञ कराना

धनलोभ से ग्रस्त पण्डितजन यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धं का अनर्थ करते हुये हवन-यज्ञ में अनूपनीतों (स्त्री-शूद्रादि) को भी बैठा लेते हैं। यह न तो राजकीय विधि से बाधित है, न ही समाज के विरुद्ध है फिर लोक विरुद्ध कैसे सिद्ध होता है ? मात्र धनलोभ के कारण पतनोन्मुखी, भौतिकवादी पण्डित ही ऐसा अनर्थ करते हैं।

विधि लोप

कई बार कर्मकाण्ड की कुछ विधियों की जटिलता के कारण उसका लोप करते हुये भी यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धं उद्धृत किया जाता है। जो कर्म लोकविरुद्ध सिद्ध नहीं होता उस कर्म की विधि भी लोकविरुद्ध नहीं हो सकती। जैसे मातृका पूजन में मनमाना 7 – 9 आदि संख्यक रक्षिकाओं पर ही आवाहन-पूजन करना, विधिरहित हवन करना, मुण्डन में हवन का त्याग करना, श्राद्धभूमि को संस्कृत न करना आदि।

नान्दी श्राद्ध का त्याग

विभिन्न अपेक्षित अवसरों पर प्रायः नान्दीश्राद्ध का लोप ही किया जाने लगा है भले की कितने भी विद्वान आचार्य क्यों न आयें और उद्धृत यही किया जाता है – यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धं। लेकिन मैं यह नहीं समझ पा रहा हूं की नान्दीश्राद्ध किस प्रकार लोकविरुद्ध सिद्ध होता है ? क्या किसी राजकीय नियम से बाधित है – नहीं, क्या किसी प्रकार की समाजित क्षति होती है या संभावित है – नहीं; तो लोकविरुद्ध सिद्ध कैसे होता है ?

नान्दीश्राद्ध कई अवसरों पर अनिवार्य कर्म है और मातृकापूजन व वसोर्धारा नान्दीश्राद्ध का ही अंग होता है। यदि एक बार नान्दीश्राद्ध को लोकविरुद्ध मान भी लिया जाय तो फिर इसका अंग मातृकापूजा कर वसोर्धारा किस प्रकार सिद्ध अथवा विहित हो जाता है ? ये आचरण तो ठीक वैसा है कि आम के गूदे त्याग दें और गुठली को ग्रहण करें, केला का गूदा त्याग दें और छिलका ग्रहण करें; यदि शयन करना ही न हो तो शय्या की क्या आवश्यकता।

अपेक्षित हवन न करना

प्रायः सवा लाख महामृत्युंजय जप आदि करने पर जहां अधिक आहुति की अपेक्षा होती है वह त्याग दिया जाता है मात्र कुछ आहुति देकर हवन को पूर्ण कर लिया जाता है। अधिक जप होने पर जपकर्ता (यजमान) हवन में अक्षम हो तो, जैसे सामग्री का अभाव होना, दरिद्रता का होना आदि स्थिति में विंशांश जप का विकल्प है। विकल्प प्रथम ग्राह्य नहीं होता विकल्प तब ग्राह्य होता है जब प्रकल्प संभव न हो। लेकिन यजमान आर्थिक रूप से भी सक्षम हो, सामग्री का भी अभाव न हो; तो भी हवन में विकल्प को ही ग्रहण किया जाता है और वो भी अनुचित रूप से ।

विकल्प विंशांश जप का है लेकिन दशांश जप और पुनः उसका दशांश हवन जो कहीं वर्णित ही नहीं है; अप्रामाणिक है किया जाता है। यदि विकल्प का ही आश्रय लेना हो तो विंशांश जप करे, हवन की आवश्यकता ही नहीं है और यदि हवन करना संभव हो तो विकल्प का आधार न ले। लेकिन दोनों में से किसी एक को ग्रहण न करके एक तीसरा मनमाना आचरण किया जाता है और अनर्थ करते हुये कहा जाता है – यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धं । नाऽचरणीयं नाऽचरणीयं ॥

उपरोक्त उदाहरणों से यह भी आसानी से समझा जा सकता है कि “यद्यपि शुद्धं लोक विरुद्धं। नाऽचरणीयं नाऽचरणीयं” का अनर्थ कैसे किया जाता है। और यह अनर्थ करना विद्वता का सूचक नहीं अज्ञानता और धनलोलुपता का सूचक है।

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


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