रुद्राभिषेक करने के लिये रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है। रुद्राष्टाध्यायी में पाठ की एक विशेष विधि भी होती है जिसे नमक चमक पाठ कहा जाता है। वेद में अनुपनीतों का अनाधिकार बताया गया है किन्तु कुछ गीदर की खाल ओढ़े भेड़िये हैं जो शास्त्रों का निरादर करते हुये अनुपनीतों का अर्थ यह लेते हैं जिसका उपनयन न हुआ हो, दूसरा अर्थ त्याग देते हैं, “जिसका उपनयन नहीं होता हो” और शूद्र व स्त्री का भी उपनयन कराने लगे हैं।
अस्तु हमें इस विषय में अधिक चर्चा नहीं करनी है आस्थावान अनुपनीतों को स्वयं ही स्वधर्म का पालन करना चाहिये और इन षड्यंत्रकारियों से सुरक्षित होना चाहिये। चूंकि वेदों में अनुपनीतों को अधिकार नहीं है किन्तु शिवपूजन में अधिकार है तो इसके लिये मंत्र की भी आवश्यकता होगी। अनुपनीतों के लिये आगमोक्त “नमक चमक रुद्राभिषेक” की विधि है। इस आलेख में आगमोक्त नमक चमक स्तोत्र दिया गया है जो विशेष लाभकारी है।
नमक चमक रुद्राभिषेक – आगमोक्त
रुद्राष्टाध्यायी का पंचम अध्याय जो कि रुद्रसूक्त है जिसमें “नमः” शब्द का विशेष रूप से अधिक मात्रा में प्रयोग किया गया है जिस कारण इस अध्याय को नमक भी कहा जाता है। इसी प्रकार अष्टम अध्याय में “च मे” का बारम्बार प्रयोग हुआ है जिस कारण अष्टम अध्याय को चमक पाठ कहा जाता है।
अष्टम अध्याय अर्थात चमक में पंचम अध्याय का एक निश्चित क्रम से पाठ करते हुये पंचम अध्याय की जब ग्यारह आवृत्ति पाठ की जाती है तो उसे एक रुद्री, एकादशिनी पाठ जाता है साथ ही नमक चमक का विशेष प्रयोग होने से इसे नमक चमक भी कहा जाता है। और नमक चमक की इस विशेष प्रकार से पाठ करके जो अभिषेक किया जाता है तो उस रुद्राभिषेक को भी नमक चमक रुद्राभिषेक कहा जाता है।
किन्तु शास्त्रों में प्रणव और वेद मंत्र में अधिकार सिद्धि हेतु उपनीत होने की अनिवार्यता भी बताया गया है अर्थात जो उपनीत न हो (स्त्री, शूद्र व अनुपनीत बालक) उसके लिये प्रणव और वेद मंत्रों का निषेध किया गया है। इससे प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या उनका पूजा में भी अधिकार नहीं है ? तो इसका उत्तर है की पूजा में अधिकार है, उसका निषेध नहीं किया गया है।
अब पुनः प्रश्न उत्पन्न होता है कि यदि पूजा में, अभिषेक करने में अनुपनीतों को भी शास्त्रसिद्ध अधिकार है और प्रणव व वेद मंत्र प्रयोग में अधिकार नहीं है तो वो किस प्रकार पूजा अभिषेक करे ? इसका समाधान शास्त्रों में ही इस प्रकार बताया गया है कि पूजा तो करे किन्तु लिंग आदि का स्पर्श न करे अर्थात बिना स्पर्श किये सामग्री अर्पित करे। प्रणव के स्थान पर “औं” का प्रयोग करे अथवा “नमः” का प्रयोग करे। इसके साथ ही पञ्चप्रणव का विधान भी किया गया है। दोनों विषय के प्रमाण नीचे दिये गए हैं :
मंत्रमहार्णव में मुख्य प्रणव के अतिरिक्त जिनका प्रणव में अधिकार निषेध किया गया है उनके लिये अन्य पांच प्रकार के प्रणव बताये गए हैं : द्विज के लिये “ॐ”, क्षत्रिय (अनुपनीत व व्रात्य) के लिये “लं”, वैश्यों के लिये (अनुपनीत या व्रात्य) “श्रीं”, शूद्रों के लिये “ह्रीं”, कन्या हेतु भी “ह्रीं” व स्त्री (रजस्वला होने के बाद) “क्लीं” को प्रणव कहा गया है अर्थात अपने योग्य प्रणव का प्रयोग करे – तारो द्विजानां वसुधा च राज्ञां तथा विशां श्री खलु बीजमेव। शूद्रस्य माया युवतेरनंग पञ्चप्रकाराः प्रणवाः भवन्ति॥
वेदाधिकाररहितानां गायत्रीमंत्रः – ह्रीं यो देवः सविताऽस्माकं मनः प्राणेन्द्रियक्रियाः ॥ प्रचोदयति तद् भर्गं वरेण्यं समुपास्महे ॥ ब्रह्मनित्यकर्मसमुच्चये ॥
इसी प्रकार वेदमंत्र में अधिकार नहीं होने पर पौराणिक मंत्रों के प्रयोग करने का विधान मिलता है। पौराणिक मंत्र ही आगमोक्त संज्ञक भी होता है। अतः अनुपनीतों को पूजा अभिषेक आदि पौराणिक मंत्रों से करना चाहिये।
अब आगे जो वर्तमान युग का प्रभाव है तदनुसार न ही ब्राह्मण शास्त्रोचित तथ्य प्रकट कर पाते हैं न ही यजमान शास्त्रों में विश्वास करना चाहता है। लोगों को समानता का अधिकार चाहिये अर्थात् यदि ब्राह्मणादि को प्रणव, वेदादि में अधिकार है तो शूद्रों को भी चाहिए अन्यथा असमानता, भेदभाव इत्यादि का कुतर्क किया जाएगा।
जब सभी एक ही ईश्वर के अंश हैं तो अंतर क्यों हो ? इसका साधारण का उत्तर या उदाहरण है कि सभी वृक्ष भी तो बीज से ही उत्पन्न होते हैं, सभी के मूल में पृथ्वी ही होती है। फिर भी एक ही प्रजाति के सभी वृक्षों से उत्पन्न फलों में भी स्वाद-गुण की भिन्नता क्यों होती है। किसी एक मात्र फल का विचार करें यथा आम – तो सभी वृक्षों से एक ही स्वाद-गुण युक्त आम क्यों नहीं उत्पन्न होता है? यहां अन्य फलों से तुलना शेष ही रह जाती है।
इसी प्रकार मनुष्य भी सभी दिखने में दो हाथ, दो पैर, दो आंख आदि के आधार पर समान तो होता है किन्तु पूर्वाजित कर्म के आधार पर गुण-कर्म-व्यवहार आदि के आधार पर समान नहीं होते हैं। जीव अपने पूर्वाजित कर्म के आधार पर ही किसी योनि में जन्म लेता है, व तदनुसार ही उसके गुण-स्वभाव-व्यवहारादि होता है। वृक्ष भी एक योनि है, पशु भी एक योनि है….. आदि-आदि। अश्व भी एक योनि है, गर्दभ भी एक योनि है, हस्ति भी एक योनि है, गाय भी एक योनि है। क्या सबके गुण-व्यवहार समान होते हैं? अब एक मात्र योनि पर विचार करें तो क्या इनमें से किसी एक योनि में भी यथा गाय को ही लें, गुण-व्यवहारादि की समानता होती है ?
धर्म क्या है? शास्त्रोचित में प्रवृत्ति व शास्त्रनिषिद्ध से निवृत्ति। यदि अनुपनीत के लिये शास्त्र में कुछ निषेध तो उसका पालन करते हुए जो करने के लिये कहा गया है अर्थात् विहित है उसमें प्रवृत्त होना ही धर्म है। अर्थात् यदि शास्त्रों में प्रणव, गायत्री, वेद आदि का अनुपनीतों (स्त्री, शूद्र) हेतु निषेध किया गया है तो इस निषेधाज्ञा को ग्रहण करते हुये जो विहित किया गया है उस कर्म में प्रवृत्त होने से ही धर्म की सिद्धि हो सकती है यदि इस के विपरीत किया जाता है तो वह शास्त्राज्ञा का उल्लंघन सिद्ध होने से धर्म नहीं अधर्म सिद्ध होता है।
अर्थात् यदि अनुपनीतों के लिये वेद मंत्र का निषेध है तो वैदिक सूक्तों से रुद्राभिषेक करना भी शास्त्राज्ञा का उल्लंघन होने से प्रथमतया ही अधर्म सिद्ध हो जाता है फिर उसमें पुण्य की सिद्धि संभव नहीं है।
इसी कारण जो धर्मप्रिय जन होते हैं वह स्वयं के लिये प्राप्त शास्त्राज्ञा (विहित-निषिद्ध) का ग्रहण करते हुये ही किसी कर्म में प्रवृत्त होते हैं क्योंकि इसका उल्लंघन करने से अधर्म होगा और अधर्म होने से पतनकारक होगा। जो धर्म करना चाहते हैं उन्हें समानता का यह अधिकार राजनीति तक ही सीमित रखना चाहिये धर्म के लिये प्रयोग नहीं करना चाहिये। धर्म के लिये शास्त्राज्ञा ही ग्राह्य है और जिसे शास्त्रवचन पर विश्वास ही न हो उसे कुछ करने की भी तो आवश्यकता नहीं है। आत्मकल्याण चाहने वाला शास्त्रों में विश्वासपूर्वक विहित-निषिद्ध दोनों ग्रहण करे।
इसी कड़ी में एक प्रकरण रुद्राभिषेक है जिसमें यदि अनुपनीत करे तो किस प्रकार करे ? क्योंकि वेदमंत्रों का तो निषेध है। अनुपनीत के लिये चूंकि आगम का निषेध नहीं है अतः आगमोक्त मंत्रों से रुद्राभिषेक करे । यहां आगमोक्त नमक (पंचम अध्याय रुद्रसूक्त का पोराणिक स्वरूप) और चमक (अष्टम अध्याय का पौराणिक स्वरूप) दिया गया है जो श्रद्धालु-धर्मप्रेमियों अनुपनीतों के लिये रुद्राभिषेक में प्रयोग किया जाना चाहिये। हमें इसकी प्राप्ति कृपालू आचार्य दीनदयाल मणि त्रिपाठी जी से हुई है।