पुनः एक प्रश्न और उपस्थित होता है कि स्नान का तात्पर्य तत्काल स्नान करना (अर्थात तत्काल स्नान से शुद्धि) क्यों नहीं माना जाय। और द्वितीय प्रश्न यह कि यदि तत्काल स्नान से यदि शुद्ध नहीं हो सकती तो चतुर्थ दिन से स्नान में भी तो देव-पितृ कर्म का अधिकार नहीं प्राप्त होता, मात्र पतिस्पर्श की योग्यता होती है।
इसका उत्तर अङ्गिरा स्मृति में पुनः इस प्रकार प्राप्त होता है : आतुरे स्नान उत्पन्ने दशकृत्वस्त्वनातुरः । स्नात्वा स्नात्वा च दशधा ततः शुध्येदनातुरः ॥ आतुरस्नान की आवश्यकता होने पर दश बार स्नान करने से अनातुर की संज्ञा प्राप्त होती है। स्नान करके पुनः स्नान करे और ऐसा दश बार करे तो आतुर की शुद्धि हो जाती है और अनातुर कहलाती है। यहां आतुर का तात्पर्य रजस्वला व अनातुर का तात्पर्य रजस्वला दोषरहित समझें । इसका विशेष स्पष्टीकरण आगे किया गया है।
विज्ञजनों द्वारा उपरोक्त प्रमाण व्रतभंग के अभाव हेतु ही ग्रहण किया गया है, न की पूजनादि कार्य करने हेतु। मध्य में रजस्वला आदि होने पर पूजनादि शेष कार्य प्रतिनिधि के द्वारा कराने का वचन यहां ग्रहण किया गया है अर्थात उपरोक्त वचन जहां प्रतिनिधि ग्रहण न किया जा सके वहां ही प्रभावी होगा। जिन कर्मों में प्रतिनिधि बनाये जा सकते हैं उनमें आगे के प्रमाणों का ग्रहण किया गया है :
मत्स्य पुराण – अन्तरा तु रजोयोगे पूजामन्येन कारयेत् ॥ व्रत में स्थित स्त्री यदि रजस्वला हो जाये तो व्रत संबंधी पूजनादि कर्म प्रतिनिधि द्वारा कराए। अर्थात् व्रतभंग होने का अभाव होने पर भी पूजा कार्यों हेतु अन्य को प्रतिनिधि बनाये । प्रतिनिधि किसे बनाये : पैठीनसी का कथन है कि आवश्यकता पड़ने पर पति के लिये पत्नी और पत्नी के लिये पति प्रतिनिधि बनकर व्रत पूर्ण करे। यदि दोनों परस्पर प्रतिनिधि न बन सकें तो अन्य को प्रतिनिधि बनायें – भार्यापत्युर्व्रतं कुर्याद्भार्यायाश्च पतिव्रतम् । असामर्थ्ये परस्ताभ्यां व्रतभंगो न जायते ॥
अब यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि पत्नी तो रजस्वला होती है इसलिये पति को प्रतिनिधि बनाये, पति तो रजस्वला नहीं होता फिर उसे प्रतिनिधि बनाने की क्या आवश्यकता होगी। पति के लिये भी कई विघ्न हो सकते हैं जैसे अस्वस्थ हो जाना, स्रावाशौच (क्षतजा) हो जाना।
प्रतिनिधि हेतु और भी बहुत विकल्प प्रदान किये गए हैं, स्कंद पुराण में कहा गया है कि विनयी पुत्र, बहन, भ्राता को प्रतिनिधि बनाये अथवा अभाव होने पर पुरोहित को बनाये – पुत्रं वा विनयोपेतं भगिनीं भ्रातरं तथा । एषामभाव एवान्यं ब्रह्मणं वा नियोजयेत् ॥ पुनः कात्यायन का वचन है कि पिता, माता, भ्राता, पति, गुरु आदि के लिये व्रत करने से सौ गुणा अधिक पुण्य प्राप्त होता है, अर्थात प्रतिनिधि बनने वाला ये न सोचे की व्रत का पुण्य तो व्रती को ही प्राप्त होगा – पितृ मातृ भ्रातृ पति गुर्वर्थे च विशेषतः । उपवासं प्रकुर्वाणः पुण्यं शतगुणं लभेत् ॥
पुनः मदनरत्न में कहा गया है कि पति, पुत्र, पुरोहित, भ्राता, पत्नी, मित्र ये सभी यात्रा (तीर्थयात्रा) व सभी धर्मकार्यों में प्रतिनिधि हो सकते हैं, इनके द्वारा प्रतनिधि रूप से किये गए कर्म को स्वयंकृत ही समझे – भर्त्तापुत्रः पुरोधाश्च भ्रातापत्नी सखापि च । यात्रायां धर्म कार्येषु जायंते प्रतिहस्तकाः ॥ एभिः कृतं महादेवि स्वयमेव कृतंभवेत् ॥ पुनः वायु पुराण में कहा गया है कि यदि स्वयं किसी कर्म को करने में असमर्थ हो तो पुरोहित को नियुक्त करे – स्वयं कर्तुमशक्तश्चेत्कारयीत पुरोधसा ॥
व्रतभंग न होने का और प्रतिनिधि द्वारा संपन्न करने का मूल तात्पर्य क्या है ? व्रतभंग के विभिन्न कारण अन्यत्र बताये गए हैं और व्रतभंग होने के दोष भी कहे गए हैं। रजस्वला होने से यदि व्रतभंग हो जाये तो व्रतभंग का दोष भी प्रकट होगा। अतः रजस्वला होने से व्रतभंग नहीं होता और अशुद्ध न होने का तात्पर्य यही है कि प्रतिनिधि नियुक्त किया जा सकता है। आतुर स्नान (दश बार) करने का तात्पर्य यह है कि किसी को प्रतिनिधि बनाने से पूर्व आतुरस्नान करके शुद्ध हो जाये जिससे प्रतिनिधि दूषित न हो अन्यथा प्रतिनिधि भी दूषित (दर्शन मात्र से) हो जायेगा।
- अर्थात ऊपर जो शेष कार्य करने के लिये कहा गया उसका तात्पर्य है प्रतिनिधि बनाकर व्रत के शेष पूजनादि कार्य को पूर्ण करना।
- एवं शुद्धि हेतु आतुरस्नान की विधि का अर्थ यह है रजस्वला होने पर प्रतिनिधि कैसे बनाये, दर्शन मात्र से ही प्रतिनिधि भी अशुद्ध हो जायेगा फिर वह प्रतिनिधि कैसे बने ? इसके लिये आतुरस्नान करे। आतुरस्नान करने से शुद्ध मान्य होगी अर्थात प्रतिनिधि में दर्शनदोष की व्याप्ति नहीं होगी।
आतुरस्नान का अन्य प्रयोजन : जहां प्रतिनिधि नहीं हो सकता वहां स्वयं ही आतुरस्नान करके कर्म संपन्न करे और प्रथम जो रजस्वला के शुद्ध होने का भी वचन है उसका एक तात्पर्य यह भी है कि जिन कर्मों को प्रतिनिधि द्वारा संपन्न किया जा सकता है उन कर्मों में तो प्रतिनिधि नियुक्त करे किन्तु जिन कर्मों में प्रतिनिधि का निषेध है उसमें पूर्वारम्भ होने के कारण आतुरस्नान करके शुद्ध हो जाये फिर करे। त्रिकांडमण्डन का वचन है कि नित्य और नैमित्तिक कर्मों में प्रतिनिधि होते हैं, काम्य कर्मों में नहीं – काम्ये प्रतिनिधिर्नास्ति नित्य नैमित्तिके च सः॥