इस आलेख में वार्षिक श्राद्ध जिसे वर्षी (बरखी) भी बोला जाता है के बारे में विस्तृत जानकारी के साथ वार्षिक अर्थात सांवत्सरिक श्राद्ध अर्थात एकोद्दिष्ट की विधि और मंत्र भी दिया गया है साथ ही जो pdf फाइल डाउनलोड करना चाहते हैं उनके लिये पीडीऍफ़ फाइल भी दिया गया है। छन्दोग वार्षिक श्राद्ध विधि अलग आलेख में प्रस्तुत किया जायेगा, इस आलेख में वाजसनेयी वार्षिक या सांवत्सरिक श्राद्ध करने की विधि बताई गयी है।
वार्षिक श्राद्ध विधि pdf सहित – वार्षिक श्राद्ध विधि मंत्र – वाजसनेयी
प्रति संवत्सर अर्थात प्रति वर्ष मृतक की तिथि पर जो श्राद्ध किया जाता है उसे वार्षिक श्राद्ध या सांवत्सरिक श्राद्ध कहते हैं और बोल-चाल में वर्षी या बरखी भी कहा जाता है। इसे क्षयाह श्राद्ध भी कहा जाता है और एकोद्दिष्ट विधि का पालन करना चाहिए।
शास्त्रों में पुत्र के लिये मृतक माता-पिता का प्रतिवर्ष श्राद्ध करना आवश्यक होता है। ब्रह्मपुराण में कहा गया है : प्रतिसंवत्सरं कार्यं माता पित्रो र्मृतेहनि । पितृव्यस्यापुत्रस्य भ्रातुर्ज्येष्ठस्य चैव हि ॥ अर्थात् माता और पिता के क्षयाह पर प्रतिवर्ष श्राद्ध करना चाहिये। एवं जो चाचा, बड़ा भाई अपुत्र हो तो उनका भी करे । इसके साथ ही जो वार्षिक श्राद्ध नहीं करते हैं उनके लिये यह भी कहा गया है कि वह तामिस्र नरक में गिरता है – भोजकोयस्तु वै श्राद्घं न करोति खगाधिप । मातापितृभ्यां सततं वर्षे वर्षे मृतेहनि । स याति नरकं घोरं तामिस्रं नाम नामतः ॥ – मदनरत्न
कालक्रम से इसे कुछ लोगों ने ११ वर्ष तक तो कुछ लोगों ने ५ वर्षों तक और कुछ लोगों ने तो मात्र १ वर्ष तक भी सीमित कर लिया है और बहुत सारे लोग तो ऐसे भी हैं जो एक वर्ष भी नहीं करना चाहते प्रेत श्राद्ध करने के बाद तेरहवीं को ही कर के निपट जाते हैं और पितरों को भी निपटा देते हैं जो कि अनुचित है।
जो लोग भ्रमित होकर यह समझते हैं की श्राद्ध पितरों की आवश्यकता है पुत्र की नहीं; उन्हें यह भ्रम यथाशीघ्र दूर करने की आवश्यकता है। शास्त्रों में यह पुत्र का अनिवार्य कर्म बताया गया है, और शास्त्रोक्त अनिवार्य कर्म के त्याग करने का तात्पर्य पतित होना होता है। अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन नहीं करना दोष होता है और जो पुत्र प्रतिवर्ष माता-पिता का वार्षिक श्राद्ध नहीं करते हैं वो शास्त्रानुसार दोषी होते हैं।
वार्षिक श्राद्ध कब करना चाहिए
वार्षिक श्राद्ध प्रतिवर्ष मृत्यु तिथि पर करने का नियम बताया गया है अर्थात जिस महीने पक्ष और तिथि को मृत्यु हुई हो प्रतिवर्ष उसी माह और पक्ष के उसी तिथि पर वार्षिक श्राद्ध करना चाहिये।
मासपक्षतिथिस्पृष्टे योयस्मिन्म्रियतेहनि । प्रत्यब्दं तु तथाभूतं क्षयाहं तस्य तं विदुः ॥ हेमाद्रि में यह कहा गया है कि मास, पक्ष और तिथि जिसमें मृत्यु हुई हो, प्रत्येक वर्ष उस मास, पर और उसी तिथि को उस मृतक का क्षयाह जाने।
पुनः चान्द्र मास या सौर मास किसे ग्रहण करे? इसके संबंध में गर्ग जी का वचन इस प्रकार है : आब्दिके पितृकार्ये च चान्द्रोमासः प्रशस्यते ॥ वार्षिक क्रिया (वर्षगांठ निर्धारण) और पितृकार्यों में चान्द्रमास ग्रहण करना चाहिये।
पुनः तिथि कौन सी मान्य हो औदयिक या तात्कालिक तो इसके लिये नारद जी का वचन इस प्रकार मिलता है – पारणे मरणे नृणां तिथिस्तात्कालिकी स्मृता ॥ अर्थात् पारण और मरण के लिये तात्कालिक तिथि ग्रहण करना चाहिये।
वार्षिक श्राद्ध के लिये औदयिक तिथि को आवश्यक नहीं माना गया है, वार्षिक श्राद्ध के लिये मध्याह्न व्यापिनी तिथि को ग्रहण करने के शास्त्रों में निर्णय मिलता है।
वार्षिक श्राद्ध काल : वार्षिक श्राद्ध काल के सम्बन्ध में कहा गया है कि दिन का पांच भाग करे, दिन के पांच भागों का नाम इस प्रकार है – पूर्वाह्न (प्रातः काल), सङ्गव, मध्याह्न, अपराह्न और सायाह्न। प्रत्येक भाग ६ दण्ड अर्थात ३ मुहूर्त का होता है क्योंकि दिनमान ३० दंड होता है। इसमें से मध्याह्न काल को जिसमें कुतप भी आ जाता है वार्षिक श्राद्ध के लिये ग्राह्य बताया गया है।
- सम्पूर्ण मध्याह्न काल में यदि दो दिन क्षयतिथि मिले तो पहले दिन करना चाहिये।
- यदि दोनों दिन मध्याह्न काल में क्षयतिथि मिले किन्तु एक भी दिन सम्पूर्ण मध्याह्न काल व्यापिनी न हो तो जिस दिन मध्याह्न काल में अधिक समय तक क्षय तिथि मिले उस दिन वार्षिक श्राद्ध करे।
- यदि दोनों दिन में से किसी भी दिन मध्याह्न काल में क्षय तिथि प्राप्त न हो तो पहले दिन ही करे। किन्तु कुछ लोग औदयिक तिथि को भी स्वीकारते हैं।
वार्षिक श्राद्ध में कितने पिंडदान होते हैं
वार्षिक या सांवत्सरिक श्राद्ध में मृत्यु तिथि पर एक मात्र मृत पितर का ही श्राद्ध किया जाता है और एकोद्दिष्ट विधि से किया जाता है। एकोद्दिष्ट श्राद्ध में एक पिंड ही दिया जाता है। अर्थात वार्षिक श्राद्ध में मात्र एक पिंड दिया जाता है और जिसका श्राद्ध होता है उसी के निमित्त दिया जाता है।
पुत्र के लिये क्षौरकर्म अनिवार्य होता है। वार्षिक श्राद्ध के एक दिन पहले क्षौरकर्म किया जाता है एवं हविष्यान्न भोजन करना चाहिये।
वार्षिक श्राद्ध पद्धति
निर्देश :
- जिस क्रिया में स.द.त्रि. अंकित किया गया है उसका तात्पर्य है – सव्य, दक्षिणाभिमुख, त्रिकुशहस्त।
- जिस क्रिया में अ.द.मो. अंकित किया गया है उसका तात्पर्य है – अपसव्य, दक्षिणाभिमुख, मोटकहस्त।
- जिस क्रिया में स.पू.त्रि. अंकित किया गया है उसका तात्पर्य है – सव्य, पूर्वाभिमुख, त्रिकुशहस्त।
श्राद्ध स्थला आकर सर्वप्रथम शुद्धिकरण करे, तीन बार आचमन कर कुशादि धारण करते हुए आत्मशुद्धि करे :
पवित्रीकरण मंत्र : ॐ अपवित्रः पवित्रोऽ वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याऽभ्यन्तरः शुचिः पुण्डरीकाक्षः पुनातु । ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥
दिग्रक्षण मंत्र : ॐ नमो नमस्ते गोविन्द पुराण पुरूषोत्तम । इदं श्राद्धं हृषीकेश रक्ष त्वं सर्वतो दिशः ॥
पञ्चगव्य निर्माण, प्राशन, प्रोक्षण आदि भी करे। अंगारभ्रमण, गौरमृत्तिका आच्छादनादी भी विधि के अनुसार करे।
दीप जलाकर यदि पाककर्त्ता द्वारा पाककर्म हुआ हो तो श्राद्धकर्त्ता पाककर्त्ता से पूछे “सिद्धम्” और पाककर्त्ता कहे “ॐ सिद्धम्” ॥ यदि पाककर्ता न हो तो पूछने की आवश्यकता नहीं है।
पूर्वाभिमुख सव्य त्रिकुशा, तिल, जल आदि द्रव्य लेकर संकल्प करे, संकल्प में संवत्सर (वर्ष) संख्या की आवश्यकता नहीं है, किन्तु कुछ विद्वान प्रथम, द्वितीय आदि संवत्सर संख्या का भी प्रयोग करते हैं। :-
वार्षिक श्राद्ध संकल्प : ॐ अद्य ………. मासे ……….. पक्षे ……….. तिथौ ……..… गोत्रस्य ……….. पितुः ……….. (शर्मणः वर्मणः आदि) सांवत्सरिक एकोद्दिष्ट श्राद्धमहं करिष्ये ॥ स.पू.त्रि. (स्त्रीलिंगे : ….… गोत्रायाः मातुः ….… देव्याः)
संकल्प कर तिल जलादि भूमि पर गिराये त्रिकुशा सहित।
पुनः त्रिकुशा लेकर तीन बार गायत्री मंत्र जप करे। तीन बार देवताभ्यः मंत्र पढ़े :
ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥३॥ स.पू.त्रि.
इसके बाद अपसव्य होकर पूर्वकल्पित दक्षिणाग्र आसन को जल से सिक्त करे, फिर पातितवामजानु होकर मोटक, तिल, जल से आसन उत्सर्ग करे :
आसन : ॐ अद्य ……….. गोत्र पितः ……….. शर्मन् इदं आसनं ते स्वधा ॥ अ.द.मो. ॥ (स्त्रीलिंगे : ……… गोत्रे मातः ……… देवी) पितृतीर्थ से पूर्वकल्पित आसन पर छिड़के।
तिल विकिरण : ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षा ᳪ सि वेदिषदः ॥ स.द.त्रि. ॥ भोजन पात्र पर तिल बिखेरे।
आवाहन : ॐ आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽ अग्निष्वाता: पथिभिर्देवयानै: अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ॥ करबद्ध पित्र्यावाहन करे। स.द.त्रि. ॥
अर्घ्य स्थापन – शन्नो देवी मंत्र से अर्घपात्र में जल दे, तिलोऽसि मंत्र से तिल दे, फिर बिना मंत्र के पुष्प-चंदन-कुशा भी दे :
- जल : ॐ शन्नो देवीरभिष्टय ऽआपो भवन्तु पीतये शंय्योरभि स्रवन्तुनः॥ अर्घ्य पात्र में जल दे। स.द.त्रि.
- तिल : ॐ तिलोऽसि सोम देवत्यो गोसवो देवनिर्मितः। प्रत्नद्भिः पृक्त: स्वधया पितृन् लोकान् प्रीणाहि नः स्वाहा ॥ स.द.त्रि.
अर्घ्य पात्र में तिल देकर पुष्प चन्दन भी दे दे। अर्घ्य पात्र को बांये हाथ में लेकर कुशा निकाल कर भोजन पात्र पर रख कर अन्य जल से सिक्त करे। दांये हाथ से अर्घ्य पात्र को ढंककर अगले मंत्र से अभिमंत्रित करे : –
- अर्घ्याभिमंत्रन : ॐ या दिव्या आपः पयसा सम्बभूबुर्या आंतरिक्षा उत पार्थीवीर्या:। हिरण्यवर्णा याज्ञियास्ता न आपः शिवा: स ᳪ स्योना: सुहवा भवन्तु ॥ स.द.त्रि.; फिर दाहिने हाथ में मोटक, तिल, जल लेकर अर्घ्योत्सर्ग करे :
- अर्घ्योत्सर्ग : ॐ अद्य ……… गोत्र पितः …… शर्मन् इदमर्घ्यं ते स्वधा ॥ अ.द.मो.; फिर अर्घपात्र दाहिने हाथ में लेकर पूर्वसिक्त कुशा पर पितृतीर्थ से दे ।
- न्युब्जीकरन : ॐ पित्रे स्थानमसि ॥ (ॐ मात्रे स्थानमसि) अ.द.मो.; भोजन पात्रस्थित कुशा को पुनः अर्घ्य पात्र में रखकर आसन के पश्चिम भाग में अधोमुख कर दे।
गन्धादि : ॐ अद्य ………….. गोत्र पितः ……….. शर्मन् एतानिगन्धपुष्पधूपदीपताम्बूल वस्त्रादिऽऽआच्छादनानि ते स्वधा ॥ अ.द.मो.; पितृतीर्थ से गन्धादि सभी वस्तुओं पर छिड़के।
अ.द.मो. भोजन पात्र और आसन को अपसव्य क्रम से जल से घेरे। वाम भाग अर्थात पिंडवेदी के पूर्व में भूस्वामि का अन्न देकर अगले मंत्र से उत्सर्ग करे :-
भूस्वामी अन्नोत्सर्ग : ॐ इदमन्नं एतद् भूस्वामि पितृभ्यो नमः ॥ अ.द.मो.; अपने बांये भाग में अर्थात पिंड वेदी के पूर्वभाग में भूस्वामि के अन्न का उत्सर्ग करे।
अन्नादि परोसकर अधोमुखी दाहिने हाथ से पितरान्न का स्पर्श कर (अथवा मधु दे) मधुव्वाता मंत्र पढ़े , दाहिने हाथ के नीचे अधोमुखी बांया हाथ लगाते हुए पृथिवी ते …… आदि मन्त्र पढ़े।
पात्रालम्भन : ॐ मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः माध्वीर्न: सन्त्वोषधिः मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव ᳪ रजः मधुद्यौरस्तु नः पिता मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमां२ अस्तु सूर्यः माध्वीर्गावो भवन्तुनः ॥ ॐ मधु मधु मधु ॥ अ.द.त्रि.
- ॐ पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखे अमृते ऽअमृतं जुहोमि स्वाहा ॥
- ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् समूढ़मस्य पा ᳪ सुरे ॥
- ॐ कृष्ण कव्यमिदं रक्षमदियं ॥ अ.द.त्रि.
बांये हाथ को अन्न में लगाकर रखते हुए दाहिने हाथ के अंगूठे से क्रमशः अन्न, जल, घी और अन्न का स्पर्श अगले मन्त्र से करे; जल, आज्य के लिये किसी पात्र में जल और घी दे, बहुत जगह व्यवहार में यह नहीं देखा जाता अपितु दीप वाले घी का ही स्पर्श किया जाता है जो अनुचित है :-
अवगाहन : ॐ इदमन्नं ॥ इमा आपः ॥ इदं आज्यं ॥ इदं हविः ॥ अ.द.त्रि.
तिल विकिरण : ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षा ᳪ सि वेदिषदः ॥ पितरान्न पर तिल बिखेरे। अ.द.त्रि.
अन्नोत्सर्ग : ॐ अद्य …………. गोत्र पितः ………… शर्मन् इदं अन्नं सोपकरणम् ते स्वधा ॥ अ.द.मो.
त्रि गायत्री जप , मधुव्वाता पाठ। स.द.त्रि. ॥
ॐ अन्नहीनं क्रियाहीनं विधिहीनं च यद्भवेत्। तत्सर्वमच्छिद्रमस्तु ॥ स.द.त्रि. ॥
गायत्री मंत्र से संकल्प वाले कुश को थोड़ा तोड़ कर आसन के नीचे रखे। पुनः “मधुव्वाता” पाठ करे ।
ॐ कृणुष्वपाजः प्रसितिन्न पृथिवीं याहि राजे वामवां इभेन । तृष्वीमनु प्रसितिं द्रूनाणोऽस्तासि विध्य रक्षसस्तपिष्ठैः । तवभ्रमास आसुया पतन्त्यनुस्पृस धृषता शोसुचानः । तपू ᳪ ष्यग्ने जुह्वा पतङ्गानसन्दितो विसृज विश्वगुल्काः । प्रतिष्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायुर्विशो अस्याऽअदब्धः । यो नो दूरे अघश ᳪ सो यो अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत । उदग्ने तिष्ठ प्रत्या तनुष्वन्य मित्रां ओषता तिग्महेते । यो नो ऽअराति ᳪ समिधानचक्रे नीचा तं धक्ष्यत सन्न शुष्कम् । उर्ध्वो भव प्रतिविध्या ध्यस्मदा विष्कृणुष्व दैव्यान्यग्ने अवस्थिरा तनुहि यातु यूनाम् जामिमजामिं प्रमृणीहि शत्रून् ॥ पाठ कर तिल बिखेरे।
ॐ उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सौम्यासः । असूंऽयईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु अङ्गिरसो नः पितरः सौम्यासः । तेषा ᳪ वय ᳪ सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासोऽअनुहिरे सोमपीथं वशिष्ठाः तेभिर्यमः स ᳪ रराणो हवी ᳪ स्युसन्नुसद्भिः प्रतिकाममत्तु ॥
ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । भूमि ᳪ सर्वतस्पृत्त्वात्त्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ इत्यादि पुरुषसूक्त पाठ
- ॐ आशुः शिषाणो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभनश्चर्षनिनां । संक्रदनो निमिष एकवीरः शत ᳪ सेना अजयत्साकमिन्द्रः ॥
- ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ॥
- ॐ नमस्तुभ्यं विरूपाक्ष नमस्तेनेक चक्षुषे । नमः पिनाकहस्ताय वज्रहस्ताय वै नमः ॥
- ॐ सप्तव्याधा दशार्णेषु मृगाः कालञ्जरे गिरौ । चक्रवाकाः शरद्वीपे हन्साः सरसि मानसे ॥
- तेऽपि जाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा वेदपारगाः । प्रस्थिता दूरमध्यानौ यूयं तेभ्योवसीदथ ॥
- ॐ रुची रुची रुचिः ॥ पाठ करे।
विकिरदान : पिंडवेदी के पश्चिम भाग में एक त्रिकुशा रख कर जल से सिक्त कर दे, एक पुरे में अन्नादि लेकर बांये हाथ के पितृतीर्थ से मोड़ा द्वारा त्रिकुशा पर अगले मन्त्र से दे :-
विकिरदान मंत्र : ॐ अनग्निदग्धाश्च ये जीवा ये प्रदग्धा: कुले मम। भूमौ दत्तेन तृप्यन्तु तृप्ता यान्तु पराङ्गतिम् ॥ अ.द.मो.
स.पू.त्रि. आचमन करके हरिस्मरण कर तीन बार गायत्री मन्त्र जपे।
उल्लेखन : बालुकामयी पिंडवेदी को जल से सिक्त कर प्रादेश प्रमाण रेखा दर्भ पिञ्जलि से खींचे :- ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षा ᳪ सि वेदिषदः ॥ अ.द.मो. ॥
अंगारभ्रमण : पिंडवेदी के रेखा पर थोड़ा आग देकर मोड़ा से घुमाते हुए दक्षिण में गिरा दे :-
अंगारभ्रमण मंत्र : ॐ ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति। परापुरो निपुरो ये भरंत्यग्निष्टांलोकात् प्रणुदात्यस्मात् ॥ अ.द.मो. ॥
रेखा पर नौ छिन्नमूल कुश देकर जल से सिक्त कर दे। स.पू.त्रि. तीन बार देवताभ्यः मन्त्र पढ़े :-
ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥३॥ स.पू.त्रि.
अत्रावन : ॐ अद्य …………. गोत्र पितः ……… शर्मन् अत्रावने निक्ष्व ते स्वधा ॥ अ.द.मो.
अत्रावन का उत्सर्ग करते हुए पुरे का आधा जल पिंडवेदी के कुशाओं पर गिरावे और आधा प्रत्यवन वास्ते रखे। बांये हाथ में पिण्ड लेकर उत्सर्ग करे :-
वार्षिक श्राद्ध पिंडदान
पिण्ड : ॐ अद्य …………. गोत्र पितः ……… शर्मन् एष पिण्डः ते स्वधा ॥ अ.द.मो.
पिण्ड दाहिने हाथ में लेकर पितृतीर्थ से वेदी के कुशाओं पर रखे। पिंडतलस्थ कुशाओं में हाथ पोछ ले।
स.पू.त्रि. – दो बार आचमन करके हरिस्मरण करे। फिर दक्षिणाभिमुख हो जाये
- ॐ अत्र पितर्मादयस्व यथाभाग मा वृषायस्व ॥ सूर्य स्वरूप पिता का ध्यान करते हुए उत्तर से श्वास ले।
- ॐ अमीमदत पिता यथाभाग मा वृषायिष्ट॥ पश्चिम की ओर श्वास छोड़े।
प्रत्यवन : ॐ अद्य …………. गोत्र पितः ………. शर्मन् अत्र प्रत्यवने निक्ष्व ते स्वधा ॥ अ.द.मो.
प्रत्यवन का उत्सर्ग कर पिण्ड पर दे दे। नीवीं विसर्जन या डाँरकडोर ससारे। फिर स.पू.त्रि. आचमन करे।
पिण्डपूजन : ॐ नमस्ते पिता रसाय, नमस्ते पितः शोषाय, नमस्ते पितर्जीवाय, नमस्ते पितः स्वधायै, नमस्ते पितर्घोराय, नमस्ते पितर्मन्यवे, नमस्ते पितः पितर्नमस्ते, गृहान्नः पितर्देहि, सतस्ते पितर्देष्म॥ ॐ एतत्ते पितर्वासः ॥ (ॐ एतत्ते मातर्वासः) दोनों हाथों से (बांया हाथ आगे, दाहिना पीछे) पकड़ कर सूता पिण्ड पर दे। अ.द.मो.; फिर तिल, जल लेकर वस्त्रोत्सर्ग करे :
ॐ अद्य ………… गोत्र पितः ………… शर्मन् एतद्वास्ते स्वधा ॥ अ.द.मो.
पान, पुष्प, चन्दन, द्रव्यादि भी चुपचाप पिण्ड पर चढ़ा दे। पिंडशेषान्न पिंड के चारों और अपसव्य क्रम से बिखेड़ दे ।
- ॐ शिवा: आपः सन्तु ॥ भोजनपात्र पर जल दे।
- ॐ सौमनस्यमस्तु ॥ भोजनपात्र पर फूल दे।
- ॐ अक्षतंचारिष्टमस्तु ॥ भोजनपात्र पर अक्षत दे।
अक्षय्योदक : ॐ अद्य ………. गोत्रस्य पितु: ……… शर्मणो दत्तैतदन्न पानादिकमक्षय्यमुपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो.
तिल, मधु, घृत मिश्रित जल (अक्षय्योदक) पिण्ड पर पूरे से दे।
जलधारा : ॐ अघोर: पिताऽस्तु ॥ ( अघोरा माताऽस्तु) पिण्ड पर पूर्वाग्र वारिधारा दे। स.द.मो.
आशीष प्रार्थना : ॐ गोत्रन्नो वर्द्धतां दातरो नोऽभिवर्द्धन्तां वेदा: सन्ततिरेव च। श्रद्धा च नो मा व्यगमद् बहु देयञ्च नो ऽअस्तु। अन्नं च नो बहु भवेत् अतिथींश्च लभेमहि। याचितारश्च नः सन्तु मा च याचिष्म कञ्चन। एताः सत्याशिषः सन्तु ॥ स.पू.त्रि.
पवित्रीहस्त पिण्डस्थ सूत्रादि हटा दे। पिण्ड पर त्रिकुशा रख कर जल या दुग्धधारा दे । अ.द.मो. :-
वारिधारा : ॐ ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिश्रुतम् । स्वधास्थ तर्पयत् मे पितरम् ॥
थोड़ा नम्र होकर पिण्ड को सूँघ ले और उठाकर फिर रख दे। पिण्ड के नीचे वाले कुशों को निकाल कर आग में जला दे। अर्घ्यपात्र को उत्तान कर दे। मोड़ा, तिल, जल, द्रव्यादि लेकर दक्षिणा करे :-
दक्षिणा : ॐ अद्य …… गोत्रस्य पितुः ……… शर्मणः कृतैतत् सांवत्सरिक एकोद्दिष्ट श्राद्ध प्रतिष्ठार्थं एतावत् द्रव्यमूल्यक रजतं चन्द्रदैवतं ………. गोत्राय ………. शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे ॥
दक्षिणा लेकर ब्राह्मण ॐ स्वस्ति कहे ।
पू.स. होकर आचमन कर तीन बार देवताभ्यः मन्त्र पढ़े :-
ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥३॥
द.अप. दीप का किसी पत्रादि से आच्छादन कर दे। पू.स. आचमन कर अगला मन्त्र पढे :-
ॐ प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेत्ताध्वरेषुयत् । स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः ॥
॥ ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः ॥
पिण्डवेदि को कनिष्ठिका अङ्गुलि से थोडा तोड़ दे। सूर्य भगवान को प्रणाम कर ले। श्राद्ध की सभी उपयोगी वस्तुयें ब्राह्मण को दे, पत्र-पुष्पादि जल में प्रवाहित करे।
वार्षिक श्राद्ध सम्बन्धी अन्य महत्वपूर्ण तथ्य छन्दोगी वार्षिक श्राद्ध में वर्णित है। छन्दोग वार्षिक श्राद्ध विधि और मंत्र पढ़ने के लिये यहां क्लिक करें – छन्दोगी वार्षिक श्राद्ध विधि
वार्षिक श्राद्ध विधि pdf – वाजसनेयी
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कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
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