वास्तु वेदी निर्माण
- ऐसा देखा जाता है की पूजा-अनुष्ठान-यज्ञों में पहले ही वास्तु वेदी व अन्य वेदी निर्माण करके सजा लिया जाता है किन्तु नियमानुसार यह उचित नहीं है।
- नियमानुसार पूर्व क्रिया – पवित्रीकरण – कलशस्थापनादि करने के बाद जब वास्तु पूजन काल आये तो वास्तु मंडल का सविधि निर्माण करना चाहिये।
- गृहप्रवेश व गृह वास्तु शांति की वास्तु वेदी अग्निकोण में बनाये।
- यज्ञ-प्रतिष्ठा-अनुष्ठानादि की वास्तुवेदी नैऋत्य कोण में बनाये।
वास्तु वेदी पर श्वेत वस्त्र पसारे । फिर वेदी के चारों पादों में अग्निकोण से आरम्भ करके ईशानकोण तक द्विगुणित सूत्र (दोहरा धागा) से चार कील बांधे (वास्तु वेदी यदि मिट्टी/ईंट आदि से तो उसके चारों कोने में कील गाड़ दे, चौकी में गाड़ा नहीं जा सकता इसलिये बांधे) :-
- कील प्रमाण – द्वादशाङ्गुल (१२ अंगुल)
- कील किस वस्तु का हो – लोहे का अथवा खैर, गम्हार, शमी आदि का।
कील मंत्र : ॐ विशन्तु भूतले नागा लोकपालश्च सर्वतः । अस्मिन् गृहे तु तिष्ठन्तु आयुर्बलकराः सदा॥ फिर चारों कील के निकट दही, भात, उड़द आदि की बलि दे –
- अग्निकोण – ॐ अग्निभ्यो ऽप्यथसर्पेभ्यो येचान्ये तत्समाश्रिताः । तेभ्योबलिं प्रयच्छामि पुण्यमोदनमुत्तमम् ॥
- नैर्ऋत्यकोण – ॐ नैर्ऋत्यधिपतिश्चैव नैर्ऋत्यांयेचराक्षसाः । तेभ्योबलिं प्रयच्छामि पुण्यमोदनमुत्तमम् ॥
- वायव्यकोण – ॐ नमोवायुरक्षोभ्यो ये चान्येतान्समाश्रिताः । तेभ्योबलिं प्रयच्छामि पुण्यमोदनमुत्तमम् ॥
- ईशाणकोण – ॐ रुद्रेभ्यश्चैव सर्पेभ्यो येचान्येतान्समाश्रिताः । तेभ्योबलिं प्रयच्छामि पुण्यमोदनमुत्तमम् ॥
तत्पश्चात् स्वर्ण शलाका (सोने की कलम/तार) द्वारा कुंकुम-हरिद्रा चूर्णादि द्रव्य से रेखा करे। गृह वास्तु में १०-१० रेखायें करने से ८१ पद बनता है और यज्ञ वास्तु में ९-९ रेखा करने से ६४ पद होता है।
पहली रेखा पीठ के दक्षिण भाग में मेखला स्थान छोड़कर पश्चिम से पूर्वाग्र करे। अगली ९ रेखायें क्रमशः २ अंगुल उत्तर अथवा पीठ के आकारानुसार करे।
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