कर्मकांड सीखने के क्रम में मंत्रादि का ज्ञान तो आवश्यक है ही इसके साथ ही एक महत्वपूर्ण विषय क्रम भी होता है। क्रम का ज्ञान रखना भी कर्मकांडी ब्राह्मण के लिये उतना आवश्यक है जितना कि उचित ताप पर पाक करना आवश्यक होता है। यदि दक्षिणा पहले करें कर संकल्प अंत में तो क्या परिणाम होगा ? जिस प्रकार दक्षिणा प्रथम नहीं कर सकते और संकल्प अंत में नहीं उसी प्रकार सम्पूर्ण कर्मकांड में क्रम का विशेष महत्व है। इस आलेख में यज्ञादि हेतु क्रमावली/अनुक्रमणिका दी गयी है और उसकी विस्तृत चर्चा भी की गयी है।
कर्मकांड की क्रमावली अर्थात पूजन क्रम, वेदी पूजन क्रम
कर्मकांड सीखना जितना सरल समझा जाता है उतना सरल है नहीं। एक कर्मकांडी को वेद, व्याकरण, ज्योतिष, तंत्र आदि अनेकों विषय का ज्ञान रखना पड़ता है। प्रायः देखा जाता है कि रुद्राभिषेक अत्यधिक होने के कारण किसी प्रकार से रुद्राष्टाध्यायी पढ़ लेने वाले पंडित/कर्मकांडी घोषित (स्वघोषित) तो हो जाते हैं, किन्तु आजीवन कर्मकांड की क्षति ही करते रहते हैं, धर्म-शास्त्रों को तिलांजलि दे देते हैं और स्वछंद आचरण-व्यवहार करते हुये लोगों का धन ग्रहण करते रहते हैं। यदि प्रश्न किया जाय तो पापी पेट का जप करने लगते हैं।
कर्मकांड बहुत ही विस्तृत विषय है और इसके एक-एक कर्म का पारंगत होना भी अति परिश्रमसाध्य होता है; जैसे यज्ञ, शांति, संस्कार, श्राद्ध आदि। ये अतिरिक्त और निंदनीय है कि कुछ सरकारी सेवक जो कि कर्मकांड के लिये त्याज्य और निंदित होते हैं, कर्मकांड का ज्ञान हो वा न हो यदि शिक्षक रहे हों तो स्वयं को कर्मकांडी घोषित कर देते हैं और योग्य विद्वानों की तुलना में अधिक प्रसिद्धि आदि भी प्राप्त कर लेते हैं। ये वर्ग तो पापी-पेट का जप भी नहीं कर सकते और इनसे उत्तम प्रथम श्रेणी के ही कर्मकांडी माने जाने चाहिये।
उपरोक्त श्रेणियों के कर्मकांडी को कर्मकांडी समझना ही नहीं चाहिये और इनका क्रमावली से कोई लेना-देना नहीं हो सकता। ये तो उन चोरों-लुटेरों से भी बड़े पातकी होते हैं जो धर्म-शास्त्र-कर्मकांड के नाम पर ठगी करते हैं। यह वाक्य अतिकटु है और अनेकों कर्मकांडियों को अप्रिय लगने वाला है तथापि कटुसत्य है। यदि इस कटुसत्य को स्वीकार कर कर्मकांड के विधि-नियमों का पालन आरंभ कर दें, कर्मकांड करते हुये भी सीखने का प्रयास करें तो उत्तम है अन्यथा भगवान ही …..
आगे की चर्चा उन्हीं कर्मकांडियों के लिये है जो अज्ञानी हों तो हों किन्तु सीखना चाहते हैं। ऐसे कर्मकांडियों के लिये कर्मकांड विधि पर अनेकानेक विषयों को अतिसरल करके प्रस्तुत किया गया है जिसका अध्ययन करके निष्णात हुआ जा सकता है। इस आलेख का विषय क्रमावली है अतः मूल विषय पर आते हुये पूजा-अनुष्ठान-यज्ञादि के क्रमावली/अनुक्रमणिका को ही समझते हैं, व्यर्थ का प्रलाप करने से भी उन निंदनीय कर्मकांडियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला है।
क्रमावली या अनुक्रमणिका
इस विषय में एक प्रमाण जो उपलब्ध है पहले उस प्रमाण को देखते हैं तत्पश्चात उसकी विस्तृत चर्चा भी करेंगे :
नित्यकर्म विधायैव प्रायश्चित्तं समाचरेत् । गणेशं पूजयेदादौ स्वस्तिवाचनपूर्वकम् ॥
मातृणां पूजनं कार्य नान्दीश्राद्धमतः परम् । आचार्यमथ वृत्वैव ब्रह्माणं गाणपत्यकम् ॥
सदस्यमुपद्रष्टारमृत्विजो वृणुयात्तः । प्रवेशनं मण्डपस्य तावद् दिग्रक्षणं पुनः ॥
ततो मण्डपपूजादि ग्रहादिस्थापनं ततः । देवताग्रहहोमं च पूर्वाङ्गमिति कथ्यते ॥
पूजास्विष्टं नवाहुत्यो बलिः पूर्णाहुतिस्तथा । संस्स्रवादिविमोकान्तं होमशेषं समापयेत् ॥
पूर्णपात्रादिदानं च गोदानं च ततः परम् । श्रेयो मण्डपदानादि ह्यभिषेको विसर्जनम् ॥
विप्रेभ्यो दक्षिणां दत्वा भोजयेद् विधिपूर्वकम् । शुभाशीर्ग्रहणं कुर्यादुत्तराङ्गक्रमो ह्ययम् ॥
शांतिक कर्मों हेतु एक अन्य अनुक्रम इस प्रकार भी प्राप्त होता है :
॥ अथ शान्तिप्रयोगानुक्रमः ॥
शान्तिक्रमं प्रवक्ष्यामि नारदेन यथोदितम्। गणेशं पूजयेदादौ स्वस्तिपुण्याहवाचनम् ॥
मातृणां पूजनं कार्य नान्दीश्राद्धमतः परम् । आचार्यं वरयित्वाथ ब्रह्माणं गाणपत्यकम् ॥
सादस्यं ऋत्विजश्चैव जापकान्वरयेत्ततः । दिग्रक्षणं ततः कार्यं पञ्चगव्यं यथाविधि ॥
भूमिं संपूज्य विधिवत्तत्र संस्कारपञ्चकम् । स्थण्डिलेऽग्निं प्रतिष्ठाप्य कलशान्स्थापयेत्क्रमात् ॥
मूर्त्यग्न्युत्तारणं प्राणप्रतिष्ठा स्थापनार्चनम् । ग्रहादीन्स्थापयित्वाथ स्थापयेद्रुद्रकुम्भकम् ॥
ब्रह्मासनं ततो दत्वा कारयेत्कुशकण्डिकाम् । लिङ्गोक्तैर्नाममंत्रैर्वा यथाविध्युक्तसंख्यया ॥
देवताग्रहहोमं च ग्रहपूजापुरःसरम् । पूजा स्विष्टं नवाहुत्यो बलिं पूर्णाहुतिं तथा ॥
स्रवाश्नादिवितोकान्तं होमशेषं समापयेत् । श्रेयःसंपादनं पश्चादभिषेको विसर्जनम् ॥
विप्राशिषः प्रगृह्णीयात्तान्मिष्टान्नेन भोजयेत् ॥ इति शान्तिप्रयोगानुक्रमः ॥
उपरोक्त दोनों प्रमाण यज्ञ-शांतिकर्म-अनुष्ठान आदि के विषय में अनुक्रमाणिका को स्पष्ट करते हैं और यही विधि है। स्वछंदता पूर्वक कुछ भी किसी भी प्रकार करना किसी प्रकार से शास्त्र सम्मत नहीं कहा जा सकता है। अब इन्हीं दोनों प्रमाणों के आधार पर कर्मकांड में यज्ञ-पूजा-अनुष्ठान आदि की क्रमावली को विस्तार से समझेंगे।
नित्यकर्म
सर्वप्रथम विचारणीय विषय नित्यकर्म है, नित्यकर्म पर विचार करने का तात्पर्य यह नहीं है कि नित्यकर्म की विधि-काल आदि क्या है अपितु यह है कि नित्यकर्म जो होते हैं : स्नानादि, संध्या, तर्पण, षड्देवता पूजन यह पूर्व में ही कर लेना चाहिये। पूर्व में ही करने का तात्पर्य यह है कि सभी तैयारियां करने से पूर्व प्रातः काल ही यथासमय कर ले। बहुधा ऐसा होता है कि सामान्य जनों ने नित्यकर्म को तिलांजलि दे रखा है और पूजनादि काल में ही ब्राह्मण पंचदेवता-विष्णु पूजन संपन्न करा देते हैं। कुछ ब्राह्मण तो संध्या भी कराते हैं।
नित्यकर्म स्वयं करने वाला कर्म है न कि ब्राह्मण द्वारा। नित्यकर्म की दक्षिणा नहीं होती और ब्राह्मण से बिना दक्षिणा के कोई कर्म कराना नहीं चाहिये।
सीखना अलग विषय है और संक्षिप्त नित्यकर्म भी क्यों न करना हो यजमान को सीखना ही चाहिये, ब्राह्मण से नहीं करवाना चाहिये। ब्राह्मण नित्यकर्म का ज्ञान दे सकते हैं अर्थात सीखा सकते हैं। वर्त्तमान युगानुसार भी संक्षिप्त रूप से ही सही नित्यकर्म की विधि का ज्ञान तो होना ही चाहिये।
नित्यकर्म संपन्न होने के उपरांत ही नैमित्तिक कर्म के लिये प्रेरित होना चाहिये। यजमान सीखने के लिये जिज्ञासु नहीं है, ब्राह्मणों में भी अत्यल्प ही नित्यकर्म करने वाले हैं। अतः संक्षिप्त विधि से करने पर तर्पण का लोप तो हो ही जायेगा। क्योंकि संक्षिप्त विधि में 10 बार गायत्री जप और पंचदेवता-विष्णु पूजन ही कराया जाता है। पूजन-अनुष्ठान-यज्ञादि में तो निश्चित रूप से तर्पण का लोप कर ही दिया जाता है।
प्रश्न : नित्यकर्म के उल्लेख करने का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर : नित्यकर्म के उल्लेख करने का तात्पर्य यह है कि नित्यकर्म का लोप न करे या कालातिक्रम न करे। उल्लेख करने का तात्पर्य यह भी है कि नित्यकर्म किये बिना नैमित्तिक कर्म के लिये अधिकृत ही नहीं होते हैं।
पूर्वाङ्ग : गणेशपूजन से नान्दीश्राद्ध तक का कर्म पूर्वाङ्ग माना जाता है।
पवित्रीकरण
अस्तु जैसे हो जो हो, युगानुसार व्यवहार में यथासंभव सुधार का प्रयास रखते हुये आगे बढ़ना चाहिये। नित्यकर्म के उपरांत पूजा-अनुष्ठान-यज्ञ स्थल पर जाये। तत्पश्चात जो सर्वप्रथम कर्म होगा वह पवित्रीकरण होगा। पवित्रीकरण हेतु भी विस्तृत विधान है समयानुसार पूरी विधि भी की जा सकती है और समयाभाव होने पर मात्र अपवित्रः मंत्र पढ़कर और गंगजल से शरीर को सिक्त करके भी कर लिया जाता है।
संकल्प : पवित्रीकरण के उपरांत सर्वप्रथम गणेश पूजा अर्थात गणेशाम्बिका पूजा का विधान है। एक सिद्धांत यह भी है कि गणेशपूजन से भी पूर्व ही संकल्प करना चाहिये और सर्वाधिक उपर्युक्त यही सिद्धांत लगता है। संकल्प की चर्चा पुनः आगे भी की जायेगी।
गणेशं पूजयेदादौ – गणेशाम्बिका पूजन
प्रत्येक कर्म के आरंभ में निर्विघ्नता हेतु गणेश भगवान की पूजा का विधान है। मिथिला में तो ऐसी पद्धति नहीं है तथापि यह सामान्य पूजन आदि के लिये नहीं है। यदि विशेष अनुष्ठान-यज्ञादि किये जा रहे हों तो प्रारम्भ में गणेशाम्बिका पूजन करना ही चाहिये। यहां गणेशाम्बिका पूजन का तात्पर्य निर्विघ्नता हेतु है न कि अगली किसी पूजाओं में गणेशाम्बिका पूजन का त्याग करने का निमित्त। साथ ही यह भी देखा जाता है कि दिग्रक्षण, स्वस्तिवाचन, संकल्पादि करने के उपरांत गणेशाम्बिका पूजन किया जाता है। ऐसा स्वस्तिवाचन पूर्वकं से अर्थ लगाया जाता है।
स्वस्तिपुण्याहवाचनम्
स्वस्तिवाचनपूर्वकं में एक बार ऐसा प्रतीत होता है कि स्वस्तिवाचन पूर्वक गणेशाम्बिका पूजन करे किन्तु स्वस्तिपुण्याहवाचनम् वाले प्रमाण से स्पष्ट होता है कि गणेश पूजा करने के उपरांत स्वस्तिवाचन और पुण्याहवाचन करना चाहिये।
स्वस्तिवाचनपूर्वकं का वास्तविक तात्पर्य पुण्याहवाचन को प्रकट करना है जो स्वस्तिपुण्याहवाचनं से स्पष्ट हो जाता है। वैसे सामान्य पूजनो में पुण्यवाचन की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि पुण्याहवाचन में अनेकों ब्राह्मण होने चाहिये। पुण्याहवाचन विधि ….
कलश स्थापन पूजन
कलश स्थापन पूजन का विधान स्वस्तिवाचन के उपरांत पुण्याहवाचन से पूर्व कहा जाता है। कलश स्थापन से पूर्व कर्मपात्र का विधान भी मिलता है। यदि घर में पूजा कर रहे हों तो कलश यथास्थान ही स्थापित किया जाता है किन्तु मंडप होने पर मंडप के बाहर स्थापित होने के कारण कलश को लेकर मंडप प्रवेश किया जाता है। यह कलश वरुण कलश कहलाता है। किन्तु कलश स्थापन का अन्य क्रम है, और उस क्रम की चर्चा पुनः आगे की जायेगी। इस प्रकार स्वस्तिवाचन करने के पश्चात् कलश स्थापन करना चाहिये और तदुपरांत यदि अनेक ब्राह्मण हों तो पुण्याहवाचन भी करना चाहिये।
मातृणां पूजनं कार्य
पुण्याहवाचन करने के बाद मातृका पूजन करे। यह मातृकापूजन वास्तव में नान्दीश्राद्ध का ही अंग है किन्तु उल्लेख करने का तात्पर्य यह है कि ऐसा न हो कि मातृका पूजन का त्याग कर नान्दीश्राद्ध कर ले। मातृका पूजन से तात्पर्य षोडश मातृका, सप्तघृतमातृका पूजन, वसोर्द्धारा, आयुष्य मंत्र पाठ संपूर्ण लेना चाहिये।
वृद्धि श्राद्ध हेतु यह स्पष्ट विधान किया गया है कि बिना मातृका पूजन किये वृद्धि श्राद्ध न करे। वृद्धि श्राद्ध, नान्दीमुख श्राद्ध, आभ्युदयिक श्राद्ध सब एक ही कर्म का नाम है।
नान्दीश्राद्धमतः परम्
यद्यपि नान्दीश्राद्ध से ही यह पूर्ण स्पष्ट हो जाता है कि मातृका पूजन, वसोर्द्धारा, आयुष्य मंत्र जप आदि करे। तथापि पृथक उल्लेख का तात्पर्य यही मात्र निकलता है कि मातृकापूजन का त्याग कदापि न करे। किन्तु जिस प्रकार मातृकापूजन का त्याग कदापि न करे इसकी सिद्धि होती है उससे द्विगुणित सिद्धि तो वृद्धि श्राद्ध की होती है कि कदापि त्याग न करे। किन्तु व्यवहार में नान्दीमुख श्राद्ध को कर्मकांडी भुला चुके हैं अथवा तिलांजलि दे चुके हैं, अत्यल्प कर्मकांडी और क्षेत्रों को छोड़कर।
कर्मकांड विधि पर नान्दीमुख श्राद्ध के विषय में बहुत ही विस्तृत चर्चा की गयी है। अनेकानेक शास्त्रोक्त प्रमाणों के आधार पर नान्दीमुख श्राद्ध के बारे में विश्लेषण किया गया है और वृद्धिश्राद्ध करने की विधि मंत्र के साथ-साथ डाउनलोड करने के लिये उसका PDF फाइल भी दिया गया है।
ध्यातव्य : कर्मकांड विधि वेबसाइट पर अनेकों पूजा-पाठ आदि का PDF फाइल दिया गया है जिसे डाउनलोड किया जा सकता है। किसी PDF को डाउनलोड करने में यदि समस्या आती है अथवा न हो तो 24-48 घंटे बाद दुबारा प्रयास करने से डाउनलोड हो जाता है।
वरण
प्रधानांग : वरण से लेकर महाव्याहृति होम तक का कर्म प्रधानांग कहा जाता है। महाव्याहृति होम का तात्पर्य होम होने के पश्चात् किया जाने वाला दोष निवारण महाव्याहृति होम है।
संकल्प का उल्लेख दोनों में से किसी में नहीं किया गया है जिस कारण दुविधा की स्थिति रहती है। एक मत नान्दीश्राद्ध के उपरांत वरण से पूर्व संकल्प करने का है, किन्तु एक मत स्वस्तिवाचन के उपरांत मातृकापूजन से पूर्व करने का भी है।
प्रथम नियम गणेशपूजन से पूर्व की चर्चा पहले ही की जा चुकी है जो सर्वाधिक उपर्युक्त प्रतीत होता है। वरण से पूर्व संकल्प होगा यह तो सुनिश्चित ही है, भले ही नान्दीश्राद्ध के उपरांत हो या मातृकापूजा से पूर्व करे। प्राणप्रतिष्ठा-यज्ञादि में एक विशेष संकल्प का विधान मिलता है जिसे हेमाद्रि संकल्प कहा जाता है। यह सरलता से उपलब्ध नहीं होता है किन्तु कर्मकांड विधि पर हेमाद्रि संकल्प वाक्य भी दिये गये हैं। अन्य पूजा-अनुष्ठानों में अनेकों प्रकार से लघु, सरल, विस्तृत आदि संकल्प किये जाते हैं जिसका वर्णन संकल्प विधि में किया गया है।
आचार्यं वरयित्वाथ ब्रह्माणं गाणपत्यकम् । सादस्यं ऋत्विजश्चैव जापकान्वरयेत्ततः ॥ – संकल्प के उपरांत आचार्य, ब्रह्मा, गाणपत्य, सदस्य, ऋत्विज, जापक आदि का वरण करे।
प्रवेशनं मण्डपस्य
यज्ञ आदि में अथवा उन सभी कर्मों में जहां मंडप निर्माण किया गया है वरण करने के पश्चात् ही प्रदक्षिणा आदि करते हुये पश्चिम द्वार से यजमान मंडप प्रवेश करे। मंडप प्रवेश के उल्लेख का तात्पर्य यह नहीं है कि यदि घर में करे तो पूर्वांग कर्म घर से बाहर करके फिर घर में प्रवेश करे। घर में अनुष्ठान/शतचंडी आदि किया जा रहा हो तो वह अन्य सभी विधि होते हुये भी मंडप अभाव के कारण मंडप प्रवेश भी नहीं होगा।
दिग्रक्षण
प्रायः ऐसा माना जाता है कि दिग्रक्षण प्रारंभिक क्रिया है तथापि यहां स्पष्ट होता है कि दिग्रक्षण मंडप प्रवेश के उपरांत करना चाहिये। यदि मंडप न बना हो अर्थात मंडप प्रवेश न करना हो तो उससे पूर्व का कर्म जो कि वरण होता है वरण के उपरांत दिग्रक्षण करना चाहिये। दिग्रक्षणं पुनः कथन का तात्पर्य यही है कि दिग्रक्षण यदि पूर्व में भी किया गया हो तो भी मंडप प्रवेश के उपरांत पुनः दिग्रक्षण करे। रक्षोघ्न सूक्तादि का पाठ करके दिग्रक्षण किया जाता है।
पञ्चगव्यं यथाविधि
दिग्रक्षण करने के उपरांत पंचगव्य का विधान बताया गया है। कई कर्मों में ऐसा पाया जाता है कि प्रारंभ में ही कर लिया जाता है अथवा अधिकांश कर्मों में तो पंचगव्य विधान किया ही नहीं जाता है। पंचगव्य विधान का तात्पर्य है – पंचगव्य निर्माण, प्राशन, स्नान और प्रोक्षण। पंचगव्य विधान दिग्रक्षण के उपरांत वर्णित है अतः घर में भी करे तो यही क्रम रहेगा। समस्या तब होगी जब दिग्रक्षण ही प्रारम्भ में कर लिया जाय।
ततो मण्डपपूजादि
ततो मण्डपपूजादि का तात्पर्य है कि आगे की पूजा का आरंभ मंडप पूजन से करे और पूजन के उपरांत हवन करे। मंडप पूजन से लेकर सभी वेदियों का पूजन आदि कर्म का उल्लेख विस्तार से नहीं किया गया है। लेकिन यह स्पष्ट है कि मंडप हो तो मंडप में प्रवेश के उपरांत दिग्रक्षण, पंचगव्य विधान करके प्रथमतः मंडप पूजन ही करे। कर्मकांड विधि पर मंडप पूजन की विधि और मंत्र भी पूर्व प्रकाशित है। यहां मंडप पूजन की चर्चा की गयी है। जिस कर्म में मंडप न हो तो मंडप पूजन की आवश्यकता नहीं होगी।
पञ्चभूसंस्कार व अग्नि स्थापन
भूमिं संपूज्य विधिवत्तत्र संस्कारपञ्चकम् । स्थण्डिलेऽग्निं प्रतिष्ठाप्य कलशान्स्थापयेत्क्रमात् ॥
मंडप पूजन करने के उपरांत भूमि पूजन करे, पंचभूसंस्कार करे, और अग्निस्थापन करे। अग्निस्थापन करके अग्नि को प्रज्वलित करके अग्नि की पूजा भी कर ले। हवन का यह अंग यज्ञ हो, प्राण प्रतिष्ठा हो, अनुष्ठान हो अथवा घर में शांति कर्म कर रहे हों सर्वत्र इसी क्रम पर किया जाता है। इस क्रम को समझने में तब समस्या हो सकती है जब मंडप ही न हो। किन्तु यदि इसके अगले कर्म पर ध्यान देंगे तो सही क्रम सरलता से समझ में आ जायेगा। अग्निस्थापन के उपरांत का कर्म कलश स्थापन है। इस क्रम को और अधिक सरलता से समझने के लिये नवग्रह शांति विधि का अवलोकन करें।
कलश स्थापन : कलश स्थापन सम्बन्धी चर्चा पूर्व में करते हुये यह कहा गया था कि कलश स्थापन की पुनः चर्चा की जायेगी। वास्तव में कलश स्थापन का उचित क्रम यही प्रतीत होता है। वास्तविक पूजा विधि का प्रारंभ अग्नि स्थापन के उपरांत ही होता है अतः कलश स्थापना पूजन का उचित क्रम यही है। कलश स्थापन में भी अनेक कलश की बात कही गयी है। शांति कर्म में भी न्यूनतम 5 कलश स्थापित किये ही जाते हैं। यज्ञादि में तो अनेकानेक कलश होते हैं।
वास्तु मंडल पूजा
कलश स्थापन पूजन के उपरांत वास्तु मंडल पूजा करने का विधान मिलता है। मंडप हो अथवा न हो यदि हवन कुंड भी बनाया गया हो तो भी वास्तु शांति अपेक्षित ही होता है। यदि स्थण्डिल पर होम करना हो और वास्तुशांति के अतिरिक्त अन्य शांति कर्म हो तो वास्तुशांति की अनिवार्यता नहीं होती।
यज्ञादि में तो वास्तुपूजन होता ही है, सामान्य पूजन में भी अनेकानेक वेदियां बनाई जाती है उनके लिये यह आंख खोलने वाला विषय है कि वास्तुपूजन से पूर्व कलशस्थापन तो होगा किन्तु उससे भी पूर्व अग्निस्थापन का विधान है। सामान्य पूजा अनुष्ठान में भी अनेकानेक वेदी तो बनाये जाते हैं किन्तु पूजा क्रम का कोई विधान ही नहीं रखा जाता स्वेच्छाचार से जो मन हो किया जाता है।
प्रधान पूजा
मूर्त्यग्न्युत्तारणं प्राणप्रतिष्ठा स्थापनार्चनम्
मूर्त्यग्न्युत्तारणं प्राणप्रतिष्ठा स्थापनार्चनम् : का तात्पर्य है कि यदि प्रधान वेदी न बनाई गयी हो तो प्रतिमा का अग्न्युत्तारण करके प्राणप्रतिष्ठा और पूजा करे। किन्तु यदि प्रधान वेदी बनायी गयी हो तो पहले प्रधान वेदी पूजा करे। वेदी पर कलश स्थापित करे तत्पश्चात मूर्ति का अग्न्युत्तारण करके प्राणप्रतिष्ठा और पूजा करे।
सर्वतोभद्र मंडल सबसे मुख्य मंडल है जो सभी देवताओं की पूजा के लिये भी बनाया जा सकता है तथापि कुछ अन्य देवता विशेष वेदियां भी होती हैं। सर्वतोभद्र मंडल मुख्य रूप से भगवान विष्णु की पूजा में प्रयुक्त होता है। प्रधानवेदी प्रधानदेवता के अनुसार बनायी जाती है और सर्वतोभद्र विष्णु पूजा के लिये प्रधान वेदी होती है। इस पर ब्रह्मा सहित कुल 57 देवताओं का आवाहन-पूजन किया जाता है।
भगवान शिव की पूजा में चतुर्लिंगतोभद्र का विशेष प्रयोग किया जाता है। वैसे लिंगतोभद्र के कई प्रकार हैं, जैसे – एक लिंगतोभद्र, चतुर्लिंगतो भद्र, अष्टलिंगतोभद्र और द्वादशलिंगतोभद्र। वेदी में निर्मित शिवलिंगों की संख्या के आधार पर ये सभी नाम निर्धारित होते हैं । इन सभी प्रकारों में चतुर्लिंगतो भद्र मंडल का विशेष प्रयोग किया जाता है।
चतुर्लिंगतो भद्र मंडल में अष्ट भैरव, अष्टमूर्ति या अष्टरुद्र, अष्टकुल नाग, शूल या त्रिशूल एवं कुछ मुख्य नामों से भगवान शिव का स्थापन-पूजन किया जाता है। भगवान शिव का एक नाम आशुतोष है, भगवान आशुतोष शीघ्र प्रसन्न होते हैं और साधक के अभीष्ट की सिद्धि होती है।
प्रधान वेदी प्रधान देवता के अनुसार बनाया जाता है। भगवान विष्णु के लिये सर्वतोभद्र मंडल, भगवान शिव के लिये लिंगतोभद्र, शक्ति हेतु गौरीतिलक आदि प्रकार से वेदी बनायी जाती है। यदि देवता की वेदी का स्पष्ट ज्ञान/निर्देश न हो तो सर्वतोभद्र ही बनाया जाता है। प्रधान वेदी पूजा करके प्रधानदेवता की षोडशोपचार अथवा और भी अधिक उपचारों से पूजन किया जाता है।
नवग्रह मंडल पूजन – ग्रहादीन्स्थापयित्वाथ
ग्रहादीन्स्थापयित्वाथ : प्रधान पूजा के उपरांत ईशान कोण में नवग्रहों की स्थापना पूजन करे। सभी प्रकार के पूजा-हवनों में नवग्रह मंडल पूजा विशेष रूप से की जाती है। जब सामान्य पूजा कर रहे होते हैं अर्थात वेदियां नहीं बनाते हैं तब भी नाममंत्र से ही सही नवग्रह और दश दिक्पाल की पूजा करते ही हैं। लेकिन जब नवग्रह मंडल बनाकर पूजा की जाती है तो नवग्रह मंडल पर अधिदेवता-प्रत्यधिदेवता-पंचलोकपालादि का भी आवाहन-पूजन किया जाता है।
सामान्य पूजा में जहां वेदियां न बनी हो और एक कलश पर ही सभी देवताओं की पूजा की जाय वहां प्रधान देवता से पूर्व ही नवग्रह और दशदिक्पाल का तंत्र से पूजन किया जाता है।
स्थापयेद्रुद्रकुम्भकम्
नवग्रह मंडल पूजा करने के पश्चात् नवग्रह मंडल के ईशानकोण में एक अन्य कलश भी स्थापित करना चाहिये जिसे रुद्र कलश या असंख्यात कलश भी कहा जाता है। बहुधा देखा तो जाता है कि अनेकानेक वेदियां बनाई गयी किन्तु किस दिशा में क्या होगा इसका कोई विचार ही नहीं किया जाता है। नवग्रह वेदी भी बनता है, हवन भी होता है किन्तु स्थण्डिल के ईशान कोण में नवग्रह मंडल बना या नहीं इसका विचार ही नहीं किया जाता। रुद्रकलश की तो चर्चा ही नहीं होती है।
अनेकानेक वेदियों में से एक वेदी योगिनी की होती है जिसे अग्निकोण में स्थापित किया जाता है। 64 योगिनी कही गयी है और योगिनी मंडल पर चौंसठ योगिनी का पूजन किया जाता है। नीचे चौसठ योगिनी मंडल फोटो भी दिया गया है जिसमें आवाहन-पूजन क्रम भी निर्देशित किया गया है। योगिनी मंडल में आवाहन पूजन वामावर्त्त अर्थात अप्रदक्षिण/अपसव्य क्रम से किया जाता है। चतुःषष्टि योगिनी मंडल में आठ पंक्तियां होती है अतः आठ आवरणों में मंडल पूजा की जाती है। यदि चतुःषष्टि योगिनी मंडल का भी निर्माण किया गया हो तो नवग्रह मंडल पूजन के उपरांत पूजा की जाती है।
योगिनी मंडल पूजा करने के उपरांत क्षेत्रपाल मंडल की पूजा का क्रम आता है। क्षेत्रपाल मंडल वायव्यकोण में स्थापित किया जाता है जिसमें अजर आदि 49 देवताओं की पूजा की जाती है। क्षेत्रपाल मंडल दिये गये चित्रानुसार बनाकर नीचे दिये गये मंत्रों से सबका पृथक-पृथक आवाहन करते पूजन करे। क्षेत्रपाल मंडल वेदी वायव्य कोण में स्थापित किया जाता है।
इस प्रकार वेदियों के पूजा का क्रम भी स्पष्ट हो गया है। मातृका वेदी की चर्चा तो वृद्धिश्राद्ध परक ही है अतः वेदी पूजा में यहां क्रम का निर्धारण करने की कोई आवश्यकता ही नहीं है।
सर्वप्रथम वास्तुवेदी, तत्पश्चात प्रधान विधि, फिर नवग्रह मंडल, फिर योगिनी मंडल और अंत में क्षेत्रपाल मंडल इस क्रम से वेदियों की पूजा का विधान है। कर्मकांड विधि में सभी वेदियों की पूजा भी प्रकाशित किया गया है।
ब्रह्मासनं ततो दत्वा कारयेत्कुशकण्डिकाम्
यहां तक पूजा की विधि थी और अब आगे हवन की विधि है। हवन संबंधी कई विस्तृत चर्चा कर्मकांड विधि पर की गयी है जो हवन के बारे में व्यापक जानकारी प्रदान करती है।
ब्रह्मासनं ततो दत्वा कारयेत्कुशकण्डिकाम् : हवन से संबंधित पंचभूसंस्कार और अग्निस्थापन पूर्व में ही किया जाना चाहिये। तत्पश्चात पूजन के उपरांत पुनः हवन की विधि आरंभ करे। पहले ब्रह्मा स्थापन करे, फिर कुशकण्डिका करे; इन विधियों और यहाँ से आगे के जितने भी क्रम और विधान हैं उनकी विस्तृत चर्चा हवन विधि में की गयी है।
लिङ्गोक्तैर्नाममंत्रैर्वा यथाविध्युक्तसंख्यया ॥
देवताग्रहहोमं च ग्रहपूजापुरःसरम् । पूजा स्विष्टं नवाहुत्यो बलिं पूर्णाहुतिं तथा ॥
स्रवाश्नादिवितोकान्तं होमशेषं समापयेत् । श्रेयःसंपादनं पश्चादभिषेको विसर्जनम् ॥
विप्राशिषः प्रगृह्णीयात्तान्मिष्टान्नेन भोजयेत् ॥
इस प्रकार पूजा-यज्ञ-अनुष्ठान-शांतिकर्म आदि में क्रियाओं का एक निर्धारित क्रम है और इन्हीं क्रमानुसार पूजा आदि की जानी चाहिये। शांति कर्म में यज्ञादि की अपेक्षा कम वेदी बनायी जाती है और विधि का क्रम परिवर्तित तो नहीं होता किन्तु कई विधियां लुप्त होने से भ्रम की स्थिति बनती है। उपरोक्त विधि को सही-सही और सरलता से समझने के लिये विनायक शांति विधि और नवग्रह शांति विधि का अवलोकन करना चाहिये।
सरल पूजा का क्रम
अब एक और स्वाभाविक प्रश्न उत्पन्न होता है कि इतनी विस्तृत पूजा-अनुष्ठान तो मात्र कठिनता से 5 – 7 प्रतिशत ही किये जाते हैं। शेष अधिकांश तो सरलता से ही करते हैं; उसमें क्या क्रम होगा ?
सरल पूजा की अपेक्षा सामान्य पूजा विधि कहना अधिक उचित प्रतीत होता है। सामान्य पूजा का तात्पर्य है एक कलश स्थापन करके उसी कलश पर सभी देवताओं की पूजा करना।
इस प्रकार की पूजा में पवित्रीकरण, गणेशाम्बिका पूजन (मिथिला पद्धति में नहीं), स्वस्तिवाचन, संकल्प, दिग्रक्षण, कलश स्थापन पूजन, नवग्रह पूजन, दशदिक्पाल पूजन, प्रधान पूजा, कथा हो तो कथा, आरती और विसर्जन, दक्षिणा का क्रम होता है।

सामान्य पूजा में पुण्याहवाचन, वृद्धिश्राद्ध (मातृका पूजा सहित), वरण, हवन आदि अनेकों कर्म का लोप होता है और अन्य कर्म हेतु व्यवस्था का अभाव होने से लोप होता है। यहां हवन संबंधी प्रश्न प्रकट होता है कि हवन का लोप क्यों ?
हवन का लोप क्यों : हवन की विस्तृत विधि है और हवन में आहुति की संख्या अधिक हो अथवा अत्यल्प 108, 28 अथवा 8 ही क्यों न हो विधि समान ही होती है। विधि पूर्वक किये जाने पर ही हवन कहना सिद्ध हो सकता है। सामान्य पूजा में जो करते भी हैं वो हवन संबंधी किसी विधि का पालन नहीं करते हैं, मात्र अग्नि प्रज्वलित करके अथवा धूमाग्नि में भी स्वाहा-स्वाहा करके तिल-चावल आदि जलाते हैं। यदि ऐसा करते भी हैं तो इसे हवन नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार का करने से उत्तम यही है कि हवन करे ही न। इस कारण सामान्य पूजन में हवन का भी लोप हो जाता है।
निष्कर्ष : पूजा-अनुष्ठान-यज्ञादि संबंधी कर्म में अनेकानेक कर्म होते हैं और उनकी विशेष क्रियाविधि ही नहीं है, विशेष क्रम भी है और क्रम पूर्वक ही करना चाहिये। विस्तृत पूजा-अनुष्ठान-यज्ञ से लेकर सामान्य पूजा संबंधी क्रमों का इस आलेख में व्यापक वर्णन किया गया है जो कर्मकांड सीखने वालों के लिये बहुत ही उपयोगी है।