जन्म दुःखं जरा दुःखं : दुःख ही जनम भेल दुःख ही गंवाओल, सुख सपनेहुं नहीं भेल

दुःख ही जनम भेल दुःख ही गंवाओल, सुख सपनेहुं नहीं भेल

दुःख ही जनम भेल दुःख ही गंवाओल, सुख सपनेहुं नहीं भेल ये विद्यापति का बहुत ही प्रसिद्ध भजन है। एक समय था जब ये भजन हर गांव, हर मंदिर पर ही नहीं घर-घर में गुनगुनाते सुना जाता था। नई पीढ़ियों को पता भी नहीं होता है गाना और समझना तो दूर की बात है। मात्र विद्यापति का भजन (निष्कर्ष) है इतना पर्याप्त नहीं है और इससे माहात्म्य थोड़ा कम हो जाता है, ये उस विद्यापति का भजन (निष्कर्ष) है भगवान शंकर जिनके सेवक बने थे। भगवान शंकर ने उगना नाम से विद्यापति के यहां नौकरी किया था, और वो व्यक्ति कहता है जन्म में दुःख, मरण में दुःख लेकिन सुख सपने में भी नहीं मिला।

दुखदायी जीवन होता है किन्तु जो इस सत्य को स्वीकारने वाले थे वो आज भी स्मरणीय हैं किन्तु जो लोग इसे अनमने ढंग से स्वीकार करने वाले थे या नकारने वाले थे आज उनको कोई स्मरण नहीं करता, अब यदि कोई कुख्यात होने के कारण भी स्मरणीय हो गया हो और उसी में प्रसन्न हो तो उसकी बात ही अलग है। साथ ही साथ एक दूसरा तथ्य यह भी है कि इतिहास के माध्यम से लोगों को बदलने का कुप्रयास किया गया है। इतिहास तो लोग स्वयं अपने बच्चों को पढ़ाया करते थे किन्तु जो सामान्य जन पढ़ाया करते थे उसे मनगढंत कहा जाता रहा है और विद्यालयों में दूसरे प्रकार का इतिहास पढ़ाया जाने लगा।

तथापि प्रसंग इतिहास नहीं है, लेकिन वर्तमान अवश्य है, वर्त्तमान युग में नई पीढ़ी की सोच और समझ को इस प्रकार से प्रभावित किया जा रहा है कि यदि ये कहा जाय कि उसे लगता है सुख है, इसमें सुख है, ऐसे सुख मिलेगा अर्थात इस सच्चाई को जो भारतीय संस्कृति की विशेषता है संसार में सुख नहीं है, संसार का नाम ही दुःखालय है और यहां दुःख ही दुःख मिलता है। वास्तव में यह संसार दुखदायी ही है। अरे सुख मिलेगा यही बताकर तो कोई पाखंडी ठग रहा है और कोई मतांतरण करा रहा है। ये भारतीय संस्कृति के पूर्ण विपरीत विचारधारा है जो संसार में सुख का पाठ सिखाने लगा है।

कुतर्क और सत्य

वर्त्तमान का विश्व जो है इसमें कुतर्कियों की संख्या अत्यधिक हो गयी है और कुतर्क रचकर जनमानस को भ्रमित कर रही है। एक ऐसा प्रयास किया जा रहा है कि जो सिद्ध नियम अर्थात सिद्धांत है, शास्त्रों का कथन है, विधान है सब गलत है बस सत्य वो है तो मेरे कुतर्क से सिद्ध होता है। इसे एक कथानक से समझा जा सकता है; दो मित्र था प्रशांत और निशांत, एक दिन दोनों खेतों में घूम रहे थे और वार्तालाप हो रही थी। :

दो मित्र था प्रशांत और निशांत, एक दिन दोनों खेतों में घूम रहे थे और वार्तालाप हो रही थी।

प्रशांत : आज बड़ा अच्छा दिन है, न कड़ी धूप है न कंपकपाती शीत।
निशांत : नहीं प्रशांत दिन नहीं रात है। दिन कभी होता ही नहीं है, हमेशा रात ही रहती है।

प्रशांत : नहीं ये माना नहीं जा सकता, आकाश में सूर्य है, प्रकाश फैला हुआ है, देखो पंछियां खुले आकाश में चहचहा रही है, खेतों में किसान काम कर रहे हैं ….
निशांत : एक काम करो, अपनी आँखें बंद करो। (प्रशांत ने आंखें बंद कर लिया, अब निशांत पूछता है ….)

निशांत : क्या-क्या दिख रहा है ?
प्रशांत : कुछ भी नहीं, अंधेरा हो गया।
निशांत : दिन है या रात ?
प्रशांत : आंखें मूंदने के बाद तो रात ही लगती है किन्तु इसी प्रकार मैं रात को भी दिन बता दूंगा।

निशांत रात में प्रशांत को लेकर शहर की सड़क पर चला जाता है, और निशांत से कहा जैसे दिन में तुमने आँखें मूंदने से रात बताया था वैसे ही आंख खोलकर देखो और बोलो अभी दिन है या रात ?

निशांत : देखो अभी है तो रात ही, किन्तु सड़कों पर गाड़ियां लाइट जलाकर चल रहे हैं, पोलों पर लाइटें लगी हुयी है, सभी घरों में लाइटें जल रही है इसलिये अंधेरा नहीं है, लेकिन आकाश में तारे उगे हुये हैं।
प्रशांत : कहां हैं तारे दिखाओ जरा ?

निशांत : अरे वो इस चकाचौंध के कारण नहीं दिखेंगे क्योंकि अभी सूर्य अस्त है, रात है इसलिये तारे उगे होंगे।
प्रशांत : तो क्या जब दिन में हमने आंख मूंद लिया था तो सूर्य अस्त हो गया था ? तारे उग गये थे ? लाइटें जल रही थी ?

विश्व अभी ऐसे ही निशांत जैसे कुतर्कियों से पटा हुआ है जो विशेष रूप से सनातनियों को ये सीखा रहा है कि तुम्हारे शास्त्र झूठे हैं, हम जो बोल रहे हैं वही सत्य है। अपने शास्त्रों को मत पढ़ो, जला दो, गाली दो। जो शास्त्र पढ़ने वाले हैं, समझाने वाले हैं उनको भी गाली दो, प्रताड़ित करो, सताओ क्योंकि सही रास्ता हम बतायेंगे वो तुमको ठगते हैं, वो तुमको दुःखी देखना चाहते हैं इसलिये कहते हैं दुःख ही दुःख है, हम तुम्हें सुख का रास्ता बतायेंगे, सुख मिलेगा आदि-इत्यादि। और बहुत बड़ी संख्या में लोग भ्रमित हो भी रहे हैं।

  • यदि भ्रमित नहीं हो रहे हैं तो राम के देश में राम के प्रति प्रश्नचिह्न कैसे लगाया ?
  • यदि भ्रमित नहीं हुये तो रामायण पर अविश्वास कैसे उत्पन्न हुआ ?
  • यदि भ्रमित नहीं हुये तो हिन्दू को हिंसक कैसे बताया, भगवा आतंकवाद कैसे गढ़ लिया ?
  • यदि भ्रमित नहीं हुये हैं तो बड़ी संख्या में मतांतरण कैसे हो गया ?

वास्तविक भ्रम का एक उत्कृष्ट उदहारण

हम उन बड़े लोगों की चर्चा नहीं करेंगे जिन घरों के पति-पत्नियों को भी मिलने के लिये प्रतीक्षा करनी पड़ती है, मीटिंग की तरह मिलते हैं। सड़क पर पैदल चल नहीं सकते। हम उन लोगों की बात कर रहे हैं जो विदेश भ्रमण पर तो नहीं जा सकते किन्तु देश भर में घूम सकते हैं। सड़क पर चलने में न तो लज्जित होते हैं और न ही भयभीत रहते हैं। हम उन लोगों की बात कर रहे हैं जिन्हें कुछ विशेष लोगों द्वारा सड़कछाप कहकर निकृष्ट श्रेणी का बताया जाता है।

कुछ वर्ष पहले तक इन लोगों के घर कच्चे थे। इनके मन में भ्रम उत्पन्न किया गया कि तुम्हारा घर कच्चा है इसलिये दुःखी हो, पक्का पीटो। चोरी इसलिये होता है कि घर खुला बनाते हो, ऐसा घर बनाओ जिसमें एक द्वार हो जिसे बंद करने के बाद कोई घर में नहीं आ पायेगा और चैन से सो सकोगे। घर में आंगन मत रखो, थोड़ा सा पानी गिरने से कीचड़ हो जाता है। कभी धूप तो कभी पानी फिर कभी शीत दुःख देता है।

जब इनके घर पक्के हो गये हैं तो कोई ये सिद्ध नहीं कर पा रहा है कि अब तुम सुखी हो गये हो क्योंकि वो पहले से अधिक दुःखी हो गये हैं। स्वास्थ्य की समस्या बढ़ गयी है, व्यय कई गुना अधिक हो गया है आनुपातिक रूप से भी, ठंढ में धूप नहीं मिल पाता, गर्मी में हवा नहीं, हां वर्षा में छत टपकना और आंगन का कीचड़ अवश्य बंद हो गया है किन्तु दीवारें भींगी ही रहती है तो नाना प्रकार के पेंट व अन्य उपाय फिर से बता रहे हैं। अर्थात जेब और ढीली करो हम तो लुटेरे हैं लूटेंगे।

  • हवा नहीं मिल रही है, पंखा लगाओ, फिर भी गर्मी लग रही है तो AC लगाओ, हम तो लूटेंगे। AC फटने लगा है आग लगने लगी है तो और लूटेंगे कुछ नया चीज कहकर।
  • ठंढ से समस्या है तो आग मत जलाओ हीटर लगाओ और बीमार पड़ो क्योंकि हमें लूटना है, स्थिति अधिक बिगड़ेगी तो कमरे में ही सोये रह जाओगे, इसलिये हीटर बंद करके सोओ।
  • मच्छर से समस्या है को मछरदानी मत लगाओ क्योंकि उसमें दुःख होता है, क्वाइल जलाओ, स्प्रे करो आदि-आदि और स्वास्थ्य बिगाड़ो क्योंकि हमें लूटना है।

रही बात चोरी की तो शहरों में जहां अधिकतर पक्के घर ही हैं, वहीं अधिक चोरियां भी होती है। अरे सड़कों पर दिन-दहाड़े चोरी होती है रात की तो बात ही मत करो लेकिन ये तुमको सीखा रहे थे कि पक्के और बंद घर होने पर चोरी नहीं होगी।

दूसरा उत्कृष उदहारण

आयुर्वेद के जड़ से उन्मूलन का प्रयास किया गया, तर्क एक ही था आयुर्वेद शीघ्र आराम नहीं देता। अब अधिकतर लोग शीघ्र आराम पा रहे हैं और इतना शीघ्र आराम पाने लगे हैं कि गर्भ से ही गोली व सुई आरंभ हो जाती है और अंतिम साँस तक चलती ही रहती है। सुख ही तो बताया था पहले कि आयुर्वेद में शीघ्र सुख नहीं मिलता है हम तुम्हें शीघ्र सुख देंगे और परिणाम में मिला जीवनपर्यन्त का शारीरिक दुःख। रही बात असमय मृत्यु की तो आयुर्वेद छोड़ने के बाद क्या असमय मृत्यु समाप्त हो गयी ? क्या जीवन की गारंटी मिल गयी ?

आयुर्वेद का सिद्धांत था रोगी बनो ही मत, और यदि किसी कारणवश रोगी बन गये हो तो उसी रोग का निवारण होगा, नये-नये अन्य रोग उत्पन्न नहीं होंगे। लेकिन कुचक्र ऐसा रचा कि आयुर्वेद मृतप्राय हो गया और किसी का रोग समाप्त नहीं होता अपितु एक रोग की चिकित्सा करते-करते कई अन्य रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

मिल गया सुख या लूट लिया गंभीरता से सोचो। सुख नहीं मिला, दुःख और बढ़ गया और आग में घी का काम करता है कि लुट भी जाता है। चिकित्सा के नाम पर लोगों की भूमि, घर, आभूषण आदि बिकते रहे हैं। अब यदि सरकारें स्वास्थ्य बीमा जैसी सहायता देने लगी है तो वो दूसरी बात है। सुख कहां मिला प्रश्न ये है ? दुःख कितना घटा प्रश्न ये है ? दुःख तो बढ़ ही गया है ?

यदि और उदाहरण चाहिये तो स्वयं की आखें भी खोलिये लुटेरों के साम्राज्य के बारे में सोचिये उनके षड्यंत्र को समझिये, ये आपकी सुख-सुविधा की ही बात करके आपको उल्लू बनाते रहे हैं, आज भी बना रहे हैं और आगे भी बनायेंगे, क्योंकि आप इनके भ्रमजाल में फंस चुके हैं और वो भ्रमजाल है दुःखालय में सुख मिलने का। अब पानी के लिये भी व्यय करना पड़ता है ये सुख है। ये तो सांसें बेचने की भी तैयारी में हैं ऐसा घर बनाना होगा जिसमें प्रदूषित हवा न आये और शुद्ध हवा क्रय करके घरों में भरो फिर सांसे लो वो स्थिति भी उत्पन्न कर देंगे।

दुःख बढ़ने का कारण

कड़ी धूप में सड़क पर कई बार लोगों को भी दूर पानी जैसा दिखता है। हिरण को भी उसी प्रकार रेगिस्तान में दूर पानी का भ्रम हुआ करता था और वो भटकता रहता था जिसे मृगतृष्णा कहा जाता है।

सबसे बड़ा दोष शिक्षा व्यवस्था में है। पहली शिक्षा व्यवस्था पूर्णतः निःशुल्क थी, यदि गुरुदक्षिणा की भी बात करें तो वो अंत में लिया जाता था और गुरुदक्षिणा भी एक प्रकार से परीक्षा ही होती थी योग्यता आई या नहीं ? आज लोगों की आधी कमाई तो शिक्षा के नाम पर ही लूट ली जाती है, गरीबों को ऋण लेना पड़ता है, भूमि बंधक रखना पड़ता है और विक्रय तक भी करना पड़ता है।

शिक्षित युवा को शिक्षा किया मिलती है ?

  • शास्त्र-पुराणों की बातें झूठी हैं, मत पढ़ो, यदि कोई शास्त्र-पुराण की बातें करे तो नकार दो, लड़ो, कुप्रथा कहो, 21वीं सदी है ये समझाओ।
  • माता-पिता पुराने विचार रखते हैं उनकी बात मत मानो, यदि कभी सुननी भी पड़े तो एक कान से सुनो और दूसरे कान से निकाल दो।
  • भागकर विवाह कर लो, माता-पिता-परिवार की इज्जत मिट्टी में मिला दो, तुम्हारा जीवन है, सही निर्णय तुम्हीं ले सकते हो, माता-पिता अपने स्वार्थ की सिद्धि करेंगे तुम्हारे हित का निर्णय नहीं ले सकते, पुराने विचार के हैं, मूर्ख हैं।
  • माता-पिता ने स्वयं को बेचकर पढ़ाया ये उनका दायित्व था, तुम्हारा कोई दायित्व नहीं है तुम अपना अलग परिवार बसाओ।
  • कमाई करो, पैसे से सुख मिलेगा, बड़ा घर, बड़ी कार, वाशिंग मशीन, AC सब कुछ होगा तो सुखी हो जाओगे।

त्रुटि माता-पिता-परिवार-समाज की भी है जो अब यह सिखाता ही नहीं कि संसार का नाम दुःखालय है यहां सुख ढूँढना ठीक मृगतृष्णा के समान है। उदहारण देकर कभी ये नहीं बताते कि अमुक के घर में सभी व्यवस्था व साधन है किन्तु फिर भी दुःखी ही है अपितु माता पिता भी यही समझाते व सिखाते हैं कि अमुक के पास गाड़ी है, बड़ा घर है इसलिये सुखी है। अमुक के पास ये है अमुक के पास वो है इसलिये सुखी है। हमारे पास वो सब नहीं है इसलिये हम दुःखी हैं।

ऐसे लोग ही जब उन साधनों-सुविधाओं से सुख प्राप्त नहीं कर पाते तो पुनः अगले मोड़ पर पाखंडियों के शिकार भी बनते हैं। अर्थात इन लोगों को लूटने वाले इसके बाद भी पीछा नहीं छोड़ते वो जानते हैं कि इतने के बाद ये लोग फिर भी दुःखी ही रहेंगे और सुख के लिये बाबाओं के पास जायेंगे। यदि सच्चे बाबा के पास जाने लगे तो दुकान ही बंद हो जायेगी अतः इन लोगों को सच्चे बाबाओं के पास भी मत जाने दो, पाखंडियों को बाबा बनाकर प्रसिद्ध बना दो और फिर धर्म के नाम पर भी लूटो। लूटो लूटो और लूटो …..

पुनः इन्हीं लोगों को अनुकरणीय भी सिद्ध कर दिया जाता है और उसके बाद सामान्य लोग भी अनुकरण करते हुये लूट की दलदल में फंस जाते हैं जिसे भेड़िया धसान कहा जाता है। फिर यही लुटेरे कभी किसी पाखंडी का भेद खुल जाये (किसी का नाम नहीं लूंगा कई के भेद खुले हैं) तो ऐसा भ्रमजाल रचो कि सच्चे बाबाओं, पंडितों, शास्त्र-पुराणों के प्रति ही लोगों के मन में अश्रद्धा, अविश्वास उत्पन्न हो।

इनको अपनी दुकान बंद होने के लिये जिनसे भय है वो सच्चे बाबा, पंडित ही हैं और किसी पाखंडी का रहस्योद्घाटन होने उपरांत भी नये सिरे से नया प्रयास करते हैं कि बाबा, पंडित सभी ढोंगी होते हैं, किसी के पास मत जाओ। पुनर्मूषको भव का सिद्धांत अपनाओ और फिर से वापस उसी दलदल में फंसो जहां लुटते रहोगे, रोते रहोगे लेकिन लुटेरे समझाते रहेंगे अब सुख मिलेगा ……. अब सुख मिलेगा …….

विद्यापति का भजन बताता है दुःख ही दुःख है

कखन हरब दुख मोर, हे भोलानाथ कखन ….

दुःख ही जनम भेल दुःख ही गमाओल
सुख सपनहू नहीं भेल हे भोलानाथ …. कखन ….

अछत चानन अरु गंगा जल
बेलपात तोही देब हे भोलानाथ …. कखन ….

एही भवसागर थाह कतहु नहीं
भैरव धरु करुआर हे भोलानाथ …. कखन ….

भनइ विद्यापति मोर भोलानाथ गति
देहू अभय बड़ मोहि हे भोलानाथ …. कखन ….

विद्यापति पदावली की व्याख्या : स्वयं साक्षात शंकर जो काशी में विश्वनाथ कहलाते हैं, वही शंकर विद्यापति के यहां उगना बनकर सेवा करते थे। विद्यापति भी भगवान शंकर के भक्त ही थे लेकिन इतने उत्कृष्ट श्रेणी के भक्त थे कि साक्षात् भगवान शंकर सेवा करने के लिये आ गये। यदि संसार में किसी प्रकार से सुख की प्राप्ति संभव होती तो इतिहास में विद्यापति का नाम सबसे बड़े सुखी व्यक्ति रूप में अंकित होता। लेकिन स्वयं विद्यापति ही कहते हैं संसार में जन्म से मृत्यु पर्यन्त दुःख ही दुःख है, सुख कहीं नहीं, कहीं नहीं, कहीं नहीं …

दुःख ही जनम भेल दुःख ही गंवाओल, सुख सपनेहुं नहीं भेल - जन्म दुःखं जरा दुःखं
दुःख ही जनम भेल दुःख ही गंवाओल, सुख सपनेहुं नहीं भेल

शास्त्र-पुराण, बाबा और पंडित क्या सिखाते हैं

भगवान श्रीराम जो स्वयं साक्षात् नारायण के अवतार थे, सांसारिक दृष्टिकोण से जीवनपर्यन्त तो दुःख ही दुःख भोगा, माता जानकी जो शक्ति है कब सुख भोगा ? यदि संसार में सुख होता तो इनको सुख मिलना चाहिये था क्योंकि इनसे बड़ा पुरुषार्थी और कौन था ?

धर्मराज युधिष्ठिर, गांडीवधारी अर्जुन, गदाधारी भीम, भाला वाला नकुल सहदेव, साथ में सहयोगी थे साक्षात् नारायणावतार भगवान श्रीकृष्ण। लेकिन कितना दुःख झेला था ये तो सोचो ? इनको दुःख क्यों मिला ? इन्हें तो संसार के सर्वश्रेष्ठ सुखी व्यक्तियों में जाना जाया चाहिये था। इनके जीवन चरित्र का अवलोकन करो और ज्ञात करो कब सुख भोगा था।

जब भगवान राम को सांसारिक सुख प्राप्त नहीं हुआ, भगवान कृष्ण को संसार में सुख नहीं मिला, कृष्ण जिसके सहायक थे वो महान पुरुषार्थी दुःखी रहे, भगवान शंकर जिस विद्यापति के सेवक बने वो स्वयं ही दुःखी कहते रहे; तो …..

यही तो कारण बनता है कि वहां सुख मिलेगा ही नहीं, सुख मिलेगा कहां जहां कहता है कि सुख मिलेगा और लूटतंत्र मचा रखी है। दुःख के आग में और घी देने का काम करते हैं अर्थात और अधिक दुःखी कर देते हैं।

इस आलेख में पाखंडियों के जाल और सच को भी उजागर करने का प्रयास किया गया है और आशा है कि समझना-समझाना भी सरल है। यदि आपको ये सत्य लगता है तो और अधिक लोगों को सत्य से अवगत कराने के लिये मित्रों के साथ साझा कर सकते हैं। ये कड़ी यहां समाप्त नहीं हुयी है। ये कड़ी और आगे बढ़ेगी। पिछली कड़ी पढ़ने के लिये यहां क्लिक करें, अगली कड़ी का लिंक आगे दिया गया है, अगली कड़ी प्रकाशित होने के बाद यहां क्लिक करके अनुगमन कर सकेंगे।

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