सुख कैसे प्राप्त करें | सुख प्राप्ति के शाश्वत उपाय

सुख कैसे प्राप्त करें | सुख प्राप्ति के शाश्वत उपाय

सुख कैसे प्राप्त करें यह विषय उन सभी के लिये अतिमहत्वपूर्ण है जो सुख प्राप्त करना चाहते हैं, भले ही उन्होंने धर्मत्याग करते हुये पंथ अपना लिया हो किन्तु प्रयोजन सुख प्राप्ति ही था। संसार में सभी दुःखी है और सुख प्राप्त करना चाहता है। सुख प्राप्त करने की इच्छा रखना और बिना इच्छा रखे सुखी हो जाना ये भी दो अलग विषय हैं। किन्तु सुख प्राप्ति की इच्छा का होना दुःख का कारण नहीं होता यही सुख की समझ हो तो। सुख की समझ न हो तो ये इच्छा भी दुःख का ही कारण बनता है। इस आलेख में हम प्रामाणिक रूप से सुख प्राप्ति की चर्चा करेंगे।

वर्त्तमान समय में प्रामाणिक कथन भी समस्या का कारण बन जाता है और उसमें भी तब जब वो सामग्री इंटरनेट पर प्रस्तुत किया जाय। इंटरनेट पर बड़ा विचित्र नियम है प्रामाणिक कथन का अर्थ इंटरनेट पर यह समझा जाता है कि सामग्री प्रस्तुत करने वाला स्वयं प्रमाणित करता है। जबकि प्रामाणिक का तात्पर्य यह होता है कि सामग्री प्रमाणों के आधार पर प्रस्तुत किया गया है अर्थात जो सामग्री प्रस्तुत किया गया है वह जिस विषय से संबद्ध है उस विषय के ग्रंथों में जो प्रमाण हैं।

प्रामाणिक का स्पष्टीकरण सर्वप्रथम आवश्यक था, अन्यथा प्रामाणिक शब्द बोलना भी समस्या का कारण बनाया जा सकता है। यहां जो प्रामाणिक शब्द का प्रयोग किया गया है उसका तात्पर्य ये नहीं कि इस आलेख में जो विमर्श है आलेख उसका प्रमाण है, अपितु तात्पर्य यह है कि आलेख की सामग्री का आधार शास्त्रों के प्रमाण हैं, और कुछ प्रमाण यथास्थान उपलब्ध भी किया गया है। इंटरनेट सामग्रियों के नियमानुसार यह एक डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) के तरह है।

सुख क्या है

सुख के प्रकार की चर्चा तो आगे करेंगे उससे पहले सुख को समझना आवश्यक है, किन्तु सुख को समझने के प्रयास में ही अधिकतर लोग पीछे हट जाते हैं, मन में सुख संबंधी दुराग्रह पालकर बैठे रहते हैं और उस दुराग्रह के अनुसार ही सुख का विश्लेषण भी जानना चाहते हैं, वास्तविक सुख का विश्लेषण भी वैसे लोगों के लिये दुःखदायी ही होता है।

शांति प्राप्त करना सुख है, विश्राम करना सुख है। एक पथिक जो यात्रा (श्रम) कर रहा है वह दुःख प्राप्त कर रहा है; पैर दुखने लगता है, शरीर थक जाता है, मन व्यथित होने लगता है आदि-आदि। जब विश्राम करता है तो सुख का अनुभव करता है, जो दुःख भुगत रहा था उससे आराम मिलता है, पैर का दर्द मिलना बंद हो जाता है और दर्द दूर भी होने लगता है, शरीर की थकान दूर होने लगती है। यह सुख को समझने का एक उदहारण है।

इसी प्रकार यदि कोई रोग हो तो दुःख होता है, किन्तु रोग से मुक्ति के बाद सुखी अनुभव करते हैं। व्रण (घाव) होने पर दुःख होता है किन्तु घाव बह जाने के तुरंत बाद दर्द का निवारण नहीं होता है तथापि सुख जैसा प्रतीत होता है, सुख का अनुभव होता है। अर्थात सुख एक शाश्वत अवस्था है दुःख शाश्वत अवस्था नहीं है और दुःख की निवृत्ति होते ही सुख का अनुभव होने लगता है। इस स्थिति में एक बार ऐसा कहा जा सकता है कि दुःख से मुक्ति होना ही सुख है। दुःख होने के कारण ही सुख बाधित होता है अन्यथा सभी सुखी है अथवा दुःख का अभाव ही सुख है।

“सुख वो अवस्था है जिसमें अंतःकरण (चतुष्टय) सांसारिक विषयों के चिंतन से विरक्त होकर आत्मस्थ हो जाता है अथवा सगुण ब्रह्म में लीन हो जाता है”

इससे इतर जिसे सुख कहा-समझा जाता है वह सुख नहीं दुःख ही होता है।

  • यदि विवाह होना सुख है तो सभी विवाहित व्यक्ति को सुखी होना चाहिये,
  • यदि संतान होना सुख है तो उन सभी को सुखी होना चाहिये जिनको संतान की प्राप्ति हो गयी है,
  • यदि बड़ा घर होने से सुख मिलता है तो उन सभी व्यक्ति को सुखी होना चाहिये जिनके पास बड़ा घर है,
  • यदि वाहन होना सुख होता तो उन सभी व्यक्तियों को सुखी होना चाहिये था जिनके पास वाहन है,
  • यदि स्वस्थ होना सुख है तब तो सुख की आशा ही नहीं करनी चाहिये, क्योंकि अधिकतर रोगी ही होते हैं और जो अत्यल्प व्यक्ति स्वस्थ हैं उनको तो सुखी होना चाहिये था,
  • यदि नौकरी से सुख मिलता तो जितने लोग नौकरी कर रहे हैं उनको सुखी होना चाहिये था।

किन्तु एक सत्य यह भी है कि संसार में अधिकांश लोग इन्ही में से कुछ का अभाव होने पर अभाव को दुःख मानकर दुःखी रहते हैं। लेकिन यह दुःख मात्र कल्पित दुःख ही होता है। आप स्वयं विचार कर सकते हैं यदि 10 वर्ष पूर्व किसी अभाव के कारण आप दुःखी थे और जब उसकी प्राप्ति हो गयी तो क्या सुखी हो गये ? कुछ महीने पहले तक जिस अभाव के कारण दुःखी थे, उसकी प्राप्ति होने के पश्चात क्या आज सुखी हैं ? अभी जिस अभाव के कारण दुःखी हैं इसका अनुभव तो भविष्य में होगा जब प्राप्ति हो जायेगी फिर विचार करना होगा कि क्या अब सुखी हो गये ?

एक ही विषय ऐसा है जिसके अभाव के कारण कल भी दुःखी थे, आज भी दुःखी हैं और जब तक प्राप्ति नहीं होगी तब तक दुःखी ही रहेंगे वो है विश्राम। ये विश्राम शरीर का नहीं मन का है, मन जब तक विश्राम प्राप्त नहीं करेगा तब तक दुःख रहेगा, मन विश्राम प्राप्त करेगा तो दुःख का अभाव हो जायेगा और शाश्वत सुख की प्राप्ति होगी।

दुःखी तो वास्तव में मन ही होता है, शरीर नहीं और ये विमर्श हम पूर्व ही कर चुके हैं यदि उन आलेखों को आपने नहीं पढ़ा है तो नीचे सबके लिंक उपलब्ध किया गया है वहां क्लिक करके पढ़ सकते हैं। दुःखी मन होता है तो सुख का प्रयास भी मन के लिये ही करना चाहिये, प्रयास शरीर के लिये किया जाता है इस कारण दुःख बना ही रहता है। जब तक शरीर के सुख प्राप्ति का प्रयास करते रहेंगे तब तक दुःख से मुक्ति नहीं होगी। जैसे ही मन को विश्राम प्रदान करेंगे सुख स्वतः प्राप्त हो जायेगी। सुख प्राप्ति के लिये और कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं होती है।

सुख के प्रकार

भ्रम का आरंभ यहीं से हो जाता है जब सुख के प्रकार की चर्चा करते हैं। सांसारिक सुख और आध्यात्मिक सुख जैसे प्रकारों की कल्पना करने लगते हैं, इहलौकिक और पारलौकिक सुख। वास्तव में ऐसा कोई प्रकार ही नहीं है। सांसारिक सुख कुछ होता ही नहीं है, संसार का नाम ही दुःखालय है और यहां दुःख ही दुःख भरा है। संसार में सुख का भाव होना ऐसा ही है जैसे केले के थंब के भीतर कुछ होने का आभास होना।

केले के थंब के ऊपरी परत को जब हटाते हैं तो भी कुछ नहीं मिलता है और हटाते हटाते सभी परतों को हटा देते हैं तब भी कुछ नहीं मिलता है। उसी प्रकार संसार में निरंतर एक वस्तु की प्राप्ति, एक इच्छा की पूर्ति से लगता है कि सुख मिलेगा किन्तु पुनः दूसरी इच्छा, तीसरी इच्छा और अनंत इच्छा उत्पन्न होते ही रहती है। इच्छाओं का उत्पन्न होना कभी समाप्त ही नहीं होता है और जब तक इच्छा उत्पन्न होते रहे तब तक अभाव भी बना रहेगा और सुख संभव नहीं।

सुख के प्रकार के संबंध में पुनः एक भ्रम हो सकता है कि जैसे दुःख के तीन प्रकार होते हैं – दैहिक, दैविक और भौतिक उसी प्रकार सुख के भी तीन प्रकार होने चाहिये। कम से कम इस न्याय से तो होने ही चाहिये कि दैहिक दुःख नहीं है अर्थात दैहिक दुःख का अभाव है तो दैहिक सुख है, अथवा दैविक अथवा भौतिक। लेकिन जब तक दुःख का पूर्ण अभाव नहीं हो जाता तब तक सुखी होना भी सिद्ध नहीं होता। अर्थात यदि दो प्रकार के दुःख यदि न भी हों मात्र एक प्रकार के दुःख ही हों, तो भी दुःख का अभाव नहीं होगा और सुखी नहीं हो सकते।

जब तक मन की चंचलता बनी रहेगी, इच्छायें उत्पन्न होती रहेगी और मन उथल-पुथल करता रहेगा तब तक विश्राम का अभाव होगा और तीनों प्रकार में से कोई दुःख न भी हो फिर भी दुःखी रहेंगे। दुःख की अनुभूति मन करता है और सुख का एक ही सिद्धांत है मन का विश्राम, किन्तु मन तो सोते समय भी जब शरीर विश्राम कर रहा होता है तब भी विश्राम नहीं करता है। इस तरह से यदि सुख के प्रकारों को ढूंढना आरंभ करेंगे तो भ्रम ही उत्पन्न होगा और दुःखी के दुःखी ही रहेंगे।

सुख कैसे प्राप्त करें

अब बात जब सुख प्राप्त करने की आती है तो अब तक यह स्पष्ट हो चुका है कि सुख प्राप्ति का एक ही उपाय है दुःख का अनुभव कर रहे मन को शांत करना, विश्राम प्रदान करना; यह स्वयं ही करना होता है। मन को विश्राम कैसे प्रदान करें इसके अनेकों तरीके अपनाये जा सकते हैं किन्तु मुख्य रूप से दो ही तरीके हैं : एक आत्मस्थ हो जाना और दूसरा मन को सगुण ब्रह्म में लगा देना।

आत्मस्थ होना : आत्मस्थ होने का तात्पर्य है ज्ञान के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त करना, आत्मज्ञान प्राप्ति के बाद मन स्वतः शांत हो जाता है, विश्राम प्राप्त कर लेता है। आत्मज्ञानी के लिये और कुछ भी प्राप्त करना शेष ही नहीं रहता है, इच्छायें उत्पन्न ही नहीं होती है। आत्मज्ञानी ध्यान, योग, जप, समाधि आदि प्रयास करते हुये मन को विश्राम देते हैं। मन विश्राम करता है इस कारण दुःखों का अभाव हो जाता है और सुख का तात्पर्य दुःख का अभाव ही है।

आत्मस्थ होना अर्थात ज्ञानमार्ग का आश्रय लेना न तो सरल है और न ही सर्वसुलभ। ज्ञानमार्ग के संबंध में रामचरित मानस की चौपाई है : “ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा॥ जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई। सो कैवल्य परम पद लहई॥” ज्ञानमार्ग में विघ्न भी उत्पन्न होते हैं और उदाहरण भरे परे हैं : माण्डव्य ऋषि, च्यवन मुनि, जड़ भरत आदि।

मन को सगुण ब्रह्म में लगाना : मन को सगुण ब्रह्म में लगाने का तात्पर्य है भक्त बन जाना, भक्ति मार्ग का आश्रय लेना। भक्तिमार्ग को भी सरल नहीं कहा जा सकता, यह नहीं कहा जा सकता है कि भक्ति मार्ग में विघ्न उत्पन्न नहीं होता है, भक्तों की भी कठिन से कठिन परीक्षा होती है। जो भक्ति करता ही नहीं उसकी परीक्षा कैसी होगी, परीक्षा तो उसी की ली जा सकती है जो भक्ति करता हो। अनेकानेक भक्तों की कथायें पुराणों में भरी-पड़ी है और सबकी परीक्षा भी होती रही है ये भी बताया हुआ है।

किन्तु इस आलेख का विषय भक्तों की परीक्षा व कथा नहीं अपितु सुख है। भक्त जब अपने मन को संसार से विलग करके अपने इष्ट में केंद्रित कर देता है तो दुःखों का अंत हो जाता है। मन इष्ट में लगाने पर भी विश्राम की प्राप्ति होती है, सांसारिक इच्छाओं का समापन हो जाता है और इष्ट का चिंतन मनन करते रहते हैं। इष्ट के बारे में चिंतन-मनन करने का तात्पर्य मन का चलायमान होना नहीं होता अपितु दुःख के मूल सांसारिक इच्छाओं से हटकर सुखधाम में संलग्न होना है।

भक्त के लिये भी सबकुछ सुलभ हो जाता है “सब सुख लहै तुम्हारी सरना”, भक्त हेतु मात्र स्वयं के लिये ही सुलभ नहीं होता अपितु भक्त सबकुछ अन्यों को भी प्रदान करने में सक्षम होता है। भक्त का वचन ही प्रमाण हो जाता है, भक्त के वचन की रक्षा करने के लिये इष्ट कुछ भी विचार नहीं करते अपने प्रण तक का भी त्याग कर देते हैं किन्तु भक्त का वचन मिथ्या नहीं होने देते। अर्थात यदि भक्त किसी निःसंतान को संतान का वचन दे दे अथवा रंक को राजा होने का वचन दे दे, सब कुछ हो जाता है और पूर्ण स्वयं भगवान करते हैं।

हरि अनंत हरि कथा अनंता

ज्ञान के विषय में अन्य प्रकार की चर्चा सामन्यतः कोई करना नहीं चाहता किन्तु भक्ति के संबंध में चर्चा को यहां पर विराम नहीं दिया जा सकता है क्योंकि भक्ति के संबंध में जो कुछ थोड़ी चर्चा यहां की गयी है इससे पुनः कई अन्य प्रश्न उत्पन्न हो रहे हैं जिसकी चर्चा अपेक्षित है, तथापि अन्य चर्चा आगे के आलेखों में की जायेगी। इस आलेख का विषय सुख कैसे प्राप्त करें, सुख प्राप्ति के शाश्वत उपाय लगभग संपन्न हो गया है, किन्तु विषय को पूर्ण करना संभव ही नहीं है “हरि अनंत हरि कथा अनंता”

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