आत्महत्या क्या है ? आत्महत्या के कारण – या मूल कारण क्या हैं ?

आत्महत्या क्या है ? आत्महत्या के कारण - या मूल कारण क्या हैं ?

ईश्वर द्वारा प्रदत्त अमूल्य जीवन धन को स्वयं समाप्त कर लेना आत्म हत्या है। यह एक चिंतनीय विषय है कि आत्महत्या के मूल कारण की चर्चा कोई नहीं करता। यहाँ हम जिन विषयों पर चर्चा करेंगे वो हैं – आत्महत्या क्या है ? आत्महत्या का अधिकार क्यों नहीं है ? आत्महत्या करना पाप नहीं अक्षम्य पाप है। आत्महत्या के विरुद्ध या आत्महत्या की रोकथाम का सही उपाय क्या है ?

इस विषय को समझने हेतु सार्थक चर्चा का पूर्ण अभाव देखा जाता है। हमें इस विषय को समझने के लिये सार्थक प्रयास करने की आवश्यकता है।

आत्महत्या क्या है ?

आत्महत्या क्या है इसे समझने से पहले हमें जीव या आत्मा और शरीर को समझने की आवश्यकता है। सनातन में जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है वह है आत्मा और शरीर का पार्थक्य। आत्मा और शरीर दोनों पृथक या अलग-अलग विषय है। आत्मा वह है जो प्रत्येक सजीव में विद्यमान होता है और जब तक आत्मा विद्यमान है तभी तक जीवित संज्ञक होता है, शरीर से आत्मा के पृथक होने से जीवन समाप्त हो जाता है लेकिन प्रत्येक स्थिति में जीवन समाप्त होना आत्महत्या नहीं होती। शरीर और आत्मा का संयोग जीवन है।

आत्महत्या करना पाप नहीं अक्षम्य पाप है। आत्महत्या के विरुद्ध या आत्महत्या की रोकथाम का सही उपाय क्या है ?
आत्महत्या क्या है ?

शरीर क्या है ? शरीर पञ्चतत्वों से निर्मित वह मंदिर है जिसमें आत्मारूपी ईश्वर वास करता है और जब तक किसी पाञ्चभौतिक शरीर में आत्मारूपी ईश्वर विराजमान रहता है वही जीवनकाल कहलाता है। पञ्चतत्व हैं – मिट्टी, जल, अग्नि, आकाश और वायु; जिसे गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में इस प्रकार व्यक्त किया है – “क्षिति जल पावक गगन समीरा। पञ्चरचित यह अधम शरीरा।।” शरीर वास्तव में अधम ही होता है और जैसे ही किसी शरीर से आत्मा विमुक्त होती है उस शरीर को नष्ट कर दिया जाता है।

इसका यह भी तात्पर्य है कि जब तक किसी शरीर में आत्मा विद्यमान होती है तब तक वह अधम न होकर मंदिर होता है क्योंकि आत्मा वास्तव में ईश्वर का ही अंश होता है और गोस्वामी तुलसीदास ने इसे भी स्वीकार करते हुए लिखा है : “ईश्वर अंश जीव अविनाशी।” आत्मायुक्त शरीर अधम क्यों नहीं है इसको भी गोस्वामी जी ने स्पष्ट किया है – “साधनधाम मोक्ष कर द्वारा।”

यदि आत्मा और शरीर एक निश्चित जीवनकाल के बाद वृद्धावस्था में पृथक होते है तो वह एक सामान्य मृत्यु होती है। यदि वृद्धावस्था से पूर्व दुर्घटना, रोग आदि के द्वारा आत्मा और शरीर पृथक हो और उसमें उस जीव के स्वयं का किसी प्रकार से ज्ञात सहयोग न हो तो अकालमृत्यु कहलाती है। किन्तु आत्मा और शरीर को पृथक करने में यदि शरीरी का ज्ञात प्रयास हो तो वैसी मृत्यु आत्महत्या कहलाती है।

आत्महत्या की परिभाषा :

ईश्वर द्वारा प्रदत्त अमूल्य जीवन धन को स्वयं समाप्त कर लेना आत्महत्या है।

किसी को भी आत्महत्या का अधिकार क्यों नहीं है ?

असनातनियों द्वारा सनातन की सदा निंदा की जाती है सनातनियों को नीच या गलत सिद्ध करने के लिये कुतर्कों की झड़ी लगा दी जाती है और सबसे चिंता का विषय तो यह है कि भारतीय मीडिया, और स्वघोषित शिक्षित वर्ग या बुद्धिजीवी अवार्डधारी वर्गों का इसमें बहुत अधिक सहयोग भी किया जाता है जबकि इन्हें घोड़ा का घास भी पता नहीं है। स्ट्रेस-डिस्ट्रेस-डिप्रेशन आदि शब्दों मे बहकते रहने से आत्महत्या को समझाना भी असंभव है रोकथाम की तो केवल बात की जा सकती है सार्थक परिणाम कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता है।

आत्महत्या के विषय पर चर्चा से पहले सनातन सिद्धांत को स्वीकार करना अनिवार्य है शरीर और आत्मा का पार्थक्य एवं परिचय वेद ही कराता है और विज्ञान इस तत्व को कभी समझ नहीं सकता क्योंकि शरीर भले विज्ञान का विषय हो किंतु आत्मा कदापि विज्ञान का विषय नहीं है। आत्मा तो परमात्मा का अंश है ही, शरीर भी ईश्वरीय कृति ही है एवं यह संयोग-वियोग भी ईश्वर द्वारा ही निर्धारित किया जाता है। आत्महत्या करने वाले ईश्वर के कार्याधिकार में अनधिकृत रूप से प्रविष्ट होकर कार्य करते हैं।

जीव को एक निश्चित काल तक निवास करने के लिये पञ्चभूतों द्वारा निर्मित शरीर प्रदान किया जाता है जिस पर जीव का कोई अधिकार नहीं होता है; ईश्वर मात्र का अधिकार होता है। भौतिक जगत में जब हम किसी दूसरे के घर में किराये पर रहने के लिये जाते हैं ठीक वैसा ही समझना चाहिये। किरायेदार को जैसे केवल मकान में निवास करने का अधिकार होता है उसे तोड़ने/नष्ट करने का अधिकार नहीं होता उसी तरह जीव को शरीर (जिसका किराया पहले ही जमा करा दिया गया होता है) नष्ट करने का कोई अधिकार नहीं होता है।

  • शरीर किसका है – पंचभूतों का।
  • शरीर का निर्माण कौन करता है – ईश्वर।
  • शरीर में जीव किस प्रकार निवास करता है – किरायेदार के रूप में।

इसलिये किसी को भी आत्महत्या करने का अधिकार ही नहीं होता है। आत्महत्या करने का तात्पर्य है अनधिकृत कार्य, दण्डनीय अपराध या पाप; जिसका दण्ड ईश्वर देगा।

आत्महत्या करना पाप नहीं अक्षम्य पाप है।

पाप भी दो तरह के होते हैं क्षम्य और अक्षम्य। क्षम्य पाप का मार्जन भी हो सकता है और क्षमा भी मिल सकती है किन्तु उसके लिये भी जीवन शेष रहना आवश्यक होता है। आत्महत्या अक्षम्य पाप है; और यदि क्षम्य भी होता तो भी मार्जन के लिये जीवन की ही आवश्यकता होती। जीवन के बिना मार्जन भी नहीं किया जा सकता।

आत्महत्या के विरुद्ध या आत्महत्या की रोकथाम का सही उपाय क्या है ?

  • जीव और जीवन को समझने का प्रयास करना।
  • ज्योतिष में सूर्य को आत्मा का कारक कहा गया है इसलिये सूर्य की उपासना करना। सूर्य की उपासना छठ में और तत्पश्चात षाण्मासिक रविव्रत करके किया जाता है। नित्य जलदान एवं नमस्कार करके भी किया जाता है।
  • आत्महत्या की रोकथाम के उपाय पर भी अतिरिक्त विस्तृत चर्चा अपेक्षित है अतः अन्य आलेख में ही प्रस्तुत की जायेगी।

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।


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