लगभग ५०० वर्षोपरांत अयोध्या में राम जन्मभूमि पर पुनः मंदिर निर्माण और २२ जनवरी २०२४ को राम लला की प्राण प्रतिष्ठा हुई । इसके साथ भारतीय संस्कृति में भी नई चेतना, स्फूर्ति संचरित हुई ।
लेकिन न्यायालय द्वारा मार्ग प्रशस्त होने के बाद मंदिर, मूर्ति, प्राण-प्रतिष्ठा, महोत्सव आदि सभी विषयों पर कुछ विवाद भी उत्पन्न हुए, जिससे आगे काशी, मथुरा आदि के संबंध में कुछ सीख प्राप्त हुई । बुद्धिमान को विवाद से भी सीख ग्रहण करना चाहिये न कि विवाद को ही आगे बढाते रहना चाहिये।
देश के सभी सनातनियों का यह अटूट विश्वास है कि काशी, मथुरा में भी सांस्कृतिक-धार्मिक चैतन्यता पुनः प्रतिष्ठित होगी। लेकिन उस महोत्सव में किसी प्रकार के शास्त्रीय विवाद से लोगों की आस्था को ठेस न पहुंचे, शास्त्रीय विधि-मर्यादा का भी पालन हो और लोगों की आस्था, भक्ति भावना को भी बल प्राप्त हो इसलिये अयोध्या राम मंदिर निर्माण से मिली सीख ग्रहण करना तदनुसार आचरण करना आवश्यक है।
अयोध्या राम मंदिर निर्माण और राम लला की प्राण प्रतिष्ठा से क्या सीख मिली
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और राम लला की प्राण प्रतिष्ठा से मिली सीखों के कई आयाम हैं, और इसकी सम्पूर्ण चर्चा कोई नहीं कर सकता हाँ अपने-अपने दृष्टिकोण से सीमित रूप में विश्लेषण की जा सकती है। यहां कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं को समझेंगे :
वैश्विक परिदृश्य :
सनातन अखण्ड भूमण्डल में बंधुत्व दर्शन करता है। परन्तु जैसे परिवार के सदस्यों में प्रतिस्पर्द्धा मिलती है किन्तु विरोध का अभाव होता है (विरोध हिस्सेदारी को लेकर अवश्य होती है), उसी प्रकार समाज में प्रतिस्पर्द्धा का स्तर थोड़ा निम्न होता है और समर्थन के साथ विरोध भी देखने को मिलता है, उसी प्रकार एक देश के रूप में प्रतिस्पर्द्धा का स्तर जो होता है वो अत्यंत निकृष्ट श्रेणी का होता है।
अंतरराष्ट्रीय पृष्ठभूमि में एक-दूसरे के विरोधियों की संख्या अधिक है और यदि कोई किसी का समर्थक भी है तो उसमें स्वार्थ कारण होता है, जिसे भारत भी राष्ट्र प्रथम की नीति कहकर व्यक्त करता है। लेकिन इस नीति में भी जहां भारत विश्व कल्याण भावना, उदारता आदि भावों का त्याग नहीं करता वहीं विश्व में संभवतः कोई अन्य देश ऐसा नहीं है जो इन भावों का भी आश्रय लेता हो, बल्कि उनकी नीति अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये दुनियां में आग भी लगाना पड़े तो लगा दें।
भारतीय नीति का तात्पर्य चूंकि धर्म है इसलिये इसमें धर्म के लक्षण भी प्रस्फुटित होते हैं।
OIC के साथ कुछ देशों और मिडियावर्ग को भारत की स्वतंत्रोन्मुख संस्कृति के कारण अपना सांस्कृतिक उपनिवेश संकट में दिख रहा है इसलिये उनका विरोध प्रकट करना स्वाभाविक है। किन्तु उनका विरोध ये सिद्ध नहीं करता कि भारत को सांस्कृतिक स्वतंत्रता का अधिकार नहीं है अपितु उनसे ये प्रश्न किया जाना चाहिये।
- जब कोई कमजोर व्यक्ति अच्छा कार्य भी करने के लिये आगे आता है तो दूसरा बलवान उसे श्रेय, सम्मान न मिले इसलिये विघ्न डालता है रोड़े अटकाता है और कार्य को पूर्ण ही नहीं होने देता, और भारत ने 2014 तक इसे झेला है।
- जब कोई सामान्य श्रेणी का (न कमजोर और न बलवान) उन्नति करता है तो लांछन भी सहता है, अच्छे कार्यों में विरोध भी झेलता है लेकिन लक्ष्य प्राप्त करने में समर्थ होता है। बुरे कार्यों में उसे दण्डित होना पड़ता है।
- बात जब समर्थ की हो तो गोस्वामी जी की चौपाई है – समरथ नहीं कछु दोष गोसाईं। रवि पावक सुरसरि की नाईं। जो सक्षम होता है उसके प्रति लोगों में ईर्ष्याभाव तो होती है किन्तु विरोध कुछ अन्य समर्थ व्यक्ति ही कर पाता है। समर्थों का आपसी समर्थन और विरोध भी एक अलग प्रकार का ही होता है। समर्थों के लिये सामान्य जन विरोध का स्वर नहीं उठा पाते। आज का भारत समर्थ है। यदि किसी ने विरोध किया है तो भारत के सामर्थ्य को आंकने में उससे त्रुटि हुई है जिसके लिये भविष्य में उसे पछतावा होगा।
जिस किसी ने भी विरोध किया है वह बस एक प्रश्न का उत्तर दे – क्या भारत को अपनी सांस्कृतिक स्वतंत्रता प्राप्त का अधिकार है या नहीं ? सांस्कृतिक स्वतंत्रता के संबंध में विशेष चर्चा पूर्व आलेख में की जा चुकी है :- भारतीय राजनीति में धर्म की भूमिका और राम लला की प्राण प्रतिष्ठा
सीख : भारत को अपने सामर्थ्य वृद्धि के लिये प्रयत्न करना है, भौंकते कुत्तों पर ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं है। भौंकने वाले कुत्तों के पास हाथी में सटने का साहस नहीं होता है। यदि हाथी कुत्तों के पीछे दौड़े तो अपनी ऊर्जा का अपव्यय करेगा और पथभ्रष्ट होगा।
आतंरिक परिदृश्य
आतंरिक रूप से भारत ने अपनी शांतिप्रियता के भाव स्थापित करते हुये धैर्य, उदारता, सामर्थ्य आदि का बहुत ही उत्तम प्रदर्शन किया है। ये सभी स्वतंत्र रूप से विश्लेषण करने वाले बिंदु हैं जिनपर विशेष कारण से पृथक विमर्श नहीं किया जा रहा है। कर्मकाण्ड विधि मुख्य रूप से धार्मिक, आस्था, कर्मकाण्ड आदि से सम्बंधित बिन्दु पर विचार करना चाहता है।
सीख : कुछ लोग हैं जो अतिशीघ्रता चाहते हैं तो कुछ लोग (विरोधी) हैं जो कभी नहीं चाहते इन दोनों में सामंजस्य स्थापित करना अभी भी एक चुनौती है। लेकिन विरोधी से समस्या नहीं है समस्या अतिशीघ्रता चाहने वालों से है उनको विश्वास में लेने की आवश्यकता है।
आर्थिक परिदृश्य
कई विश्लेषणों से हमें ये ज्ञात हुआ की भारत ने ५ ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनाने का जो लक्ष्य रखा है उसमें १ ट्रिलियन डॉलर का योगदान तो अयोध्या राम मंदिर का भी होगा। आर्थिक परिदृश्य से कुछ और बातें भी स्पष्ट होती है :
- इस विषय में अर्थवेत्ताओं का संदेह मिट गया होगा कि निर्धारित समय सीमा के भीतर भारत ५ ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी कैसे बनेगा।
- काशी, मथुरा के प्रतिवादी (मुसलमान) के मन में भी मंदिर समर्थन का भाव उत्पन्न होगा क्योंकि आर्थिक लाभ दिख रहा होगा अथवा शीघ्र ही दिखने लगेगा। जिस कारण वहां मंदिर निर्माण करना आसान कार्य हो गया है।
- कुछ नये विवादित स्थल भी उत्पन्न हो सकते हैं, वास्तविक और अवास्तविक दोनों श्रेणी के विवाद होंगे।
- अयोध्या राम मंदिर निर्माण होने से लाखों परिवार की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी।
सीख : हमारा लक्ष्य सांस्कृतिक स्वतंत्रता प्राप्ति ही रहनी चाहिये, आर्थिक लाभ स्वतः प्राप्त होगा, किन्तु यदि आर्थिक लाभ न भी हो अपितु व्यय भी करना पड़े तो भी सांस्कृतिक स्वतंत्रता के दृष्टिकोण पर अडिग रहना होगा। आर्थिक लाभ-हानि के बारे में सोचकर सांस्कृतिक स्वतंत्रता से समझौता नहीं किया जा सकता।
सामाजिक परिदृश्य
कट्टरता फैलाकर उन्मादियों से राजनीति करने वाले कुछ विवाद भले करें, किन्तु समाज में वस्तुतः समरसता की वृद्धि देखी जा रही है। कन्वर्जन के लिये गतिरोध उत्पन्न हो गया है। कन्वर्जन के लिये इस दृष्टिकोण से गतिरोध उत्पन्न हुआ है कि बहुत सारे भारतीयों (मुसलमानों और ईसाईयों) को भी ये सच्चाई धीरे-धीरे समझ आ रही है कि वो भी राम और कृष्ण परम्परा मानने वालों के ही वंशज हैं बाबर और औरंगजेब के वंशज नहीं हैं। और ये भाव मात्र कन्वर्जन का गतिरोध ही नहीं करेगा अपितु घरवापसी को गति भी प्रदान करेगा – “एक पंथ द्वि काज”
सीख : सामाजिक समरसता की वृद्धि की एक निर्धारित सीमा है जो स्पष्ट किया जाना चाहिये। सामाजिक समरसता का तात्पर्य बेटी-रोटी का सम्बन्ध नहीं होता।
धार्मिक व सांस्कृतिक परिदृश्य
कर्मकांड विधि मुख्य रूप से धार्मिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में मिली सीखों पर ही विमर्श करना चाहता था, किन्तु विषय विस्तार होते हुये भी अन्य महत्वपूर्ण सीखों को समझने का प्रयास अपेक्षित था।
धार्मिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में कई प्रकार की घटनायें घटित हुई है। अयोध्या राम मंदिर निर्माण मुख्य रूप से धार्मिक और सांस्कृतिक घटना ही है, अन्य जो कुछ भी विषय है वो विशेषता है, अतिरिक्त लाभ है।
धर्म पर राजनीति का अनपेक्षित प्रभाव : प्राण प्रतिष्ठा समारोह में निर्विवादित रूप से धर्म पर राजनीति का अनपेक्षित प्रभाव दिखा जो कदापि सही नहीं कहा जा सकता। धर्म बीज है, संस्कृत वृक्ष है और राजनीति मात्र एक शाखा है किन्तु शक्ति का केंद्र होने के कारण राजनीति अपना अधिक विस्तार कर सकता है किन्तु यदि एक शाखा अत्यधिक विस्तार कर ले तो भी वृक्ष का अस्तित्व संकट में ही होता है। शक्ति का केंद्र होने के बाद भी राजनीति को अपने विस्तार की सीमा ज्ञात होनी चाहिये।
सत्य और प्रातिभासिक सत्य : विशाल वटवृक्ष में कालान्तर से जटायें भी नये वृक्ष के रूप में दिखती है लेकिन मूल वृक्ष से स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने में असमर्थ होती है। वो प्रातिभासिक वृक्ष होता है और उसका प्रतिभास भी मूल वृक्ष की सत्ता से ही होता है। कालान्तर में जटा से बने वृक्ष को मूल वृक्ष समझना भूल नहीं अज्ञानता होती है।
गायत्री परिवार, आर्य समाज इत्यादि अनेक रूपों में धर्म की जटा वाली वृक्ष का अस्तित्व तो है लेकिन मूल वृक्ष (सनातन) अलग है और उसी के अस्तित्व से इनका अस्तित्व है मूल सनातन रूपी वृक्ष के अभाव में इनकी स्वतंत्र सत्ता नहीं हो सकती। इनमें से किसी ने भी शास्त्रार्थ द्वारा अपना मत सिद्ध नहीं किया है, केवल स्वेच्छाचार (जितना मानू उतना धर्म, बाकि निरर्थक) का प्रचार किया है।
लेकिन RSS जो कि इन गतिविधियों में मुख्य भूमिका निभाता है वो इन प्रतिभासिक वृक्षों को ही मूल वृक्ष समझने की अज्ञानता में फंसा हुआ है और मूल वृक्ष की हानि संबंधी गतिविधियां भी कर बैठता है। समिधा या ईंधन के लिये मूल वृक्ष का छेदन नहीं करना चाहिये, शाखा प्रशाखाओं में से भी सूखने वाली अथवा जिससे हानि न हो उसको काटना चाहिये। लेकिन यदि भूल से मूल वृक्ष का ही छेदन कर दे तो एक बार में ही पूरा वृक्ष समाप्त हो जायेगा।
कर्मकाण्ड और ज्योतिषीय विवाद : जब विषय व्यापक हो तो किसी (ट्रष्ट या सरकार) को आचार्यादि का चयन नहीं करना चाहिये। इसके लिये स्वस्थ परम्परा शास्त्रार्थ की है। आगे और भी ऐसे अवसर आने वाले हैं उनमें शास्त्रार्थ का आश्रय लेना चाहिये। लेकिन इसमें भी भूल हो सकती है शास्त्रार्थ इसलिये भी कराया जा सकता है कि मुहूर्त कब है ? कर्मकाण्ड की विधि क्या होगी ? लेकिन ये भटकाव होगा।
शास्त्रार्थ इन तीन पदों के लिये होना चाहिये कि उत्तम मुहूर्त बनाने के लिये ज्योतिषियों में श्रेष्ठ कौन है ? आचार्य पद के लिये कौन श्रेष्ठ है, ब्रह्मा पद के लिये कौन श्रेष्ठ है ?
साथ ही धर्म-संस्कृति के विकास हेतु शास्त्रार्थ सार्वजनिक रूप से इस प्रकार होना चाहिये कि सभी (आम जनता) देख सकें, समझ सकें।
ये पूर्वघोषणा करके शास्त्रार्थ होना चाहिये कि शास्त्रार्थ में विजयी के पास ही किसी भी विधि-नियम के निर्धारण का पूर्ण अधिकार होगा जो भी निर्णय लिया जायेगा वह सर्वमान्य होगा।
शास्त्रार्थ द्वारा पदारूढ़ होने वाले ज्योतिषी के मुहूर्त पर, आचार्य और ब्रह्मा के बताये विधि-विधानों, निर्देशों के विरुद्ध किसी प्रकार का प्रलाप निषिद्ध होगा इससे लोगों की धार्मिक आस्था को ठेस लगता है, भ्रम का विस्तार होता है, विरोधियों को बल मिलता है और राजनीति को अपना विस्तार करने का अवसर प्राप्त होता है। काशी के विषय में राम लला की प्राण प्रतिष्ठा से अधिक विवाद संभावित है ।
सबसे बड़ी सीख : सबसे बड़ी सीख ये मिली है कि आपत्काल अपना अस्तित्व सिद्ध कर चुका है और इसके निवारण हेतु प्रयास में वृद्धि अपेक्षित है। आपत्काल विषयक चर्चा पूर्व आलेखों में की जा चुकी है :
॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ सुशांतिर्भवतु ॥ सर्वारिष्ट शान्तिर्भवतु ॥
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
Discover more from संपूर्ण कर्मकांड विधि
Subscribe to get the latest posts sent to your email.