एक ओर कर्मफल के भुक्ति का प्रमाण है वहीं दूसरी ओर दुःख का कारण अज्ञान है ये प्रमाण है, परस्पर विरोधाभाषी प्रतीत होता है, यदि कर्मफल के कारण सुख-दुःख की प्राप्ति होती है तो फिर अज्ञान कैसे कारण सिद्ध होता है। वहीं कर्म के विषय में भी ऐसा प्रमाण है कि बिना भोगे कर्म का क्षय नहीं होता है तो दूसरी ओर पाप नाश का भी प्रमाण है और अनंत कथायें हैं जिसमें भगवान की कृपा से पाप का नाश भी होता है यह सिद्ध होता है। अब इतना विरोधाभास होने पर तो भ्रम बढ़ता ही है, निवारण कैसे होगा; इस आलेख में इन्हीं तथ्यों का विस्तृत विमर्श किया गया है।
कर्म का फल भोगना ही पड़ता है तो दुःख का कारण अज्ञान कैसे
हम विचार करने की आवश्यकता है कि दुःख का कारण कर्म (पाप) है या अज्ञान क्योंकि कभी यह बताया जाता है कि कर्म का फल भोगना ही पड़ता है और दुःख पाप कर्मों का फल होता है। जबकि कभी बताया जाता है कि दुःख का कारण अज्ञान है, विडम्बना ये है कि किसे सत्य माने कैसे माने ? च्यवन ऋषि, माण्डव्य मुनि, जड़ भरत आदि ज्ञानी थे, फिर भी कर्मफल के प्रभाव से दुःख तो मिलता ही था यहां पर कर्मफल का सिद्धांत सिद्ध होता है किन्तु अज्ञान का सिद्धांत असिद्ध हो जाता है।
फल भोग के बिना कर्म का नाश नहीं होता है ऐसे ढेरों प्रमाण हैं “नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटि शतैरपि” पुनः भगवान के नाम जप, कीर्तन से पाप का नाश होता है, पाप नाश के लिये प्रायश्चित्त विधान भी है। किसे सत्य माने समस्या तो ये है। यदि कर्मफल भोगना ही पड़ता है तो भगवन्नाम स्मरण, कीर्तन, प्रायश्चित्त आदि अनेकों कृत्य जिससे पाप नाश की बात कही गयी है वह असिद्ध होता है, और यदि पाप का नाश होता है इसे सत्य माने तो कर्मफल का सिद्धांत असिद्ध हो जाता है। सभी बातें शास्त्रोक्त ही हैं अर्थात कोई भी गलत नहीं है असिद्ध नहीं हो सकता। भ्रम तो बढ़ता ही रहता है, निवारण बड़े-बड़े कथावक्ता भी नहीं करते हैं।
दुःख का कारण पापकर्म है अथवा अज्ञान
किसी भी समय किसी एक शुभ या अशुभ कर्म का फल प्राप्त होता है ऐसी कोई बात नहीं होती। एक समय में कई कर्मों के फल प्राप्त होते रहते हैं। जैसे एक ही समय में यदि कोई व्यक्ति पापकर्म का फल दुःख प्राप्त करता है, अस्वस्थ हो जाता है तो उसी समय शुभ कर्मों के फलस्वरूप प्रियजनों का दर्शन भी प्राप्त करता है, प्रियजनों का दर्शन अमृततुल्य कहा गया है “अमृतं प्रियदर्शनं”, एक ही समय शुभकर्मों के फलस्वरूप कोई उत्सव मना रहा होता है तो उसी समय अशुभ कर्मों का फल भी प्राप्त होते देखा जाता है जैसे चोरी हो जाती है, दुर्घटना हो जाती है, विवाद हो जाता है आदि-इत्यादि।
एक तथ्य ये भी है कि जब पुण्य कर्मों की प्रबलता होती है, बहुत ही सौभाग्य प्राप्त होता है तब जाकर मनुष्य शरीर की प्राप्ति होती है। अर्थात मनुष्य शरीर प्राप्त करना मात्र ही यह सिद्ध करता है कि पुण्य कर्मों का उदय हो गया है और पुण्य कर्मों का प्रभाव इतना हो गया है कि उसे और आगे बढ़ने का अवसर प्रदान किया गया है, मुक्ति प्राप्ति अथवा उस दिशा में प्रयास करते हुये प्रगतिशील हो सकता है।
मनुष्य शरीर की प्राप्ति भी कर्मफल के प्रभाव से हुआ एवं मृत्युपर्यंत की बहुत सारे महत्वपूर्ण घटनाक्रम भी कर्मफल से सुनिश्चित हो जाता है जिसे भवितव्यता कहा जाता है। वर्त्तमान जीवन में मनुष्य उस भवितव्यता के अनुसार ही अन्य कर्मों में प्रवृत्त होता है। अर्थात वर्त्तमान फल जो प्राप्त होता दिखता है वह वास्तव में भवितव्यता है लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि वर्त्तमान (तात्कालिक) कर्म का फल मिला है। असफलता के अवसर पर लोगों को भवितव्यता का स्मरण होता है, भाग्य-दुर्भाग्य आदि की चर्चा करते हैं किन्तु सफलता के अवसर पर भवितव्यता को विस्मृत करते हुये स्वयं को पुरुषार्थी सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, तात्कालिक कर्म का प्रभाव मानते हैं।
एक किसान खेती, पशुपालन आदि करता है। उसके कितना अन्न, पशुधन आदि प्राप्त होगा यह पूर्वनिर्धारित होता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो ऐसा कहते हैं कि यदि प्राप्ति सुनिश्चित ही है तो परिश्रम क्यों करना, इस प्रकार का कुतर्क कर सकते हैं। किन्तु जिसे वह परिश्रम, पुरुषार्थ कहता है वह उसका दायित्व-निर्वहन होता है। कोई भी प्राणी कर्म किये बिना नहीं रह सकता वह किसान भले ही कृषि न करे किन्तु कुछ न कुछ करेगा। वह क्या करेगा यह भी भवितव्यता से ही निर्धारित होता है। यदि मैं इस प्रकार से नित्यप्रति इस प्रकार आलेख प्रस्तुत कर रहा हूँ तो ये किसी न किसी भवितव्यता का ही कर्म है, भवितव्यता का ज्ञान हमें भले ही न हो।
दायित्व निर्वहन अथवा पुरुषार्थ जो भी कहें तात्कालिक कर्म करते समय भी कुछ शुभ और कुछ अशुभ कर्म होते हैं, यथा कृषि कार्य में किसान ने कितनी हिंसा किया, कितना शोषण किया, कितना दान किया आदि। एक बार आपके मन में यह प्रश्न आ सकता है कि कृषि कार्य में कैसी हिंसा ? कृषि कार्य में अनेकानेक हिंसा न चाहते हुये भी होती है।
- जब किसान भूमि की जोत, बुआई, पटवन, कटाई आदि करता है तो उस कार्य में अनेकों जीव की हत्या होती है।
- यदि बगल वाले की भूमि थोड़ा अधिक जोत लिया तो एक अन्य पाप हो गया,
- यदि श्रमिकों को उचित पारिश्रमिक नहीं दिया तो वो भी एक पाप हो गया।
किसान जब अन्न का पहला अंश विष्णुप्रीत्यर्थ ब्राह्मण को दान करता है तो वह पुण्य हो जाता है, अन्न का दोष समाप्त हो जाता है। नापित आदि आश्रितों को देता है तो कर्तव्य निर्वहन होता है। इसके अतिरिक्त पूजा-हवन आदि भी कर्तव्य होता है। इस प्रकार के पापों का; जो जीवन निर्वहन हेतु होता ही रहता है उसका प्रायश्चित्त नित्यकर्म से हो जाता है। किन्तु जो नित्यकर्म ही नहीं करता है उसके ये पाप कर्म भी बढ़ते जाते हैं।
अर्थात वैसे पाप जो जानबूझ कर नहीं किये जाते, जैसे चलते समय पैरों के नीचे चींटियों का आ जाना, घर की स्वछता काल में ढेरों कीटादि का मरना, खटमल, मच्छर आदि की हत्या होना; इन सभी कर्मों में भी हिंसा होती है, पाप होता है किन्तु उसका मार्जन भी सरल ही है नित्यकर्म से होता रहता है। ये पाप भी नित्य होते हैं और इनका निवारण भी नित्य होता है।
किन्तु यदि इन पापों का भी मार्जन न किया जाय अर्थात नित्यकर्म न किया जाय तो ये सभी पाप भी जमा होते रहते हैं किन्तु तत्क्षण ही प्रभाव भी देंगे यह सुनिश्चित नहीं होता। नित्यकर्म, गायत्री जप, भगवन्नामस्मरण आदि शुभ कर्मों से ऐसे पुरातन पाप भी नष्ट होते रहते हैं और पिछले जन्म-जन्मांतरों के पाप भी नष्ट होते हैं।
तथापि प्रथमतया तो यही विचार करना है कि जो भवितव्यता है वो स्वतः ही कर्म करा लेती है। अर्थात जो यह कहते हैं कि पुरुषार्थ ही प्रधान है यदि पुरुषार्थ न किया जाय तो फल की प्राप्ति भी नहीं होगी वो सही नहीं होते हैं। पुरुषार्थ भी किसे क्या करना है इसका निर्धारण ही भवितव्यता करती है। बिना पुरुषार्थ के भी भवितव्यता से प्राप्ति होती है यह अप्रमाणिक नहीं है इसका प्रमाण है। कोई जन्म से ही दरिद्र होता है तो कोई जन्म से ही अपार धन-संपत्ति का उत्तराधिकारी हो जाता है। जो बच्चा जन्म से ही अपार धन-संपत्ति का उत्तराधिकारी हो जाता है उसने कौन सा पुरुषार्थ किया होता है ?
अर्थात भवितव्यता या सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति, हानि-लाभ इत्यादि भवितव्यता है और व्यक्ति वही पुरुषार्थ करता है जो उसकी भवितव्यता निर्धारित करती है। क्या लाखों लोग एक सामान कार्य करने पर भी एक ही भवितव्यता (फल) की प्राप्ति कर सकते हैं ? नहीं। वर्त्तमान भारत के 140 करोड़ लोग भी एक समान ही पुरुषार्थ करें तो भी प्रधानमंत्री 1 ही बनेगा, राष्ट्रपति 1 ही बनेंगे करोड़ों नहीं। यहां पुरुषार्थ से सिद्धि मिलती है यह असिद्ध हो जाता है।
हम जो समझाना चाह रहे हैं वो ये है कि मनुष्य भवितव्यता के अनुसार कर्म/पुरुषार्थ करने के लिये बाध्य होता है अर्थात कर्म किये बिना नहीं रह सकता है। धन-संपत्ति, पद आदि भी ऐसा मात्र प्रतीत होता है कि पुरुषार्थ से प्राप्त होता है, उदहारण तो ऐसा भी है कि कोई व्यक्ति विशेष परिवार में जन्म के कारण ही प्रधानमंत्री पद का पात्र बना हुआ है भले ही लाखों सुयोग्य पात्र जो पुरुषार्थी भी हों कहीं नहीं दिखें। परिवार विशेष में जन्म लेने से यदि कोई प्रधानमंत्री पद का अधिकारी हो जाता है तो पुरुषार्थ से प्राप्ति की बात ही समाप्त हो जाती है।
लेकिन यहीं पर पुनः मोदी के संबंध में पुरुषार्थ की बात की जायेगी, लेकिन तथ्य ये है कि मोदी की भवितव्यता में देश का प्रमुख बनना था इसलिये मोदी ने पुरुषार्थ किया, मोदी पुरुषार्थी हैं इसलिये 3 बार प्रधानमंत्री बने तो उन्हें क्या बनना चाहिये था जो मोदी से भी अधिक पुरुषार्थी हैं। अथवा क्या ऐसा कहा जा सकता है कि मोदी से अधिक पुरुषार्थी व्यक्ति ही नहीं है। ऐसा कदापि नहीं कहा जा सकता।
जब हम भवितव्यता को सुनिश्चित मानकर आगे बढ़ेंगे तब यह समझना सरल हो जाता है कि कर्मफल प्राप्त होता है। तात्कालिक कर्म करने के लिये बाध्य होते हैं और तात्कालिक कर्म करते समय भी शुभाशुभ कर्म करते हैं जो पुण्य और पाप की श्रेणी में संग्रहित होता जाता है।
किसी भी कर्म का फल तत्काल ही मिलता है ऐसा नहीं होता। एक वृक्ष में जल देते हैं अन्य सेवा करते हैं तो इसका तात्पर्य यह नहीं होता कि तत्काल ही फल भी प्राप्त होगा। कृषि कार्य में ही बुआई, पटवन आदि बहुत कुछ काम करने के बाद परिपक्वता के काल में अन्न प्राप्त होता है। इसी प्रकार शुभाशुभ कर्मों के फल भी तत्काल ही प्राप्त होते हैं ऐसा नहीं है उसका भी परिपक्वता काल होता है व क्रम होता है, हम यह भी निर्धारित नहीं कर सकते कि किस कर्म का फल कब प्राप्त हो ! फल में अधिकार भी सिद्ध नहीं होता है यह सिद्धांत है और भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है मा फलेषु कदाचन।
यदि तत्काल ही कर्मफल की प्राप्ति सुनिश्चित होती तो एक मांसाहारी जीव प्रतिदिन हिंसा करता ही रहता है, कुछ ही दिनों के उपरांत उसे हिंसा का फल प्राप्त होना चाहिये था। मनुष्य भी जो मांसाहारी होते हैं उन्हें हिंसा का फल तो तत्काल ही प्राप्त होना चाहिये था, मांसभक्षण करने वाले की बात को एक क्षण के लिये अलग भी रख दें जो बेचने वाला होता है वह तो प्रतिदिन कई हिंसा करता है तथापि तत्काल तो फल प्राप्त नहीं करता है। उस व्यक्ति ने जितने जीवों की जीवन पर्यन्त हिंसा किया है इसके बदले तो जन्म-जन्मांतर तक वह जीव भी उस हिंसक की हिंसा करेगा, अथवा उन सबने प्रथम ही हिंसा किया था जिसका प्रतिफल उसको मिला।
कुल मिलाकर कर्मफल का सिद्धांत स्थापित होता है। किन्तु बात जब कर्मफल की आती है तो शुभाशुभ मिश्रित कर्म होते हैं और मात्र दुःख ही क्यों सुख भी सिद्ध होता है। फिर ऐसा लगता कि संसार में दुःख ही नहीं सुख भी है और दुःखालय नाम गलत प्रतीत होता है। किन्तु ऐसा नहीं है वास्तविकता ये है कि सुख दिखने पर भी वह दुःख ही होता है या दुःख का कारण बनता है और इसलिये नाम दुःखालय है। सुख अत्यल्प मात्रा में क्षणिक प्राप्त होता है, जीवन का आरम्भ और अंत दोनों दुःख से ही होता है।
किन्तु यदि कर्म ही दुःख का कारण है तो अज्ञान का क्या करें, अज्ञान कैसे दुःख का कारण है ? अज्ञान का तात्पर्य उपरोक्त सत्य का ज्ञान नहीं होना है, मन को भोग में लिप्त करना अज्ञान है। मन में इच्छाओं की उत्पत्ति होना अज्ञान है। कर्मफल का भोग करते हुये उसमें सुख-दुःख की अनुभूति करना अज्ञान है। पुनः प्रक्रियावश पुनरावृत्ति के चक्कर में फंसा रहना अज्ञान है। ज्ञान सुख दुःख की अनुभूति से परे हो जाना है, मन को संसार और सुख-दुःख से अलग करके आत्मा/ईश्वर में लगा देना ज्ञान है।
मन को जब ज्ञान/भक्ति के कारण संसार से हटाकर आत्मा/ईश्वर में लगा दिया जाता है तो सुख-दुःख होते हुये भी नहीं होता क्योंकि मात्र शरीर प्रभावित होता है मन नहीं, यदि मन प्रभावित ही न हो तो वास्तविक दुःख का भी निवारण हो जाता है। वास्तविक दुःख जन्म-मरण का चक्कर है, ये स्थायी है अन्य सुख-दुःख तो क्षणिक होता है, कर्मफल होता है। वास्तविक दुःख जन्म-मरण के कारण संसार का नाम दुःखालय है, जन्म-मरण का चक्कर अज्ञानवश लगा रहता है इसलिये दुःख का मूल कारण अज्ञान है, कर्मफल नहीं।
यदि कर्मफल को कारण माना जाय तो कभी भी अंत नहीं हो सकता, एक ही समय कर्मफल प्राप्त भी कर रहे होते हैं और नये कर्म भी कर रहे होते हैं, पुनः जब नये कर्म का फल प्राप्त करेंगे तो उस समय भी पुनः नया कर्म होगा, क्योंकि कर्म किये बिना रह ही नहीं सकते। फिर तो कभी अंत ही नहीं होगा। किन्तु ज्ञान से अंत होता है अर्थात मूल कारण ज्ञान का न होना जिसे अज्ञान कहा जाता है, वो अज्ञान ही होता है। जब तक अज्ञान रहता है तब तक इसका अंत नहीं होता है।
दुःख का कारण कर्मफल अथवा अज्ञान इस विषय की बहुत विस्तृत चर्चा ऊपर किया गया है और ऐसा प्रतीत होता है की संभवतः समझना भी सरल हो गया है, अर्थात सभी बातें स्पष्ट हो गयी है।
कर्मफल का नाश होता है या नहीं
अब आगे का गंभीर प्रश्न है कर्मफल का नाश नहीं होता तो फिर मुक्ति कैसे मिलेगी, और यदि पाप का नाश होता है तो कर्मफल के भोग की अनिवार्यता भंग होगी। वास्तव में दोनों दो तथ्य है, कर्मफल का नाश नहीं होता और पाप का नाश होता है। भगवान के नाम का माहात्म्य है कि किसी प्रकार भी नामस्मरण करें, जप-कीर्तन करें उससे पाप का नाश होता है। दूसरी बात ये भी है जो पहले भी चर्चा की जा चुकी है कि नित्यकर्म से नित्य होने वाले पापों का नाश होता है और विशेष पापों के लिये विशेष प्रायश्चित्त का भी सिद्धांत है जिससे पाप का नाश होता है।
दोनों तथ्यों में से किसी को नकारा नहीं जा सकता न ही ये कहा जा सकता है कि कर्म का फल भोगे बिना क्षय होता है, और न ही ये कह सकते कि भगवन्नाम का माहात्म्य नहीं है अर्थात पाप का नाश नहीं होता। दोनों ही शास्त्रों का वचन है और दोनों में ही विश्वास करना होगा। यदि किसी एक के प्रति भी अविश्वास रखें तो वह स्वयं ही एक नया पाप हो जायेगा। अर्थात दोनों वचनों पर विश्वास करना ही करना होगा। फिर दुविधा का क्या करें।
निष्कर्ष तक पहुंचने हेतु चिंतन की आवश्यकता होती है, कर्मफल का नाश नहीं होता है यह ज्ञानी समझता है और ज्ञानी कर्मफल से ही मुक्त हो जाता है। ज्ञानी पूर्व कर्मों का फल भवितव्यता समझकर भोगता है अर्थात नाश नहीं होता किन्तु नये कर्मों से लिप्त ही नहीं होता है अर्थात कर्तापन के भाव से ही मुक्त हो जाता है। कर्तापन के भाव से ही कर्मफल का भागी बनना पड़ता है, यदि कर्तापन के भाव से मुक्त हो जाये तो फल से भी मुक्ति हो जाती है। गीता में स्वयं भगवान कृष्ण ने भी अर्जुन को यही समझाया था कि युद्ध करो किन्तु कर्तापन के भाव से मुक्त रहकर फिर फल होगा ही नहीं।
ज्ञानी जब कर्तापन के भाव से मुक्त हो जाता है तो उसके शुभाशुभ सभी कर्मों के फल का भोगी वह होता ही नहीं है, किन्तु पूर्व के कर्मो का फल भोगता है जिसे भवितव्यता कहा जाता है। भवितव्यता में पुरुषार्थ के भाव का अभाव हो जाता है। ये ज्ञानी की अवस्था है जो मुक्त हो जाता है। किन्तु ज्ञान का यह उत्कृष्ट स्तर अंतिम है उससे पूर्व की अवस्था है जहां मुक्ति नहीं नर्क और दुःख से बचने की इच्छा व स्वर्ग या सुख की इच्छा शेष रहती है।
स्वर्ग कर नरक का चक्कर भी बंधन अर्थात दुःख ही है किन्तु कुछ लोग स्वर्ग को सुख और नरक को दुःख बताया करते हैं यह भी अज्ञान ही है। जब सुख-दुःख कहते हैं तो सांसारिक सुख-दुःख में पड़े रहने की व्यवस्था में विश्वास करते हैं और भवबंधन में फंसे रहना ही चाहते हैं। ऐसे लोगों को स्वर्ग की प्राप्ति होना भी कठिन होता है क्योंकि सुख की चाह में ऐसे व्यक्ति नरक का भोग करते हुये भवबंधन में पड़ा रहता है। सुख चाहने वाला व्यक्ति सुख की इच्छा से पापाचारी ही बना रहता है।
स्वर्ग और नरक को सांसारिक सुख-दुःख से अलग समझने वाला व्यक्ति आध्यात्मिक होता है। ज्ञानी भले न हो किन्तु कहीं न कहीं ज्ञान प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होता रहता है। ऐसा आध्यात्मिक जीव नरक से बचना चाहता है और स्वर्ग प्राप्त करना चाहता है। उस स्थिति में वह पापकर्म नहीं करता है किन्तु पुण्य करता है। यदि त्रुटिवश पाप हो जाये तो पाप समाप्त करने वाले शास्त्रोक्त कर्मों से उसके पाप का नाश होता है।
ऐसा जीव मुक्ति का अधिकारी नहीं होता है क्योंकि पाप का नाश तो होता है किन्तु पुण्य शेष ही रहता है व पुण्य से लिप्त भी रहता है जिससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है और पुण्यक्षय होने पर पुनः स्वर्ग छोड़कर भवबंधन में आना पड़ता है, किन्तु ऐसे जीवों को 84 लाख योनियों में भटकने की अनिवार्यता नहीं होती क्योंकि पापमुक्त रहता है, पुण्यवान होता है अतः पुनः मनुष्य योनि में ही उत्तम कुल में जन्म ग्रहण करके मुक्ति का नया अवसर पुनः प्राप्त करता है।
किन्तु यह मुक्ति भवितव्यता नहीं होती, यदि ज्ञान प्राप्ति करके मुक्ति का प्रयास न करे तो पुनः स्वर्ग हेतु शुभकर्मों का ही आश्रय लेगा और पापनाश करके स्वर्ग व संसार के चक्कर में पड़ा रहेगा। ये भी दुःख ही है, और इस दुःख का कारण अज्ञान है। लेकिन एक प्रश्न अभी भी शेष है वो ये कि जो स्वर्ग-नरक में भी विश्वास नहीं करता है अर्थात स्वर्ग-नरक को सुख-दुःख मानता है और सांसारिक सुखों में ही पड़ा रहना चाहता है उसके पापों का क्या ?
प्रायश्चित्त का तात्पर्य
प्रायश्चित्त का वास्तविक तात्पर्य पापकर्मों में कर्तापन के भाव से मुक्त होना व पुनरावृत्ति नहीं करना है। अर्थात प्रायश्चित्त का तात्पर्य भी पुण्य कर्मों में कर्तापन का भाव शेष रखना ही है। किन्तु प्रायश्चित भी वही करता है जो स्वर्ग-नरक में विश्वास करे, अर्थात शास्त्रों में विश्वास करे, श्रद्धा रखे, अर्थात आस्तिक हो। जो स्वर्ग-नरक को सुख-दुःख (सांसारिक) घोषित करने वाले हैं वो स्वयं को भले ही आस्तिक कहते रहें किन्तु नास्तिक ही होते हैं क्योंकि शास्त्रों में विश्वास नहीं रखते।
जो नास्तिक होते हैं उन लोगों की तुलना में ऐसे लोग थोड़ा-बहुत पूजा-पाठ भी किया करते हैं। भले ही दिखावे के लिये करें परन्तु देखा-देखी करते हुये कुछ-कुछ कर लेते हैं। कभी कथा-पुराण सुन लेते हैं और नाम माहात्म्य आदि का श्रवण करके विश्वास रहित ही सही किन्तु नामस्मरण, जप आदि भी करते हैं। क्या ऐसे लोगों के पाप का शमन होता है ? इसका उत्तर है ऐसे लोगों के पाप का शमन नहीं होता है, किन्तु पुण्य होता है। कर्मफल का नाश नहीं होता है यह प्रथम ही चर्चा हो गयी है, पाप का नाश भी होता है किन्तु ऐसे लोगों के पाप का भी नाश नहीं होता है।
निष्कर्ष : पूरी चर्चा शास्त्रकथनों पर आधारित है तथापि विश्लेषण/चिंतन का तात्पर्य होता है कि विरोधाभाषी वचनों में भी इस प्रकार तारतम्य स्थापित करते हुये निष्कर्ष निकालना जिससे कोई वचन असिद्ध न हो। इस ज्ञान को भी आत्मज्ञान नहीं कहा जा सकता तथापि आत्मज्ञान से थोड़ा कम माना जा सकता है। वास्तविक तात्पर्य शास्त्रों में सर्वथा गुप्त रखने की विधा मिलती है और इसी कारण यत्र-तत्र-सर्वत्र परस्पर विरोधाभाषी वचन देखा जाता है। आत्मज्ञान से नीचे वाला ज्ञान इस विरोधाभाषी वचनों का आश्रय लेकर दोनों को सत्य सिद्ध करते हुये निष्कर्ष प्राप्ति में सहायक होता है।
कुल मिलाकर दुःख का कारण अशुभ कर्म प्रतीत तो होता है किन्तु दुःख का वास्तविक कारण कर्मफल सिद्धांत नहीं अपितु अज्ञान है क्योंकि अज्ञान से कर्तापन का भाव उत्पन्न होता है और कर्तापन के भाव से ही कर्मफल की सिद्धि होती है। विभिन्न उपायों से पाप का नाश भी होता है किन्तु आस्तिकों के पाप का नाश होता है, जो नास्तिक होते हैं उनके पापों का नाश नहीं होता है अपितु कदाचित धर्माचरण करने से पुण्य की प्राप्ति होती है।
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