अन्त्येष्टि संस्कार pfd सहित। दाह संस्कार विधि मंत्र । dah sanskar

अन्त्येष्टि संस्कार pfd सहित। दाह संस्कार विधि मंत्र । dah sanskar

सोलह संस्कारों में जैसे गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन संस्कार जन्म से भी पहले होते हैं उसी तरह अंतिम संस्कार या अन्येष्टि संस्कार व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत होती है। शरीर पंचभूतों से निर्मित होता है और शरीर से जीव के निकलने के बाद संस्कार पूर्वक उसकी अंतिम क्रिया की जाती है जिससे पंचभूतों में शुद्धि बनी रहे। इस आलेख में अंतिम संस्कार अर्थात दाह संस्कार के बारे में विस्तृत चर्चा करते हुये दाह संस्कार की विधि और मंत्र दिया गया है। साथ ही साथ डाउनलोड करने हेतु pdf भी दिया गया है।

अन्त्येष्टि संस्कार pfd सहित। दाह संस्कार विधि मंत्र

दाह संस्कार का अर्थ

जब तक शरीर में जीव की उपस्थिति रहती है तभी तक शरीर वाले का जीवन काल रहता है, जीव के शरीर से निकलते ही जीवन समाप्त हो जाता है और शरीर को मृतक, शव, लाश, पार्थिव शरीर आदि कहा जाता है। जीवन समाप्त होने के बाद पञ्चभूतों से निर्मित शरीर को पञ्चभूतों में विधिवत विलीन करने की क्रिया दाह-संस्कार कहलाती है।

अंतिम क्रिया को संस्कार क्यों कहा जाता है जबकि मृतक का तो जीवन समाप्त हो जाता है, फिर संस्कार की क्या आवश्यकता होती है?

लेकिन जो वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत करके धर्माचरण को सही, उचित, लाभकारी सिद्ध करने का प्रयास करते हैं उनसे एक प्रश्न बनता है; धर्मपालन वैज्ञानिकता के आधार पर करना आवश्यकता है या आध्यात्मिक आधार से?

दाह संस्कार का अर्थ
दाह संस्कार का अर्थ

दाह को संस्कार इसलिये कहा गया कि मात्र पाञ्चभौतिक देह का नाश होता है उसमें स्थित देही का नहीं। पञ्चभूतों को मृत देह समर्पित करने से पहले देह को संस्कारित करना आवश्यक है अन्यथा पञ्चभूतों में भी देह के दोष व्याप्त हो जायेंगे। लेकिन यदि देह को संस्कारित करके पञ्चभूतों में विलीन करेंगे तो पञ्चभूतों में देह के दोष नहीं जायेंगे क्योंकि दोष तो संस्कार से समाप्त हो जायेंगे।

यदि पञ्चभूतों में बिना संस्कार किये देह को विलीन करें तो पञ्चभूत दूषित होंगे जिसका प्रभाव हमारे पाञ्चभौतिक शरीर पर भी होगा, साथ ही उस देहि जिसके देह का संस्कार नहीं किया गया हो में पवित्रता का अभाव हो जायेगा जिससे दुर्गति की प्राप्ति होगी।

दाह संस्कार विधि

सभी संस्कार वेदोक्त हैं, किन्तु सभी संस्कारों में लौकिक व्यवहार अलग-अलग देखा जाता है इस कारण सभी संस्कारों की विधि में क्षेत्रभेदानुसार अंतर देखा जाता है। और कोई भी एक ऐसी विधि नहीं जो सभी क्षेत्रों में प्रचलित हो या मान्य हो। लेकिन लौकिक विधि में अंतर होते हुये भी मुख्य विधि एक ही होती है। यहां जो दाह-संस्कार विधि दी गयी है वह मिथिलादेशीय विधि है अतः मिथिलातिरिक्त अन्य क्षेत्रों की विधि से भिन्नता मिलेगी।

  • गरुड़पुराण में बताया गया है कि यमदूतों द्वारा बंधा हुआ देही का देह जब तक रहता है तब तक वह देह में प्रवेश करने के लिये बहुत व्याकुल रहता है।
  • साथ ही जब तक मृतशरीर घर में रहता है तब तक उपस्थित लोग रोते-विलखते हैं, अश्रु-थूक-कफ आदि उत्सर्ग करते हैं और यमदूत वही देहि को बलपूर्वक भक्षण कराता है।
  • इसलिये जब भी किसी की मृत्यु सुनिश्चित हो चुकी हो यथाशीघ्र उसका दाह संस्कार करना चाहिये।
  • यथाशीघ्र दाह संस्कार करने की आवश्यकता के कारण ही रात्रि में भी दाह संस्कार का निषेध नहीं है।
  • दिन में मरने वाले का शव रात में और रात में मरने वाले का शव दिन में पर्युषित अर्थात बासी कहा जाता है।
  • दाह-संस्कार किसी तरह का कोई प्रदर्शन नहीं है अतः दाह संस्कार को प्रदर्शन न बनाकर कर्मकाण्ड का अंग ही बनाये रखे।
  • वर्तमान काल में सम्बन्धियों की प्रतीक्षा करते हुये शव को १ दिन ही नहीं २-३ दिन भी रखा जाने लगा है जो मृतक और सम्बन्धी सबके लिये कष्टकारक है।
  • यदि कर्माधिकारी पुत्र घर में न हो तो मात्र उस पुत्र के आने तक की प्रतीक्षा करनी चाहिये, यदि वह आ रहा हो।

स्मार्तों के लिये छन्दोग परिशिष्ट और मदनरत्न में दाह संस्कार की विधि इस प्रकार बताई गई है :-

    यद्यपि यह छन्दोग की विधि है तथापि मिथिला में छन्दोग और वाजसनेयी दोनों में लगभग यही विधि थोड़ा सा और परिवर्तित रूप में प्रचलित है। शवयात्रा विधि के अनुसार श्मशान आकर अंत्येष्टि संस्कार करे। मैथिलेत्तरों की शवयात्रा और अंत्येष्टि विधि पृथक होती है।

    • नग्न शव का दाह करना निषिद्ध है, अतः शव को वस्त्र अवश्य दे।
    • इसी प्रकार पूर्ण दाह का भी निषेध है, दग्ध का अवशेष रहना चाहिये। आदित्यपुराण का वचन है : निश्शेस्तु न दग्धव्यः शेषं किञ्चित् त्यजेत्ततः।

    शव-दाहकर्ता स्नानादि कर नवीन श्वेत-वस्त्र-यज्ञोपवीत-कटिसूत्र-उत्तरीयवस्त्र आदि धारण कर ले । मृतक को दक्षिण शिर करके स्वयं पूर्वाभिमुख होकर एक नये मिट्टी के पात्र में जल लेकर त्रिकुशा से जलपात्र में तीर्थों का आवाहन इन मंत्रों से करे :-

    ॐ गयादीनि च तीर्थानि ये च पुण्याः शिलोच्चयाः । कुरुक्षेत्रं च गंगां च यमुनां च सरिद्वराम् ॥
    कौशिकीं चन्द्रभागां च सर्वपाप प्रणाशिनीम् । भद्रावकाशां सरयूं गण्डकीं तमसां तथा ॥
    धैनवं च वराहं च तीर्थं पिण्डारकं तथा । पृथिव्यां यानि तीर्थानि चतुरः सागरांस्तथा ॥

    दाह संस्कार का मंत्र :

    दाह संस्कार की अग्नि : स्मार्तों के लिये दाह संस्कार करने वाली अग्नि घर से ही ले जाने की आज्ञा है। यह कार्य एक अलग व्यक्ति करे और आधे रास्ते में अग्नि का आधा भाग त्याग/गिरा दे।

    चाण्डालाग्नि का निषेध : चाण्डालाग्निरेध्याग्निः सूतिकाश्च कर्हिचित् । पतिताग्निश्चिताग्निश्च न शिष्टग्रहणोचितम् ॥ – देवल, अतः दाहाग्नि स्वयं ही प्रज्वलित करना चाहिए, किसी से लेना ही नहीं चाहिए । बहुत जगह डोम से अग्नि लेने की परम्परा देखी जा रही है, जो कि शास्त्रानुमोदित नहीं है ।

    अन्त्येष्टि संस्कार pfd सहित। दाह संस्कार विधि मंत्र । dah sanskar
    अन्त्येष्टि संस्कार pfd

    दक्षिणाभिमुख अपसव्य होकर बांये हाथ में जलता हुआ अंगारा लेकर नीचे का दोनों मंत्र पढ़ते हुए चिता की तीन बार परिक्रमा करे :-

    • तीन बार चिता की परिक्रमा करके मुखाग्नि प्रदान करे (अग्नि शिर की ओर लगाये।) फिर अनेक पवित्र वस्तुओं लकड़ी, रूई, घी, धूप, धूना कपूर, चन्दन, लकड़ी आदि का अग्नि में प्रक्षेप करते हुए शवदाह करे ।
    • जब जलते हुए शव का कपोत (कबूतर) आकार का अवशेष बचे तो प्रादेश प्रमाण 7 लकड़ी लेकर चिता की सात बार परिक्रमा करते हुए प्रत्येक बार 1 लकड़ी इस मंत्र से चिता में प्रक्षेप करे :- ॐ क्रव्यादाय नमस्तुभ्यं ॥ इसके साथ-साथ प्रत्येक प्रदक्षिणा में उल्मुक पर कुठार से प्रहार करने के लिये भी बताया गया है।
    • गंगा तट पर शवदाह करने वाले समस्त अस्थि व चिता-भस्मादि का गंगा में तत्क्षण ही उत्सर्जन कर देते है । लेकिन गंगातट से दूरस्थ समाज में अन्यत्र शवदाह होता है जहां चौथे दिन अस्थिसंचय कर अस्थि का गंगा-प्रवाह किया जाता है ।

    दाह संस्कार के बाद के नियम

    • दाह-संस्कार करने के बाद सभी व्यक्ति, वृद्ध आगे और बालक पीछे रहते हुये, पीछे की ओर देखे बिना जलाशय आये।
    • इस समय चलने का भी एक विशेष नियम बताया गया है : पैर से पैर का स्पर्श किये बिना चले । पैर से पैर के स्पर्श नहीं करने का तात्पर्य यह है कि आगे वाला पैर आगे ही रखे, पीछे वाला पैर पीछे ही रहे। चलने का सामान्य तरीका यह है कि क्रमशः दोनों पैर आगे-पीछे होते हैं।
    • जलाशय आकर वस्त्र-सहित एक डुबकी लगा ले (सचैल स्नान करे) जल में प्रवेश करने का भी विशेष नियम यही है पहले सबसे वृद्ध प्रवेश करे और तदुपरांत वृद्धक्रम से ही अन्य व्यक्ति जल में प्रवेश करे।
    • शरीर पोंछे बिना ही दक्षिणाभिमुख-अपसव्य होकर बांए हाथ के अनामिका व अंगूठा से दक्षिण दिशा में निम्न मंत्र से जल प्रदान करे :- ॐ अपनः शोशुचदघम् ॥
    • फिर शरीर पोंछे, जलाशय से बाहर आकर प्रक्षालित वस्त्र धारण करे।  

    उदकदान (तिलाञ्जलि)

    दक्षिणाभिमुख-अपसव्य होकर सभी व्यक्ति मोड़ा, तिल, जल लेकर इस मंत्र से मृतात्मा को तिलांजलि प्रदान करें – ॐ अद्य …….. गोत्र ………. प्रेत एष तिलतोयांजलिः ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥

    पुनः स्नान करके घर को प्रस्थान करे । मृतव्यक्ति के घर पर आकर निम्न मंत्रों को पढ़ कर क्रमशः लोहा, पत्थर आग और जल स्पर्श करे :-

    1. ॐ लौहवद् दृढ़कायोस्तु ॥ – लोहा । फिर जलस्पर्श करे।
    2. ॐ अश्मेव स्थिरो भूयासम् ॥ – पत्थर । फिर जलस्पर्श करे।
    3. ॐ अग्निर्नः शर्म यच्छतु ॥ – आग । फिर जलस्पर्श करे।

    तत्पश्चात् बिना मंत्र के ही जल छूकर, सभी अपने घर को प्रस्थान करे ।

    स्नानादिकोपरांत दशगात्र पिण्डदान की विधि गंगातट पर शवदाह करने वाले वहीं प्रारम्भ कर देते हैं । अतः मृतक के मृत्यु दिवस से गिनते हुए दाह दिवस तक के पिण्ड दान करना चाहिए । विशेषतः एक ही दिन में दाह-क्रिया होती है अतः एक ही पिण्ड दिया जाता है पर रात्रिमरण होने पर दाह-संस्कार अगले दिन होने से, दो दिन की मान्यता से दो पिण्ड देना चाहिए। जन्म-मृत्यु में सूर्योदय से सूर्योदयपर्यन्त 1 दिन माना जाता है ।

    यदि सायंकाल समय शेष हो तो घंट दान करे, प्रातः काल प्रतिदिन दशगात्र पिण्डदान करे।

    अन्यत्र उषाकालादि का प्रमाण नित्यकर्म व व्रतादिपरक है । तथापि व्रतादि में भी स्मार्तों के लिये सूर्योदय से ही वार का आरम्भ विचार किया जाता है। ज्योतिष में भी सूर्योदय से ही वार-प्रवृत्ति होती है।

    पञ्चक होने पर

    पञ्चक दाह विधि व मरण शान्ति अन्य आलेख में प्रकाशित की जायेगी। यदि पञ्चक में दाह किया जा रहा हो तो उसके लिये एक विशेष विधि है। पञ्चक मरण और पञ्चक दाह दोनों अलग-अलग क्रिया है।

    • यदि किसी की मृत्यु श्रवण नक्षत्र के अंत में भी हुई हो तो वह पंचक मरण नहीं होगा किन्तु उसका दाह पञ्चक में होगा इस कारण पञ्चक दाह विधि की आवश्यकता होगी।
    • किन्तु यदि किसी की मृत्यु रेवती के अंत में हो और दाह अश्विनी में हो रहा हो तो वहां पञ्चक दाह विधि की नहीं पञ्चक मरण शांति किया जायेगा।
    • यदि किसी की मृत्यु पञ्चक में हुई हो और दाह संस्कार भी पञ्चक में ही करना हो तो उसका दाह भी पञ्चक विधि से करना चाहिये एवं उसके लिये पञ्चक मरण शांति भी करे।

    पति-पत्नी की एक क्रिया

    • यदि पति और पत्नी की मृत्यु एक साथ हो गयी हो तो दोनों का दाह भी एक साथ ही करे।
    • यदि दोनों में से किसी एक की मृत्यु हो गयी हो और दाह करने से पूर्व दूसरे की भी मृत्यु हो जाये तो भी दोनों का दाह-संस्कार एक साथ ही करे।
    • एक साथ दाह संस्कार करने का तात्पर्य एक ही चिता पर पति-पत्नी दोनों का दाह-संस्कार करना भी है।
    • किन्तु उपरोक्त सभी स्थितियों में पिण्डदान अलग-अलग करे।
    • यदि एक चिता पर पति-पत्नी का दाह-संस्कार किया गया हो तो पिण्डदान भले ही अलग होगा, किन्तु पाक एक ही होगा।
    • पिण्डदानादि सभी क्रियायें पहले पिता की फिर माता की करे।

    प्रेत की पुष्टि के लिये सजातीय (भइयारी) भोज का महत्व :

    आजकल शिक्षित होने का अर्थ यह समझ लिया गया है कि कुतर्क करने पटु हो, सनातन धर्म, कर्मकांड, परम्परा आदि का खण्डन करे, निंदा करे। इसी में एक चीज भोज की व्यवस्था है और भोज को बंद करने के लिये सनातन द्रोहियों द्वारा अथक प्रयास किये जा रहे हैं। लेकिन भोज की प्रमाणिकता और आवश्यकता दोनों है।

    जिस विधि, नियम का शास्त्रों में प्रमाण हो उसका विरोध करना क्या धार्मिक आस्था पर प्रहार करना नहीं है ?

    भोज के विषय में शास्त्र के प्रमाण

    यहां यह ध्यान देने की बात है कि मात्र श्मशान जाने वाले के भोजन की बात नहीं कही गयी है, स्वजाति मात्र के भोजन की बात कही गयी है। अतः जो अक्षम हैं वो तो मात्र श्मशान जाने वालों को ही यथा संभव भोजन कराये किन्तु जो असमर्थ न हो वो मात्र श्मशान जाने वालों को नहीं स्वजाति (भइयारी) को भोजन कराये।

    गावों में आज भी ये व्यवस्था देखने को मिलती है, जिससे सनातन द्रोहियों के कलेजे पर सांप लोटता है और येन-केन-प्रकारेण भोज का विरोध करते हैं। आवश्यकता को देखते हुये ये प्रमाण दिये गये हैं और शास्त्रों के प्रमाण सहित ही विरोधियों को उत्तर देना चाहिये। आशा है ये प्रमाण आप लोगों के लिये उपयोगी सिद्ध होगा।

    अन्त्येष्टि संस्कार pfd

    घटदान और दशगात्र करने की विधि pdf डाउनलोड करने के लिये यहां क्लिक करें। आलेख में किया गया संशोधन या त्रुटिनिवारण आलेख में ही दृष्टिगत होगा, pdf में नहीं।

    कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

    दाह संस्कार इन इंग्लिश – dah sanskar in english

    All the rituals are based on the Vedas, but worldly behavior is seen differently in all the rituals, that is why there is a difference in the method of all the rituals according to the region. And there is no single method which is prevalent or valid in all areas. But despite the difference in the temporal method, the main method is the same. The cremation method given here is the Mithila local method, hence there will be differences from the method of other areas other than Mithila.

    • It is told in Garuda Purana that as long as the body of the soul remains tied to the noose of Yamdoots, it remains very anxious to enter the body.
    • Also, as long as the dead body remains in the house, the people present there cry, emit tears, spit, phlegm etc. and the Yamdoot forcefully feeds the same soul.
    • Therefore, whenever someone’s death is certain, he should be cremated as soon as possible.
    • Due to the need to perform the cremation as soon as possible, cremation is not prohibited even at night.
    • Cremation is not a performance of any kind, hence cremation should not be made a performance but should remain a part of the ritual.
    • In the present times, the dead body is being kept not only for 1 day but also for 2-3 days while waiting for the relatives, which is painful for the deceased and the relatives.
    • If the son performing the last rites is not at home, one should just wait for the son to arrive, if he is coming.

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