दूध का दूध और पानी का पानी, गया श्राद्ध की गजब कहानी

गया श्राद्ध और मृताह श्राद्ध

गया श्राद्ध की शास्त्रों में अतिशय महत्वपूर्ण स्थान और माहात्म्य है। यहां तक कहा गया है कि पितरगण लालायित रहते हैं कि मेरे वंश में कोई गया श्राद्ध करे । गया श्राद्ध की महिमा का वर्णन करना संभव नहीं है और इस असीम महिमा के कारण लोगों की धारणायें भी शास्त्र-उल्लंघन करने वाली हो रही है। इस आलेख में हम वर्तमान व्यवहार में आ रहे परिवर्तन के औचित्य-अनौचित्य का शास्त्रोक्त प्रमाणों के माध्यम से विश्लेषण करेंगे। गया श्राद्ध का तात्पर्य क्या है, गया कब जाना चाहिये, मृताह श्राद्ध (प्रेत श्राद्ध) हेतु गया जाना चाहिये या नहीं आदि अनेकानेक प्रश्न हैं जिनका उत्तर ढूंढने का प्रयास करेंगे।

मुख्य चर्चा से पूर्व दो घटनाओं का उल्लेख करना आवश्यक है, जिसमें से प्रथम घटना में मेरी उपस्थिति भी थी और द्वितीय घटना की सूचना है। ये दोनों घटनायें इस तथ्य को समझने हेतु उदाहरण के रूप में लिया जा रहा है न कि निंदा करने के उद्देश्य से। उदाहरण के साथ विषय-वस्तु को समझना सरल हो जायेगा और आस्थावान-आस्तिक ऐसे शास्त्रों के उल्लंघन करने से बच सकेंगे।

प्रथम घटना

एक मृतका का श्राद्ध गया में करने का प्रस्ताव आने पर मैंने प्रथमया अस्वीकार कर दिया किन्तु मित्र की पारिवारिक संलिप्तता के कारण अंततः जाना पड़ा। पंडे ने पहले कोई विशेष चर्चा नहीं की सारी चर्चा एकादशाह श्राद्ध के उपरांत करने की बात कही। एकादशाह के दिन एकादशाह श्राद्ध के पश्चात् सबकी बैठक हुई, विमर्श आरम्भ हुआ ।

पंडे और यजमान की इस बात पर सहमति थी कि कल द्वादशाह श्राद्ध के पश्चात् गया श्राद्ध भी करना है लेकिन मैं असहमत था । पंडे ने धन प्राप्ति के विषय में मेरे ऊपर दबाव बनाया लेकिन मैंने स्वीकृति नहीं दी यजमान भी सहमत हो गया किन्तु पंडा धन संबंधी रोना (मेरे साथ वैयक्तिक) रोने लगा। प्रातः काल ज्ञात हुआ कि निर्णय बदल गया है और गया श्राद्ध भी किया जायेगा, घरवालों का यही कहना है। मैंने स्वीकृति नहीं दी और श्राद्ध में अनुपस्थित रहा, पंडे के घर में ही पड़ा रहा।

द्वितीय घटना

द्वितीय घटना जिसकी सूचना इस प्रकार है कि एक मृतक का बड़ा पुत्र किसी कारणवश श्राद्ध करने गया चला गया। स्वाभाविक है वहां षोडश श्राद्ध के साथ ही गया श्राद्ध भी कर लिया होगा। छोटा पुत्र अपने गांव में ही जिस प्रकार श्राद्ध किया जाता है कर लिया। लेकिन उसने मनमर्जी के किया यह सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि कोई निर्णय देने वाले भी थे (विद्वान कहना संभव नहीं), कोई कराने वाले भी थे (ब्राह्मण कहना संभव नहीं)

उपरोक्त दोनों घटनाओं के संदर्भ में आगे शास्त्रों के प्रमाण प्रस्तुत करते हुये चर्चा की जा रही है। इसी प्रकार से एक अन्य घटना भी देखी-सुनी जाती है वो यह कि कभी-कभी पुत्रहीन का श्राद्ध दौहित्र करता है व गोत्रज (गोतिया आदि) भी कर लेते हैं।

गया श्राद्ध और मृताह/प्रेत/षोडश श्राद्ध

गया श्राद्ध और मृताह/प्रेत/षोडश श्राद्ध दोनों में क्या अंतर है ?

गया श्राद्ध

गया श्राद्ध कहने का तात्पर्य है तीर्थ विशेष श्राद्ध जो कि ब्रह्मकुंड, प्रेत पर्वत, प्रेतशिला …….. अक्षयवट, गायत्री घाट आदि में किया जाता है। तीर्थ श्राद्ध की एक विशेष विधि है किन्तु गया श्राद्ध का विशेष माहात्म्य है और तीर्थ श्राद्ध होते हुये भी अन्य तीर्थ श्राद्धों से भिन्न होता है। जैसे कि अन्य तीर्थों में जाने पर सर्वप्रथम तीर्थदर्शन के साथ ही क्षौरकर्म करना चाहिये तत्पश्चात सामान्य जल से स्नान करके तब तीर्थ जाकर तीर्थ श्राद्ध करे, किन्तु गया को छोड़कर क्योंकि गयाश्राद्ध का विशेष माहात्म्य बताया गया है।

इसमें एक मुख्य विषय जो है वह है तीर्थश्राद्ध या गया श्राद्ध का तात्पर्य ही होता है पितरों का श्राद्ध। तीर्थश्राद्ध या गयाश्राद्ध का तात्पर्य मृताह/प्रेत/षोडश श्राद्ध नहीं होता है। मृताह/प्रेत/षोडश श्राद्ध भिन्न है।

मृताह/प्रेत/षोडश श्राद्ध

मृताह श्राद्ध अर्थात किसी की मृत्यु होने पर प्रेत का जो प्रेतत्व विमुक्ति श्राद्ध किया जाता है। प्रेत श्राद्ध अर्थात मरने पर प्रेत के प्रेतत्व विमुक्ति हेतु किया जाता है। षोडश श्राद्ध अर्थात प्रेत के प्रेतत्व विमुक्ति हेतु षोडश श्राद्ध किया जाता है – महैकोद्दिष्ट, 14 मासिक व सपिंडीकरण। षोडश श्राद्ध में षोडशीत्रय की भी चर्चा आती है और सभी प्रेत के निमित्त प्रेतत्व विमुक्त्यर्थ की जाती है। मृताह श्राद्ध अथवा प्रेत श्राद्ध या षोडश श्राद्ध तीनों का भाव एक ही होता है।

दोनों श्राद्धों को जानने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि गयाश्राद्ध और मृताह/प्रेत/षोडश श्राद्ध दोनों श्राद्ध पृथक हैं, गया श्राद्ध पितरों के लिये किया जाता है, प्रेत श्राद्ध प्रेत (मृतक) के लिये किया जाता है, दोनों की विधियां भिन्न हैं, दोनों का उद्देश्य भिन्न है आदि-आदि।

गया श्राद्ध काल निर्धारण अर्थात गया श्राद्ध कब करना चाहिये

तीर्थश्राद्धं गयाश्राद्धं श्राद्धमन्यच्च पैतृकं । अब्दमध्ये न कुर्वीत मातागुरुविपत्तिषु ॥ – गरुड़ पुराण

गरुड़ पुराण के इस वचन में कहा गया है कि तीर्थ श्राद्ध, गया श्राद्ध व पितरों का अन्य श्राद्ध (सपिंडीकरण छोड़कर) अब्द (वर्ष) मध्य में न करे। इसके साथ ही माता, गुरु और विपत्ति में भी नहीं करने की बात की गयी है। माता कथन का तात्पर्य यह है कि गया में माता का पृथक श्राद्ध करने की आज्ञा है, किन्तु वर्षमध्य में न करे, गुरु कथन का तात्पर्य है कि गुरु का न करे और विपत्तिषु का तात्पर्य है कि आपात्काल होने पर भी न करे, वर्ष व्यतीत होने के उपरांत ही करे।

गयाश्राद्धं पितृणान्तु पूर्णे त्वब्दे प्रशस्यते ॥ – भविष्य पुराण

भविष्य पुराण में कहा गया है कि गया श्राद्ध पितरों के लिये किया जाता है अतः अब्द (वर्ष) पूर्ण होने के पश्चात् ही प्रशस्त है।

गरुड़ पुराण के इस वचन में कहा गया है कि तीर्थ श्राद्ध, गया श्राद्ध व पितरों का अन्य श्राद्ध (सपिंडीकरण छोड़कर) अब्द (वर्ष) मध्य में न करे। इसके साथ ही माता, गुरु और विपत्ति में भी नहीं करने की बात की गयी है। माता कथन का तात्पर्य यह है कि गया में माता का पृथक श्राद्ध करने की आज्ञा है, किन्तु वर्षमध्य में न करे, गुरु कथन का तात्पर्य है कि गुरु का न करे और विपत्तिषु का तात्पर्य है कि आपात्काल होने पर भी न करे, वर्ष व्यतीत होने के उपरांत ही करे।

क्षयाह से पूर्व (वर्ष मध्य) में निषेध

उपरोक्त प्रकार के प्रमाणों का कुछ विद्वान विशेषार्थ भी ग्रहण करते हैं कि जब द्वादशाह के दिन सपिंडीकरण सहित षोडश श्राद्ध संपन्न हो जाये तो वर्षमध्य में भी गया श्राद्ध किया जा सकता है क्योंकि तत्पश्चात पितरों का ही श्राद्ध होगा। विशेषार्थ में यही भाव ग्रहण किया जाता है कि प्रेत पद समाप्त हो गया, पितर पद स्थापित हो गया अतः किया जा सकता है। किन्तु यह विशेषार्थ भी संतुष्ट नहीं करता है। कारण कि पितृपक्ष में जो श्राद्ध का विधान है उसमें स्पष्ट निषेध प्राप्त होता है। प्रथम क्षयाह (वार्षिक श्राद्ध) के उपरांत ही पितृपक्ष में श्राद्ध करे अर्थात प्रथम क्षयाह से पूर्व (वर्ष मध्य) में पितृपक्षीय श्राद्ध का निषेध है।

इस निषेध का तात्पर्य यही है कि बारहवें दिन भले ही षोडश श्राद्ध संपन्न हो जाये और प्रेत पद समाप्त हो जाये किन्तु वर्षपर्यन्त पितर श्रेणी की प्राप्ति नहीं होती है। चूँकि प्रेत का षोडश श्राद्ध अपकर्षण पूर्वक बारह दिनों में संपन्न किया जाता है इस कारण वर्ष पर्यन्त जो निषिद्ध कर्म हैं वो निषिद्ध ही रहेंगे। भले ही सपिंडीकरण भी क्यों न कर लिया गया हो। अब्द का तात्पर्य वर्ष (कलमान से) ही है, प्रथम क्षयाह का व्यतीत होना ही है न कि सपिंडीकरण सहित षोडश श्राद्ध करना।

गया जाकर प्रेत श्राद्ध (मृताह/षोडश) करना कितना उचित कितना अनुचित ?

वर्षपर्यंत जो तीर्थ या गया श्राद्ध का निषेध कहा गया है वह तीर्थ श्राद्ध विधि से किया जाने वाला पितरों का श्राद्ध है। प्रेत श्राद्ध उससे भिन्न है और प्रेत श्राद्ध का निषेध प्राप्त नहीं होता है। किन्तु इस विषय में समस्या यह है कि गया जाने के पश्चात् मात्र प्रेत श्राद्ध ही नहीं किया जाता गया श्राद्ध भी किया जाता है। परिवार, समाज और पंडा आदि भी शास्त्र के सिद्धांत की अवहेलना करते हुये यदि कर्त्ता न भी करना चाहे तो भी गया श्राद्ध संपन्न करा ही देते हैं।

यदि गया जाकर मात्र प्रेत श्राद्ध (षोडश श्राद्ध) करे तो किसी प्रकार से शास्त्र उल्लंघन की सिद्धि नहीं दिखती। अस्तु उदाहरण के दोनों घटनाओं में शास्त्र का यही उल्लंघन सिद्ध होता है। यद्यपि द्वितीय घटना के विषय में यह ज्ञात नहीं हो सका है कि गया श्राद्ध किया गया अथवा नहीं तथापि ऐसा अनुमान है कि बड़ा पुत्र जो मृतक का श्राद्ध करने के लिये गया गया उसने गया श्राद्ध भी अवश्य ही किया होगा।

क्योंकि वर्त्तमान युग के पुत्र पितरों की सद्गति/मुक्ति नहीं चाहता पितरों से मुक्ति चाहता है। गया जाकर श्राद्ध करने का सामान्यतः यही अर्थ लिया जाता है कि अब उसे किसी प्रकार के पितृकर्म करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि एक बार गया में जो किया वो अक्षय हो गया।

सपिंडीकरणांतानि यानिश्राद्धानि षोडश । पृथ‌ङ्नैवसुताः कुर्युः पृथक्द्रव्या अपिक्वचित् ॥ – लघुहारीत

लघुहारीत का वचन है कि सपिंडीकरण पर्यन्त जो षोडश श्राद्ध होते हैं वह अनेक पुत्रों के संपत्ति आदि विभक्त रहने पर भी पृथक-पृथक न करे अर्थात एक ही पुत्र श्राद्ध करे।

अर्वाक्संवत्सराज्ज्येष्ठः श्राद्धंकुर्यात्समेत्यतु । ऊर्ध्वंसपिंडीकरणात् सर्वे कुर्युः पृथकपृथक् ॥ – व्यास

व्यास का वचन है संवत्सर से पूर्व के श्राद्ध सभी पुत्र सम्मिलित होकर ही श्राद्ध करें। सपिंडीकरण के उपरांत अन्य श्राद्ध पृथक-पृथक करें।

नवश्राद्धंसपिंडत्वं श्राद्धान्यपि च षोडश । एकेनैव तु कार्याणि संविभक्त धनेष्वपि ॥ – उशना

उशना का कथन है कि नवश्राद्ध (आद्य श्राद्ध) से सपिंडीकरण तक जो षोडश श्राद्ध होते हैं वह पुत्रों ने यदि संपत्ति विभक्त (बंटवारा) भी कर लिया हो तो एकत्र होकर एक ही पुत्र करे।

श्राद्ध और संपत्ति

कुछ दशकों पूर्व तक ज्येष्ठांश नामक एक संपत्ति हुआ करती थी। बड़े भाई ज्येष्ठांश का तात्पर्य था एक ऐसे संपत्ति से था जो सम्मिलित हो परन्तु उसपर अधिकार बड़े का होगा। यह इसका उद्देश्य एक श्राद्ध करना ही था कि बड़ा भाई ज्येष्ठांश ग्रहण करे और उस सम्मिलित संपत्ति द्वारा सभी भाई सम्मिलित माने जायेंगे, उस सम्मिलित संपत्ति से किया जाने वाला श्राद्ध सभी भाइयों के द्वारा किया हुआ मान्य होगा।

मरीचि का भी एक वचन है : बहवः स्युर्यदा पुत्राः पितुरेकत्रवासिनः। सर्वेषां तु मतं कृत्वा ज्येष्ठेनैव च यत्कृतं। द्रव्येण चाविभक्तेन सर्वैरेव कृतं भवेत्॥ यह कथन पितृकर्म और देवकर्म सबमें मान्य है किन्तु मूल तात्पर्य श्राद्ध ही है। यदि बहुत सारे पुत्र एकत्रित ही हों, सभी के एकमत होने पर ज्येष्ठ के द्वारा जो भी किया जाता है वह अविभक्त द्रव्य के कारण सबका किया हुआ मान्य होता है।

यहां निष्कर्ष जो निकलता है वह ये है कि यदि संपत्ति एकत्र हो तो क्षयाह/पार्वण/गया श्राद्धादि एक (ज्येष्ठ) के करने से ही सबका किया हुआ मान्य होता है किन्तु यदि संपत्ति विभक्त हो (बंटवारा कर लिया गया हो) तो सबको पृथक-पृथक करना चाहिये। किन्तु संपत्ति विभक्त (बंटवारा होने पर भी) सपिंडीकरण पर्यन्त जो मृताह/प्रेत/षोडश श्राद्ध होते हैं उसे पृथक करने का निषेध किया गया है। अर्थात संपत्ति विभक्त रहने पर भी सभी एकत्र होकर एक मत से ज्येष्ठ भ्राता द्वारा ही षोडश श्राद्ध कराये।

उदाहरण के द्वितीय घटना में जो बड़ा पुत्र गया श्राद्ध करने गया उसमें ही छोटे पुत्र को भी सहमति और धन से भागीदार बनना चाहिये था और गया में मात्र षोडश श्राद्ध ही करना चाहिये था अथवा बड़े पुत्र को घर पर ही करना चाहिये था क्योंकि एकमत होना तो आवश्यक ही है। तदुपरांत छोटे पुत्र ने घर पर जो पृथक श्राद्ध किया वो जिसके भी निर्णय से किया हो वो शास्त्र का उल्लंघन के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं माना जा सकता। क्योंकि जैसे वो जिस कारण भी बड़ा पुत्र गया में श्राद्ध करने चला गया तो पृथक षोडश श्राद्ध का निषेध होने से छोटे पुत्र को घर पर श्राद्ध करने का शास्त्रोचित अधिकार सिद्ध ही नहीं होता है।

शस्त्रोलंघन का दोषी कौन

अब एक प्रश्न यह भी उत्पन्न होता है कि शस्त्रोलंघन का दोषी कौन है ? क्या छोटा पुत्र है ? क्या कराने वाले ब्राह्मण हैं ? क्या निर्णय करने वाले विद्वान हैं ?

उपरोक्त विषय में मुख्य दोषी निर्णय करने वाले विद्वान ही हैं ? और उपरोक्त निर्णय के आधार पर विद्वान की श्रेणी में गण्य हैं अथवा नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि त्रुटियां सबसे संभव है। विद्वान ब्राह्मण के पास देश/काल/परिस्थिति वश उचित निर्णय/आज्ञा देने का अधिकार होता है और उनके निर्णय से किये गये कर्म का दोष कर्त्ता को नहीं होता, परन्तु पुण्य होता है।

निर्णय यदि शास्त्रोचित दिया जाय तो निर्णयकर्त्ता/आज्ञादाता को भी दोष नहीं लगता है। किन्तु यदि निर्णयकर्त्ता/आज्ञादाता यदि किसी प्रकार के दबाव में निर्णय/आज्ञा दे रहा हो तो वह आज्ञा ही कैसे सिद्ध होगी ? दबाव के बिना शास्त्रोचित हो अथवा न हो परिस्थिति के अनुसार विवेकपूर्ण निर्णय दिया जा सकता है किन्तु वह आज्ञा होती है। यदि दबाव देकर निर्णय लिया जाय तो वह आज्ञा सिद्ध ही नहीं हो सकती क्योंकि दबाव तो आज्ञा से होती है। कर्मकर्त्ता के ऊपर आज्ञा पालन का दबाव होता है, आज्ञादाता पर शास्त्र का।

इस प्रकार दोषी के संबंध में एक दूसरा विषय यह भी आता है कि यदि उपरोक्त निर्णय विद्वान ब्राह्मण से दबाव बनाकर लिया गया तो दोषी छोटा पुत्र ही है। निर्णय/आज्ञा यदि लोभवश/अहंकारवश या अन्य विद्वानों से द्वेषवश दिया गया हो तो आज्ञा देने वाले विद्वान ही मुख्य दोषी यजमान नहीं। किन्तु कराने वाले ब्राह्मण सर्वथा दोषी हैं।

निष्कर्ष : उपरोक्त उदाहरणों और विश्लेषण का निष्कर्ष यह निकलता है कि वर्षमध्य में गयाश्राद्ध का निषेध है, गया में मृतक/प्रेत के निमित्त किये जाने वाले षोडश श्राद्ध का नहीं। यदि किसी कारणवश षोडश श्राद्ध करने के लिये गया जाना पड़े तो वहां मात्र षोडश श्राद्ध ही करे गया श्राद्ध नहीं। गयाश्राद्ध पुनः वर्ष की समाप्ति के पश्चात् जाकर करे। यदि अनेकों पुत्र हों और उनमें से एक (ज्येष्ठ) गया जाकर षोडश श्राद्ध कर रहा हो तो अन्य सभी को उसमें ही सम्मिलित होना चाहिये न कि घर पर पृथक श्राद्ध करना चाहिये। विद्वानों को भी चाहिये कि निर्णय/आज्ञा देने से पूर्व शास्त्रोचित है अथवा नहीं यह विचार किया करें।

श्राद्ध कर्म और विधि से सम्बंधित महत्वपूर्ण आलेख जो श्राद्ध सीखने हेतु उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं :

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

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