गुरु शांति के उपाय | गुरु शांति मंत्र : Guru Shanti Mantra – 7th

गुरु शांति विधि

गुरु शांति

आधार : गुरु शांति के लिये भी कर्मठगुरु में वर्णित विधि का आधार ग्रहण किया गया है।

मुहूर्त : गुरु शांति के लिये गुरुवार के दिन यदि अनुराधा नक्षत्र प्राप्त हो तो उस दिन से नक्त व्रत का आरम्भ करना चाहिये और 7 गुरुवार तक नक्त व्रत करना चाहिये। सातवें गुरुवार के दिन विधिवत गुरु शांति करनी चाहिये। प्रथम गुरुवार को अनुराधा नक्षत्र का योग गुरु शांति के मुहूर्त का विशेष निर्धारक है। सातवें गुरुवार को अन्य शांति मुहूर्त या अग्निवास आदि देखने की आवश्यकता नहीं होती।

नियम : प्रथम गुरुवार से ही नक्तव्रत करे।

मंत्र जप : मंत्र जप का तात्पर्य निर्बलता और अशुभता दोनों का निवारण करना है। गुरु के लिये मंत्र जप की संख्या 16000 बताई गयी है। यदि 16000 जप करना हो तो स्वयं 7 गुरुवार को किया जा सकता है किन्तु यदि चतुर्गुणित अर्थात 64000 जप करना हो तो 31 ब्राह्मणों की आवश्यकता होगी जो 64000 जप करेंगे। आचार्य अलग से होंगे।

शांति कब करे : जैसा की बताया जा चुका है अनुराधा नक्षत्रयुक्त गुरुवार से नक्तव्रत का आरम्भ और गुरु की अर्चना करे। इस प्रकार से प्रत्येक गुरुवार को करते हुये सातवें गुरुवार को शांति करे। अथवा यदि तत्काल आवश्यक हो तो उस समय किसी भी गुरुवार को अथवा गुरु नक्षत्र में किया जा सकता है। उस समय अग्निवास का विचार करना अपेक्षित होगा।

गुरु शांति विधि

पूर्वोक्त विधि से 6 गुरुवार व्रत करके सातवें गुरुवार को गुरु शांति करे। शांति हेतु पूजा स्थान पर मध्य में हवन वेदी बनाये व पूर्व में गुरु पूजा निमित्त वेदी (अष्टदल) बनाये। ईशानकोण में नवग्रह वेदी बनाये। नवग्रह वेदी के ईशान कोण में कलश स्थापन हेतु अष्टदल बना ले। सातवें गुरुवार को प्रातः काल पूर्ववत नित्यकर्म संपन्न करके भगवान सूर्य को ताम्र पात्र में रक्तपुष्पाक्षतयुक्त जल से अर्घ्य देकर पूजा स्थान पर सपत्नीक आकर आसन पर बैठे :

गुरु शांति विधि - Guru Shanti
गुरु शांति विधि

तत्पश्चात त्रिकुशा, तिल, जल, पुष्प, चन्दन, द्रव्यादि लेकर संकल्प करे। यहां ऐसा माना जा रहा है कि जप पूर्व ही कर लिया गया होगा। यदि जप भी शांति के दिन ही करना हो तो संकल्प में जप को भी जोड़ ले। यदि जप नहीं करना हो तो जप न जोड़े।

संकल्प : ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद् भगवतो महापुरूषस्य, विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीये परार्धे श्रीश्वेत वाराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलि प्रथमचरणे भारतवर्षे भरतखण्डे जम्बूद्वीपे आर्यावर्तैक देशान्तर्गते ………… १ संवतसरे महांमागल्यप्रद मासोतमे मासे ………. २ मासे ………… ३ पक्षे ………… ४ तिथौ …………५ वासरे ………… ६ गोत्रोत्पन्नः ………… ७ शर्माऽहं (वर्माऽहं/गुप्तोऽहं) ममात्मनः श्रुति स्मृति पुराणतन्त्रोक्त फलप्राप्तयर्थं मम कलत्रादिभिः सह जन्मराशेः सकाशात् नामराशेः सकाशाद्वा जन्मलग्नात् वर्षलग्नात् गोचराद्वा चतुर्थाष्टमद्वादशाद्यनिष्ट स्थान स्थित गुरुणा सूचितं सूचीष्यमाणं च यत् सर्वारिष्टं तद्विनाशार्थं सर्वदा तृतीयैकादश शुभस्थानस्थितवदुत्तमफल प्राप्त्यर्थं तथा दशांतरदशोपदशा जनित पीडाल्पायुरधिदैवाधिभौतिक आध्यात्मिक जनित क्लेश निवृत्ति पूर्वक दीर्घायु शरीरारोग्य लाभार्थं परमैश्वर्यादि प्राप्त्यर्थं श्रीगुरु प्रसन्नतार्थं च गुरुशांति करिष्ये ॥

(१ संवत्सर का नाम, २ महीने का नाम, ३ पक्ष का नाम, ४ तिथि का नाम, ५ दिन का नाम, ६ अपने गोत्र का नाम, ७ ब्राह्मण शर्माऽहं, क्षत्रिय वर्माऽहं, वैश्य गुप्तोऽहं कहें)

  • तत्पश्चात पुण्याहवाचन करे।
  • फिर आचार्यादि वरण करके दिग्रक्षण करे।
  • फिर हवन विधि के अनुसार पञ्चभूसंस्कार पूर्वक अग्निस्थापन करे।

अग्नि स्थापन विधि

  1. परिसमूह्य : ३ कुशाओं से स्थण्डिल या हस्तमात्र भूमि की सफाई करें। कुशाओं को ईशानकोण में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे । 
  2. उल्लेपन : गोबर से ३ बार लीपे।
  3. उल्लिख्य – स्फय या स्रुवमूल से प्रादेशमात्र पूर्वाग्र दक्षिण से उत्तर क्रम में ३ रेखा उल्लिखित करे।
  4. उद्धृत्य – दक्षिणहस्त अनामिका व अंगुष्ठ से सभी रेखाओं से थोड़ा-थोड़ा मिट्टी लेकर ईशान में (अरत्निप्रमाण) त्याग करे।
  5. अग्नानयन व क्रव्यदांश त्याग – कांस्यपात्र या हस्तनिर्मित मृण्मयपात्र में अन्य पात्र से ढंकी हुई अग्नि मंगाकर अग्निकोण में रखवाए । ऊपर का पात्र हटाकर थोड़ी सी क्रव्यदांश अग्नि (ज्वलतृण) लेकर नैर्ऋत्यकोण में त्याग कर जल से बुझा दे ।
  6. अग्निस्थापन – दोनों हाथों से आत्माभिमुख अग्नि को स्थापित करे :- ॐ अग्निं दूतं पुरोदधे हव्यवाहमुपब्रुवे । देवां२ आसादयादिह ॥ अग्नानयन पात्र में अक्षत-जल छिरके।
  7. अग्निपूजन-उपस्थान – अग्नि को प्रज्वलित कर पूजा करे, नैवेद्य वायव्यकोण में देकर स्तुति करे : ॐ अग्निं प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनं। हिरण्यवर्णममलं समृद्धं विश्वतोमुखं ॥

अग्नि स्थापन करने के बाद अग्नि रक्षणार्थ पर्याप्त ईंधन देकर आगे का पूजन कर्म करे।

  • फिर नवग्रह मंडल स्थापन-पूजन करे।
  • फिर नवग्रह मंडल के ईशान में अष्टदल बनाकर कलश स्थापन पूजन करे।
  • हवन वेदी के पूर्व में अन्य वेदी पर अष्टदल बनाकर, चावल के पुञ्ज पर सुवर्ण/कांस्य  कलश स्थापन करे पूर्णपात्र हेतु सुवर्ण/कांस्य का प्रयोग करे।
  • फिर गुरु की सुवर्ण प्रतिमा का अग्न्युत्तारण करके कलश पर रखे ।
  • उन्हें युगल पीतवस्त्र, जूता, छाता, कमण्डलु, पीत यज्ञोपवीत, पीत गंधपुष्पाक्षत आदि से युक्त करके फिर षोडशोपचार पूजन करे।
  • तत्पश्चात ब्रह्मावरण करके आगे का हवन कर्म करे। यदि जप किया गया हो तो जप का दशांश होम करे, अन्यथा अष्टोत्तरशत अथवा अष्टोत्तरसहस्र करे। हवन द्रव्य : दधि-मधु, घृताक्त पीपल समिधा, शाकल्य सहित।
  • आरती आदि करके सुवर्ण/कांस्य कलश में औदुम्बर, बिल्व, वट, आमलक दे।
  • फिर सुवर्ण/कांस्य कलश के जल से आचार्य यजमान का अभिषेक करें।
  • फिर ग्रहस्नान करके गुरु प्रतिमा, पुष्पराग, माणिक्य, हरिद्रा, शर्करा, पीत धान्य, पीत वस्त्र, लवण, सुवर्ण आचार्य को प्रदान करे।
  • दान मंत्र : ॐ धर्मशास्त्रर्थ तत्त्वज्ञ ज्ञानविज्ञानपारग। विबुधार्तिहराचिन्त्य देवाचार्य नमोऽस्तु ते ॥

गुरु मंत्र जप विधि

विनियोग : ॐ बृहस्पतेति मंत्रस्य गृत्स्मद ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः ब्रह्मा देवता बृहस्पति प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः॥

न्यास विधि :

देहन्यास : ॐ बृहस्पते शिरसि ॥ अति यदर्यो ललाटे ॥ अर्हाद्युमत् मुखे ॥ विभाति क्रतुमत् हृदये ॥ जनेषु नाभौ ॥ यद्दीदयत् कट्यां ॥ शवसऋतप्रजात ऊर्वोः ॥ तदस्मासु द्रविणं जान्वोः ॥ धेहि गुल्फयोः ॥ चित्रम् पादयोः ॥

करन्यास : बृहस्पते ऽअति यदर्यो अंगुष्ठाभ्यां नमः ॥ अर्हाद्युमत् तर्जनीभ्यां नमः ॥ विभाति क्रतुमत् मध्यमाभ्यां नमः ॥ जनेषु अनामिकाभ्यां नमः ॥ यद्दीदयच्छवसऋतप्रजात तदस्मासु कनिष्ठिकाभ्यां नमः ॥ द्रविणं धेहि चित्रम् करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः ॥

हृदयादिन्यास : बृहस्पते ऽअति यदर्यो हृदयाय नमः ॥ अर्हाद्युमत् शिरसे स्वाहा ॥ विभाति क्रतुमत् शिखायै वषट् ॥ जनेषु कवचाय हुँ ॥ यद्दीदयच्छवसऋतप्रजात तदस्मासु नेत्रत्रयाय वौषट् ॥ द्रविणं धेहि चित्रम् अस्त्राय फट् ॥

ध्यान :

पीताम्बरः पीतवपुः किरीटी चतुर्भुजो देवगुरुः प्रशान्तः ।
तथाक्षऽसूत्रं च कमण्डलुञ्च दण्डञ्च बिभ्रद्वरदोऽस्तु मह्यं॥

मंत्र : ॐ बृहस्पते ऽअति यदर्यो अर्हाद्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु । यद्दीदयच्छवसऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम् ॥


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