जागते रहो : सच्चे बाबा और पाखंडी बाबा को कैसे पहचाने

सबसे पहले तो पाखंडी सूरज पाल को इन्हीं वामपंथियों ने जन्म दिया और अब जबकि उसकी पोल खुल रही है तो सनातन पर प्रहार करने लगे। ये प्रश्न है कि सच्चे बाबा और पाखंडी बाबा को कैसे पहचाने ? लेकिन इस प्रश्न का उत्तर ऐसे-ऐसे गढ़े जा रहे हैं जो सीधे-सीधे सनातन पर प्रहार करते हैं। कोई कहता है बाबाओं का रजिस्ट्रेशन करो, कोई कहता है सनातन में व्यक्ति पूजा निषिद्ध है आदि-आदि लेकिन अधिकतर सनातन पर प्रहार ही करते हैं। लेकिन इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि बहुत सारे लोग धर्म के नाम पर व्यापार चला रहे हैं और सच्चे व पाखंडी बाबाओं को कैसे पहचाने इस पर विमर्श आवश्यक है ?

जागते रहो : सच्चे बाबा और पाखंडी बाबा को कैसे पहचाने

सूरज पाल को बाबा बाबा बाबा कहने का एक ही तात्पर्य है कि किसी प्रकार सनातन पर प्रहार किया जाये। सूरज पाल पाखंडी था यह सभी मान रहे हैं लेकिन प्रहार सनातन पर ही कर रहे हैं। सूरज पाल जैसे पाखंडियों को चिह्नित करके दण्डित किया जाय इस दिशा में कोई विमर्श करना नहीं चाहता लेकिन लोग अंधविश्वासी हैं ये सब कहता है। जब पाखंडी बाबा को खड़ा करके व्यापार कर रहे थे तब भी सनातन पर ही प्रहार हो रहा था और पाखंड खुल रहा है तब भी।

हमें इस विषय में अवश्य सोचना होगा कि सच्चे बाबा को कैसे पहचाने ? क्या ये काम सरकार का है ? इस प्रकरण में सबसे बड़ी बात जो है वो ये है कि जैसे राजनीतिक झूठ को जड़ से राजनीति करने वाले ही समझते हैं और राजनीतिक झूठ की स्वतंत्रता को राजनीति करने वाले ही दूर कर सकते हैं, जैसे मीडिया के गिद्धगिरि को मीडिया वाले ही गहराई से जानते हैं और मीडिया स्वयं चाहे तभी निराकरण कर सकती है, कानून और इधर-उधर के किसी प्रक्रिया से उसका निवारण नहीं हो सकता।

उसी प्रकार बाबा और पाखण्डियों के विषय में बाबाओं द्वारा ही सटीक विश्लेषण किया जा सकता है और सुधार करने के दिशा में आगे बढ़ा जाय तो सफलता प्राप्त हो सकती है। अन्य किसी प्रकार से कुछ नहीं हो सकता है। अन्धविश्वास की जहां तक बात है तो नेता भी नहीं चाहते कि अन्धविश्वास समाप्त हो अन्धविश्वास तो नेताओं में भी है, उसी प्रकार मीडिया भी नहीं चाहेगी कि अन्धविश्वास समाप्त हो क्योंकि मीडिया के प्रति भी अन्धविश्वास ही होता है।

दूध के धुले नेता और दूध की धुली मीडिया लालटेन लेकर ढूंढने पर भी नहीं मिलेंगे लेकिन सच्चे बाबा की कमी नहीं है हां कुछ पाखंडी भी अपना व्यापार चला रहे हैं और उन पाखंडियों से सच्चे बाबा स्वयं भी त्रस्त हैं क्योंकि कभी बाबा को चोर समझकर पीटा जाता है तो कभी कुछ और समझकर। कई जगहों पर झूठा आधार कार्ड बनाकर मुसलमान भी बाबा बना हुआ पकड़े जाते रहे हैं।

बाबा को ढूंढो

अविश्वास किस पर हो रहा है, प्रश्नचिह्न किस पर लगाया जा रहा है ? पूरे सनातन पर। और कोई भी दिखे तो कुछ पूछो न पूछो किन्तु बाबा दिखे तो अवश्य शंका करो वो पाखंडी ही होगा ? जो लोग दिन-रात झूठ बोल रहे हैं, देश को लूट रहे हैं, जनता को ठग रहे हैं इन लोगों पर शंका मत करो शंका करनी है तो कही बाबा को ढूंढो।

ढेरों लवजिहाद के मामले सामने आ रहे हैं, अब न्यायालय को भी कहना पर रहा है कि यदि शीघ्र ठोस उपाय न किया गया तो अल्पसंख्यक बहुत जल्दी बहुसंख्यक बन जायेगा, सर तन से जुदा के नारे खुलकर लगाये जाते हैं, हिन्दू शोभायात्राओं, काँवर यात्राओं पर पत्थरबाजी होती है, लेकिन इनकी चर्चा मत करो, इन पर विश्वास करो कि ये दूसरा कश्मीर नहीं बनायेंगे, भाईचारा निभाओ ये और विश्वास करो कि इ लव जिहाद नहीं करेंगे। यदि शंका करनी है, अविश्वास करना है तो बाबाओं को ढूंढो; बाबा पाखंडी होते हैं बाबाओं पर विश्वास करना बंद करो, शंका बाबाओं पर करो।

एक बार डॉक्टर के चक्कर में पड़ोगे जीवन भर पीछा नहीं छोड़ेंगे लेकिन अन्धिविश्वास करते रहो, एक बार वकील के चक्कर में पड़ोगे तो बार-बार पड़ते रहोगे लेकिन अंधविश्वास करते रहो, यदि किसी का बाल नोंचने का मन करे तो बाबा को ढूंढो, हाथों में यदि खुजली होने लगे तो पिटाई करने के लिये बाबा को ढूंढो।

ये फिल्मों, धारावाहिकों और मीडिया में जो धर्म संबंधी उटपटांग दिखाते रहते हैं जनमानस को दिग्भ्रमित करते रहते हैं उन पर अंधविश्वास करो। नेतागण जो मंदिर-मंदिर जाकर कुछ भी करके फोटो खिंचवाते रहते हैं उन पर विश्वास करो लेकिन यदि अविश्वास करने का मन करे तो बाबा को ढूंढो।

क्या कभी किसी ने इस विषय पर चर्चा किया है कि फिल्मों में धर्म और कर्मकांड की जो बातें बताई जाती है सबकी सब शास्त्र विरुद्ध होती है और दशकों से ऐसा किया जा रहा है, इसी तरह वो रामायण और कृष्णा जैसी धारावाहिकें और थी आज की धारावाहिकों में चाहे वह सीधे-सीधे कथा-पुराणों से ही जुड़ा क्यों न हो उटपटांग बातें ही बताई जाती है कितने प्रश्न किये जाते हैं? मीडिया जो हर दिन किसी को बिठाकर राशिफल बताती रहती है शुद्ध रूप से व्यापार करती है और जनमानस को कई विषयों पर भ्रमित करती है मीडिया पर कौन प्रश्न करेगा ? अरे मीडिया से प्रश्न पूछने की आवश्यकता नहीं है बाबा को ढूंढो।

चट्टे-बट्टे

सांकेतिक रूप से हम जो समझाना चाह रहे हैं संभवतः आप समझ गये होंगे, ये सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं और चारों तरफ से जनमानस को भ्रमित कर रहे हैं लूट रहे हैं। परेशान लोगों को थोड़ी-बहुत शांति बाबाओं से ही मिलती है तो इन लोगों को जलन होती है और बाबाओं के बीच में यही सभी पाखंडी बाबा को खड़ा कर देते हैं, और मिल-बाँट कर खाते हैं। यदि कभी चोरी पकड़ी जाये तो पाखंडी बाबा चिल्ला-चिल्ला कर जो पाखंडी नहीं होते हैं उनके प्रति जनमानस में भ्रम और आशंका को जन्म देते हैं, नये-नये सिद्धांतों को जन्म देने लगते हैं, कुतर्कों की ऐसी झड़ी लगा देते हैं कि पूछो मत।

व्यक्तिपूजा

सूरजपाल प्रकरण में ही एक चैनल पर चर्चा जो रही थी और धर्म का पक्ष रखने वाले समझा रहे थे कि सनातन में इष्ट की पूजा होती है व्यक्ति की नहीं। क्या सिद्ध करना चाहते थे कि लोग गुरु की पूजा करते हैं वो गलत हैं, कर्मकांड में जो “ब्राह्मणाय नमः” से ब्राह्मण की पूजा की जाती है वो गलत है। चरणरज का कोई महत्व नहीं होता है अन्धविश्वास है। वैसे भी राजनीति में एक नये युग का आरंभ हो रहा है ब्राह्मणों को पैर छूकर प्रणाम नहीं करने का औरों की क्या बात करें ऐसा मोदी ने भी दिखाया है, जिसे दुनियां भगवान का भक्त मानती है।

अरे मूर्खों चरणरज का भी महत्व शास्त्रों से ही है और गुरु, ब्राह्मण, व्यास पूजा का महत्व भी शास्त्रों से ही है। मात्र गुरु की ही पूजा नहीं होती गुरु के पादुका की भी पूजा होती है। लेकिन जिन लोगों को इन शास्त्रों पर विश्वास नहीं होता, सबने मिलकर भ्रमित कर रखा है उन्हें लूटने के लिये सूरजपाल जैसा पाखंडी जन्म लेता है।

राम भी गुरु और ब्राह्मण की पूजा करते थे, कृष्ण भी गुरु और ब्राह्मण की पूजा करते थे, भगवान शंकर तो विद्यापति के यहां सेवक (उगना) बनकर रहने लगे थे। जब विवाह किया जाता है तो कन्यादाता पहले वर को विष्णुरूप मानकर वर की पूजा करता है। जब नवरात्रा आती है तब कुमारी कन्याओं को देवी का रूप मानकर पूजा जाता है। फिर धर्म का पक्ष रखने वाले का ज्ञान क्या था ये समझा जा सकता है और ये भी समझा जा सकता है कि मीडिया कैसा-कैसा षड्यंत्र रचती है। चैनल का पूरा नाम नहीं किन्तु संकेत अवश्य कर दूंगा जिससे समझ में आ जाये उस चैनल के साथ नौ अंक लगता है। बहस 5 जुलाई शुक्रवार की ही है।

एक दूसरे चैनल पर जिसमें कोई आर होता है और कोई पार होता है सुधांशु त्रिवेदी भी थे और वो मौलाना भी था जिसके कारण नूपुर शर्मा दिखना बंद हो गयी, नूपुर शर्मा के प्रकरण में किसी को नारी, महिला, लड़की दिखाई दिया है क्या ? वो मौलाना कह रहा था कि सनातन पर विचार होना चाहिये, सनातन क्या है आदि इत्यादि। उसे कहना चाहूंगा कि सभी विद्वान भी यही चाहते हैं कि शास्त्रों को खोला जाये, शास्त्रार्थ किया जाये तभी तो उन सारे झूठों और भ्रमों का निवारण होगा जो इन षड्यंत्रकारियों ने फैला रखा है।

पाखंडी बाबा

धर्मशास्त्रों की सच्ची बातें छुपाकर जो भ्रम फैलाया गया है उसी कारण इतने पाखंडी बाबा पनपने लगे हैं। इन पाखंडी बाबाओं की कड़ियां बहुत लम्बी होती है जो नेताओं, मीडिया, वामपंथियों और इको सिस्टम तक से जुड़ा होता है। काले धन को भी सफेद करने का खेला होता है और वोट का भी रेला निकलता है। एक शंकराचार्य को सोशल मीडिया पर यह बताते सुना गया है कि सिर पर वस्त्र रखकर पूजा करनी चाहिये। ये वही व्यक्ति जो राम लला की प्राण-प्रतिष्ठा में सर्वाधिक चिल्ला रहा था। और यही सूत्र है जिसके द्वारा सही और गलत को समझा जा सकता है। जो गलत होता है उसे गूढ़ बातें ज्ञात नहीं होती।

ये सूरज पाल ताजा-ताजा है और सीमा का अतिक्रमण भी कर रखा था इसने इसलिये इसके साथ तो जितनी कठोरता की जाये कम होगी लेकिन उसका क्या जो इसका संरक्षक था ? इसी की गद्दी पर वो लोग किसी दूसरे को फिर से भगवान बनाकर बैठा देंगे (मोदी वाली गारंटी लागू नहीं)। ये कोई बाबा नहीं करते हैं ये राजनीति और पूरा इको सिस्टम मिलकर करता है। जो मीडिया सूरज पाल को पाखंडी बता रही है, अन्धविश्वास बता रही है वही मीडिया यह भी बता रही है कि मोहिनी मंत्र का प्रयोग करता था, धन्य है मीडिया।

नीच मीडिया कितनी सनातन द्रोही है यह सभी मीडिया चैनलों पर देखा जा रहा है। कोई ये नहीं कह रहा है कि सूरज पाल कहां है, सूरज पाल सामने क्यों नहीं आ रहा, सूरज पाल क्यों है लापता आदि इत्यादि। वेश्या से भी मीडिया की तुलना की जाय तो वेश्या का भी अपमान होगा। ये मीडिया वाले चिल्ला रहे हैं बाबा कहां है ? बाबा सामने क्यों नहीं आ रहा ? बाबा ये करता था, वो करता था। कुल मिलाकर बाबा शब्द और आप जिन्हें बाबा कहते हैं उनके प्रति आपके मन में दुर्भावना का जन्म हो, आप अपने बाबा के प्रति अविश्वासी हो जायें। बाबा शब्द ही सम्मानसूचक है, सम्मान न देना हो तो बाबा सम्बोधित ही नहीं करना चाहिये।

किसी को बाबा कहने से पहले उसके शब्दकोष को समझना चाहिये

सबसे पहली बात जो है वो है लोगों के कहने मात्र से किसी को बाबा मत मान लो। दूसरी बात है की किसी से प्रथम मिलन होता है तो एक-दूसरे का दर्शन करते हैं, स्वरूप व वेश से भी एक-दूसरे के बारे में अनुमान होता है, यद्यपि स्वरूप के प्राप्त परिणाम अंतिम नहीं होता है किन्तु प्रथम अवश्य होता है। रावण ने भी पाखंड करने के लिये साधु वेश धारण किया था और सीता का हरण किया था, कालनेमी ने भी हनुमान को भ्रमित करने के लिये महात्मारूप धारण किया था। सूरज पाल जो किसी भी कोने से बाबा नहीं दिखता उसे लाखों लोगों ने बाबा कैसे मान लिया ?

किसी को भी बाबा कहने से पहले उसके शब्दकोष को समझना चाहिये, ये देखना चाहिये कि कहीं उसके पास बाबा के योग्य शब्दों की दरिद्रता तो नहीं है और इन शब्दों का ग्रहण तो नहीं करता है। यदि आगे दिये शब्दों का कोई बारंबार प्रयोग करे तो उसे बाबा न मानें :

तमाम, कोशिश, बेहतर, उम्मीद, खराब, दवा, वक्त, खाना, असर, जिम्मेदारी, जगह, जमीन, आदमी, औरत, दिल, दर्द, शुक्रिया, हिम्मत, ईनाम, ईमान, इंसान, दौरान, ख्याल, हमेशा, हालांकि, किताब, भाईचारा, मतलब आदि-इत्यादि। कदाचित त्रुटिवश प्रयोग हो सकता है किन्तु बारम्बारता नहीं हो सकती। यदि इन्हीं और अन्य शब्दों का कोई सदा प्रयोग करता है तो इसका तात्पर्य यह है कि उसने शास्त्रों का अध्यययन नहीं किया है। उसके शब्दकोष में बाबा वाले शब्द हैं ही नहीं है जब शब्द का ही दरिद्र है तो बाबा कैसे होगा ?

भ्रमित करने वाले कहेंगे कि शब्दों का क्या वो तो अभिव्यक्ति का साधन मात्र है। किन्तु शब्दों का क्या महत्व है और शब्दप्रयोग से ही बाबा और पाखंडी के भेद ज्ञात होता है ये मेरी मनगढंत बात नहीं है। ये प्रामाणिक तथ्य है हनुमान जी ने साधुवेश के कारण प्रथम निष्कर्ष तो साधु का ग्रहण किया किन्तु जब कालनेमि ने कथा कहना आरंभ किया तो शब्दप्रयोग से ही उसके पाखंडी होने का अंतिम निष्कर्ष निकाला। कालनेमि ने पहले रावण और पीछे राम कहा था। उस काल में उपरोक्त शब्द नहीं थे, तथापि कालनेमि के शब्दप्रयोग से ही पाखंडी होने के निष्कर्ष तक हनुमान जी पहुंचे थे।

सीधी सी बात है बाबा का तात्पर्य है श्रेष्ठ, महान, पूजनीय, उपदेशकर्ता आदि तो योग्यता क्या है विशेष ज्ञान। ज्ञानार्थ अध्ययन अनिवार्य है जिसने अध्ययन ही नहीं किया उसे ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता, यहां ज्ञान की चर्चा कर रहे हैं न कि दिव्यज्ञान अथवा आत्मज्ञान की। एक ही आत्मज्ञानी की कथा शास्त्रों में वर्णित है जो जन्म से ही आत्मज्ञानी थे जड़-भरत जिन्हें अध्ययन की आवश्यकता नहीं थी। यदि भगवान के अवतारों की भी चर्चा करें तो रामावतार हो अथवा कृष्णावतार, सभी अवतारों में भगवान भी अध्ययन करते रहे हैं।

ज्ञान का प्रथम तात्पर्य शास्त्रज्ञान ही होता है विशेष तात्पर्य आत्मज्ञान होगा है और दुरुपयोग करने हेतु शिक्षा को भी ज्ञान कहा जाता है। शिक्षित को ज्ञानी कहना अनर्थ होता है। भक्त का व्यवहार और जीवन शैली भक्ति प्रकट करता है, ज्ञानी के ज्ञान का प्राकट्य उनके उपदेश, प्रवचन से ही होता है, पाखंडी के पास यदि शब्दकोष भी हों भी शब्दप्रयोग अर्थात वाक्यप्रवाह व संकेतादि से समझा जा सकता है। ये उन बड़े पाखंडियों के संदर्भ में है जिनसे मिलना भी कठिन होता है।

शब्दों का महत्व इससे भी समझा जा सकता है कि सूरज पाल का जो प्रथम वक्तव्य आया है उसमें उसने शब्दों के चयन हेतु बहुत सोचा है और ये दिख भी रहा है कि कौन सा शब्द बोलें। तथापि इतना सोच-समझकर बोलने के पश्चात् भी लघु वक्तव्य में उसने तीन शब्द वैसे बोले हैं जो अनपेक्षित हैं : बख्से, इलाजरत और जिम्मेदारी, एक शब्द जो पूरी तरह मूर्ख सिद्ध करता है वो है सद्मति, सद् मति नामक शब्द मनगढंत है और शब्दचयन करके ठगने का प्रयास।

जब आप किसी बड़े कथा-प्रवचन कर्ताओं के यहां जाते हैं तो मात्र एक भ्रम से जाते हैं वो भ्रम धर्म के व्यापारियों द्वारा प्रसारित किया हुआ होता है। वहां सामान्य जन मात्र अन्यों के द्वारा कही-सुनी बातों के आधार पर जाते हैं। इस अन्य में मीडिया और कई धार्मिक टीवी चैनल भी आ जाते हैं। सामान्य जनों को वहां जाने के बाद उनका कथा-प्रवचन, गीत-संगीत जो भी सुनने मिला उतना सुनकर उसकी दक्षिणा दो बात समाप्त।

जिसके साथ संपर्क में रहने के लिये मध्य में ट्रस्ट हो, कर्मचारी हो, आश्रम हो वो धनाढ्य वर्गों के ही गुरु हो सकते हैं सामान्य जनों के नहीं, उन्हें गुरु मत बनाओ, उनके आश्रम-संस्था-ट्रस्ट आदि का सदस्य बनो ही मत। जितनी कथा-प्रवचन सुनी उसकी दक्षिणा दिया और हो गया। गुरु बनाने के लिये सामान्य नियम है गृहस्थों को गृहस्थ गुरु से ही दीक्षा लेनी चाहिये, ये शास्त्रोक्त तथ्य है।

दूसरा नियम है गुरु से सीधा संपर्क होना, आप जिन्हें गुरु बना रहे हैं उनसे आपकी सीधी वार्तालाप संभव है या नहीं ये आपको ही सुनिश्चित करना होगा, वो गुरु यदि कभी आप चाहें कि आपके घर पर आयें तो आ सकते हैं या नहीं। ऐसा हो सकता है कि किसी निश्चित दिन घंटे-दो घंटे व्यस्ततावश गुरु आपको समय न दे सकें किन्तु अगले दिन भी न दे सकें ऐसा नहीं होना चाहिये। आपके गुरु के पास आपके लिये भी वर्ष में न्यूनतम 5 – 10 घंटे होने चाहिये। ये व्यावहारिक तथ्य है।

ऐसे सभी कथावक्ता प्रशिक्षित होते हैं, ज्ञानी नहीं। जो-जो कथा वो करते हैं रामायण, भागवत, देवी भागवत आदि, उसके अतिरिक्त दूसरी छोटी सी भी कथा कहने के लिये दे दो नहीं कह पायेंगे। एक बड़े कथावाचक ने पितृपक्ष में गरुड़पुराण की कथा कहने का प्रयास किया था लेकिन नहीं कर पाये। श्लोक-श्लोक में अटकते रहे। इन प्रशिक्षित कथावाचकों को इसलिये बड़ा विद्वान मत मानो की उनकी कथा दूरदर्शन पर होती रहती है। बड़े विद्वान आपके घर के निकट भी हो सकते हैं और सहज उपलब्ध भी हो सकते हैं एवं कभी ठग नहीं सकते।

सच्ची कथा सुननी हो तो दूरदर्शन पर दिखने वाले से दूर रहो वो शास्त्रों का कुछ भी सत्य नहीं बताते हैं दो-चार बातों को छोड़कर और दो-चार बातें हैं : भगवान के नाम का महत्व, भक्ति-भजन करना, सत्संग करना आदि। इसके अतिरिक्त न तो उनको कथावाचक का कोई नियम ज्ञात होता है अथवा ज्ञात भी हो तो पालन नहीं करते। सत्य का उपदेश तो करते हैं किन्तु स्वयं ही सत्य को छिपाते भी हैं, लीपा-पोती और नाच-गान मात्र करते हैं।

विद्वान को कैसे ढूंढें

यदि पाखंडियों से बचना चाहो तो अपने आस-पास के विद्वान ब्राह्मणों के संपर्क में रहो। विद्वान ब्राह्मण कौन हैं ये भी समझ आ जाती है, न आये तो आचरण और व्यवहार देखकर समझो। निकटवर्ती होने से उनका इतिहास, वर्त्तमान सब कुछ ज्ञात हो सकता है और निकटवर्ती का तात्पर्य गांव का ही नहीं जिला पर्यन्त अथवा अधिकतम 100 किलोमीटर की परिधि लेना उचित होगा। शास्त्रोक्त नियम भी यही कोई ऐसा मत मानना की ये मनगढंत कुतर्क मात्र है। शास्त्र का नियम है कि निकटवर्ती विद्वान का त्याग कर दूरस्थ विद्वान को ग्रहण नहीं करना चाहिये, इसमें दोष बताया गया है, इस दोष का नाम अतिक्रमण है।

कई बार आत्मगौरव के अहंकार से निकटवर्ती विद्वान का त्याग किया जाता है, कई बार द्वेषवश या और भी कई कारणों से। मुख्य कारण यही होता है कि निकटवर्ती विद्वान आपको विशेष सम्मान दें जो दूरस्थ विद्वान भी नहीं देते किन्तु उनसे आपकी यह अपेक्षा रहती भी नहीं है। ये अपेक्षा निकटवर्ती विद्वान से ही रहती है। सबसे बड़ी चूक यही होती है। जो आपको सत्य बता सकते हैं, गुरु बन सकते हैं आप स्वयं उनका परित्याग करके भटक जाते हैं तो पाखंडी और ठग आपको ठगते हैं।

लेकिन एक-दो भ्रम इसमें भी हो सकता है वो है कौन कितने काल तक पूजा-अर्चना करते हैं, बहुत बड़ा नाम है, आत्मज्ञानी हैं या नहीं आदि ? आत्मज्ञानी को तो ढूंढो ही मत, यदि आवश्यकता होगी और ईश्वर आपकी आत्मज्ञानी से भेंट कराना चाहेगा तो वो आत्मज्ञानी को आपके पास ही भेज देगा। विश्वास न हो तो परीक्षित प्रसंग को समझो। जब आत्मज्ञानी की आवश्यकता हुयी तो शुकदेव जी को भेज दिया। ईश्वर पर विश्वास रखो और यह मानो की आवश्यकता के समय ईश्वर आत्मज्ञानी भी भेज देंगे। ढूंढना विद्वान को है आत्मज्ञानी या भक्त को नहीं ये स्वयं पात्र को ढूंढते हैं।

कुछ लोगों ने तो ऐसे भ्रम भी फैला रखे हैं कि तुलसी का माला पहनने वाला हो, रुद्राक्ष धारण करने वाला हो आदि-आदि। तुलसी माला, रुद्राक्ष माला का अपना महत्व व माहात्म्य है किन्तु माला विद्वान होने का परिचायक नहीं है। विद्वत्ता का परिचय प्रश्नों के सटीक और प्रामाणिक उत्तर से होता है।

विद्वान को ढूंढना होता है और विद्वान का निर्णय भी स्वयं करना होता है, आवश्यकता मार्गदर्शन की होती है। निर्णय आपको स्वयं करना होगा, आपके पास अनेकों प्रश्न और गूढ़ प्रश्न अर्थात जिज्ञासायें होती है उसके बारे में पूछो। विडम्बना तो ये भी है कि प्रश्न भी तो वही सब रहेंगे, रोग कब छूटेगा, नौकरी कब लगेगी, विवाह कब होगा, संतान कब होगा, दरिद्रता कब मिटेगी आदि-आदि। इन प्रश्नों के उत्तर देने वाले ज्योतिषी होते हैं विद्वान नहीं। ये सांसारिक प्रश्न मात्र हैं, विद्वान भी इन प्रश्नों के उत्तर देते हैं किन्तु वो उत्तर ज्योतिषी से भिन्न होता है।

प्राचीन काल के विद्वान तत्क्षण ही सभी प्रश्नों के सटीक और प्रामाणिक उत्तर देने में सक्षम होते थे। वर्त्तमान के विद्वान इतने सक्षम नहीं होते। जैसे ही किसी प्रश्न पर कहें कि इसका उत्तर हमें ढूंढना होगा और कुछ काल अथवा दिनों बाद प्रामाणिक उत्तर दें तो समझ लो की वो वर्त्तमान काल के विद्वान हैं। जो हर प्रश्न को उत्तर तत्क्षण तर्क-कुतर्क से दें उन्हें विद्वान मत समझो, जो शास्त्रों का प्रमाण प्रस्तुत करके उत्तर दें भले ही तत्काल न दें उन्हें विद्वान समझो।

निकटवर्ती विद्वान क्यों नहीं ठग सकते

प्रश्न अनंत हैं, आपके पास अभी कोई प्रश्न नहीं हो ये संभव है किन्तु कल तक कोई प्रश्न नहीं होगा ऐसा नहीं होने वाला है। आप बारंबार अपने प्रश्नों को पूछो, विद्वान आपके प्रश्नों से हर्षित होंगे व्यथित नहीं। जो आपके प्रश्नों से भागें, व्यथित होने लगें वो विद्वान नहीं होगें। ये प्रथम ही स्पष्ट किया जा चुका है कि तत्काल सभी प्रश्नों के प्रामाणिक उत्तर वर्तमान के कोई विद्वान नहीं दे सकते, बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर हेतु उन्हें भी शस्त्रावलोकन की आवश्यकता सदैव बनी रहेगी।

ऐसे विद्वानों को ठग और पाखंडी शब्द से कभी सम्बोधित होना पड़े इस बात का भय रहता है। ऐसे विद्वान कभी कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते जिसके कारण उन्हें कभी ठग या पाखंडी आदि शब्द परोक्षतः भी सुनना परे। इसलिये वो कभी ठग नहीं सकते। पुरोहित और विद्वान में अंतर होता है। एक अनिवार्य शर्त्त यह भी है कि ज्ञान देने वाले विद्वान जन्मजात ब्राह्मण भी हों।

ऊपर ढेरों नियम बताये गये हैं और सबके प्रमाण शास्त्रों में उपलब्ध हैं, कई प्रमाण पूर्व आलेखों में कर्मकांड विधि पर भी उपलब्ध हैं तथापि जितने भी तथ्यों को यहां शास्त्रोक्त बताया गया है यदि आवश्यकता हुई तो उसके प्रमाण उपलब्ध कराये जायेंगे। अब बात आती है कि उपरोक्त तथ्यों के प्रमाण तो उपलब्ध करा सकते हैं, किन्तु सामान्य जन अपने अंतर्मन से प्रश्न करें कि उपरोक्त नियमों की अवहेलना करते हैं या नहीं। यदि आप स्वयं शास्त्रोक्त नियमों की अवज्ञा करके मनमाना आचरण (पाखंड) करते हैं तो आपको यदि कोई पाखंडी ठग लेता है इसमें गलत क्या है ?

पाखंड का साम्राज्य

इको सिस्टम शब्द आप सब बारम्बार सुनते रहते हैं। पाखंड का भी इको सिस्टम है जिसने सर्वत्र जाल फैला रखा है, जनमानस मछली बनी हुई है। यदि रक्षक की बात करें तो राजनीति, मीडिया आदि जो भी लगता हो कि ये बचायेंगे सबके-सब उसी जाल को और अधिक फैलाने में जुटे हुये हैं। यदि सामान्यजन यह समझे कि सरकार, कानून, न्यायपालिका आदि बचायेगी तो ये जान लें कि सरकार न्यायपालिका आदि समलैंगिक विवाह की मान्यता और कानून बनाने पर चर्चा कर रहे हैं, लिंग परिवर्तन की चर्चा करने वाले हैं।

क्या आपको लगता है कि समलैंगिक विवाह अप्राकृतिक नहीं है, लेकिन सरकार और न्यायपालिका को ये अप्राकृतिक नहीं लगता है। सरकार और न्यायपालिका क्या इस प्रश्न का उत्तर दे सकती है कि मनुष्य के अतिरिक्त लाखों प्राणियों में से कितने प्राणी हैं जो समलैंगिक संबंध बनाते हैं ? ये है विकास, ये है विज्ञान का विस्तार और यदि इनको संरक्षक माना जाय तब तो हो गया कल्याण। ये तथ्य आध्यात्मिक पक्ष से संबद्ध है, सरकार व न्यायपालिका आदि के राजनीतिक पक्ष से नहीं।

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