इस आलेख में यह चर्चा की गई है कि क्या अपुत्र होने पर नाना का श्राद्ध नाती कर सकता है या नहीं। यदि अपुत्र नाना का श्राद्ध नाती कर सकता है तो अड़चन क्या है अथवा क्यों नहीं कर सकता? यही चचेरा मामा हो या मातामह का सापिण्ड्य हो तो दौहित्र अर्थात नाती को क्यों अधिकार नहीं होगा अथवा किस स्थिति में अधिकार होगा और श्राद्ध यदि करना हो तो कैसे करें ?
दौहित्र (नाती) मातामह श्राद्ध (नाना) का – श्राद्ध कैसे करें
यह विषय बहुत ही महत्वपूर्ण है और शास्त्रों के प्रमाण सहित चर्चा करने से और अधिक उपयोगी हो जाता है। वर्तमान युग में जिसे पुत्र न हो परन्तु पुत्री और दौहित्र (नाती) हो उसकी मृत्यु से पहले ही श्राद्ध और उत्तराधिकार का विवाद आरम्भ हो जाता है। चर्चा तो सभी जगहों पर होती है परन्तु पर्याप्त प्रमाण सहज में उपलब्ध न होने से जो भी करे दूसरा पक्ष उसे अनुचित ही सिद्ध करता है । चूंकि यहां पर्याप्त प्रमाण देते हुए निष्कर्ष तक पहुंचने का प्रयास किया गया है इसलिये उपरोक्त परिस्थिति में विवाद शेष रहने की संभावना नगण्य हो जाती है।
भ्रातृज्यादि का प्रथम अधिकार
इसमें कोई दो मत नहीं कि पुत्र के अभाव में भ्रातृज्य (भतीजे) से लेकर सपिण्डों तक ही नहीं सोदकों तक का भी उत्तरोत्तर अधिकार होता है।
साथ ही पुराने समय में मातामह का धन-संपत्ति लेना निकृष्टता का द्योतक भी माना जाता था और इसलिये उपरोक्त स्थिति में दौहित्र श्राद्ध नहीं करता था क्योंकि श्राद्ध करने में एक शर्त भी है कि जिसका श्राद्ध करे उसका धन भी ले। और कुछ दशक पहले तक यही चलता आया कि भ्रातृज्यादि ही श्राद्ध करके धन ग्रहण करते रहे।
परन्तु वर्तमान युग में लोगों की वह सोच बदल गई, राजविधान से पुत्री को भी पिता का उत्तराधिकारी बनाया गया एवं धनलोलुपता की प्रवृत्ति अत्यधिक हो गई है। लोगों का आध्यात्मिक ज्ञान घटता जा रहा है, भौतिकता बढती जा रही है और येन-केन-प्रकारेण धनार्जन करना मात्र जीवन का लक्ष्य रह गया है, पिता की संपत्ति में जब संविधान ही पुत्री को अधिकार प्रदान कर रहा है तो दोष क्या है?
एक और महत्वपूर्ण विषय वर्तमानयुग के सन्दर्भ में है, १-२ दशक से एक नई परम्परा का भी प्रचलन बढ़ने लगा है और वह है कृत्रिम गर्भाधान पूर्वक अनैतिक क्षेत्रज पुत्रोत्पत्ति करना। इस संबंध में यह स्पष्ट करना अपेक्षित है कि क्षेत्रज पुत्र का तात्पर्य भी अनैतिक संबंध वश, अथवा बलात्कारजन्य उत्पन्न पुत्र होते हैं इसमें पिता की सहमति का अभाव होना आवश्यक होता है।
लेकिन वर्तमान में यदि पिता सहमति से कृत्रिम गर्भाधान कराता है फिर तो वह स्वयं भी अनीति करता है अर्थात उसी समय पतन का भागी बन जाता है। कृत्रिम गर्भाधान में पता नहीं किसका वीर्य स्थापन किया जाय, वो तो म्लेच्छादि का भी हो सकता है और संभवतः कहीं न कहीं इसी प्रकार का कोई षड्यंत्र करके सनातन को भ्रष्ट करने का एक प्रयास किया जा रहा है।
यदि जानबूझ कर अन्य व्यक्ति से उत्पन्न पुत्र का ही इच्छुक हो तो उसके लिये भी कुल के अन्य पवित्र व्यक्तियों का चयन किया जा सकता है और इस सम्बन्ध में तो प्रमाण भी है “देवराच्च सुतोत्पत्तिः”, क्षेत्रज पुत्रों के संबंध में तो यह तथ्यात्मक बात है कि देवर से संतान उत्पन्न करना कभी प्रशस्त भी था, कलयुग में निषिद्ध है। अब गंभीर विचार इस प्रकार करना होगा कि जब “देवराच्च सुतोत्पत्तिः” कहकर इसका भी निषेध किया गया है फिर अज्ञात व्यक्ति के वीर्य से पुत्र उत्पन्न करने के लिये तो सोचा भी नहीं जा सकता।
यह नारकीय गति और प्रवृत्ति का बोधक है। हां जब पति का ही वीर्य पत्नी के गर्भ में स्थापन किया जा रहा हो तो उसमें कोई बाधा नहीं है, लेकिन अन्य पुरुष का वीर्य स्थापन यदि किया जा रहा हो तो निश्चित रूप से वह पुत्र नरक का भागी बनायेगा, नरक से मुक्ति नहीं दिला सकता क्योंकि यह शास्त्र सम्मति के विरुद्ध अनैतिक कर्म ही सिद्ध होता है।
भ्रातृणामेकजातानां एकश्चेत्पुत्रवान्भवेत्। सर्वे ते तेन पुत्रेण पुत्रिणो मनुरब्रवीत् ॥ – मनु का वचन है कि कई भ्राताओं में से एक भी पुत्रवान् हो तो सभी पुत्रवान् माने जाते हैं । जब भतीजे के होने पर व्यक्ति पुत्रवान् माना जाता है तो वो लोग निःसंदेह शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करते हैं जो चचेरे मातुल (मामा) के रहते हुये भी संपत्ति लोभ से मातामह (नाना) का श्राद्ध करते हैं। मनु के वचन से यह सिद्ध होता है कि यदि भ्रातृज्य हो तो वह व्यक्ति पुत्रवान् है और उसके श्राद्ध का अधिकारी दौहित्र (नाती) नहीं हो सकता।
मनु के वचन को आधार मानकर एक बार तो यह सिद्ध किया जा सकता है कि दौहित्र की अपेक्षा भ्रातृज्यादि का ही प्रथम अधिकार है, इसलिये यदि भ्रातृज्यादि है तो वही श्राद्ध करेगा और धन-संपत्ति भी लेगा। परन्तु यह निष्कर्ष अंतिम तभी हो सकता है जब आगे इस विषय में और स्पष्ट प्रमाण न मिले। यदि आगे और स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध हो तो निष्कर्ष से पूर्व और विचार अपेक्षित है।
यह तो पूर्व ही स्पष्ट हो गया है कि दौहित्र का अधिकार किस स्थिति में नहीं है लेकिन पुनः स्मरण कराना आवश्यक है यदि नाती नाना का धन नहीं ले तो नाना का श्राद्ध करने का अधिकार नहीं होगा। आगे सर्वप्रथम कात्यायन का वचन लिया गया है जिसमें यह कहा गया कि सपिण्डी, षोडश और वार्षिक श्राद्ध में नाती का अधिकार नहीं होता :
कर्षूसमन्वितं मुक्त्वा तदाद्यं श्राद्धषोडशम् । प्रत्याब्दिकं च शेषेषु पिण्डास्स्युष्षडिति स्थितिः ॥ – कात्यायन पूर्णरूप से स्पष्ट करते हुये कहते हैं कि सपिंडीकरण सहित षोडशश्राद्ध और आब्दिक अर्थात वार्षिक श्राद्धों को छोड़कर शेष सभी श्राद्धों में षट्पुरुषों (पितरों) की उपस्थिति होती है। अर्थात अन्य सभी सभी श्राद्धों में नाती का अधिकार सिद्ध है। आगे भाव यह है कि यदि नाना का धन नाती लेता है तो उसे इन षोडश व वार्षिक श्राद्धों का भी अधिकार प्राप्त होता है, क्योंकि इसका अभाव धन नहीं लेने की स्थिति में ही होता है।
पितृन् मातामहांश्चैव द्विजश्श्राद्धेन तर्पयेत् । अनृणश्च पितॄणां तु ब्रह्मलोकं स गच्छति ॥ – व्यास जी के इस वचन में कहा गया है कि द्विज पित्रादिकों और मातामहादिकों दोनों का तर्पण-श्राद्धादि करे, ऐसा करने वाला पितृऋण से मुक्त होकर ब्रह्मलोक गमन करता है।
कृत्वा तु पैतृकं श्राद्धं पितृमभृतिषु त्रिषु । कुर्यान्मातामहानां च तथैवानृण्यकारणात् ॥ – पुराणों में भी इस प्रकार का वचन मिलता है कि पित्रादिकों के साथ मातामहादिकों का श्राद्ध करना पितृऋण से मुक्तिदायक होता है।
इतना ही नहीं पुराणों में तो मातामहादिकों का पार्वण श्राद्ध करना दौहित्र के लिये अनिवार्य बताया गया है, और नहीं करने पर अर्थात् मातामहादिकों का पार्वण न करके मात्र पित्रादि का करना दोषपूर्ण और नरक देने वाला भी कहा गया है – पार्वणं कुरुते यस्तु केवलं पितृहेतुकम् । मातामह्यं न कुरुते पितृहा स प्रजायते ॥ पितरो यत्र पूज्यन्ते तत्र मातामहा ध्रुवम् । अविशेषेण कर्तव्यं विशेषान्नरकं व्रजेत् ॥
श्राद्धं मातामहानां तु अवश्यं धनहारिणा । दौहित्रेणार्थनिष्कृत्यै कर्तव्यं विधिवत्सदा ॥ – स्कंदपुराण के इस वचन से और अधिक स्पष्ट हो जाता है कि दौहित्र को मातामह के सभी श्राद्ध का अधिकार है एवं यदि मातामह का धन-सम्पति ले तो षोडश श्राद्ध, सपिंडीकरण और वार्षिक श्राद्ध का भी अधिकार प्राप्त हो जाता है।
अपितु आशय तो और अधिक बताया गया है कि यदि दौहित्र धन ग्रहण करे तो श्राद्ध भी अनिवार्य रूप से करे। यहां श्राद्ध कहने का तात्पर्य पार्वण या नान्दी श्राद्ध नहीं हो सकता क्योंकि उसमें तो अधिकार सिद्ध और अनिवार्य ही है। यहां श्राद्ध कहने का तात्पर्य सपिंडीकरण सहित षोडश श्राद्ध और वार्षिक श्राद्धादि ही है जो धन नहीं लेने की स्थिति में प्राप्त नहीं होता है।
पुनः आगे और अधिक स्पष्ट हो जाता है :
मलमेतन्मनुष्याणां द्रविणं यत्प्रकीर्तितम् । तद्गृह्णन् मलमादत्ते दुर्भेदं ज्ञानिनामपि ॥
ऋषिभिस्तस्य निर्दिष्टा निष्कृतिः पावनी परा । आदेहपतनात्कुर्यात्तस्य पिण्डोदकक्रियाम् ॥
धन-संपत्ति मनुष्य का मल होता है और जो धन ग्रहण करता है उसे मल भी प्राप्त होता है जो उसके लिये तत्क्षण दुर्भेद्य हो जाता है अर्थात उस मल से निवृत्ति पाना कठिन होता है। लेकिन ऋषियों ने इसकी निष्कृति हेतु भी पावन कर्म का विधान किया है कि जिसका मल सहित धन प्राप्त हुआ हो आजन्म (आदेहपतनात् – जब तक शारीरिक सामर्थ्य रहे) उसके लिये पिण्ड-जल प्रदान करे।
कुर्यान्मातामहश्राद्धं नियमात्पुत्रिकासुतः । उभयोरपि सम्बद्धः कुर्यात्स उभयोरपि ॥ दौहित्र के लिये पुनः कहा गया है कि वह मातामह का श्राद्ध भी करे। दौहित्र दोनों कुलों से सम्बद्ध होता है इसलिये दोनों पक्षों पितृपक्ष और मातामह पक्ष की भी क्रिया करे।
याज्ञवल्क्य का वचन है – “औरसोधर्मपत्नीजस्तत्समः पुत्रिकासुतः” अर्थात नाती औरस पुत्र के ही समान होता है।
इस प्रकार यहां पर्याप्त प्रमाण दिया गया है और भी बहुत सारे प्रमाण शास्त्रों में हैं जो अवलोकन किये जा सकते हैं। यहां निष्कर्ष तक पहुंचने के लिये इतने प्रमाण पर्याप्त हैं।
पार्वण श्राद्ध और नान्दी श्राद्ध में दौहित्र का सिद्ध अधिकार है जो भ्रातृज्यादि को नहीं होता है। भ्रातृज्यादि एकोदिष्ट में ही अधिकार रखते हैं, पार्वण विधि में नहीं इस कारण भी दौहित्र के अधिकार का पक्ष प्रबल सिद्ध होता है।
जिस समय तक राजकीय रूप से संपत्ति का उत्तराधिकार पुत्री (दौहित्र) को नहीं था अथवा मलत्व दोष के कारण धन ग्रहण नहीं करते थे तब तक उनको सपिंडीकरण सहित षोडश और वार्षिक श्राद्ध का अधिकार ही प्राप्त नहीं होता था। अस्तु इस कारण भ्रातृज्यादि जो धन का उत्तराधिकारी होता था उसे ही सपिण्डीकरण सहित षोडश और वार्षिक श्राद्ध का अधिकार प्राप्त रहता था।
लेकिन वर्त्तमान में जब राजकीय विधि से सम्पत्ति का उत्तराधिकार प्राप्त भी होता है और धन में मलत्व दोष भी नहीं दिखता अर्थात धन ग्रहण करने को आतुर रहते हैं और ग्रहण करते हैं तो सपिण्डीकरण सहित षोडश श्राद्ध और वार्षिक श्राद्ध का अधिकार भी प्राप्त हो जाता है, इसके अतिरिक्त अन्य श्राद्धों का तो अधिकार होता ही है।
एक अन्य पक्ष जो राजकीय विधि से सम्बद्ध है वह ये कि सम्पत्ति के उत्तराधिकार निर्धारण संबंधी प्रावधान में संभवतः इस प्रमाण की अनदेखी की गयी है, विधायिका को चाहिये कि संपत्ति के उत्तराधिकार संबंधी प्रावधानों के लिये इन प्रमाणों का विचार करते हुये पुनः आवश्यक संशोधन करे। जैसे :
- जो श्राद्ध करने का उत्तरोत्तर अधिकारी है उन सबका संपत्ति में उत्तराधिकार होगा।
- संपत्ति का उत्तराधिकारी वही होगा जो आस्तिक हो और श्राद्ध करे।
- जो नास्तिक बन जाता है उसका संपत्ति में भी अधिकार नहीं होगा, भले ही वह पुत्र क्यों न हो।
- जो किसी कारण से पंथपरिवर्तन करके पूजा–पद्धति बदल लेता है अर्थात श्राद्ध नहीं करता है उसको संपत्ति का उत्तराधिकार नहीं होगा।
बिंदुवार क्रम से निष्कर्ष इस प्रकार कहे जा सकते हैं :
- दौहित्र का मातामहादि के लिये पार्वण, नान्दी, तीर्थ, महालय आदि सभी श्राद्धों में अधिकार होता है, संपत्ति का उत्तराधिकारी हो या न हो अनिवार्य कर्तव्य है।
- यदि मलत्व दोष के कारण संपत्ति ग्रहण न करे तो सपिंडीकरण सहित षोडश श्राद्ध और वार्षिक श्राद्ध में दौहित्र का अधिकार भी सिद्ध नहीं होता।
- सम्पत्ति का उत्तराधिकारी जो बने चाहे वह भ्रातृज्यादि सापिण्ड हो अथवा दौहित्र हो उसे ही सपिंडीकरण सहित षोडश श्राद्ध और वार्षिक श्राद्ध का भी अधिकार प्राप्त होता है।
- संपत्ति ग्रहण करने वाला जब तक शारीरिक रूप से समर्थ रहे अर्थात जीवन पर्यन्त वार्षिक, महालयादि श्राद्ध करने के लिये भी शास्त्रीय विधि से वाध्य होता है अन्यथा नरक का भागी होता है क्योंकि ऋण से मुक्त नहीं हो सकता।
आशा है कि इस आलेख से अपुत्रों के सपिण्डीकरण सहित षोडश श्राद्ध और वार्षिक श्राद्ध आदि में दौहित्र व भ्रातृज्यादि सापिण्ड में अधिकार सम्बन्धी विवाद उत्पन्न होता है उसका निस्तारण संभव हो जाता है। हां जो नास्तिक होते हैं अर्थात धर्म और धर्मशास्त्रों में विश्वास नहीं करते उनको तो संपत्ति का उत्तराधिकार ही नहीं होना चाहिये।
इस संबंध में एक प्रश्न और उत्पन्न होता है कि दौहित्र यदि संपत्ति स्वीकार करते हुये श्राद्ध करे तो किस विधि से करे, त्रिरात्र–अशौच अथवा दशरात्र–अशौच किस प्रकार माने ? इस संबंध में भी पर्याप्त प्रमाण संग्रह होने पर अलग से आलेख प्रकाशित किया जायेगा।
नान्दीमुख श्राद्ध विधि pdf श्राद्ध पद्धति book
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
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