मात्र मनुष्य ही नहीं सभी प्राणी दुःखी हैं और दुःख का अंत चाहते हैं। इसमें एक दूसरी बात यह भी है कि प्रत्येक प्राणी अपनी अपेक्षा दूसरे को सुखी समझता है। लेकिन चर्चा तो मात्र मनुष्य की ही करनी होगी क्योंकि अन्य कोई प्राणी दुःख से मुक्ति प्राप्त करने में समर्थ ही नहीं होता, मात्र मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। समस्या एक यह भी है कि दुःख है क्या प्रथमतया यह ज्ञात भी तो हो तभी उससे मुक्ति संभव हो सकती है। क्या आप दुःखों से मुक्ति चाहते हैं ? आइये समझते हैं जीव दुःखी क्यों है और दुःखों से मुक्ति कैसे मिलेगी ?
आप दुःखी क्यों हैं – why are u sad
बात जब दुःख की करें तो एक विषय सर्वप्रथम समझना अत्यावश्यक हो जाता है वो ये है कि संसार का एक नाम ही दुःखालय है। जैसे पुस्तकालय में पुस्तक मिलता है, औषधालय में औषधि, चिकित्सालय में चिकित्सा, विद्यालय में विद्या, वस्त्रालय में वस्त्र उसी प्रकार दुःखालय में क्या होगा या मिलेगा यह समझना अधिक कठिन नहीं है, समस्या इसे मानने और न मानने की है। जो इसे मान लेता है और मुक्तिप्राप्ति का प्रयास करता है वही सफल भी हो पाता है, किन्तु जो इसे स्वीकार ही न करता है वह तो बस दुःखों के मकरजाल में फंसा ही रह जाता है।
औषधालय में पुस्तक, भोजनालय में वस्त्र, पुस्तकालय में चिकित्सा, विद्यालय में औषधि, चिकित्सालय में विद्या क्या कभी इस प्रकार से ढूंढने का प्रयास किया है ? नहीं किया, क्यों नहीं किया क्योंकि कहां क्या उपलब्ध होगा यह नाम से ही समझ आ जाती है, नाम न भी हो तो भी देखकर समझ आ जाता है। यदि कभी ऐसी त्रुटि हो जाये तो वो लज्जित होने का कारण बनता है और त्रुटि का कारण भ्रम होता है।
दुःखालय में सुख
दुःख कोई वस्तु नहीं है दुःख अनभूति है जो शरीर को नहीं मन को प्राप्त होता है, दुःख का अकेला नहीं होता इसका एक साथी भी है और शत्रु भी वो है सुख। सुख और दुःख दोनों की संयुक्त चर्चा ही की जा सकती है एक के सापेक्ष ही दूसरे को समझा जा सकता है, एक दूसरे का अस्तित्व परस्पर संबद्ध है। लेकिन यहां एक प्रश्न पुनः सुरसा बनकर सामने उपस्थित है यदि संसार दुःखालय है तो फिर इसमें सुख कहां से मिलने लगा ?
वास्तविकता यही है कि संसार में सुख नहीं मिलता किन्तु मृगतृष्णावत प्रतीत होता है जिससे दुःख को भोगने के लिये धैर्य की प्राप्ति होती है। जैसे एक मां संतानसुख की आशा में 9 महीने दुःख भोगती है। यदि संतानसुख की आश न हो तो मां दुःख को भोगने का धैर्य धारण नहीं कर सकती। यह सिद्ध भी होता है जिसे संतानसुख नहीं चाहिये होती है (अधिकतर शहरों में) वो गर्भधारण से भी बचने का प्रयास करते रहती है। वो दुःख भोगने का धैर्य धारण नहीं कर सकती और इससे भी अधिक उसे शरीर की चिंता होती है, बच्चा होने के बाद शरीर बिगड़ जाता है ऐसा दुःख दिखाई देने लगता है।
दुःख शरीर को नहीं होता
एक शंका इस बात को लेकर भी उत्पन्न हो सकती है कि दुःख शरीर को कैसे नहीं होता, स्वीकार्यता हेतु प्रमाण आवश्यक है। व्यक्ति की मृत्यु के उपरांत भी शरीर तो रहता ही है, उसका पोस्टमॉर्टम किया जाता है किन्तु उसे दुःख नहीं होता, शरीर को जला दिया जाता है फिर भी उसे दुःख नहीं होता। मृत्यु की बात तो दूर यदि कोई व्यक्ति अचेत भी तो उसके शरीर को कोई सुख-दुःख नहीं मिलता, ऑपरेशन कर दिया जाता है। दुःख के विषय में विचार करने से पूर्व इस शंका का निवारण है।
इसे एक अन्य प्रकार से भी प्रमाणित किया जा सकता है, जब व्यक्ति शयन में होता है तो उसे सुख या दुःख क्या होता है ? सोते हुये मनुष्य का भी मन चलायमान रहता है और स्वपनलोक में भ्रमण करता रहा है और स्वप्नलोक की स्थिति जग्रतावस्था के सदृश ही होती है जहां सुख या दुःख स्वेच्छा से प्राप्त नहीं किये जा सकते, लेकिन समझने की बात ये है कि जब व्यक्ति का शरीर निश्चेष्ट हो जाता है उसकी एक सी स्थिति बनी रहती है फिर भी वह स्वप्न में हंसता – रोता क्यों है ? स्वप्न में जो सुखी हो रहा होता है या दुःखी वो कौन होता है ? शरीर होता है क्या : नहीं !
दुःख शरीर को नहीं होता इसे पुनः एक अन्य प्रकार से समझते हैं। पहला सुख निरोगी काया कहा गया है, लेकिन पूर्णरूपेण स्वस्थ व्यक्ति का दुःखी नहीं होता ? इस विषय पर आप अपने आस-पास के कुछ ऐसे लोगों को ढूंढिये जो पूर्णरूपेण स्वस्थ हो, फिर ज्ञात कीजिये वह सुखी है या दुःखी ? एक स्वस्थ मनुष्य भी दुःखी होता है और सबके-सब किसी न किसी प्रकार से दुःखी ही मिलेंगे। इसका भी तात्पर्य यही है कि दुःख शरीर को नहीं होता।
बहुत लोगों को एक अतिरिक्त दुःख यह भी है कि वो शरीर को दुःख होता है ऐसा भ्रम पालकर और अधिक दुःखी होते रहते हैं। जिस दिन यह ज्ञान हो जाता है कि सुख – दुःख मन की अनुभूति है, शरीर को नहीं होता है उसी दिन से दुःख का भार थोड़ा कम हो जाता है। किन्तु इसे शब्दों से समझना और स्वीकारना सरल नहीं होता। इसके लिये चिंतन-मनन की भी आवश्यकता होती है और चिंतन-मनन के लिये वर्तमान युग में समयाभाव हो गया है। धर्म और अध्यात्म का तात्पर्य कुछ काल पूजा करने का स्वांग करना मात्र समझा जाने लगा है।
धर्म-अध्यात्म से संबंधित पूजा आदि करने के स्वांग से भी आपको एक बार असहमति हो सकती है इसे स्वांग क्यों कह रहे हैं, लोग मन से करते हैं। लेकिन आप विचार करके देखें एक अधिकारी को अपने कार्य के संबंध में ज्ञात होता है क्या करना है, कैसे करना है, क्या नहीं करना है आदि, इसी प्रकार एक प्रतिनिधि से लेकर मंत्रियों तक को यह ज्ञात होता है। किन्तु जब वो किसी पूजा-आरती के लिये जाता है तो उसे पूजा-आरती के संबंध में कुछ ज्ञात नहीं होता कि क्या नियम है कैसे करना है ?
कोई-कोई भी यदि पूजा के लिये शास्त्र विहित वस्त्र धारण कर पूजा करते दिखे यह अपवाद ही होगा, सबके सब सर्ट-पेंट, कुर्ता-पैजामा आदि पहनकर ही पूजा करते दिखते हैं। उनसे पूछिये कि विशेष मंदिर में पूजा-आरती आदि करने से पहले कम-से-कम क्या उस दिन उन्होंने नित्यकर्म किया था ? उत्तर मिलेगा नहीं अथवा वो जो करते हैं उसे ही नित्यकर्म सिद्ध करने का प्रयास करेंगे, शास्त्रों के अनुसार नित्यकर्म क्या है इसका ज्ञान भी नहीं होगा। तात्पर्य स्पष्ट है वो स्वांग ही रचते हैं, पूजा-आरती नहीं कर रहे होते।
संभव है अब इस विषय में भी सहमति हो गयी होगी कि वर्त्तमान युग का मनुष्य धर्म-अध्यात्म का अर्थ मात्र कुछ काल के लिये पूजा करना, मंदिर जाना ही लेता है और स्वांग मात्र करता है। लेकिन बहुत लोग अभी भी इस विषय में असहमत हो सकते हैं, कुतर्क भी कर सकते हैं कि लोगों के पास समय ही नहीं है कि धर्म-अध्यात्म को सीखे समझे, जो कर रहा है जैसे कर रहा है उसे ही पर्याप्त माना जाय। किन्तु ये पर्याप्त मान लेने से तो ये सिद्ध नहीं होगा कि वो स्वांग नहीं रच रहा है।
स्वांग और दुःख
स्वांग ही दुःख का कारण है, स्वांग का कारण अज्ञान है। जो स्वांग दुःख निवृत्ति का कारण है वो तो नहीं करते किन्तु जो स्वांग नहीं करना चाहिये अर्थात जो वास्तव में कर्तव्य है उसके लिये स्वांग मात्र रचते हैं और एक अतिरिक्त स्वांग भी रचते हैं कि दुःखी नहीं हैं। दुःखी हैं किन्तु इस तथ्य को अस्वीकार करते हैं और दुःखनिवृत्ति का प्रयास ही नहीं करते। समस्या ये है कि दुःख तो है ही और दुःखनिवृत्ति के प्रयास में भी दुःख ही दिखता है। इसलिये दुःख ही नहीं है ऐसा स्वांग रचने लगते हैं, जो कि दुःख के आग में घी का कार्य करता है।
एक नाटक में यदि किसी पात्र की मृत्यु होती है तो क्या उस पात्र के अभिनयकर्ता को मृत्यु का दुःख होता है ? नहीं होता है, क्यों नहीं होता क्योंकि वह इस तथ्य से भिज्ञ होता है कि ये अभिनय है, स्वांग है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यही तो समझाया था कि ये संसार एक रंगमंच है और तुमको उसमें अपनी भूमिका का अभिनय/स्वांग/निर्वहन करना मात्र है, यदि तुम न भी करोगे (युद्ध नहीं करोगे) तो भी परिणाम में परिवर्तन नहीं होगा (सभी योद्धा काल के गाल में समाने वाले हैं यह दिखाया), पात्र की कमी नहीं है कोई दूसरा पात्र इस भूमिका का निर्वहन कर लेगा, स्वांग रचेगा।
अर्जुन ने कहा पाप का क्या करें, इतने प्राणियों के प्राण जायेंगे फिर पाप तो लगेगा। भगवान श्रीकृष्ण ने फिर समझाया यही स्वांग/भूमिका समझकर निर्वहन करोगे तो पाप नहीं लगेगा, किन्तु कर्तापन के भाव से करोगे तो पाप लगेगा। तुम्हें युद्ध करना भी है किन्तु एक अभिनय/स्वांग की तरह समझकर करना है, क्योंकि तुम्हारी यही भूमिका निर्धारित है। यदि भूमिका का निर्वहन करोगे अर्थात अभिनय/स्वांग मात्र करोगे तो पाप नहीं लगेगा।
संसार में प्रत्येक मनुष्य की भूमिका पूर्वसुनिश्चित या निर्धारित है, किसी का पति-पत्नी, पिता-पुत्र, भाई-बहन, मित्र-शत्रु, प्रधानमंत्री-नेता प्रतिपक्ष आदि। किन्तु अज्ञानतावश इसमें वास्तविकता का भान होता है और वास्तविकता (भूमिका मात्र) का बोध नहीं होता।
जब तक अज्ञान का ये आवरण बना रहता है तब तक वह भूमिका वास्तविक प्रतीत होती है और उस भूमिका से संबंधित दुःखों की अनुभूति भी करते रहते हैं, यदि ये भूमिका है यह ज्ञान हो जाये स्वांग रचना है/अभिनय करना है ये समझ में आ जाये तो जिस प्रकार नाटक में मृत्यु को प्राप्त होने वाला पात्र भी मृत्यु के दुःख से दुःखी नहीं होता उसी प्रकार जिसके अज्ञान का आवरण हट जाता है उसे भी सांसारिक भूमिका से संबद्ध दुःखों का दुःख नहीं होता है।
सीताहरण के उपरांत भगवान राम जो वन में भटक रहे थे और “हे खग हे मृग मधुकर श्रेणी। तुम देखी सीता मृगनयनी” का विलाप कर रहे थे वह स्वांग ही तो था, न तो राम दुःखी थे और न ही वो दुःख था। उन्हें तो पूर्व से ही ज्ञात था कि सीताहरण होना है, सीता को अग्निनिवास के लिये भेज दिया और छाया सीता को हरण के लिये जो पूर्वकाल में वेदवती थी कुटिया में रखा। राम को तो ज्ञात था कि सीता का हरण नहीं हुआ है फिर वो विलाप क्यों कर रहे थे ? विलाप नहीं विलाप का स्वांग कर रहे थे।
मनुष्य के जीवन में यही होता है, उसकी भूमिका व होनी सभी पूर्वसुनिश्चित है अंतर मात्र इतना है कि नाटक में पात्र को अंत तक ज्ञात होता है, किन्तु जीवन के नाटक में अगले क्षण के बारे में भी कुछ ज्ञात नहीं होता है। ये अलग प्रश्न होगा कि अंत तक का ज्ञान क्यों नहीं होता है ? यदि प्रयास किया जाये तो अंत तक का ज्ञान भी हो सकता है और इसके प्रमाण भी हैं बहुत सारे लोग अपनी मृत्यु की तिथि और समय पहले से ही स्वजनों को बता देते हैं। किन्तु यदि ये बात ज्ञानी को ही ज्ञात होती है। सबको ज्ञात नहीं हो सकता, कदाचित मूर्खों को ज्ञात हो जाये तो वह टालने का निरर्थक प्रयास करते हुये पापाचारी हो जाता है। रावण, कंस इसका उदाहरण है।
कुछ लोगों को लग सकता है की मूल में पहुंच गये, दुःख का कारण क्या है और निवारण क्या है सब स्पष्ट हो गया …. किन्तु …. इतिश्री यहां नहीं होती है यहां से अथश्री हो रहा है जो कि आगे के अन्य आलेखों में चर्चा की जायेगी।
इस आलेख का आगामी भाग जब प्रकाशित होगा तो उसके लिये यहां लिंक दिया जा रहा है। तत्काल यह लिंक कार्य नहीं करेगा इस लिंक का आलेख कुछ दिनों बाद प्रकाशित होगा। अगला भाग पढ़ें ….
F & Q :
पूजा पाठ करने वाला दुखी क्यों रहता है
पूजा पाठ करने वाला दुखी क्यों रहता है ये एक सामान्य प्रश्न है और इसके उत्तर से लोगों को दिग्भ्रमित किया जाता है। ये प्रश्न भी जनमानस को धर्म-अध्यात्म से विमुख करने के लिये ही उठाया जाता है। इस प्रश्न से ही ऐसा प्रतीत होता है कि मानो पूजा-पाठ करने वाला ही दुःखी होता है, इसलिये पूजा-पाठ करना ही बंद कर दो। यह एक षड्यंत्र है। इस विषय में हम कोई दृष्टान्त नहीं सिद्धांत को समझेंगे। इसकी विस्तृत चर्चा भी स्वतंत्र आलेख में करेंगे।
“दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय” ये सिद्धांत है ये शास्त्रों के वचन का ही अनुवाद है, स्वतंत्र वचन नहीं। पूजा-पाठ, जप, व्रत आदि करने वाले व्यक्ति को दुःख नहीं होता, दुःखी व्यक्ति ही करता है। सुखी व्यक्ति भोग में रत रहता है। दुःखी और सुखी में भी अंतर मात्र इतना है कि एक स्वयं को सुखी समझने का अज्ञान पालता है और एक दुःखी होने का। वास्तव में जो सुखी होने का अज्ञान पालता है वही अधिक दुःखी होता है। जिसे दुःख का अज्ञान है वह संभवतया दुःख से पार भी पा सकता है किन्तु जो सुख के भ्रम में जी रहा होता है वह दुःख के मकरजाल में फंसा रहता है।
महाभारत के उपरान्त के बार जब कृष्ण और पांडवों का मिलन हुआ था तो कुंती ने भगवान कृष्ण से दुःख की याचना किया था, भगवान कृष्ण ने पूछा ये उलटी गंगा क्यों बहा रही हो, सब सुख मांगते हुये कभी नहीं थकते और तुम दुःख मांग रही हो। तो कुंती ने कहा दुःख में तुम आते हो, सुख में तुम्हें भुला देने का भय है और सुख में तुम्हारा दर्शन नहीं होगा ये भय भी है, तुम्हारे दर्शन से तो भवरोग का भी निवारण हो जाता है। प्रमाण यह नहीं है कि पूजा-पाठ करने वाला दुःखी होता है, प्रमाण यह है कि दुःखी पूजा पाठ करता है। उसे भी पूजा-पाठ, धर्म-अध्यात्म से विमुख करने का षड्यंत्र है यह प्रश्न।
प्रश्न : संसार में क्या मिलता है ?
उत्तर : संसार का एक नाम दुःखालय भी है और संसार में दुःख ही मिलता है। यदि किसी कारण से कदाचित सुख की आशा भी हो तो वह भी वास्तव में दुःखदायी ही होता है। जैसे किसी को यदि धन नहीं है तो धन प्राप्ति से सुख की आशा होती है। पहली बात धनप्राप्ति के लिये भी दुःख होता है, पुनः धन का संचय कर पाना भी दुःखदायी ही होता है क्योंकि भोग नहीं करते और अंत में धन को संरक्षित रखना भी दुःखदायी ही होता है। सदा धन नष्ट होने का भय व्याप्त रहता है।
प्रश्न : दुःख क्या है ?
उत्तर : दुःख मन की अनुभूति है, कुछ लोग कल्पना भी कहते हैं किन्तु कल्पना नहीं है। दुःख वास्तविकता है जिसका अनुभव होता है। शरीर में व्याधि होना, बारम्बार जन्म-मृत्यु लेना ये कल्पना मात्र नहीं है। ये दुःख है और इसकी अनुभूति होती है। किन्तु एक सत्य यह भी है कि दुःख शरीर को नहीं होता है।
प्रश्न : चोट, रोग आदि तो शरीर को ही मिलता है फिर दुःख शरीर को कैसे नहीं होता ?
उत्तर : चोट, रोग आदि का अनुभव भी जीवित प्राणी को ही होता है और दुःखी मन ही होता है। मृत प्राणी के शरीर को जला देने पर भी उस शरीर को कोई दुःख नहीं होता। यदि चोट, रोगादि न हो पूर्णस्वस्थ मनुष्य भी हो तो भी वह नाना प्रकार से दुःखी रहता है।
प्रश्न : स्वांग क्या है और क्या स्वांग से दुःख का निवारण हो सकता है ?
उत्तर : स्वांग का तात्पर्य है अभिनय, किसी भूमिका का निर्वहन करना। जैसे किसी नाटक में कोई पात्र जो अभिनय कर रहा है वह रोता दिखता तो है किन्तु वास्तव में वह रोता नहीं है स्वांग करता है, और उसे ज्ञात भी होता है कि ये उसे स्वांग मात्र करना है दुःख नहीं है। उसी प्रकार वास्तविक जीवन में भी यदि व्यक्ति संसार को रंगमंच मानकर अपनी भूमिका को स्वांग माने और स्वांग मात्र करे तो वह दुःखी नहीं होगा।
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