लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजियउ तेहु॥

लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजियउ तेहु॥

भक्ति की असीम शक्ति के कारण भारत का सामान्य जनमानस भक्त जैसा स्वरूप मात्र देखकर भी सम्मान देने का है, दान-दक्षिणा-भोजन-मान-सत्कार आदि करने करने का है। नगरों की बात छोड़ दें तो गांवों में आज भी किसी साधु-महात्मा आदि; जो वेश मात्र धारण करते हैं उनके लिये भी किसी घर में रोक-टोक नहीं होता है, लोग घरों में बैठाकर श्रद्धापूर्वक भोजन भी कराते हैं यथासंभव वस्त्र-दक्षिणादि भी प्रदान करते हैं। लेकिन कुछ लोग जो जनमानस को लूटने का काम करते हैं इसी जनभावना का अनुचित लाभ भी उठाते हैं और राष्ट्रीय स्तर तक भी ठगने का काम करते हैं। इस आलेख में उनके ऊपर भी चर्चा की गयी है।

गोस्वमी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है : “लखि सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजियउ तेहु॥” अर्थात दुनियां में ऐसे भी लोग हैं जो वेशमात्र से भी पूजित होते हैं। ऐसा वर्तमान में ही हो रहा है ऐसी कोई बात नहीं नहीं है, पाखंडी भी प्राचीन काल से ही रहे हैं। सामान्य जनभावना का अनुचित लाभ लेकर ठगने का कार्य करते रहे हैं। सामान्य नियम यही है कि जनसामान्य वेशमात्र धारण करने वाले का भी सम्मान करते ही हैं और पुण्यकर्म की भावना से करते हैं व पुण्य के भागी बनते भी हैं। यदि पुण्य का अभाव होता तो ऐसा भी सिद्धांत होता है वेशमात्र से विश्वास न करो परीक्षा लेकर विश्वास करो किन्तु परीक्षा का ही निषेध है।

अनेकों भक्तचरित्र में ऐसी भी घटनाओं का वर्णन मिलता है जिसमें भगवान ही परीक्षा लेने के लिये भक्त के घर जाते हैं और अनुचित मांग करते हैं। भक्त अपने नियम का पालन करते हुये जो भी त्याग करना पड़े त्याग करता है व बिना परीक्षा लिये अनुचित मांग को भी स्वीकार करता है और पूर्ति करता है। बाद में भगवान वास्तविक स्वरूप धारण करके भक्त को वरदान भी प्रदान करते हैं। जनभावना और भारतीय परंपरा या व्यवहार यही है कि गांवों के लोग आज भी “न जाने किस वेश में नारायण मिल जाय” में विश्वास रखते हैं भले ही कितने ही पाखंडियों ने ठगा क्यों न हो।

पाखंडी ठग धूर्त कथित बाबा

वर्तमान समय में साधारण ठग ही नहीं बड़े-बड़े ठग बाबा का वेश धारण किये हुये हैं, कोई बड़ा कथावक्ता बना हुआ है और ट्रस्ट आदि बनाकर लूटने का प्रयास कर रहा है तो कोई स्वयं को शंकराचार्य भी बना चुका है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी शंकराचार्य पद के विषय में किसी विशेष व्यक्ति को अस्वीकार कर दिया है, विभिन्न अखाड़ों ने भी अस्वीकार कर दिया है फिर भी वो व्यक्ति शंकराचार्य कहा जा रहा है। राम लला की प्राण प्रतिष्ठा के प्रकरण में भी बहुत ही हो-हल्ला किया था, बहुत लोग तो उसे कांग्रेसाचार्य भी कहने लगे हैं।

कथित शब्द का प्रयोग बड़ी मात्रा में किया जाता है और पाखंडियों, धूर्तों, ठगों के लिये भी कथित बाबा शब्द का ही प्रयोग होना चाहिये बाबा का नहीं। कथित बाबाओं की संख्या वर्तमानकाल में अत्यधिक हो गयी है, मीडिया ने कथित बाबाओं का ही प्रचार-प्रसार किया है। मीडिया की दुकान कथित बाबाओं के माध्यम से ही चल सकती है वास्तविक बाबाओं के द्वारा दुकानें बंद होने का ही भय है क्योंकि मीडिया ने जनमानस में भ्रम का वातावरण बना रखा है। वास्तविक बाबा, भक्त, ज्ञानी भ्रम का निवारण करेंगे न कि अपनी दुकान चलायेंगे और साथ ही साथ मीडिया की भी।

कथित बाबाओं को दो वर्ग में विभाजित किया जा सकता है एक कथावक्ता और दूसरे ज्योतिषी। बात जब कथावक्ता की होती है तो वो चैनल भी मीडिया के अंग ही समझे जा सकते हैं जो मीडिया नहीं हैं, अर्थात समाचार प्रसारित नहीं करते हैं कथा आदि ही प्रसारित करते हैं। लेकिन ज्योतिषी के विषय में मीडिया प्रत्यक्ष रूप के व्यापार करती है। मीडिया व्यापार करती है इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता किन्तु बात जब जनमानस में भ्रम उत्पन्न करने की हो तो निःसंदेह अनुचित कहा जा सकता है।

बड़े-से-बड़े कथावक्ताओं के संबंध में कुछ सामान्य तथ्य ही ऐसे हैं को सभी देख सकते हैं और समझ सकते हैं कि वो कितने आस्तिक हैं, अर्थात शास्त्रों में, ईश्वर में कितना विश्वास रखते हैं अथवा शास्त्रोक्त नियमों का कितना उल्लंघन करते हैं ?

कुछ ही ऐसे प्रसिद्ध वक्ता हैं जो दाढ़ी बढ़ाकर रखते हैं अन्यथा अधिकतर कथावक्ता ऐसे ही हैं जो सप्ताह पारायण, नवाह पारायण करते हुये भी प्रतिदिन दाढ़ी मुंड़वाते ही हैं। सामान्यजन भी जो अल्पज्ञ होते हैं या माने जाते हैं; जब कुछ दिनों का पूजा-अनुष्ठान करते हैं तो उसके मध्य में नख-दाढ़ी आदि नहीं कटवाते हैं। ये बड़े-बड़े कथावक्ता एक ऐसा कुतर्क करके कि ये शरीर की सफाई है और करने में कोई निषेध नहीं है कहकर स्वयं को सही सिद्ध करने का भी प्रयास करते हैं। तथापि ये उनकी अल्पज्ञता है, ये शास्त्रविरुद्ध आचरण है जिसका उन्होंने न तो अध्ययन किया है न जानने का प्रयास।

कर्मकांड में जब कभी भी क्षौरकर्म की आज्ञा कही गयी है तो दाहसंस्कार और तीर्थश्राद्ध के अतिरिक्त सर्वत्र एक दिन पूर्व ही क्षौर का नियम भी कहा गया है। उसके उपरांत कथा हो, अनुष्ठान हो यज्ञ हो मध्य में निषेध ही होता है अथवा आरंभ के दिन भी निषिद्ध ही होता है। ये अकारण नहीं है इसका कारण भी है। क्षौर कराते समय छूड़ी (ब्लेड) लगने अर्थात कटने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता है, यदि एक बूंद रक्त भी निकल जाये तो उस दिन स्रावाशौच/क्षतजाशौच हो जाता है। अशौच के तीन प्रकार होते हैं मरणाशौच, जननाशौच और स्रावाशौच/क्षतजाशौच।

जिस व्यक्ति को न तो यह ज्ञान है, न ही जनसामान्य में प्रचलित परंपरा का ही पालन करने की प्रवृत्ति है वो बड़ा कथावक्ता बनकर प्रतिदिन कहीं न कहीं लाखों व्यय कराकर प्रवचन कर रहा होता है। वो कथित कथावक्ता ही तो है। वो व्यापार मात्र ही तो कर रहा है। यदि शास्त्र अध्ययन में रूचि होती जैसा कि ज्ञानयज्ञ घोषित करते रहते हैं तो भी शास्त्रों से यह तथ्य ज्ञात हो जाता, अन्यथा सामान्य परंपरा मात्र मानकर भी पालन करते।

दूसरी बात ये है कि लगभग सभी प्रसिद्ध कथावक्ता जो दूरदर्शन के माध्यम से देखे जाते हैं लगभग सभी मेकअप करके कथा करते हैं ताकि सुंदर दिखें। जो व्यक्ति सौंदर्य प्रसाधनों का प्रयोग करके घंटों तक रूप ही संवारता रहता है वह कितना बड़ा ज्ञानी है यह भी सरलता से समझा जा सकता है। ज्ञानी का सौंदर्य ज्ञान होता है न कि सुंदर दिखना। यज्ञ-अनुष्ठान क्रम में सभी प्रकार के अपद्रव्यों का प्रयोग निषिद्ध होता है। सौंदर्य-प्रसाधन अपद्रव्य की श्रेणी में ही आते हैं, निर्माण सामग्री, निर्माण विधि और निर्माण करने वाला व्यक्ति सभी पर प्रश्नचिह्न रहते हैं।

तीसरी बात जितना बड़ा ज्ञानी उतना अधिक शास्त्राज्ञा का पालन स्वतः सिद्ध होता है अन्यथा ज्ञान भी भार ही है। जिसकी कथा दूरदर्शन पर प्रसारित होती है वह बड़ा कथावाचक ही माना जाता है, बड़ा ज्ञानी माना जाता है। यदि उतने ही बड़े ज्ञानी होते हैं तो सिले वस्त्र (कुर्ता/शेरवानी आदि) क्यों धारण करते हैं। ये तो सामान्य नियम है कि सिला वस्त्र अशुद्ध होता है। या तो अज्ञानी हैं और इतने सामान्य नियमों को भी नहीं जानते या खुले में शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करते हैं।

कुछ वर्ष पूर्व तक कोई भी किसी प्रकार से जनसामान्य से धन नहीं मांगता था, अब खुले में ट्रस्टों के नाम पर धन मांगते रहते हैं। कथावाचकों का कार्य कथा-प्रवचन करना है न कि ट्रस्ट चलाना। कोई ये भी कह सकता है कि हम ट्रस्ट नहीं चलाते हैं जो ट्रस्ट अच्छा कार्य करता है उसमें सहयोग करने के लिये प्रेरित करते हैं, कोई जनकल्याण की बात भी कर सकता है। ये तो ठीक वैसा ही है जैसे सोना त्याग कर लोहा लेना। जितना ही समय धन मांगने और जनकल्याण कहकर ट्रस्टों में व्यतीत करते हैं उतने काल के लिये ज्ञान का तिरस्कार कर देते हैं।

इसी प्रकार और भी कई ऐसे तथ्य हैं जिससे ऐसे कथावक्ता मात्र कथित बाबा ही सिद्ध होते हैं, ज्ञानी अथवा भक्त नहीं। यदि भक्त अथवा ज्ञानी होते तो जनसामान्य के लिये भी उपलब्ध रहते, सुरक्षा की चिंता नहीं करते। न ही ज्ञानी को मृत्युभय हो सकता है न ही भक्त को।

बेष प्रताप पूजियउ तेहु

अब प्रश्न आता है कि ये क्या बड़े-बड़े प्रसिद्ध कथावाचकों तक को इस प्रसंग में क्यों लपेटा गया है ? ये बड़े-बड़े कथावाचक तो राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर तक ख्यातिप्राप्त करते हैं, विद्वान समझे जाते हैं और जो बोल दें लोग उसे पत्थर की लकीर तक समझ लेते हैं। किन्तु सच्चाई यही है कि “बेष प्रताप पूजियउ तेहु” के ही उदाहरण हैं, विद्वान अथवा ज्ञानी अथवा भक्त आदि नहीं कथित ही होते हैं। इनकी चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि पाखंडियों का भेद खुलने के उपरांत ये लोग स्वयं के व्यापार हेतु प्रसन्न ही होते हैं, जनमानस भी इन्हें सही समझती है।

इनकी चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि ये लोग भी उसी श्रेणी में आते हैं तो उनकी क्या चर्चा करें जो इनकी तरह कोई कथा तक भी नहीं कह पाते, पूर्णरूपेण शास्त्र विरुद्ध गतिविधि में संलिप्त रहते हैं। कोई स्वयं को ही भगवान घोषित कर देता है तो कोई फूंक-फूंक का रोग छुड़ाता है। ऐसे ठगों के बारे में उन बड़े-बड़े कथावाचकों को जानकारी होती है किन्तु भयवश किसी का भेद नहीं खोलते, अपना व्यापार भी ठप न हो जाये यह सोचकर जनमानस को ठगी का शिकार होने के लिये छोड़ देते हैं।

हमारा उद्देश्य इन लोगों की निंदा करना भी नहीं है मात्र जनमानस को सच्चाई से अवगत कराना है यदि सत्य बताया न जाये तो ये सब मिलकर अपना व्यापार करते रहेंगे और जनमानस लुटती रहेगी, ठगी जाती रहेगी। यदि कथित बाबाओं की दुकानें बंद करनी है तो पहले इन कथित कथावाचकों को जो ख्यातिप्राप्त हैं प्रतिदिन दूरदर्शन के माध्यम से देश व दुनियां के लिये प्रवचन करते हैं आत्मसुधार करना होगा। जब तक इनके बारे में चर्चा न की जाय, मौन रहा जाय तब तक ये लोग भी बस व्यापार मात्र ही करते रहेंगे।

ये लोग भी मात्र किसी एक-दो पुराण का वक्ता होने का ही भ्रम रखते हैं, ज्ञानी होने का अहंकार नहीं पालते किन्तु कुछ लोग अहंकारी भी हो जाते हैं व कुछ लोग भक्त होने का भी दंभ भरते हैं। अपनी कथाओं में स्वयं की भक्ति और भगवद्कृपा प्राप्ति की का भी उल्लेख करते हैं।

ये लोग स्वयं ही इस अज्ञान के भ्रम में फंसे हैं कि भक्त हैं, जो भवितव्यता है अर्थात जितना धन, जितनी ख्याति मिलनी थी वो तो मिल रही है किन्तु उसे भगवद्कृपा सिद्ध करते हुये स्वयं को भक्त सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। जब जनमानस के मन में ये भक्त स्वयं के लिये भक्त का भाव भरते हैं तो ये भी एक प्रकार से ठगी ही है।

इतनी चर्चा के बाद ये कहा जा सकता है कि यदि विख्यात बाबा धर्मध्वजवाहक बनें तो राजनीति में भी पर्याप्त सुधार हो सकता है, जनमानस की सोच में भी पर्याप्त सुधार हो सकता है और ये लोग जितना धर्ममार्ग का त्याग करेंगे राजनीति आदि करने वाले उससे सौ गुना अधिक करेंगे। इन लोगों की स्थिति तो ऐसी है कि सत्य बोल भी नहीं पाते, राजनीति वर्णशंकरता को बढ़ावा दे रही है और ये लोग वर्णशंकरता पर पांच पंक्ति बोलने का भी साहस नहीं रखते।

दूसरी तरफ सभी नेताओं के गुरु बनने का भी दंभ रखते हैं, जब भय, लोभ आदि किसी कारण से सत्य न बोलकर प्रिय बोला जाय तो वह विनाश का कारण बनता है : “सचिव वैद्य गुरु तीनि जौं, प्रिय बोलहिं भय आश। राज धर्म तन तीनि कर, होई बेगहिं नाश”

लेकिन ये नहीं कहा जा सकता कि सबको त्याग दिया जाय, सबके बारे में चर्चा की जा सकती है, सुधारात्मक प्रयास किये जाने की आवश्यकता है। ये लोग क्या और कितना लूटेंगे, इन्हें तो स्वयं ही लोग प्रदान करते हैं भले ही भ्रमित होकर करें या जैसे करें। ये सभी मिलकर भी जितना धन ले सकते हैं उससे कई गुना अधिक तो एक-एक नेता लूट लेते हैं। नेता आदि तो मांगकर भी नहीं लेते प्रत्यक्ष रूप से लुटते हैं, ये लोग तो मांगकर ही लेते हैं, मांगकर लेना लूट नहीं कहा जा सकता। कुछ भी हो ये लोग दो चार भजन ही सही कराते तो हैं, भगवान का गुणगान करते तो हैं।

इन्हें ठग नहीं कहा जा सकता, पाखंडी कहना भी उचित नहीं होगा, क्योंकि चलो ये मान लिया तत्काल ज्ञानी अथवा भक्त नहीं हैं किन्तु प्रयासरत तो हैं। जो ज्ञानी अथवा भक्त हो वह किसी वस्तु, धन आदि की अपेक्षा रखता ही नहीं है, जो ज्ञानमार्ग अथवा भक्तिमार्ग पर चलने के लिये प्रयासरत होते हैं वही धनादि की अपेक्षा रखते हैं। जिसे अपेक्षा हो उसे दिया जाना उचित ही होता है। किन्तु इनका कार्य है कि राष्ट्रीय स्तर पर जो पाखंडी-ठग आदि हैं उनको नियंत्रित करने की दिशा में प्रयास करें, जनसामान्य को इतना ज्ञान देना तो इनका कर्तव्य है कि वो कालनेमियों को पहचान सके।

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