सनातन में जीवन का उद्देश्य आत्मकल्याण है न कि भौतिक सुख-भोग प्राप्त करना। क्योंकि भौतिक सुख-भोग; यथा : आहार-निद्रा-मैथुन आदि तो अन्यान्य योनियों में भी प्राप्त होता है और मनुष्य अन्य पशुओं के समकक्ष नहीं है एवं इन्हीं विषयों की प्राप्ति हेतु मनुष्य शरीर की प्राप्ति नहीं होती है। जब तक इन सुख-दुःखों की प्राप्ति मात्र करना होता है तब तक मानव योनि की प्राप्ति नहीं होती। मानव योनि की प्राप्ति भाग्योदय से आत्मकल्याण हेतु होती है। – Puja Kya hai
इसी कारण सनातन में आत्मकल्याण के विभिन्न उपाय-मार्ग बताये गये हैं और सनातन को ही धर्म कहा गया है। विभिन्न उपायों में से आत्मकल्याण का एक उपाय पूजा भी है और इस आलेख में पूजा की विस्तृत व्याख्या करते हुये अनेकों प्रश्न के उत्तर भी दिये गये हैं।
पूजा क्या है – Puja Kya hai
पूर्जायते ह्यनेन इति पूजा :- पूः अर्थात भोग और जायते अर्थात उत्पन्न करने वाली; तात्पर्य यह होता है की जिस कर्म से भोग की प्राप्ति हो वह कर्म पूजा है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष पुरुषार्थचतुष्टय की सिद्धि में भी पूजा सहायिका होती है।
पूजा स्वयं धर्माचरण है अतः धर्म तो स्वतः सिद्ध हो रहा है, अर्थ सिद्धि हेतु भी प्रतिकूलताओं का निवारण करती है, काम तो मुख्य परिभाषा में ही सन्निहित है सुखों/भोगों को उत्त्पन्न करने वाली और मोक्ष प्राप्ति के लिये भी सहायता प्रदान करती है क्योंकि आध्यात्मिक प्रगति के लिये पूजा तो प्रार्थमिक और अनिवार्य कर्म है।
पूजा किसकी करनी चाहिये ?
पूजा का जो फल प्रदान करने में जो सक्षम हो उसकी पूजा करनी चाहिये।

पूर्जायते ह्यनेन इति पूजा
प्रत्येक मनुष्य जीवन में सुख, समृद्धि, शांति आदि की इच्छा करता है और जीवन के बाद भी स्वर्गादि की प्राप्ति हो। ये सभी कामना हैं जो दो प्रकार के सिद्ध होते हैं; पहला लौकिक और दूसरा पारलौकिक।
शास्त्रों में चार पुरुषार्थ कहे गये हैं – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। लेकिन पुरुषार्थ चतुष्टय भी इन दोनों प्रकारों में सन्निहित है। पूजा की सामान्य परिभाषा इस प्रकार से की जाती है कि “जो लौकिक व पारलौकिक सुखों/भोगों को उत्त्पन्न करती है वही पूजा है।” – पूर्जायते ह्यनेन इति पूजा

पूजा का फल क्या है ?
पूजा का फल लौकिक एवं पारलौकिक भोग या सुख है।
भगवान मोक्ष भी प्रदान करते हैं, किन्तु अन्य देवता लौकिक एवं पारलोकिक सुख अर्थात स्वर्ग प्रदान करते हैं। अर्थात अन्य देवी देवताओं की पूजा से धर्म-अर्थ-काम की सिध्दि होती है किन्तु भगवान की पूजा से मोक्ष की सिद्धि भी हो सकती है। और इसलिये पूजा की अन्य परिभाषा इस प्रकार से की जाती है – “जल, गंध, पुष्प, पत्रादि द्रव्यों द्वारा देवताओं की आराधना/अर्चना करना पूजा है।”

- अब तो पत्र लिखने की बात ही समाप्त हो गई नहीं तो पत्रलेखन में पूज्य शब्द मनुष्यों के लिये भी प्रयुक्त होता था।
- “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः” – यहाँ नारी पूजा की बात भी कही गयी है।
- माता, पिता, गुरु, ब्राह्मण की पूजा भी करनी चाहिये, अतिथि की भी पूजा करनी चाहिये, राजा भी पूज्य होता है …. आदि आदि।
- आदर-सम्मांन-सेवा करना भी पूजा ही मानी जाती है।
- नारी पूजा का तात्पर्य है आदर देना, संतुष्ट रखना; न की देवताओं की तरह पूजा के विभिन्न द्रव्यों से पूजा करना।
- स्त्रियों की प्रसन्नता से देवता भी हर्षित रहते हैं, कल्याण करते हैं।
- जहां स्त्रियों की पूजा होती है वहां देवताओं का वास होता है इसका यही तात्पर्य है।
- माता-पिता के माध्यम से ही जीव को शरीर प्राप्ति होती है एवं बच्चों के लिये सभी प्रकार की व्यवस्था जब तक बच्चा सक्षम न हो जाये माता-पिता ही करते रहते हैं।
- माता-पिता की सेवा-सुश्रुषा करना, देखभाल करना ही माता-पिता की पूजा है।
- गुरु, ब्राह्मण एवं अतिथि स्वरूप से तो मनुष्य ही होते हैं परन्तु इनको मनुष्य मानना ही नहीं चाहिये, शास्त्रों में इन्हें देवता कहा गया है और इसलिये इनकी पूजा शास्त्रीय विधि से भी करनी चाहिये।
- इनका आदर-सत्कार, आसन, भोजनादि प्रदान करना भी पूजा का ही अंग होता है।
- परन्तु गुरु और ब्राह्मण के लिये पूजा करने की शास्त्रीय विधि भी होती है।
- राजा तो अब होते ही नहीं हैं अन्यथा राजा में भी ईश्वरत्व का वास होना शास्त्रों में कहा गया है और राजा की भी पूजा करने की व्यवस्था पौराणिक कथाओं में मिलती है।
निष्कर्ष : वास्तविक अर्थ में कल्याण कामना से भगवान, देवताओं, गुरु और ब्राह्मणों की विविध द्रव्यों से आराधना करना ही पूजा है। अन्यत्र आदर-सम्मान-सेवा-सुश्रुषा करना पूजा का समानार्थी है।
F & Q :
प्रश्न : पूजा का सही अर्थ क्या है?
उत्तर : पूजा का वास्तविक अर्थ देवताओं को प्रसन्न करने के लिये शास्त्रीय विधि के अनुसार की जाने वाली एक विशेष प्रक्रिया है।
प्रश्न : पूजा क्यों करते हैं?
उत्तर : जीवन का वास्तविक लक्ष्य तो मोक्ष है किन्तु सांसारिक जीवन यापन भी सत्य ही है। सांसारिक जीवन में दिव्य ऊर्जा प्राप्ति, सुख, शान्ति, समृद्धि आदि के लिये पूजा करते हैं।
प्रश्न : पूजा में क्या क्या जरूरी है?
उत्तर : जब भी हमें पूजा करनी हो तो पूजा के लिये कुछ विशेष आवश्यकतायें भी होती है –
- पवित्रता – बाह्य व आतंरिक दोनों।
- श्रद्धा व विश्वास – देवता में, शास्त्र में, पूजा विधि में।
- आसन – पूजा करने के लिये आसन भी आवश्यक होता है।
- शांत मन – पूजा करने के लिये मन को शांत रखना आवश्यक होता है जिसके लिये पूजा प्रारम्भ करने से पहले प्राणायाम आदि अनिवार्य अङ्ग होता है।
- पूजा सामग्री – अंत में पूजा करने के लिये कुछ विशेष सामग्रियों की भी आवश्यकता होती है, जो स्थान, क्षमता, पूजा के प्रकार आदि पर निर्भर करते हैं।
प्रश्न : पूजा के 3 प्रकार कौन से हैं?
उत्तर : कई आधारों से पूजा के प्रकार निर्धारित किये जाते हैं, जिनमें से एक है मंत्र प्रयोग का आधार। मंत्र प्रयोग आधार से पूजा के तीन प्रकार होते हैं :-
- वैदिक पूजा – वेद मंत्रों से जो पूजा की जाती है उसे वैदिक पूजा कहते हैं।
- पौराणिक पूजा – पुराण मंत्रों से जब पूजा की जाती है तो उसे पौराणिक पूजा कहते हैं।
- नाम मंत्र पूजा – पूजा जब न तो वेद मंत्र से न ही पौराणिक मंत्र से की जाय केवल देवता के नाम से की जाय तो उसे नाम मंत्र पूजा कहते हैं।
एक अन्य आधार से तीन प्रकार ये भी हैं – नित्य, नैमित्तिक और काम्य।
प्रश्न : पूजा कितने प्रकार की होती है?
उत्तर : कई आधारों से पूजा के प्रकार निर्धारित किये जाते हैं लेकिन वास्तव में पूजा दो प्रकार की होती है :-
- वैदिक पूजा – वैदिक विधियों के अनुसार जो पूजा की जाती है उसे वैदिक पूजा कहते हैं।
- तांत्रिक पूजा – तंत्रोक्त विधि से जो पूजा की जाती है उसे तंत्रोक्त पूजा कहते हैं।
किन्तु आधार भेद से पूजा के कई प्रकार होते हैं – सात्विक, राजसी, तामसी। पञ्चोपचार, दशोपचार, षोडशोपचार … नित्य, नैमित्तिक, काम्य। इत्यादि-इत्यादि।