वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के सिद्धांत – जन्म से या कर्म से

वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के सिद्धांत

आज के भारत में वर्ण और जाति का आधार क्या है, इसका निर्णय अब शास्त्र और शास्त्रार्थ से नहीं होगा, जैसे सारे निर्णय राजनीतिक होते हैं उसी तरह वर्ण और जाति का निर्णय भी राजनीति से किया जाएगा धर्मशास्त्रों और प्रमाणों से नहीं। अथवा ये निर्णय आर्यसमाजी करेगा जो स्वयं धर्म-शास्त्रों को नहीं मानता या केवल उतना मानता है जितना प्रचार-प्रसार के लिये अर्थात अस्तित्व के लिये आवश्यक है। अथवा सरकार करेगी जो कि धर्मनिरपेक्ष है अर्थात धर्मरहित है।

यहां वर्ण व्यवस्था से संबंधित चर्चा और भ्रम का निवारण किया गया है।

वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के सिद्धांत – जन्म से या कर्म से

ऐसा नहीं हो सकता की किसी विषय पर विचार-विमर्श व निष्कर्ष निकालने संबंधी कोई निषेध है, किन्तु इसके लिये शास्त्रार्थ का विधान था, न कि कोई स्वघोषित सरस्वती बनकर कुछ बक दे और वह ब्रह्मवाणी हो जाये। शास्त्रार्थ के पश्चात् निष्कर्ष की प्रक्रिया का समापन भी नहीं होता है। प्रत्येक पीढ़ी में शास्त्रार्थ होते रहना चाहिये और इसे दूर-दूर तक प्रसारित भी करना चाहिये।

आधुनिक काल में सभी निर्णेता तो बन गये हैं किन्तु शास्त्रार्थ नहीं कर सकते, जो कह दिया वो ब्रह्मलकीर हो गया, जबकि सनातन का सिद्धांत है कि एकाकी बृहस्पति भी झूठे होते हैं, और गुरुगौरव के कारण मात्र से स्वीकार्यता को भी अस्वीकार किया गया है।

हम वर्ण व्यवस्था की चर्चा में यहाँ यह समझेंगे कि इसका आधार क्या है जन्म या कर्म। वर्तमान में कुछ संगठन वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं। गोस्वामी जी के राम चरित मानस की इस चौपाई को प्रमाण मानकर “करम प्रधान विश्व करि राखा” कर्म को ही वर्ण व्यवस्था का आधार सिद्ध किया जाता है, और बहुत जोर-शोर से यह सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है कि वेदों ने स्वेच्छाचारिता का प्रतिपादन किया है, जिसे जो कर्म करना हो करे और कर्म के अनुसार वर्ण होगा।

“जन्मना जायते शूद्रः” कई पौराणिक श्लोकों में पाया जाता है इसको भी आधार बनाया जाता है यद्यपि वो लोग इसे मनुस्मृति का बताते है और यह भी गलत है। इसके आधार पर यह सिद्ध करते हैं कि सभी जन्म से शूद्र ही होते हैं और जो वर्ण को चयन करने की स्वतंत्रता होती है।

पूरी चर्चा में इन संगठनों के द्वारा फैलाये जाने वाले भ्रम का निवारण करने का प्रयास किया जायेगा, इसलिये इन संगठनों की मान्यता का उल्लेख करना भी आवश्यक रहेगा।

वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति के सिद्धांत
जन्मना जायते शूद्रः

जब दुराग्रह के कारण अनर्थ करके, अनुचित व्याख्या का भी आश्रय लिया जा रहा हो तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उसका कुछ अन्य स्वार्थ है जो अज्ञात है ।

आर्यसमाज और अन्य …. & RSS

सनातन, हिन्दुत्व, धर्म, संस्कृति के नाम पर राजनीति करने वाली RSS भी भविष्य के भारत का विनाश ही चाहता है क्या? विनाश का तात्पर्य भूमि का नाश नहीं धर्म-संस्कृति का विनाश।

  • यदि यह प्रश्न गलत है तो वर्णशंकरता बढ़ाने का पक्षधर क्यों है?
  • यदि यह प्रश्न गलत है तो यह जानते हुए कि वर्ण और जातियां शास्वत है, इसको समाप्त नहीं किया जा सकता, वर्तमान स्वरूप का परिवर्तन मात्र किया जा सकता है किन्तु ऐसा करने का प्रयास क्यों करती है?
  • यदि यह प्रश्न गलत नहीं है तो स्वेच्छाचारी समाज का निर्माण क्यों करना चाहती है ?

जन्म का प्राचीन सिद्धांत समाप्त करके कर्म का सिद्धांत आर्यसमाजियों द्वारा स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है और संघ भी शास्त्रों के आधार पर नहीं आर्य समाज के छद्म प्रपंच में फंसा हुआ है। RSS सनातन के लिये नहीं आर्य समाजी के लिये कार्य कर रहा है। हो सकता है यह गलत भी हो, मात्र संघ के कुछ प्रमुख व्यक्ति ही आर्यसमाजी हों ।

कुछ समय पूर्व इस “जन्मनाजायते शूद्रः” पौराणिक श्लोक को आर्यसमाजादि वाले लोग मनुस्मृति का कहकर सबको भ्रमित करते थें, जबकि मूल श्लोक पुराणों का है और वे पुराणों को मानते नहीं, फिर पुराणों से हवाला दे तो दें कैसें ? तो युक्ति लगायी कि इसे मनुस्मृति का कहकर भ्रामक प्रचार-प्रसार करो जिससे कर्मणा सिद्धान्त मजबूत हों और स्मार्त्तों का वेदविद्वानों का जन्मना सिद्धान्त कमजोर हों। आर्य समाज, गायत्री परिवार, RSS आदि एक स्वेच्छाचारी समाज का निर्माण करने की दिशा में आगे बढ़ रही है जो विनाश का कारण बन सकता है।

सनातन का एक और सनातन सिद्धांत है नई शाखा (नया मत/पंथ) का निकलना जैसे – जैन, बौद्ध आदि उसी क्रम में आर्यसमाज, गायत्री परिवार, शिव परिवार आदि भी आता है यद्यपि उसके समकक्ष सिद्धांत नहीं है। बौद्ध जैन आदि के पास शास्त्रार्थ का सामर्थ्य तो था, इनके पास शास्त्रार्थ का सामर्थ्य भी नहीं है चिल्ल-पों जितना कर लें।

हम पूर्व के आलेख में दिए गये उदाहरण की पुनरावृत्ति करेंगे : ये सब उसी तरह हैं जैसे किसी विशाल वटवृक्ष में कई जटायें धरती को छू लेती है और उसमें वृक्ष का आभास होने लगता है। इनको ये सत्य भी स्वीकार करना चाहिये की उनकी सत्ता मूल वृक्ष की सत्ता से ही होती है, वृक्ष की सत्ता समाप्त करना उनके हित में भी नहीं होता है।

इसको ऐसे समझते हैं की यदि किसी विशाल वटवृक्ष की कई भूमि छूने वाली जटाओं में से वो जो सबसे अधिक मोटा हो को छोड़कर बाकि वृक्ष और समान जटाओं को काट दिया जाय तो क्या वृक्ष खड़ा रहेगा अर्थात क्या वृक्ष का भार उठा पायेगा ? संभव ही नहीं है वो बढ़ी हुई जटा जो भूमि में आधार प्राप्त कर ले वो मात्र उस शाखा के विस्तार में सहयोग प्रदान कर सकती है जिस शाखा का वो अंग होता है।

ऐसा करने वाला एक है आर्य समाज। आर्य समाज के अतिरिक्त भी और कई हैं। संघ प्रमुख के वक्तव्यों से जो आशय निकलता है वो सनातन सिद्धांत को स्थापित करने वाला नहीं होता वो आर्य समाज का प्रचार-प्रसार करने वाला वक्तव्य होता है अर्थात आर्य समाज राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर अपनी छाप छोड़ रहा है।

लेकिन संघ का अर्थ यदि केवल संघ प्रमुख हो तो ऐसा माना जा सकता है अन्यथा संघ का विचार सनातन सिद्धांत के अनुकूल सुनिश्चित करके प्रमुख को तदनुकूल वक्तव्य के लिये कहना चाहिये न की आर्यसमाजी सिद्धांत के अनुकूल !

संघ को इस विषय पर विचार करना चाहिये और स्पष्टीकरण देना चाहिये कि वो सनातन संस्कृति के लिये काम करता है या आर्य समाज के लिये।

जन्मना जायते शूद्रः
जन्मना जायते शूद्रः

जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते।
वेदपाठाद् भवेद् विप्रः ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः॥
 _(स्कन्दपुराण)_
इसके आधार पर यदि आप इसका ये अर्थ करतें हैं कि वर्ण कर्म के द्वारा कोई भी बदल सकता है । तो इस श्लोक का ये अर्थ बिल्कुल भी नहीं है । इस श्लोक में चार वर्णों की तो कोई चर्चा ही नहीं है।

इस श्लोक में मात्र एक वर्ण ब्राह्मण की चर्चा है और ब्राह्मण के ४ स्तर को बताया गया है जिसका वास्तविक तात्पर्य यह है : ब्राहण घर में जन्म होने मात्र से शूद्रवत समझना चाहिये अर्थात जन्म मात्र से वेद का अधिकारी नहीं होगा, संस्कारों से द्विज संज्ञा होती है अर्थात वेद पाठ का अधिकारी होता है, वेद पाठ करने वाले की विप्र संज्ञा होती है और ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने पर ब्राह्मण संज्ञा होती है।

वर्ण का आधार कर्म बताने वाले इसका जो अर्थ लेते हैं उसके लिये इस श्लोक में चारों वर्ण का उल्लेख होना आवश्यक था, जो लगभग इस प्रकार का भाव प्रकट करता : जन्म से शूद्र, …….. से वैश्य, ………. से क्षत्रिय और ब्रह्म को जानने से ब्राह्मण।

  • “जन्मना जायते शूद्र: …….” से ये सिद्ध नहीं हो जाता कि, जन्म से सभी शूद्र हैं ।
  • यदि सभी जन्म से शूद्र होते हैं तो – “वैदिकै: कर्मभि:”, “पुण्यैर्निषेकादिद्विजन्मनाम्” , “कार्य: शरीरसंस्कार:” , “पावन: प्रेत्य चेह च” इस मनुस्मृति वचन की व्यर्थता होगी । क्योंकि यहां गर्भाधानादि संस्कार द्विजों के लिए विहित है । नामकरण में भी “मांगल्यं ब्राह्मणस्य स्यात् ……..” इत्यादि । अपि च – “शर्मवद् ब्राह्मणस्य स्यात् …..” आदि स्मृतिवचन भी व्यर्थ हुए । यत: नामकरण 10 वें दिन किया जाता है ।
  • अत: इसका मनुस्मृति सम्मत अर्थ ऐसा करना चाहिए – जन्म से सभी शूद्रवत हैं अर्थात् वेद के अनधिकारी हैं किन्तु संस्कार होने से द्विज वेद का अधिकारी होता है ।
  • मनुस्मृति सम्मत अर्थ इसलिए करना चाहिए क्योंकि – “मनुस्मृति विरुद्धा या सा स्मृतिर्न प्रशस्यते” – कहा गया है , कोई भी स्मृति मनुस्मृति का बाध नहीं कर सकती ।

यदि उपनयन संस्कार से वर्ण की प्राप्ति होती है और उपनयनपूर्व सभी शूद्र होते हैं तो फिर मनु के इस वचन का क्या औचित्य है : गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम् । गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विशः ॥ – मनुस्मृति में बताया गया है कि गर्भ से अष्टम वर्ष में ब्राह्मण का, ग्यारहवें वर्ष में क्षत्रिय का और बारहवें वर्ष में वैश्य का उपनयन करे। जन्म से सभी शूद्र हैं और सबका उपनयन एक आयु में होनी चाहिये तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य के उल्लेख की क्या आवश्यकता थी ? इनमें भी सबके लिये आयु पृथक कैसे हो सकता है जब उपनयन पूर्व सभी शूद्र ही हैं तो ? यह एक मात्र वचन नहीं है और भी हैं :

आषोडषाद् द्वाविंशाच्चतुर्विंशाच्च वत्सरात् । ब्रह्म क्षत्र विशां काल औपनायनिकः परः॥

जन्म से सब कौन से वाले शूद्र ही होते हैं –

  • जाति वाले ? या क्रियमाण कर्म वाले ? जातियां तो आप मानते नहीं ।
  • क्रियमाण कर्म वाले शूद्र का मतलब क्या है ? रोने वाला या सेवा करने वाला ?
  • सेवा तो कोई करता नहीं , उल्टा उन्हीं नवजातों की सबको सेवा ही करनी पड़ती है ।
  • अगर रोने वाले होते हैं तो कह दो कि जन्म से सब रोते हैं , बात समाप्त । काहे उत्पात मचाते हो?

वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार एक फल (भगवद्प्राप्ति) अनेकों मार्ग (स्व-स्व वर्णाश्रम धर्म) के पालन से सुलभ है। भेद भाव तब होता है जब फल प्राप्ति में भेद हो, परंतु वर्णाश्रम धर्म में फल प्राप्ति का नहीं परंतु उस फल तक पहुंचने का मार्ग अलग अलग है।

शास्त्रों में जन्मना वर्ण व्यवस्था बताई गई ही है। श्री कृष्ण भी वर्णाश्रम का पालन करने का उपदेश करते हैं, ललिता जी का एक नाम “वर्णाश्रम विधायिनी” भी है। अगर किसी को देवताओं एवं महापुरुषों की वाणी अनुसार धर्म पालन में इतना ही कष्ट है तो वह धर्म छोड़ ही दे, जो की आर्य समाजी सामान्यतः करते ही हैं।

धर्म केवल वही जिसे शास्त्र की आज्ञा है, २०० साल पुराने महर्षि अगर किसीको हजारों साल पुराने धर्मसूत्र और पुराणों से ज्यादा सही लगते हैं तो ऐसों को कोई अधिकार ही नहीं की पुरातन सनातन धर्म जो की परंपरा से चलता आ रहा है उसपे कोई प्रश्न करें।

इस सिद्धांत से तो यदि फिर से कोई नया व्यक्ति नयी व्याख्या कर दे तो फिर नया सिद्धांत बन जाये, और यदि यह क्रम या व्यवस्था रही होती तो आज सनातन अपने मूल स्वरूप में कहीं दिखता ही नहीं समाप्त हो गया होता। सनातन की सत्ता मूल स्वरूप में भी दिखती है जो यह सिद्ध करता है कि वास्तविक दुराग्रहियों की नहीं सनातन की ही है और मूल सिद्धान्त के आधार पर ही खण्डित करने वालों का भी अस्तित्व निर्भर होता है।

इनके हिसाब से शास्त्रों में मुसलमान और ईसाइयों ने मिलावट की है केवल इनके २०० साल पुराने महर्षि को ही दिव्य दृष्टि से छन्नी प्राप्त है जो प्रक्षिप्त और मूल को छटते बैठते हैं।

अनेकानेक ऋषियों को जो दिव्य ज्ञान नहीं था वो इनके महर्षि को था क्योंकि वो ब्रह्मा थे। इससे पहले जो स्वयं कृष्ण आये और गीता का उपदेश किया उसका भी कोई महत्व नहीं क्योंकि वो तो भगवान थे ही नहीं। जिसके मूर्खता की कोई सीमा नहीं थी उसे महर्षि बनाकर धर्म का लोप करने वालों के अनुयायी आज धर्म सिखाते हैं।

जैन, बौद्ध, आर्य समाज, गायत्री परिवार, शिव परिवार आदि को इस बात की गांठ बांध लेनी चाहिये अपनी वास्तविकता स्वीकार करनी चाहिये। मूल वृक्ष का छेदन करने के प्रयास बंद कर देना चाहिये।

हानि पहुँचाने वाले भी दो प्रकार के होते हैं एक प्रत्यक्ष शत्रु जो खुलकर विरोध करता है दूसरा परोक्ष शत्रु जो मित्र बनकर भीतरघात करता है। वर्तमान गतिविधियों, मान्यताओं, व्यवहारों से यह तो कदापि सिद्ध नहीं होता की उपरोक्त में से कोई भी सनातन के लिये योगदान दे रहा हो और यदि थोड़ा-बहुत लगता भी है तो वह भ्रम है।

यदि इन सबमें से किसी को विशेष करके RSS को यदि सनातन रक्षक होने का भ्रम हो रहा हो तो ये उसका अहंकार मात्र होगा। सनातन का ये भी सनातन नियम है कि कालक्रम से क्षरण भी होता है और ईश्वर द्वारा पुनर्स्थापन भी होता है। जब सनातन पुनर्स्थापित होगी तब के इतिहास में उपरोक्त सभी जयचंद की भूमिका में ही दर्शाये जायेंगे आज भले धर्मरक्षक होने का डंका पीट लें।

वर्ण व्यवस्था क्या है – भारतीय वर्ण व्यवस्था

समानता व असमानता का सिद्धांत : सृष्टि ईश्वरीय है और इसमें समानता व असमानता दोनों व्याप्त है।

  • समानता के आधार पर वृक्ष, लता, पशु, पक्षी, कीट, पतङ्ग, मनुष्य, जलचर, नभचर आदि संज्ञाों की सिद्धि होती है। लेकिन इसमें समानता के साथ ही असमानता भी दिखती है – वृक्ष और लता में, पशु और पक्षी में … सबमें असमानता है।
  • समानता को अन्य प्रकार से भी समझा जा सकता है – जन्म, जीवन, आहार, मरण। प्रत्येक जीव का होता है इसलिये समानता है, किन्तु सबमें अंतर भी होता है यह असमानता है।
  • गाय की बात करें तो समानता के नाम पर सबके चार पैर, दो ऑंखें, दो कान, दो सींग, एक पूंछ, थन की चार छड़ी ….. आदि होती है और सभी से दूध प्राप्त करते हैं, असमानता की बात करें तो कोई भी दो गाय एक समान नहीं होती, सबका अलग स्वभाव होता है, सबके दूध देने की क्षमता अलग-अलग होती है अनेक नामों से गायों को भी वर्गीकृत किया जाता है, पहचाना जाता है।

मनुष्यों में समानता व असमानता का सिद्धांत : सभी मनुष्यों को दो हाथ, दो पैर, दो आंख, दो कान, एक नाक में दो छेद, जीभ, दांत, रक्त, मज्जा, अस्थि, बाल आदि होते हैं जो समानता को प्रकट करता है। लेकिन असमानता भी होती है :-

  • मनुष्य में भी स्त्री, पुरुष और नपुंसक तीन भेद होते हैं।
  • कोई भी दो मनुष्य दिखने में भी बिल्कुल समान नहीं होता।
  • सबके सोचने की क्षमता, गुण, प्रवृत्ति में अंतर होता है।
  • मनुष्य में भी स्त्री, पुरुष और नपुंसक तीन भेद होते हैं।
  • कोई भी दो मनुष्य दिखने में भी बिल्कुल समान नहीं होता।
  • सबके सोचने की क्षमता, गुण, प्रवृत्ति में अंतर होता है।
  • सबके स्वर में, आहार और पाचन शक्ति में, तेज में, स्मरण शक्ति आदि में अंतर होता है।
  • सबके ज्ञान, सबके प्रारब्ध, सबकी नियति में अंतर होता है।

करम प्रधान विश्व करि राखा का तात्पर्य है : संचित कर्म का प्रारब्ध बनना और नियति में भी कर्म करते दिखना। कर्म ही प्रारब्ध होता है और तदनुसार नया जन्म मिलता है। फिर जहां जन्म मिला तदनुसार वर्णानुसार शास्त्रोचित कर्म में अधिकार सिद्ध होता है। पुनः नये कर्म प्रारब्ध में परिवर्तित होते रहते हैं। करम प्रधान का वास्तविक अर्थ यही है।

जन्म स्थान, पिता, माता, परिवार आदि का निर्धारण कौन कर सकता है ? जिसे प्रारब्ध और नियति ज्ञात हो।

वर्ण का निर्धारण कौन कर सकता है ?

“चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः” से भगवान गीता में यही घोषणा करते हैं की वर्ण का निर्धारण भगवान करते हैं। गुण और कर्म के विभाग से वर्ण की सृष्टि करी सो तो अर्थ है ही, गुण और कर्म के अनुसार ही वर्ण की प्राप्ति होती है यह भी सिद्ध होता है।

माता-पिता, भाई-बहन, पति-पत्नी, जन्मस्थान, कर्मभूमि, घर-ससुराल, इत्यादि सब कुछ यदि प्रारब्ध (सञ्चित कर्मफल) के अनुसार ईश्वर निर्धारित करता है और वर्ण भी इसी की कड़ी में होता है। वर्ण का निर्धारण भी प्रारब्धानुसार ही होता है।

पुराणों में इस विषय की भी विस्तृत चर्चा मिलती है कि किस कर्म से क्या योनि मिलती है। पुण्यात्माओं को भारत में जन्म मिलता है पुनः पुण्य की अधिकता के अनुसार सुख-संपत्ति-स्वास्थ्य आदि पुण्यवश ही सुनिश्चित होते हैं और जो बहुत अधिक पुण्यवान होता है उसका जन्म ब्राह्मण के घर में होता है।

अर्थात वर्ण का निर्धारण भी ईश्वर ही करते हैं।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः

लेकिन सभी युग में कुछ लोग ऐसे भी होते हैं की सत्ता को चुनौति देते ही हैं और इसी कड़ी में वर्त्तमान युग के वो व्यक्ति और संगठन हैं जो स्वयं को ईश्वर समझकर वर्ण निर्धारण का अधिकार भी स्वयं के पास ही सिद्ध करने का कुतर्क करते हैं। अरे मूर्खों यदि स्वयं के वर्ण का निर्धारण करना जीव के अधिकार में होता तो वो जन्म ही स्वेच्छा से इच्छित वर्ण में लेता, क्योंकि वर्णानुसार संस्कार गर्भ से ही आरम्भ होता है अर्थात वर्ण का निर्धारण होने के बाद ही जीव किसी गर्भ में प्रविष्ट होता है।

भगवान परशुराम और विश्वामित्र के जन्म का प्रसङ्ग एवं चरित्र का इस विषय में विस्तृत अध्ययन करने की आवश्यता है। लेकिन विषय-विस्तार भय से यहाँ चर्चा नहीं की जा रही है।

संक्षेप में इतना समझना पर्याप्त है कि अथक प्रयास के बाद विश्वामित्र को राजर्षि से ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त हुआ क्योंकि उसमें देवताओं की सहमति हुयी और जन्म में भी कारण उपस्थित था। यदि जन्म में कारण न होता और देवताओं की सहमति न होती तो विश्वामित्र भी राजर्षि से ब्रह्मर्षि पद की प्राप्ति नहीं करते, अर्थात वर्ण परिवर्तन नहीं होता।

रावण लंका का राजा था, देवताओं और यमराज तक से उसने युद्ध किया था अर्थात कर्म से पूर्णरूपेण क्षत्रिय था। फिर राम को ब्रह्महत्या क्यों लगी ? रावण ब्राह्मण में क्यों गिना जाता है ? रावण ने स्वयं को क्षत्रिय क्यों नहीं घोषित किया ?

पांडवों का महाभारत में कितने बार वर्ण परिवर्तन हुआ ?

द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, अश्वत्थामा आदि ने भी महाभारत युद्ध में भाग लिया था, फिर उनका वर्ण क्षत्रिय क्यों नहीं कहा जाता ?

एक जाति भूमिहार है जो कर्म से वैश्य है लेकिन वर्ण से ब्राह्मण ! आज तक इस विषय में उनमें से किसी ने नहीं कहा कि भूमिहार को ब्राह्मण नहीं वैश्य वर्ण का मानेंगे। हो सकता है ये लोग आज कहें कि सभी प्रकार के कर्म करते हैं, लेकिन ७०-८० वर्ष पूर्व यदि जायेंगे तो भूमिहार का एक ही कर्म था कृषि और पशुपालन, परिवर्तन तो तभी हो जाना चाहिये था।

  • अच्छा कुछ और जटिल प्रश्न है यदि वर्ण से कर्म न मानकर कर्म से वर्ण मान लें अर्थात वर्ण को कर्मानुसार परिवर्तनशील मान लें तो एक व्यक्ति कितनी बार वर्ण परिवर्तन कर सकता है ?
  • कितने अन्तराल पर फिर दुबारा परिवर्तन कर सकता है ? इनका भी तो उत्तर शास्त्रों में मिलना चाहिये न !
  • जब स्वेच्छा से ही वर्ण ग्रहण करने की बात हो तो ऐसा एक बार ही क्यों होगा ?
  • जीवन में बार-बार वर्ण परिवर्तन क्यों नहीं होगा ?
  • इसका कोई विधान क्यों नहीं है ?

वर्ण व्यवस्था : वर्ण व्यवस्था ईश्वरीय व्यवस्था है। पूर्व जन्मों के कर्म भविष्य जन्म और फल का निर्धारण करने वाले प्रारब्ध बनते हैं। प्राब्धानुसार जिस वर्ण में जन्म मिलता है उस वर्ण के कर्म में ही अधिकार होता है। अन्य वर्णों के कर्मों में अधिकार ही नहीं होता है। वर्णोचित कर्म का तात्पर्य यह है कि जिस वर्ण में जन्म मिला हो उसी वर्ण के कर्मों से ही आत्मकल्याण संभव है। मात्र आपत्काल में वर्णोचित कर्मों का थोड़ा बहुत अतिक्रमण किया जा सकता है और उसका भी निर्देश शास्त्रों में दिया गया है।

सांसारिक दृष्टिकोण से देखने वाले आध्यात्मिक रूप से अंधों के मन में आत्मकल्याण का भाव तो आने से रहा लेकिन सांसारिक स्वार्थ तो अवश्य ही आ सकता है साथ ही जब देश की राजनीति भी धक्का दे रही हो और वैश्विक षड्यंत्र भी चल रहा हो। उन्हीं में से वो लोग जिनको ब्राह्मण को सम्मान-दान-दक्षिणा मिलते दिखा सांसारिक सुख प्रतीत हुआ और कुतर्क द्वारा कर्म से वर्ण की सिद्धि का सिद्धांत प्रतिपादित करने लगे।

अस्तु आत्मकल्याण करना चाहिये या नहीं ये अधिकार तो प्रत्येक मनुष्य को है और उन ज्ञानचक्षुहीनों को भी यह अधिकार है। लेकिन औरों को भी उतना ही अधिकार है। इसमें पूर्ण समानता है और तनिक भी असमानता नहीं है।

आत्मकल्याण का इच्छुक कदापि शास्त्रसिद्ध वर्ण से कर्म के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं कर सकता, और जिसे आत्मकल्याण नहीं अपितु दान-दक्षिणा लेकर सांसारिक सुख ही चाहिये भले ही नरकगामी क्यों न बनना परे तो वह कर्म से वर्ण का विपरीत सिद्धांत मान सकता है अपितु इसे भी मानने की क्या आवश्यकता है इसे भी नहीं मानने के लिये स्वतंत्र है।

वर्ण व्यवस्था कब से शुरू हुई

वर्ण व्यवस्था अनादि काल से है, यदि कोई ये कहे कि कुछ हजार वर्ष पूर्व हुआ प्रारम्भ में नहीं था तो उसे इन तथ्यों का खण्डन करना होगा :

  1. श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – “चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः” गुण और कर्मों के विभाग से अर्थात आधार पर चारों वर्णों की सृष्टि मेरे द्वारा ही हुई है अर्थात मैंने ही किया है। इससे यह सिद्ध होता है की सनातन की तरह है वर्ण व्यवस्था भी अनादि और अनन्त है।
  2. वेद में भी वर्ण-व्यवस्था का उल्लेख मिलता है इसका भी तात्पर्य यही है कि वर्ण व्यवस्था अनादिकाल से है।
  3. वेद मानवीय रचना नहीं ईश्वरीय कृति है।
वर्ण व्यवस्था कब से शुरू हुई
वर्ण व्यवस्था कब से शुरू हुई

गीता में वर्ण व्यवस्था

गीता में वर्ण व्यवस्था को भगवान कृष्ण ने किस प्रकार पुष्ट किया और वर्ण से कर्म के सिद्धांत का अनुमोदन किया इसे भी समझना आवश्यक है :

रणभूमि में युद्ध से विचलित अर्जुन क्षात्रधर्म से विमुख हो रहा था, विरक्त हो रहा था, भगवान कृष्ण को उस समय वर्ण परिवर्तन का उपदेश देना चाहिये था लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ये समझाया कि क्षात्रधर्म का त्याग करोगे तो पतन को प्राप्त होओगे। यदि ये सभी संगठन वाले (RSS सहित) उस समय होते तो भगवान श्रीकृष्ण से इस बात पर लड़ते कि अब से अर्जुन ब्राह्मण हो गया है, मैं इसे ब्राह्मण बनाता हूँ; लेकिन इस बात का मलाल सदा बना ही रहेगा।

वर्ण व्यवस्था का महत्व

  • वर्ण व्यवस्था मुख्य रूप से आत्मकल्याण के उद्देश्य से महत्वपूर्ण है।
  • सांसारिक जीवन, समाज, देश को व्यवस्थित रूप से चलाने में भी वर्ण व्यवस्था का महत्वपूर्ण योगदान शास्त्रों में निर्धारित किया गया है।
  • वर्णव्यवस्था का आधार मात्र वर्त्तमान कर्म नहीं जन्म है, जन्म का भी कारण है, जो जन्म-जन्मान्तरों के शुभाशुभ कर्मों का योग होता है। अतः वर्ण का निर्धारण जन्म से ही होता है और तदनुसार धर्म पालन करने से आत्मकल्याण होता है।

जो नास्तिक हैं, अधर्मी हैं उनका तो स्वभाव ही है धर्म पर प्रहार करना, और आग में घी का काम वर्त्तमान राजनीति कर रही है।

एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है। कर्मकांड विधि पर कर्मकांड, धर्म, अध्यात्म, व्रत-पर्व आदि से संबंधित आलेख निरंतर प्रकाशित किये जाते हैं। नये आलेख संबंधी सूचना के लिये आप ब्लॉग को सब्सक्राइब कर सकते हैं साथ ही हमारे व्हाट्सअप, टेलीग्राम व यूट्यूब चैनल को भी सब्सक्राइब कर सकते हैं। यहां सभी नवीनतम आलेखों को साझा किया जाता है, सब्सक्राइब करे : Telegram  Whatsapp  Youtube


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