विजयादशमी : दुर्गा विसर्जन, अपराजिता पूजा

विजयादशमी : दुर्गा विसर्जन, अपराजिता पूजा

आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से आरंभ होने वाली शारदीय नवरात्रि आश्विन शुक्ल दशमी को संपन्न होती है। आश्विन शुक्ल दशमी को विजयादशमी भी कहा जाता है, दशहरा भी कहा जाता है और यात्रा भी। विजयादशमी के दिन भगवती दुर्गा, कलश आदि का विसर्जन किया जाता है, अपराजिता पूजा की जाती है, जयंती धारण किया जाता है। इस प्रकार विजयादशमी विशेष महत्वपूर्ण सिद्ध होता है। इस आलेख में विजयादशमी पूजा विधि, विसर्जन विधि, अपराजिता पूजा विधि और मंत्र, जयंती धारण मंत्र आदि दिया गया है।

विजयादशमी का मुख्य कर्म देवी विसर्जन है, इसके साथ ही अभिषेक, अपराजिता पूजन-धारण, (अस्त्र-शस्त्र पूजा) आदि भी दशमी के दिन ही कर्तव्य है। जिस प्रकार कलशस्थापना के विषय में, पट खोलने के विषय में नाना प्रकार के विचार किये जाते हैं, विसर्जन में सभी प्रमाणों-शास्त्रों को तिलांजलि दे दिया जाता है। घरों में कलश स्थापित करने वाले तो दशमी को विसर्जन करते हैं किन्तु मंदिरों में यदि कुछ पारम्परिक स्थानों को अपवाद मानकर छोड़ दें तो अधिकांश जगह विसर्जन 1 – 2 दिन के पश्चात् किया जाता है, किन्तु यह अनुचित है, इससे शास्त्राज्ञा का उल्लंघन होता है। धार्मिक कृत्य उसी कर्म को कहा जा सकता जिसमें शास्त्राज्ञा का पालन किया जाता हो उल्लंघन नहीं।

अधिकांश स्थानों पर मेला और व्यापार देखकर धनलोलुपों द्वारा दुर्गा पूजा का आरंभ किया गया है, और इसी कारण आयोजकों को मेला-व्यापार-आय आदि की ही चिंता रहती है शास्त्राज्ञा के पालन की नहीं। अत्यल्प स्थानों पर ही पारंपरिक व प्रामाणिक विधि से दुर्गा महोत्सव मनाया जाता है, अधिकांश स्थानों पर मेला ही लगाया जाता है और मेला लगाने वाले विसर्जन में खुल्लमखुल्ला शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करते हैं। साथ ही प्रतीकात्मक रूप से कलशविसर्जन मात्र करते हैं जिसका की विसर्जन प्राप्त ही नहीं होता है। प्रतिमा विसर्जन के उपरांत कलशजल से अभिषेक की विधि प्राप्त होती है।

विसर्जन पूजा विधि और मंत्र की चर्चा से पूर्व विजयादशमी संबंधी निर्णय को समझना आवश्यक है।

विजयादशमी निर्णय

  • सूर्योदये यदा राजन् दृश्यते दशमीतिथिः । आश्विने मासि शुक्ले तु विजयां तां विदुर्बुधाः ॥ नारद के वचनानुसार आश्विन शुक्ल दशमी जिस दिन सूर्योदय काल में प्राप्त हो वही विजयादशमी संज्ञक होती है।
  • उदये दशमी किञ्चित् सम्पूर्णैकादशी यदि । श्रवणर्क्षं यदा काले सा तिथिर्विजयाऽभिधा ॥ पुनः हेमाद्रि में भी नारद वचनानुसार सूर्योदयकालीन किंचित दशमी में भी श्रवण नक्षत्र के योग को जोड़ा गया है।
  • श्रवणर्क्षे तु पूर्णायां काकुत्स्थः प्रस्थितो यतः । उल्लंघयेयुः सीमान्तं तद्दिनर्क्षे ततो नरः ॥ पुनः कश्यप ने भी दशमी तिथि में श्रवण नक्षत्र योग को प्रधानता दिया है।

उपरोक्त वचनों से ऐसा भी प्रतीत होता है कि जिस दिन श्रवण नक्षत्रयुक्त दशमी हो उसी दिन विजयादशमी माने। तथापि यह भ्रम होता है क्योंकि प्रातः काल ही आवाहन, प्रवेश, विसर्जन आदि का भी प्रमाण प्राप्त होता है। श्रवण नक्षत्र की युक्ति विशेषता है न कि अनिवार्यता। सूर्योदयकालीन दशमी अनिवार्य नियम है, किन्तु एक घटी/दण्ड प्रमाण हो यह भी आवश्यक है। यदि सूर्योदयकालीन दशमी एक घटी भी न हो तो पूर्वदिन नवमी युक्ता दशमी को ही विजयादशमी करे।

घटिकातो यदा न्यूना दशमी स्यात् परेऽहनि । पूर्वेद्युस्तु तदा देवी पूजयित्वा विसर्जयेत् ॥
दशम्यां च बली राजा पूजयित्वाऽपराजिताम् । दशदिक्षु मनोयोगाद्यात्रां कृत्वाऽथवा नृपः ॥

विजयादशमी पूजन विधि

विजयादशमी के दिन प्रातः काल नित्य की भांति ही सभी देवताओं का पूजन आदि करे। यात्रा में दही को महत्व दिया जाता है इस कारण विजयादशमी के दिन दही का नैवेद्य भी अर्पित किया जाता है। तत्पश्चात “ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते ॥” मंत्र से जयंती का छेदन करे तत्पश्चात प्रणाम करके अगले मंत्रों को पढ़े :

अंजलिबद्ध होकर भविष्यपुराणोक्त स्तुति करे :

ॐ दुर्गा शिवां शान्तिकरीं ब्रह्माणीं ब्रह्मणः प्रियाम् । सर्वलोकप्रणेत्रीञ्च प्रणमामि सदा शिवाम् ॥
मङ्गलां शोभनां शुद्धां निष्कलां परमां कलाम् । विश्वेश्वरीं विश्वमातां चण्डिकां प्रणमाम्यहम् ॥
सर्वदेवमयीं देवीं सर्वरोगभयापहाम्। ब्रह्मेशविष्णुनमितां प्रणमामि सदा उमाम् ॥
विन्ध्यस्थां विन्ध्यनिलयां दिव्यस्थाननिवासिनीम् । योगिनीं योगमातां च चण्डिकां प्रणमाम्यहम् ॥
ईशानमातरं देवीमीश्वरीमीश्वरप्रियाम् । प्रणतोऽस्मि सदा दुर्गां संसारार्णवतारिणीम् ॥
य इदं पठति स्तोत्रं शृणुयाद्वापि यो नरः । स मुक्तः सर्वपापैस्तु मोदते दुर्गया सह ॥

ततो वरप्रार्थनम्

ॐ महिषघ्नि महामाये चामुण्डे मुण्डमालिनि । द्रव्यमारोग्यविजयं देहि देवि नमोस्तु ते ॥
ॐ रूपन्देहि जयन्देहि भाग्यं भगवति देहि मे। धर्मान्देहि धनन्देहि सर्वान्कामान्प्रदेहि मे ॥
कुङ्कमेन सदालब्धे चन्दनेन विलेपिते । बिल्वपत्रकृपापाणे दुर्गेऽहं शरणं गतः ॥
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥

क्षमायाचना

ॐ विधिहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं यदर्चितम् । पूर्णम्भवतु तत्सर्वं त्वत्प्रसादान्महेश्वरि ॥
शक्नुवन्ति न ते पूजां कर्तुं ब्रह्मादयः सुराः । अहं किं वा करिष्यामि मृत्युधर्मा नरोऽल्पधीः ॥
न जानेऽहं स्वरूपं ते न शरीरं न वा गुणम् । एकामेव हि जानामि भक्तिन्त्वच्चरणाब्जयोः ॥
ताम्भक्ति हृदि सम्भाव्य शारद्यर्चां प्रगृह्य च । गच्छ देवि निजं स्थानं मह्यन्दत्त्वा वरान्बहून् ॥

तत्पश्चात गंधपुष्पाक्षत लेकर पढ़ें – ॐ चण्डेश्वर्ये नमः, ॐ निर्माल्यवासिन्यै नमः ॥  पढ़कर इशान दिशा में अर्पित करे। 

तत्पश्चात् देवी के चरणों का स्पर्श करते हुये अगले मंत्रों को पढ़े : 

ॐ कालि कालि महाकालि कालिके पापनाशिनि । कालीकरालि निष्क्रान्ते कालिके त्वान्नमोस्तु मे ॥
सिंहवाहिनि चामुण्डे पिनाकधरवल्लभे । उपहारं गृहीत्वैवं प्रसीद परमेश्वरि ॥
उत्तिष्ठ देवि चामुण्डे शुभां पूजां प्रगृह्य मे । कुरुष्व मम कल्याणमष्टाभिः शक्तिभिः सह ॥
गच्छ गच्छ परं स्थानं स्वस्थानं देवि चण्डिके । यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णन्तदस्तु मे ॥
गम्यतामर्थलाभाय क्षेमाय विजयाय च । शत्रोर्दर्पविनाशाय पुनरागमनाय च ॥
व्रज त्वं स्रोतसि जले मद्गेहे तिष्ठ भूतये । आगामिवत्सरे च त्वं पुनरायास्यसि ध्रुवम् ॥
ॐ गच्छन्तु देवताः सर्वा दत्त्वा मे वरमीप्सितम् । त्वं गच्छ परमेशानि सुखं सर्वगणैः सह ॥

दुर्गा विसर्जन मंत्र

  • ॐ ह्रीं साङ्गसायुधसपरिवारभगवति श्रीदुर्गे देवि पूजितासि प्रसीद क्षमस्व स्वस्थानं गच्छ ॥
  • ॐ लक्ष्मि पूजितासि प्रसीद मयि रमस्व ॥ जल अर्पित करके शेष शिर पर धारण करे।
  • ॐ सरस्वति पूजितासि प्रसीद क्षमस्व स्वस्थानं गच्छ ॥
  • ॐ गणेश पूजितोसि प्रसीद क्षमस्व स्वस्थानं गच्छ ॥
  • ॐ कार्तिकेय पूजितोसि प्रसीद क्षमस्व स्वस्थानं गच्छ ॥
  • ॐ जये पूजितासि प्रसीद क्षमस्व स्वस्थानं गच्छ ॥
  • ॐ विजये पूजितासि प्रसीद क्षमस्व स्वस्थानं गच्छ ॥
  • ॐ सिंह पूजितोसि प्रसीद क्षमस्व स्वस्थानं गच्छ ॥
  • ॐ महिष प्रसीद क्षमस्व स्वस्थानं गच्छ ॥
  • ॐ मूषिक प्रसीद क्षमस्व स्वस्थानं गच्छ ॥
  • ॐ मयूर प्रसीद क्षमस्व स्वस्थानं गच्छ ॥
  • ॐ नवपत्रिकास्थदेव्यः पूजिताः स्थ क्षमध्वं स्वस्थानं गच्छत ॥
  • ॐ कलशस्थावाहितदेवताः पूजिताः स्थ क्षमध्वं स्वस्थानं गच्छत ॥

इस प्रकार प्रत्येक देवताओं का विसर्जन करके पढ़े : “ॐ ह्रीँ चामुण्डे चल चल चालय चालय हूँ फट् स्वाहा ॥” इस मंत्र को पढ़कर प्रतिमा को उठाये फिर यथाविधि नृत्यगान-वादन-जयघोष आदि करते हुये जलाशय तक जाये और पुनः प्रार्थना करे :

ॐ दुर्गे देवि जगन्मातः स्वस्थानं गच्छ पूजिते । संवत्सरव्यतीते तु पुनरागमनाय वै ॥
इमां पूजां मया देवि यथाशक्ति निवेदिताम् । रक्षणार्थं समादाय व्रजस्व स्थानमुत्तमम् ॥

प्रार्थना करके सभी प्रतिमाओं को जलाशय में प्रवाहित करे।

प्रायः प्रतिमा विसर्जन हेतु ही प्रकृतिप्रेमियों का प्रेम जगता है, विभिन्न प्रकार के उद्योगों द्वारा नित्य उत्सर्जित जल से नदियों में जो गंभीर प्रदूषण होता है उसपर सबकी ऑंखें बंद हो जाती है। नगरों के नाले वाले जल से जब नदियां दूषित होती हैं तो सबकी ऑंखें बंद रहती है। किन्तु प्रतिमा विसर्जन से ही नदियां प्रदूषित होती है यह कहकर लोगों को, सरकार को भ्रमित कर दिया जाता है।

यदि प्रतिमाओं में प्रदूषित पेंट (रंग आदि) का प्रयोग न हो तो प्रतिमा विसर्जन से किसी प्रकार का कोई प्रदूषण नहीं होता है। तथापि प्रतिमा में रासायनिक रंग का प्रयोग न किया जाय इसके लिये जागरूक करने की अपेक्षा प्रतिमा विसर्जन से नदियां प्रदूषित होती है यह भ्रम फैलाना सनातन द्रोह को उजागर करता है।

दक्षिणा

फिर पूजा स्थल पर आकर शरीर को जल से सिक्त कर त्रिकुशा-तिल-जल-दक्षिणा द्रव्य लेकर दक्षिणा करे : ॐ अद्याश्विनशुक्लप्रतिपदमारभ्य दशमीं यावत् कृतैतत् शरत्कालीन साङ्ग‌सायुधसवाहनसपरिवार श्रीदुर्गादेवी पूजन-पाठादि कर्म प्रतिष्ठार्थमेतावत् द्रव्यमूल्यकहिरण्यमग्निदैवतं यथानामसोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणामहन्ददे ॥

दक्षिणा लेकर आचार्य कलश के पास जाकर विनम्रता पूर्वक दोनों हाथों से कलश को उठाकर पढ़ें : ॐ उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवयन्तस्त्वेगहे । उपप्रयन्तु मरुतः सुदानव इन्द्र प्राशूभंवासचा ॥ तत्पश्चात् यजमान का शान्तिमंत्रों से अभिषेक करें।

पौराणिक अभिषेक मंत्र

ॐ सुरास्त्वामभिषिञ्चन्तु ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः । वासुदेवोजगन्नाथस्तथा सङ्कर्षणो विभुः ॥
प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च भवन्तु विजयाय ते । आखण्डलोग्निर्भगवान् यमो वै निर्ऋतिस्तथा ॥
वरुणः पवनश्चैव धनाध्यक्षस्तथा शिवः । ब्रह्मणा सहितशेषो दिक्पालाः पान्तु ते सदा ॥
कीतिर्लक्ष्मीर्धृतिर्मेधा पुष्टिः श्रद्धा क्रिया मतिः । बुद्धिर्लज्जा वपुः शान्तिस्तुष्टिः कान्तिश्च मातरः ॥

एतास्त्वामभिषिञ्चन्तु देवपत्न्यः समागताः । आदित्यश्चन्द्रमा भौमो बुधजीवसितार्कजाः ॥
ग्रहास्त्वामभिषिञ्चन्तु राहुः केतुश्च तर्पिताः । देवदानव गन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः ॥
मनवो गावो देवमातर एव च । देवपत्न्यो द्रुमा नागा दैत्याश्चाप्सरसां गणाः ॥
अस्त्राणि सर्वशस्त्राणि राजानो वाहनानि च । ओषधानि च रत्नानि कालस्यावयवाश्च ये ॥
सरितः सागराश्शैलास्तीर्थानि जलदा नदाः । एते त्वामभिषिञ्चन्तु सर्वकामार्थसिद्धये ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

अपराजिता पूजा विधि

पवित्र होकर त्रिकुशा-तिल-जलादि लेकर अपराजिता पूजन का संकल्प करे : ॐ अद्याश्विने मासि शुक्ले पक्षे विजयदशम्यां तिथौ अमुकगोत्रस्याऽमुकशर्मणः यात्रायां विजयकामोऽपराजितापूजनमहं करिष्ये ॥

इस प्रकार पवित्र होकर अपराजिता पूजन का संकल्प करके एक पात्र में चंदनादि से अष्टदल का निर्माण करे। पुनः उस पात्र में दूर्वा, हरिद्रा, सहित अपराजिता लता को स्थापित करे। लताओं को पीत वस्त्र आच्छादित करने की विधि भी प्राप्त होती है।

फिर अष्टदल के मध्य में गन्धपुष्पाक्षत से अपराजिता का आवाहन करे : ॐ भूर्भुवः स्वर्भगवति श्री अपराजिते इहागच्छ इह तिष्ठ ॥ 

पुष्प लेकर अपराजिता का ध्यान करे :

ॐ चतुर्भुजां पीतवसनां सर्वाभरणभूषिताम् । शुद्धस्फटिकसंकाशां चन्द्रकोटिसुशीतलाम् ॥
वरदाऽभयहस्तां च पीतवस्त्रैरलंकृताम् । नानाभरणसंयुक्तां चक्रवाकैश्च वेष्टिताम् ॥
इदं ध्यानपुष्पम् ॐ भगवत्यै श्रीअपराजितायै नमः ॥

  • जल : एतानि पाद्यादीनि एषोऽर्घ्यः ॐ भगवत्यै श्रीअपराजितायै नमः ॥
  • गंध : इदमनुलेपनम् ॐ भगवत्यै श्रीअपराजितायै नमः ॥
  • सिन्दूर : इदं सिन्दूराभरणम् ॐ भगवत्यै श्रीअपराजितायै नमः ॥
  • अक्षत : इदमक्षतम् ॐ भगवत्यै श्रीअपराजितायै नमः ॥
  • पुष्प : इदं पुष्पम् ॐ भगवत्यै श्रीअपराजितायै नमः ॥
  • जल : एतानि गन्धपुष्पधूपदीपताम्बूलयथाभागनैवेद्यादीनि ॐ भगवत्यै श्रीअपराजितायै नमः ॥
  • पुष्पांजलि : एष पुष्पाञ्जलिः ॐ भगवत्यै श्रीअपराजितायै नमः ॥

तत्पश्चात चारों ओर क्रमशः क्रिया, उमा, जया और विजया का पूजन करे :

क्रिया पूजन

  • अक्षत : इदमक्षतं ॐ क्रिये इहागच्छ इह तिष्ठ ॥
  • जल : एतानि पाद्यादीनि एषोऽर्घ्यः ॐ क्रियायै नमः ॥
  • गंध : इदमनुलेपनम् ॐ क्रियायै नमः ॥
  • सिन्दूर : इदं सिन्दूराभरणम् ॐ क्रियायै नमः ॥
  • अक्षत : इदमक्षतम् ॐ क्रियायै नमः ॥
  • पुष्प : इदं पुष्पम् ॐ क्रियायै नमः ॥
  • जल : एतानि गन्धपुष्पधूपदीपताम्बूलयथाभागनैवेद्यादीनि ॐ क्रियायै नमः ॥
  • पुष्पांजलि : एष पुष्पाञ्जलिः ॐ क्रियायै नमः ॥

उमा पूजन

  • अक्षत : इदमक्षतं ॐ उमे इहागच्छ इह तिष्ठ ॥
  • जल : एतानि पाद्यादीनि एषोऽर्घ्यः ॐ उमायै नमः ॥
  • गंध : इदमनुलेपनम् ॐ उमायै नमः ॥
  • सिन्दूर : इदं सिन्दूराभरणम् ॐ उमायै नमः ॥
  • अक्षत : इदमक्षतम् ॐ उमायै नमः ॥
  • पुष्प : इदं पुष्पम् ॐ उमायै नमः ॥
  • जल : एतानि गन्धपुष्पधूपदीपताम्बूलयथाभागनैवेद्यादीनि ॐ उमायै नमः ॥
  • पुष्पांजलि : एष पुष्पाञ्जलिः ॐ उमायै नमः ॥

जया पूजन

  • अक्षत : इदमक्षतं ॐ जये इहागच्छ इह तिष्ठ ॥
  • जल : एतानि पाद्यादीनि एषोऽर्घ्यः ॐ जयायै नमः ॥
  • गंध : इदमनुलेपनम् ॐ जयायै नमः ॥
  • सिन्दूर : इदं सिन्दूराभरणम् ॐ जयायै नमः ॥
  • अक्षत : इदमक्षतम् ॐ जयायै नमः ॥
  • पुष्प : इदं पुष्पम् ॐ जयायै नमः ॥
  • जल : एतानि गन्धपुष्पधूपदीपताम्बूलयथाभागनैवेद्यादीनि ॐ जयायै नमः ॥
  • पुष्पांजलि : एष पुष्पाञ्जलिः ॐ जयायै नमः ॥

विजया पूजन

  • अक्षत : इदमक्षतं ॐ विजये इहागच्छ इह तिष्ठ ॥
  • जल : एतानि पाद्यादीनि एषोऽर्घ्यः ॐ विजयायै नमः ॥
  • गंध : इदमनुलेपनम् ॐ विजयायै नमः ॥
  • सिन्दूर : इदं सिन्दूराभरणम् ॐ विजयायै नमः ॥
  • अक्षत : इदमक्षतम् ॐ विजयायै नमः ॥
  • पुष्प : इदं पुष्पम् ॐ विजयायै नमः ॥
  • जल : एतानि गन्धपुष्पधूपदीपताम्बूलयथाभागनैवेद्यादीनि ॐ विजयायै नमः ॥
  • पुष्पांजलि : एष पुष्पाञ्जलिः ॐ विजयायै नमः ॥

तत्पश्चात् हाथों से स्पर्श करते हुये अपराजिता लता को अभिमंत्रित करे :

ॐ सदाऽपराजिते यस्मात्त्वं लतासूत्तमा स्मृता । सर्वकामार्थसिद्ध्यर्थं तस्मात्त्वां धारयाम्यहम् ॥
भवाऽपराजिते देवि मम सर्वसमृद्धये । पूजितायां त्वयि श्रेयो ममाऽस्तुदुरितं हतम् ॥

अभिमंत्रित करने के पश्चात् दक्षिण भुजा पर धारण करे :

ॐ जयदे वरदे देवि दशम्यामपराजिते । धारयामि भुजे दक्षे जयलाभाभिवृद्धये ॥

इस प्रकार अपराजिता पूजन के उपरांत अस्त्रादि की पूजा करके, ओंकार का उच्चारण करते हुए प्रदक्षिणा करके प्रार्थना करे :

ॐ इमां पूजां महादेवि यथाशक्ति निवेदिताम् । रक्षणाय समादाय व्रज स्वस्थानमुत्तमम् ॥

वर्त्तमान काल में अस्त्र-शस्त्र पूजन की आवश्यकता बढ़ गयी है और इसको ध्यान रखते हुये आत्मरक्षार्थ अस्त्र-शस्त्र पूजन व प्रार्थना आदि करे। शस्त्रास्त्रों का पूजन भी शास्त्रोक्त विधि है एवं उचित अवसर पर पूजा-प्रार्थना करनी चाहिये।

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