पिछले दो आलेखों में हमने यह समझा है कि संसार का नाम ही दुःखालय है, यहां दुःख ही दुःख मिलता है, तो इसके बाद एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या संसार में कोई सुखी नहीं है और यदि है तो कौन है ? इस आलेख में हम सुख और सुखी व्यक्ति के बारे में समझने का प्रयास करेंगे। विमर्श कुतर्कियों के आधार पर नहीं शास्त्रसम्मत की गयी है और यदि आप शास्त्रसम्मत जो प्राचीन काल में भी सत्य था, वर्तमान में भी सत्य है और भविष्य में भी सत्य रहेगा सुख के संबंध में ऐसा विमर्श चाहते हैं तो यह आलेख आपके लिये विशेष उपयोगी है।
क्या संसार में कोई सुखी नहीं है, दुःख के प्रकार
“आहार निद्रा भय मैथुनं च” ये चार चीजें सभी प्राणियों में समान रूप से ही पायी जाती है। इन चार चीजों के कारण मनुष्य अन्य किसी प्राणियों से तनिक भी भिन्न नहीं है तथापि भिन्न है भी। ये भिन्नता वर्त्तमान युग में अत्यधिक दिखती है।
- आहार : आहार जीवन के लिये आवश्यक है किन्तु मनुष्य की सोच में कहीं न कहीं विकृत्ति आ गयी है जिस कारण विपरीत अर्थ ग्रहण कर लेता है और आहार के लिये ही जीने लगता है।
- निद्रा : कब सोना है कब जगना इसका निर्धारण प्रकृति ने ही कर रखा है, दिन में सोना और जगना और रात में सोना। लेकिन आहार के साथ इतने विषय मनुष्य ने संबद्ध कर लिया है कि कब सोना चाहिये कब जगना कुछ स्वीकार नहीं करता। अधिकांश मनुष्य आधी रात के बाद ही सोते हैं और दिन का प्रथम चरण सोकर ही बिता देते हैं। उन अधिकांश लोगों में ही मेरी भी गिनती होगी। लेकिन किसान उन अधिकांश लोगों से बाहर होता है।
- भय : मुख्य भय मृत्यु का है जो प्राचीन काल से वर्त्तमान तक है और भविष्य में रहेगा। लेकिन वर्त्तमान युग में मनुष्य ने इसके अतिरिक्त भी अनेकों भय बनाकर रखता है। एक युवा नौकरी होगा या नहीं, नौकरी होने के बाद प्रतिदिन नये-नये प्रकार का भय। सड़क पर चले तो दुर्घटना का भय, बच्चे हों तो उसकी असफलता का भय। ये भय व्यक्ति की आर्थिक स्थिति के आधार पर ही वृद्धि करते रहते हैं। एक बड़े उद्यमी को भोजन में भी विष का भय होता है और सोते समय भी नाना प्रकार का भय। वर्तमान युग का प्रत्येक मनुष्य प्रतिदिन पलपल नये भय को पालते ही रहता है।
- मैथुन : मैथुन के संबंध में मनुष्य प्राचीन काल में भी अनियंत्रित रहता था, वर्त्तमान में भी है। तथापि प्राचीन काल में जितना भी मर्यादा, नियमों आदि का पालन करता था वर्त्तमान में कुछ भी नहीं पालन करता। प्राचीन काल में कुछ लोग मैथुन संबंधी अनाचार में लिप्त होता था, वर्त्तमान में तो शासन और न्यायपालिका भी अनाचार को प्रोत्साहित करते हुये ही देखी जा रही है। समलैंगिक विवाह और लिंग परिवर्तन जैसे विषयों के लिये तो न्यायपालिका ही व्याकुल हो रही है। न्यायपालिका को यह ज्ञात नहीं रहा कि वो आज जो कर रही है वह भविष्य का इतिहास होगा और उनके अच्छे और बुड़े सभी कृत्यों का उल्लेख होगा।
अब अगला महत्वपूर्ण प्रश्न है कि यदि ये चारों विषय सभी प्राणियों में विद्यमान होते हैं तो मनुष्य अन्य प्राणियों की तुलना में विचित्र क्यों है? क्योंकि ढेरों अंतर पाये जाते हैं यथा :
- अन्य प्राणी कच्चा भोजन करते हैं, मनुष्य पकाकर करता है।
- अन्य प्राणियों को मनुष्य की तुलना में भय व दुःख अधिक होता है।
- अन्य प्राणियों का स्वास्थ्य मनुष्य की तुलना में कई गुना उत्तम होता है।
- अन्य प्राणियों के लिये निर्धारित है कि कौन किसकी हिंसा कर सकता है। मनुष्य एक मात्र ऐसा प्राणी है जो सभी प्राणियों की हिंसा कर सकता है। किन्तु यदि अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग न करे तो एक गीदड़ की हिंसा भी न कर पाये।
- अन्य प्राणियों को अपने पैरों पर खड़ा होने में कुछ ही समय लगता है, मनुष्य को की महीने लग जाते हैं, वर्ष भी लगते हैं।
- आंसू तो अन्य प्राणी भी बहाते हैं, रोते हैं लेकिन हंसना मात्र मनुष्य जानता है।
इन्हीं अंतरों के कारण विज्ञान और समाजशास्त्री मनुष्य को विवेकशील प्राणी कहते हैं। समाजशास्त्री, वैज्ञानिक, इतिहासकार, दार्शनिक जो भी विषय हो भारतीय शिक्षा पद्धति यही मानती है कि भारत में सभी मूर्ख होते थे, जो भी ज्ञानी हुये वो विदेशी ही हुये और पुस्तकों में उनकी बातें ही भरी हुई है।
साधनधाम मोक्ष कर द्वारा : भारतीय शास्त्रों में यह बताया गया है कि मनुष्य देह सर्वश्रेष्ठ है और इसका कारण यह है कि मनुष्य शरीर ही मोक्ष का द्वार है, साधन है। किन्तु यदि विद्यालयों में मोक्ष का द्वार बताया जाये तो फिर मोक्ष भी विषय बनेगा ।
दुःसह दुःख
यदि उपरोक्त तथ्यों की ही विस्तृत चर्चा करते रहें तो ढेरों आलेख हो जायेगें भविष्य में करने का प्रयास करेंगे। अभी इससे आगे की चर्चा पर बढ़ते हैं। जन्म और मृत्यु के काल में जो दुःख होता है उसे दुस्सह कहा गया है “जनमत मरत दुसह दुःख होई” और इस दुःख के निराकरण का विकसित मनुष्य कोई समाधान नहीं निकाल पाया है और न ही कोई समाधान निकाल पायेगा।
समाधान निकालने की बात तो दूर इस विषय पर तो अभी तक सोच भी नहीं पाया है। इस दिशा में आगे कुछ सार्थक प्रयास करना तो दूर की कौड़ी है। जन्म के समय वाले दुःख के संबंध में तो समाधान नहीं हो सकता तथापि अपने मुंह मियां मिट्ठू होकर शल्य के लिये विज्ञान अपनी पीठ थपथपा सकता है। लेकिन मृत्यु संबंधी दुःख के विषय में तो वो भी नहीं कर सकता हैं हां एक काम कर सकता है कि कुछ सेकेंड में मृत्यु देने का (हत्या) करने का उपाय निकाल सकता है।
लेकिन दुसह दुख का तात्पर्य समय से नहीं दुःख की मात्रा से है जिसके लिये विज्ञान कुछ नहीं कर सकता है। जन्म और मरण का दुस्सह दुःख क्षणिक ही होता है और उस क्षणिक दुःख के लिये विज्ञान कुछ कर ही नहीं सकता और यही शास्त्रों में लिखा हुआ है। जो शास्त्रों को गलत कहते हैं वो इस तथ्य को असत्य सिद्ध करके दिखायें। इस तथ्य को असत्य सिद्ध नहीं कर पायेंगे किन्तु शास्त्रों को असत्य कहने का दुस्साहस निरंतर करेंगे।
किन्तु अध्यात्म दुःसह दुःख जो कि जन्म-मरण का है उससे भी निवृत्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। प्रथम तो इस प्रकार से कि जन्म-मृत्यु से ही मुक्ति मिल जाये, जिसे मोक्ष प्राप्ति भी कहते हैं। द्वितीय यह कि मोक्ष न भी प्राप्त हो अर्थात कुछ और जन्म-मृत्यु हो परन्तु दुःख न हो। इसका उदहारण है जड़ भरत की कथा। जड़ भरत सभी दुःखों से मुक्त थे।
दुःख और विज्ञान
दुःख के विषय में विज्ञान यदि कुछ कर सकता है तो मात्र इतना कि शारीरिक रोग को कम करने का प्रयास कर सकता है किन्तु सत्यापित इसके विपरीत किया है। विज्ञान ने लोगों को स्वस्थ नहीं बनाया है, रोगों का निवारण नहीं किया है अनेकों रोग उत्पन्न किया है। अपवाद में दो-चार रोगों का निवारण करना है किन्तु उसके स्थान पर नये रोगों की उत्पत्ति ही अधिक किया गया है। किन्तु रोग ही दुःख होता है इस प्रकार सोचना ही मूर्खता होगी। विज्ञान इससे आगे नहीं जा सकता।
विज्ञान इससे आगे बढ़ ही नहीं सकता इसलिये रोग को ही दुःख सिद्ध करने का प्रयास करता है। विज्ञान दो प्रकार का रोग बताता है शारीरिक और मानसिक और दुःख भी दो प्रकार का बताता है। शारीरिक दुःख होता है यह पूर्व के आलेखों में भी खंडित किया जा चुका है, शरीर को दुःख नहीं होता है। शरीर दुःख का माध्यम बनता है।
दुःख के प्रकार
दैहिक, दैविक, भौतिक तापा गोस्वामी तुलसीदास ने ये तीन प्रकार के दुःख बताये थे। तापत्रय में शास्त्रों के अनुसार आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ये तीन प्रकार के दुःख होते हैं।
इन तीन प्रकार के दुःखों की चर्चा और व्याख्या अतिजटिल है, कितना जटिल है इसे समझने के लिये आप यूट्यूब पर दुःख के प्रकार ढूंढकर बड़े-बड़े कथा प्रवक्ताओं की व्याख्या सुनिये। कुछ स्पष्ट तो नहीं होगा किन्तु भ्रम हो जायेगा। वैसे किसी कथावक्ता की विडियो मत देखना, जो बड़े-बड़े भागवत, रामायण आदि कथा कहने वाले हैं, प्रसिद्ध हैं उनकी वविडियो देखिये, अलग-अलग 5 – 7 वक्ताओं की सुन लीजिये और उन्हीं को सुनिये जो तीन प्रकार बता रहे हैं, उनको नहीं जो 4, 5, 6 आदि प्रकार बता रहे हैं।
अभी मेरा दुःख तो ये है कि इन अंतरराष्ट्रीय कथावाचकों का दुःख के प्रकारों नाना प्रकार से जैसे-तैसे कभी कुछ, कहीं कुछ बोल देना, और अधिक अस्पष्ट कर देना और इसे किस श्रेणी में रखा जाय ? दैहिक, दैविक और भौतिक चर्चा में अधिक विडम्बना नहीं है किन्तु जब आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक की चर्चा करते हैं तो बस विडम्बना ही विडम्बना होती है। ये यूं ही नहीं कहा जा रहा है, हमने ढूंढा-सुना कि चलो थोड़ा समझते हैं बड़े वक्ताओं से और भ्रम बढ़ने लगा।
प्राकृतिक आपदाओं (गर्मी, ठंढ, वर्षा, भूकंपादि) को कोई दैविक कहते तो कोई भौतिक, आध्यात्मिक को कोई दैहिक सिद्ध करते हैं तो कोई ऐसा बताते कोई दैविक सिद्ध करने लगते हैं। ग्रहदशाओं, पितृदोष, वास्तुदोष से प्राप्त होने वाले दुखों को कोई छूते ही नहीं कि ये कौन सा दुःख है ?
आध्यात्मिक दुःख
आध्यात्मिक में आत्मा का तात्पर्य देह से ही है और दैहिक दुःख ही आध्यात्मिक दुःख है। आत्मा देह से अलग है किन्तु कई बार आत्मा देह के लिये भी प्रयुक्त होता है, जैसे आत्मशुद्धि : आत्मा शुद्ध ही है आत्मा को शुद्ध करने की आवश्यकता नहीं है, शरीर को शुद्ध करना ही आत्मशुद्धि का तात्पर्य होता है। “आत्मवत् सर्वभूतेषु” में आत्मा तात्पर्य नहीं देह ही तात्पर्य है। आध्यात्मिक अर्थात दैहिक दुःख का तात्पर्य देह के कारण जो दुःख होता है जैसे रोग होना।
जलना, कटना, चोट लगना आदि दैहिक दुःख की श्रेणी में नहीं आयेंगे क्योंकि ये देह से उत्पन्न नहीं हुये हैं, देह प्रभावित होगा। मच्छड़ के काटने से मलेरिया-डेंगू हो जाना भौतिक दुःख होगा, ठंड लगने से या लू लगने से जो बुखार आयी वो भौतिक होगा, दैहिक नहीं। देह से उत्पन्न नहीं हुआ, भौतिक कारणों से हुआ। दुर्घटना में उंगली कट गई, हाथ-पैर टूट गया दैविक दुःख होगा, न तो दैहिक न ही भौतिक। आपदा भौतिक होती है, लेकिन आपदा को दैवीय बोला जाता है, दुर्घटना दैवीय होती है किन्तु दुर्घटना को भौतिक बोल दिया जाता है।
आधिदैविक दुःख
आधिदैविक दुःख अर्थात दैविक जो न तो दैहिक है न ही भौतिक। जहां पर दुर्भाग्य प्रतीत होने लगता है, परिश्रम किया परंतु सफलता परिश्रम के अनुपात में नहीं मिली। दुःख होता है ये दैविक दुःख है। दैविक में क्या-क्या आ सकता है यह निर्धारण कठिन है किन्तु एक विशेषता के कारण इसे समझा जा सकता है। दैहिक दुःख उत्पन्न हुआ गया अथवा नहीं भी गया, भौतिक दुःख आया और गया। लेकिन दैविक दुःख नाना प्रकार से दुःख आने लगा।
असफलताओं की एक श्रेणी बनने लगती है, हानि भी हुई, विवाद भी हो गया और वकीलों के चक्कर में फंस गये, रोग भी ऐसा उत्पन्न हो गया जो चिकित्सक को समझ ही नहीं आ रहा है, वियोग भी होने लगा, मित्र शत्रु बन गये, एक और नया विवाद खड़ा हो गया।
किसी का विवाह तय हो गया और उस विवाह में कोई अड़चन आ गयी, भंग हो गया, किसी का तलाक हो गया दुःख तो मिला। किन्तु इसे किस श्रेणी में रखेंगे दैहिक नहीं, भौतिक नहीं, ये दैविक श्रेणी में होगा। परिवार में अकालमृत्यु हो गयी क्या दैहिक है – नहीं, क्या भौतिक है – नहीं, दैविक है। ग्रहदशा, पितृदोष, सर्पदोष, वास्तुदोष आदि जितने भी प्रकार के दोषों के कारण उत्पन्न दुःख होते हैं वो दैविक दुःख या आधिदैविक दुःख ही होते हैं।
विवाह में विलंब होना, संतान नहीं होना दैहिक है या भौतिक, ये न ही दैहिक है न ही भौतिक ये दैविक दुःख है। संतान के संबंध में एक क्षण के लिये ऐसा भी लग सकता है कि दैहिक है और विज्ञान शुक्राणु, गर्भधारण क्षमता आदि की बात करके ऐसा ही सिद्ध करने का प्रयास करेगा। किन्तु सब कुछ अनुकूल होने पर भी विलम्ब होना, गर्भपात हो जाना, बालक का मृत जन्म होना, अल्पायु होना आदि प्रकार से भी संतान सुख में बाधा होती है और ये दैविक दुःख ही है। विज्ञान की बाध्यता है क्योंकि विज्ञान जान-बूझकर देव को ही नकारता है। विज्ञान जब देव को ही नकारता है तो दैवीय दुःख को मान्यता कैसे दे सकता है।
आधिभौतिक दुःख
अधिभौतिक अर्थात भौतिक भौतिक अर्थात भूतों के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से दुःख की प्राप्ति होना। विभिन्न जीव-जंतु, गर्मी, ठंढ, जल, अग्नि, वायु, भूकंप, उत्पात, वज्रपात आदि के कारण से उत्पन्न हुआ दुःख। किसी विषैले जीव ने काट लिया, कुत्ते ने काट लिया, घोड़े ने दुल्लती जड़ दिया, आग से जल गये, गोली लग गई, चाकू से किसी ने प्रहार कर दिया, बाढ़ में फंस गये, ठंड लग गई, मच्छर के काटने से मलेरिया-डेंगू हो गया, भूकंप के कारण घर गिर गया, चोर-बदमाशों ने तंग किया आदि-इत्यादि। भौतिक दुःख का तात्पर्य है किसी अन्य भूत (जीव/प्राणी) या पंचभूतों से प्राप्त दुःख।
दुर्घटना भौतिक क्यों नहीं, दैविक ही क्यों : बाढ़ हो, लू का चलना हो, ठंढ का लगना हो, कोई जीव काट ले या प्रहार कर दे, पहाड़ गिर पड़े कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है। भूकंप हो जाये, ज्वालामुखी फट जाये, बादल फट जाये, धरती खिसक जाये कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है। सभी भौतिक ही होते हैं। किन्तु दुर्घटना सदैव अप्रत्याशित ही होती है। यदि कोई जान-बूझ कर धक्का मार दे तो वो दुर्घटना नहीं प्रहार होता है और वो भौतिक होगा।
दुर्घटना वो है जो किसी ने जान-बूझकर नहीं किया। ब्रेक में गड़बड़ी किसी ने जान-बूझकर नहीं किया, सही था अचानक से फेल हो गया, सामने वाले या पीछे वाले का ही ब्रेक फेल हो गया, अचानक से कुछ पल के लिये दिखना ही बंद हो गया और ठोक दिया, सामान्य गति से ही चल रहे हैं सदा नियंत्रण रहता है लेकिन एक दिन उसी गति में गाड़ी अनियंत्रित हो गयी आदि अप्रत्याशित होते हैं और ये दैविक ही होते हैं।
संसार में सभी दुःखी हैं
संसार में कहने का तात्पर्य जो शरीर और मन दोनों प्रकार से संसार में ही रहे उसे सदा दुःख ही प्राप्त होता है। संसार में सुख है ही नहीं, मिलता ही नहीं, दुःखालय में दुःख ही है और दुःख ही मिलता है। 99.999% मनुष्य व अन्य सभी प्राणी मन से भी संसार में ही रहते हैं इसलिये सभी दुःखी ही होते हैं। अत्यल्प मनुष्य ऐसे आध्यात्मिक होते हैं जो मात्र तन से संसार में रहते हैं और मन राखहुं जहँ कृपानिधाना का आश्रय लेते हैं अर्थात मन को संसार में नहीं लगाते अर्थात संसार से विलग करके आत्मा में, भगवान में लगाते हैं। उनके अतिरिक्त सभी प्राणी दुःखी ही होते हैं।
अपवाद को अपवाद ही समझना होगा, यदि अत्यल्प मात्रा में कुछ मनुष्य दुःखी नहीं हैं तो वो अपवाद हैं, साथ ही एक अन्य बात भी है कि वो मात्र तन से संसार में रहते हैं मन से संसार में रहते हैं नहीं। शेष सभी दुःखी ही है अर्थात संसार में सभी दुःखी ही है, कोई सुखी नहीं है।
अत्यल्प सुखी मनुष्यों का वर्णन श्रीमद्भागवत महापुराण में किया गया है “यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धेः परं गतः । तावुभौ सुखमेधेते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः ॥” संसार में दो प्रकार के मनुष्य ही सुखी हैं एक तो वो जो मूढ़ है, अर्थात उसे ज्ञात ही नहीं कि सुख क्या और दुःख क्या ? दूसरे वो जो परमज्ञानी होते हैं, आत्मज्ञानी होते हैं वो भी सुखी होते हैं क्योंकि वो अपने मन को संसार से विलग कर लेते हैं। आत्मज्ञानी में वो भक्त भी गण्य होंगे जो आत्मज्ञानी न होकर भी मन को संसार से विलग कर भगवान में लगाये रखते हैं।
मूढ़ का वर्णन इसलिये किया गया है कि उसे सुख-दुःख का कोई ज्ञान ही नहीं होता, इच्छायें ही नहीं होती। मूढ़ के विषय में कई प्रकार की शंकायें उत्पन्न हो सकती है। यदि उसे भूख लगे और भोजन न मिले तो दुःखी होगा या नहीं, पीटा जाये तो दुःख होगा या नहीं आदि-आदि। तथापि ऐसा कदापि नहीं है कि श्रीमद्भागवत महापुराण के इस वचन को झुठलाया जा सके।
अल्पबुद्धिवश इस विषय पर अधिक विमर्श करने में अक्षमता का अनुभव करते हुये इतना ही कहना चाहूंगा कि वो क्षणिक मात्र ही होगा और ऐसा दुःख आत्मज्ञानियों को भी होता है, इसके उदाहरण हैं च्यवन मुनि। तथापि ऐसा भी उदाहरण है जिसमें शूली पर चढ़ा देने के उपरान्त भी माण्डव्य ऋषि आत्मस्थ हो गये और न तो दुःख हुआ न ही प्राण निकला।
यह विषय कर्मफल से संबद्ध हो जाता है जिसमें कुछ ऐसे भोग जिनका निवारण न हो पाया वो दुःख प्रतीकात्मक रूप से भी भोगना ही पड़ता है। माण्डव्य ऋषि के शूली पर चढ़ाने वाले प्रकरण में तो धर्मराज ही दोषी सिद्ध हो गये क्योंकि बाल्यावस्था के पाप का दंड शूली पर चढ़ाकर दिया गया था। इस प्रकरण में एक और कड़ी जुड़ जाती है भवितव्यता च्यवन ऋषि के साथ कुछ भवितव्यता शेष थी सुकन्या से विवाह करना, पुनर्यौवन प्राप्त करना आदि। अर्थात च्यवन ऋषि के प्रकरण में दुःख प्राप्ति कहना ही उचित नहीं होगा वहां भवितव्यता का ग्रहण करना यथोचित होगा।
एक बात पुनः स्मरण कराना आवश्यक है कि दुःख से संबंधित चर्चा का ये आलेख भी अभी समाप्त नहीं हुआ है अभी और आलेख प्रकाशित किया जायेगा। इस संबंध में दो आलेख पहले प्रकाशित किया जा चुका है और ये तीसरा आलेख है। इसके बाद जो आलेख होगा वो चौथा आलेख होगा। सबके लिंक यहां संलग्न किये जा रहे हैं, चौथे आलेख का लिंक प्रकाशित होने के उपरांत सक्रीय होगा।
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