इस आलेख में उत्तम षोडशी श्राद्ध विधि उसकी क्रियाओं, श्राद्ध देश, श्राद्ध के अधिकारी, पात्र, सपात्रक और अपात्रक श्राद्ध, श्राद्ध में क्या करना चाहिए आदि की विस्तृत चर्चा की गयी है जो की श्राद्ध (shraddh karm)में आस्था रखने वालों के लिये विशेष उपयोगी है। साथ साथ प्रेत श्राद्ध सम्बन्धी या उत्तम षोडशी श्राद्ध के सम्बन्ध में भी विस्तृत जानकारी दी गयी है और 16 श्राद्ध की चर्चा करते यह भी बताया गया है कि क्या-क्या और किस विधि से करना चाहिये।
जानिये 16 श्राद्ध में क्या करना चाहिए ? षोडश श्राद्ध विधि – shraddh karm
सबसे पहले हम 16 श्राद्ध अर्थात षोडश श्राद्ध को समझते हैं, जैसा की पूर्व आलेख में बताया जा चुका है कि षोडश श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं मलिन षोडशी, मध्यम षोडशी और उत्तम षोडशी। सही विधि से श्राद्ध करने के लिये श्राद्ध की जानकारी होना आवश्यक है। श्राद्ध के विषय में ज्ञान न हो तो सही विधि से श्राद्ध करना संभव नहीं है।
कुछ लोग यह समझते हैं कि श्राद्ध तो जीवन में मात्र 2 बार किया जाता है माता और पिता के मरने पर बहुत बड़ा भ्रम है और सबसे पहले इस भ्रम का त्याग करना आवश्यक होता है। कर्मकांड में श्राद्ध ही वो कर्म है शास्त्रों ने जिसका जीवन में सर्वाधिक करने विधान किया है।
- एक मृतक के लिये 3 षोडशी अर्थात 16×3 = 48 श्राद्ध होता है यदि मध्यम षोडशी हटा दें तो भी 32 श्राद्ध, मिथिला में दशगात्र के 10 ही पिंड होते हैं तो भी 26 श्राद्ध तो होते ही हैं।
- इसके बाद प्रत्येक वर्ष क्षयतिथि पर वर्ष श्राद्ध, महालय में न्यूनतम 1 श्राद्ध, अर्थात हर वर्ष 2 श्राद्ध।
- इसके साथ ही विभिन्न पर्वादि पर तो बहुत सारे श्राद्ध कहे गये हैं।
इसलिये सभी व्यक्ति को श्राद्ध के बारे में विशेष जानकारी होना आवश्यक है। श्राद्ध संबंधी जानकारी का अभाव होने पर श्राद्ध सही से करना और कराना दोनों ही असंभव है। यदि आपने इससे पहला आलेख नहीं पढ़ा है तो उसे पढ़ने के लिये यहां क्लिक करें – श्राद्ध कर्म विधि मंत्र
इस आलेख में श्राद्ध के सामान्य और गंभीर दोनों विषयों पर चर्चा की गयी है एवं अन्य कई प्रकार के विश्लेषण किये गये हैं जो कि अति-उपयोगी हैं।
मलिन षोडशी : मलिन षोडशी में मृत्युस्थान से लेकर अस्थिसंचय तक के 6 पिण्ड और दशगात्र के 10 पिण्ड आते हैं। गरुडपुराण में दशगात्र के अतिरिक्त मलिन षोडशी के 6 पिण्डों का वर्णन इस प्रकार किया गया है – मृतस्थाने तथा द्वारे चत्वरे तार्क्ष्य कारणात्। विश्रामे काष्ठचयने तथा सञ्चयने च षट् ॥
मध्यम षोडशी विधि : मध्यम षोडशी के 16 पिण्ड इस प्रकार बताये गये हैं – प्रथम पिण्ड विष्णु के लिये, द्वितीय पिण्ड शिव के लिये, तृतीय पिण्ड यमराज के लिये, चतुर्थ पिण्ड सोमराज के लिये, पञ्चम पिण्ड हव्यवाहन के लिये, षष्ठ पिण्ड कव्यवाहन के लिये, सप्तम पिण्ड काल के लिये, अष्टम पिण्ड रुद्र के लिये, नवम पिण्ड पुरुष के लिये, दशम पिण्ड प्रेत के लिये, एकादश पिण्ड विष्णु के लिये, द्वादश पिण्ड ब्रह्मा के लिये, त्रयोदश पिण्ड विष्णु के लिये, चतुर्दश पिण्ड शिव के लिये, पञ्चदश पिण्ड यम के लिये और षोडश पिण्ड तत्पुरुष के लिये।
लेकिन मध्यम षोडशी सभी क्षेत्रों में नहीं किया जाता है। उपरोक्त मलिन षोडशी के 16 पिण्डों का विधान गरुडपुराण में इस प्रकार बताया गया है :
प्रथमं विष्णवे दद्याद् द्वितीयं श्रीशिवाय च । याम्याय परिवाराय तृतीयं पिण्डमुत्सृजेत् ॥
चतुर्थं सोमराजाय हव्यवाहाय पञ्चमम् । कव्यवाहाय षष्ठं च दद्यात् कालाय सप्तमम् ॥
रुद्राय चाष्टमं दद्यान्नवमं पुरुषाय च । प्रेताय दशमं चैवैकादशं विष्णवे नमः ॥
द्वादशं ब्रह्मणे दद्याद् विष्णवे च त्रयोदशम् । चतुर्दशं शिवायैव यमाय दशपञ्चकम् ॥
दद्यात् तत्पुरुषायैव पिण्डं षोडशकं खग । मध्यं षोडशकं प्राहुरेतत् तत्त्वविदो जनाः ॥
उत्तम षोडशी श्राद्ध विधि : उत्तम षोडशी में एकादशाह के दिन किया जाने वाला आद्यश्राद्ध या महैकोद्दिष्ट और 14 मासिक एवं सपिण्डी श्राद्ध आता है। षोडशत्रयी की गणना में भ्रम होने पर कुछ लोग मतान्तर भी बताते हैं।
किन्तु मिथिला में इसी को षोडश श्राद्ध (उत्तम षोडशी) माना गया है एवं एकादशाह के दिन आद्य श्राद्ध से पूर्व षोडश श्राद्ध का संकल्प किया जाता है जिसके बाद एकादशाह को आद्य श्राद्ध से आरम्भ कर द्वादशाह के सपिण्डी श्राद्ध तक का पिण्डदान किया जाता है। उत्तम षोडशी के सम्बन्ध में मिथिला के विद्वानों को किसी प्रकार का भ्रम नहीं मिलता।
सपिण्डीकरण श्राद्ध एकादशाह और द्वादशाह दोनों में से किसी दिन भी किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त अन्य दिन भी बताये गये हैं किन्तु जब प्रेतकर्म (श्राद्ध) 12 दिन में समाप्त करना हो तो आगे के दिनों की आवश्यकता भी नहीं है ।
सपिण्डीकरण श्राद्ध के बिना प्रेतत्व की निवृत्ति नहीं होती है एवं षोडश श्राद्ध भी प्रेतत्व निवृत्ति हेतु ही किये जाते हैं । मुख्य पक्ष द्वादशाह के दिन मासिक श्राद्धों के उपरांत सपिण्डिकरण श्राद्घ करने का है।
यदि 11 महीने के भीतर अधिकमास पड़े तो एक मासिक श्राद्ध (अधिकमास) की भी वृद्धि होती है एवं उसे सप्तदश श्राद्घ कहा जाता है।
षोडश श्राद्ध प्रेतत्व से मुक्ति के लिये ही किया जाता है और सपिंडीकरण भी षोडश श्राद्ध में ही आता है। इसलिये औपचारिक रूप से प्रेत-श्राद्ध भी कहा जा सकता है। षोडश श्राद्ध में सर्वत्र प्रेत पद का प्रयोग किया जाता है।
श्राद्धाधिकारी अर्थात श्राद्ध करने का अधिकारी
पुत्र के प्रकार : श्राद्धाधिकारी का विचार करने से पहले द्वादश प्रकार के पुत्रों को समझना भी आवश्यक है। मनु ने बारह प्रकार के पुत्र कहै हैं – औरस, क्षेत्रज, दत्तक, कृत्रिम्, गूढ़ोत्पन्न, अपविद्ध, कानीन, सहोढ, क्रीत, पौनर्भव, स्वयंदत्त और शौद्ध ।
स्मृतिसंग्रह में श्राद्ध के अधिकारियों का इस प्रकार वर्णन किया गया है – पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, पुत्रिकापुत्र (पुत्रिकापुत्र और दौहित्र में थोड़ा अंतर होता है ये ध्यातव्य है), पत्नी, भ्राता, भ्राता का पुत्र, पिता, माता, पुत्रवधू, बहन, भागिनेय (भांजा), सपिण्ड और सोदक। इनके पास उत्तरोत्तर अधिकार होता है अर्थात यदि पहले का अभाव हो तो क्रमशः अगले को अधिकार होता है।
पुत्रः पौत्रश्च तत्पुत्रः पुत्रिकापुत्र एव च । पत्नी भ्राता च तज्जश्च पिता माता स्नुषा तथा ॥
भगिनी भागिनेयश्च सपिण्डः सोदकस्तथा । असन्निधाने पूर्वेषामुत्तरे पिण्डदाः स्मृताः ॥ – स्मृतिसंग्रह
हेमाद्रि में पुत्र, पत्नी और सोदर बताया गया है : पितुः पुत्रेण कर्तव्या पिण्डदानोदकक्रिया । पुत्राभावे तु पत्नी स्यात् पत्न्यभावे तु सोदरः ॥ – हेमाद्रि
श्राद्धाधिकारी के विषय में विस्तृत और सर्वोपयुक्त वचन विष्णुपुराण से इस प्रकार प्राप्त होता है :
पुत्रः पौत्रः प्रपौत्रो वा भ्राता वा भ्रातृसन्ततिः । सपिण्डसन्ततिर्वापि क्रियार्हो नृप जायते ॥
तेषामभावे सर्वेषां समानोदकसन्ततिः । मातृपक्ष सपिण्डेन सम्बद्धा ये जलेन वा ॥
कुलद्वयेऽपि चोच्छिन्ने स्त्रीभिः कार्याः क्रिया नृप ॥ सङ्घातान्तर्गतैर्वापि कार्याः प्रेतस्य च क्रियाः ।
उत्सन्नबन्धुरिक्थाद्वा कारयेदवनीपतिः ॥ – विष्णुपुराण
ये सभी क्रम से पूर्व के अभाव में उत्तरोत्तर श्राद्ध के अधिकारी होते हैं :- पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, भाई, भतीजा, सपिण्ड की संतति ही श्राद्ध करने का अधिकारी होता है। विशेष परिस्थिति में जब इन सबका भी अभाव हो तो आगे और बताया गया है समानोदक (सोदक – सापिण्ड्य से आगे की 7 पीढ़ी सोदक कहलाती है), मातृपक्ष का सपिण्ड, मातृपक्ष से सोदक। यदि दोनों कुल का नाश हो गया हो तो पत्नी करे। यदि पत्नी भी न हो तो मित्र और उसके अभाव में भी राजा करे।
श्राद्ध देश – श्राद्ध करने के लिये प्रशस्त स्थान
श्राद्ध करने के लिये प्रशस्त स्थान सम्बन्धी प्रजापति का वचन है – धात्री बिल्व वटाऽश्वत्थ मुनि चैत्य गजान्विताः। श्राद्धं छायासु कर्तव्यं प्रासादादौ महावने ॥ अन्य प्रमाणों में तो विशेष तीर्थों आदि की जानकारी मिलती है किन्तु प्रजापति के इस वचन में जो निवास स्थान के निकट श्राद्ध करने के लिये स्थान बताया गया है वो प्रेत (षोडस) श्राद्ध के लिये विशेष महत्वपूर्ण है।
गङ्गा तट को भी श्राद्ध के लिये विशेष महत्वपूर्ण बताया गया है, मत्स्यपुराण में लिखा गया है – गंगातीरे तु सम्प्राप्ते इन्दोः कोटी रवेर्दश। श्राद्ध के लिये यदि गंगातट उपलब्ध हो तो करोड़ों चंद्रग्रहण और दश सूर्यग्रहण के समान फलदायी होता है। लेकिन गङ्गातट पर प्रेत श्राद्ध करना भी केवल गङ्गातट पर निवास करने वालों के लिये ही सुलभ हो सकता है।
श्राद्ध स्थान के संबंध में बहुत सारे विशेष स्थानों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है जिसका आशय यही हो सकता है कि यदि उन पुण्य स्थानों पर जीवन में कभी जाये तो श्राद्ध अवश्य करे। वो विशेष स्थान इस प्रकार हैं – वाराणसी, कुरुक्षेत्र, सरस्वती, यमुना, नर्मदा आदि पवित्र नदियों के तट, प्रभास, पुष्कर, गंगाद्वार, प्रयाग, गया, नैमिषारण्य आदि। इनमें गयाश्राद्ध का बहुत अधिक महत्व बताया गया है।
इस कारण हमें श्राद्ध देश के लिये श्राद्ध को दो भागों में बांटकर समझना होगा – पहला प्रेत (षोडश) श्राद्ध, और दूसरा प्रेत (षोडश) श्राद्ध के अतिरिक्त अन्य श्राद्ध।
१. प्रेत श्राद्ध : प्रेत श्राद्ध के सम्बन्ध में पहले यह जानना आवश्यक है कि प्रेत श्राद्ध क्या तीर्थों में जाकर किया जा सकता है ? इसके सम्बन्ध में महत्वपूर्ण यह है कि तीर्थयात्रा ही निषिद्ध होता है, दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रेत के लिये स्वजातीय (भइयारी) भोज का भी महत्व होता है जो अपने गांव-नगर आदि में ही संभव होता है।
प्रेत (षोडश) श्राद्ध के संबंध में वर्तमान में एक और प्रचलन बढ़ते हुये देखा जा रहा है कि कुछ विशेष तत्व समाज में बढ़ने लगे हैं जो लोगों को सम्पर्क करके गया जाने का परामर्श देते हैं, उत्प्रेरित करते हैं जो शास्त्रानुसार अनुचित है। मृत्यु के प्रथम वर्ष में गयाश्राद्ध निषिद्ध है, गयाश्राद्ध एवं प्रेतश्राद्ध दोनों अलग श्राद्ध है। लेकिन कुछ लोग भ्रमित होकर प्रेतश्राद्ध करने के लिये भी गया चले जाते हैं एवं वहां प्रेतश्राद्ध, वार्षिक श्राद्ध, गयाश्राद्ध सब कुछ संपन्न कर अपने पितरों को भार समझ कर उतार आते हैं।
जो शास्त्र प्रमाण के विरुद्ध कर्म करते हैं उन्हें विचार करना होगा कि वो कौन सा धर्म पालन करते हैं ? साथ ही गया के पंडा-पुरोहित आदि को भी विचार करना चाहिये कि वो शास्त्रविरुद्ध कर्म कैसे और क्यों संपन्न करवाते हैं ? यदि शास्त्र के वचन में ही श्रद्धा नहीं है तो श्राद्ध कैसा ?
२. प्रेत (षोडश) श्राद्ध के अतिरिक्त अन्य श्राद्ध : इसमें प्रथम वर्ष का क्षयाह भी सम्मिलित माना जायेगा। अर्थात माता-पिता की मृत्यु के एक वर्ष बीत जाने पर उन पुण्य क्षेत्रों/तीर्थों की यात्रा करे और वहाँ अपने पितरों का तीर्थश्राद्ध करे। तीर्थश्राद्ध श्राद्ध का एक अन्य प्रकार है।
श्राद्ध भूमि के संबंध में एक विशेष महत्वपूर्ण बात यह है कि वह भूमि दक्षिणप्लव हो।
म्लेच्छ देश और आकाश का निषेध है, आकाश दो तात्पर्य होता है एक तो खुले आकाश के नीचे, दूसरा भूतल से ऊपरी मंजिलों पर।
श्राद्ध भूमि का संस्कार : पञ्चगव्य लेपन (प्रोक्षण), उल्का द्वारा शोधन, गौरमृत्तिका आच्छादन और तिल एवं पिली सरसों को बिखेरना, ये ४ क्रियायें श्राद्ध भूमि के संस्कार हेतु बताये गये हैं – तस्माछ्राद्धे पञ्चगव्यैर्लेप्या शोद्ध्या तथोल्मुकैः। गौरमृत्तिकयाच्छन्ना प्रकीर्णा तिलसर्षपैः॥ – ब्रह्मपुराण
श्राद्धारम्भ (पाककर्म के आरंभ) से पूर्व ही उपरोक्त क्रिया की विधि बताई गयी है और नित्यकर्म भी पाकारम्भ से पूर्व ही करना चाहिये। जो प्रथम पाक करके फिर नित्यकर्मादि करते हैं वह शास्त्राज्ञा का उल्लंघन करते हैं।
श्राद्ध की क्रियायें :
यद्यपि श्राद्ध की 13 क्रियायें कही गई हैं किन्तु वो सपात्रक श्राद्ध विषयक है, अपात्रक श्राद्ध में 13 क्रियायें संभव ही नहीं हैं। साथ ही 13 क्रियायें सभी श्राद्ध के लिये अनिवार्य है ऐसी भी कोई बात नहीं है। श्राद्ध हेतु वर्त्तमान युग में प्रचलित अपात्रक श्राद्ध की क्रियाओं को ही यहां समझेंगे। लेकिन उससे पहले सपात्रक और अपात्रक श्राद्ध को भी सङ्क्षेप में समझना आवश्यक है।
पात्र : सपात्रक और अपात्रक श्राद्ध को समझने से भी पहले पात्र समझना आवश्यक है। जिसमें कोई वस्तु संग्रह की जा सके या रखी जा सके उसे पात्र कहते हैं। दैनिक जीवन में हम प्रतिदिन अनेक पात्रों का उपयोग करते हैं – थाली, कटोरी, लोटा, ग्लास, कटाह, टोकना आदि। जो किसी भी भौतिक पात्र (यहां तक कि वृक्ष के पत्र भी) का उपयोग नहीं करते मात्र हाथों में प्राप्त ही भोजन आदि करते हैं उनका हाथ अर्थात कर ही पात्र होता है और वो करपात्री कहे जाते हैं।
अन्न, धन, सम्पति किसी भी वस्तु को रखने के लिये पात्र अनिवार्य होता है। अर्थात करपात्री कुछ नहीं रखते क्योंकि वो कर के अतिरिक्त कोई पात्र प्रयोग ही नहीं करते। जब कीमती वस्तुओं को लॉकर में रखते हैं तो लॉकर भी पात्र संज्ञक ही होता है और बैंक में धन रखने के लिये जिस खाता की आवश्यकता होती है अदृश्य धन के लिये वही अदृश्य खाता संख्या पात्र संज्ञक होगा।
श्राद्ध में पितरों के निमित्त अन्न-जल के अतिरिक्त भी बहुत वस्तु प्रदान करते हैं और इसके लिये भी पात्र अनिवार्य होता है बिना पात्र के संरक्षित ही नहीं हो सकता। श्राद्ध में जो भी वस्तु प्रदान की जाती है वह तत्क्षण प्रयोग मात्र के लिये नहीं करते, उचित अवसर पर प्रयोग करने हेतु किया जाता है।
जैसे द्वादशाह के दिन 14 मासिक किये जाते हैं वह वर्षपर्यंत का श्राद्ध होता है उसका उपयोग उसकी तिथ्यादि पर वर्षपर्यन्त पितर करेंगे न की तत्क्षण। इसी प्रकार जब किसी नयी योनि को प्राप्त करेंगे तो उस योनि में भी कालक्रम से ही उपभोग किया जायेगा। इसलिये उसको किसी पात्र में संरक्षित करना आवश्यक होता है।
शास्त्रों में ब्राह्मण को पात्र कहा गया है और आध्यात्मिक रूप से ब्राह्मण रूपी पात्र में रखने पर ही कोई वस्तु संरक्षित रहकर यथासमय उपयोग में लायी जा सकती है। ब्राह्मण को भौतिक पात्र नहीं समझना चाहिये की भौतिक रूप से भी उपयोग किया जा सकता है। श्राद्ध में पितरों के उद्देश्य से जिस ब्राह्मण को विविध वस्तुयें प्रदान की जाती है वो महापात्र कहलाते हैं।
श्राद्ध भोजन करने से ब्राह्मण भी दूषित हो जाते हैं और उस दिन अन्य किसी भी कर्म के लिये (दुबारा भोजन तक के लिये भी) अयोग्य हो जाते हैं। इसीलिये ब्राह्मणों के दो प्रकार देखे जाते हैं एक पुरोहित जो देवकर्म, संस्कार, भोजन आदि कई यजमानों के यहां भी करते हैं और दूसरे महापात्र जो पितृ के उद्देश्य से भोजनादि करने के कारण उस दिन अन्य को कोई कार्य नहीं कर सकते, यदि पुरोहित न हो तो यजमानों का अन्य कार्य बाधित हो जायेगा।
सपात्रक श्राद्ध : प्राचीन काल में योग्य ब्राह्मण में प्रत्यक्ष रूप से पितृ आवाहन करने की विधि थी, जिसमें उपस्थित ब्राह्मण पितर के लिये उत्सर्ग किया गया भोजन भी करते थे। एवं श्राद्धान्न में जो दोष कहा गया है वह दोष उसी उत्सर्ग किये गये अन्न में होता है जिसके भक्षण करने से वह ब्राह्मण उस दिन के लिये अन्य कर्मों हेतु अनुपयुक्त हो जाते थे।
अपात्रक श्राद्ध : कालक्रम से एक दिन में ही सम्पूर्ण मासिक करने की आवश्यकता के कारण, क्योंकि एक मासिक में भोजन करने के बाद अगले मासिक के लिये अनुपयुक्त हो जायेगें, श्राद्ध विधि में शास्त्रानुसार संशोधन करके दर्भबटु (कुशात्मक) ब्राह्मण में पितरों का आवाहन आरम्भ और उनके निमित्त ही अन्न का उत्सर्ग की विधि प्रचलित हुई जिसका ब्राह्मण प्रत्यक्ष रूप भक्षण नहीं करते।
सम्पूर्ण श्राद्ध काल तक ब्राह्मण अनुपयुक्त न हों और निर्विघ्नरूप से 14 मासिक और सपिण्डीकरण तक पूर्ण श्राद्ध एक दिन में किया जा सके इसलिये दर्भबटु का प्रयोग जो शास्त्रसम्मत है आरम्भ किया गया और इसी को अपात्रक श्राद्ध कहा जाता है।
आगे हम श्राद्ध की सभी क्रियाओं/विधियों को सरलता पूर्वक समझने का प्रयास करेंगे :
श्राद्धारम्भे गयां ध्यात्वा ध्यात्वा देवं गदाधरम् । स्वपितॄन् मनसा ध्यात्वा ततः श्राद्धं समाचरेत्॥
श्राद्ध कैसे करें
पवित्रीकरण : पवित्रीकरण का जल मात्र शरीर पर ही नहीं, पाक, आसन और श्राद्धोपयोगी/आसादित समस्त सामग्रियों पर छिड़के। पवित्रीकरण का तात्पर्य जल से शरीर को सिक्त करना नहीं होता, पवित्रीकरण के लिये भगवान विष्णु का स्मरण और आचमन किया जाता है।
संकल्प : पवित्रीकरण आचमन आदि करके त्रिकुशा, तिल और जल लेकर पूर्वाभिमुख और सव्य रहते हुये संकल्प करना चाहिये। प्रेत के श्राद्ध के संकल्प में प्रेतत्व से विमुक्ति अवश्य जोड़े। संकल्प का त्रिकुशा सहित तिल, जल आदि भूमि पर गिराये।
गायत्री जप : संकल्प करके गायत्री जप करे। श्राद्ध में पितृ गायत्री बताई गयी है – ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः ॥ श्राद्ध में तीन बार पितृ गायत्री जप करना चाहिये – आरम्भ में संकल्प के बाद, मध्य में पिण्डदान (अत्रावन) से पूर्व और अंत में दक्षिणा के बाद। तीनों बार पितृ गायत्री 3-3 बार जप करे। संकल्प और गायत्री जप पूर्वाभिमुख सव्य होकर करे।
आसनोत्सर्ग : यहां आसन का तात्पर्य दर्भबटुरूपी ब्राह्मण के आसन का उत्सर्ग करना होता है। प्रेत का वास निमंत्रित ब्राह्मण में ही होता है। अपात्रक होने से दर्भबटु में किया जाता है। उत्सर्ग वाक्य में प्रेत पद का ही उच्चारण किया जाता है। आसन और भोजन पात्र के मध्य में अन्य सामग्री रहना उचित प्रतीत नहीं होता किन्तु गन्धादि उत्सर्ग के लिये वस्त्रादि सहित अन्य सामग्रियां भी लगायी जाती है जो आसन के पीछे होती है यह भी उचित प्रतीत नहीं होता।
आसन दक्षिण में सबसे अंत में ही होना चाहिये। लेकिन आसन और भोजन के मध्य में अन्य वस्तु नहीं रहे यह भी ध्यान रखना चाहिये। जल से सिक्त करके; आसन का उत्सर्ग पातितवामजानु, अपसव्य दक्षिणाभिमुख होकर मोटक हस्त से करना चाहिये।
असानोत्सर्ग करके भोजनपात्र सहित सर्वत्र तिल अपहता मंत्र से बिखेड़कर आयन्तु नः मंत्र से आवाहन करे।
अर्घ्य : अर्घ्य देने से पहले अर्घ्यस्थापन व अभिमंत्रण किया जाता है। अर्घ्य का केवल अंत में उत्सर्ग के लिये अपसव्य और मोटक की आवश्यकता होती है, बाकि स्थापन और अभिमंत्रण के लिये त्रिकुशहस्त ही रहना चाहिये। वेदी पर अर्घ्यपात्र में कुशा देकर शन्नो देवी मंत्र से जल और तिलोसि मंत्र से तिल देकर पुष्प-चन्दन देना चाहिये। फिर कुशा निकालकर भोजनपात्र पर रखे जल से सिक्त करके अर्घ्यपात्र को उठाकर बांये हाथ में रखकर दांये हाथ से ढंककर या दिव्या मंत्र से अभिमंत्रित करे।
फिर मोटकहस्त होकर तिलजल से उत्सर्ग करके पितृतीर्थ से भोजनपात्र पर दिये गए कुशा पर दे।
फिर भोजनपात्र पर से कुशा को उठाकर अर्घ्यपात्र में रखे। फिर अर्घ्यपात्र को आसन के बांये (पश्चिम) भाग में पलटकर रखे।
अर्चन : अर्चन का तात्पर्य पूजा के निमित्त गंध-पुष्प-वस्त्र-यज्ञोपवीत आदि विविध द्रव्य प्रदान करना है। इसके लिये वस्त्रादि आसन के पीछे या आगे असादित करना व्यवहार मात्र है धूप-दीप यथास्थान देकर अन्य वस्तुयें बायें हाथ में रखकर भी उत्सर्ग किया जा सकता है। एक पिण्ड होने पर तो कोई बात नहीं किन्तु जब द्वादशाह के दिन बहुत सारे मासिक होते हैं तो एक बार में ही सबके भाग लगाये जाते हैं क्योंकि समय की कमी व कर्म की अधिकता रहती है। अर्चन भी अपसव्य, मोटकहस्त ही करे।
भोजन : भोजन के सम्बन्ध में सबसे पहले समझने वाली बात यह है कि भोजन में पिण्ड शेषान्न नहीं देना चाहिये। अधिकतर ऐसा देखा जाता है कि पहले पिण्ड बना लिया जाता है और उसके बाद शेष अन्न भोजन के लिये परोसा जाता है लेकिन वही पिण्ड शेषान्न हो जाता है। भोजन के बाद ही पिण्ड उत्सर्ग के समय बनाया जाना चाहिये न कि भोजन से भी पहले।
उसके बाद दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि द्वादशाह के दिन जब कई मासिक श्राद्ध होते हैं किन्तु सबके लिये पाक एक (व्यवहारतः) ही होता है तो भी उस पाक के 14 मासिक के लिये 14 व एक सपिण्डन के लिये 15 भाग कर लेना चाहिये और प्रत्येक मासिक में 1-1 भाग प्रयोग करना चाहिये। यदि भाग नहीं करते हैं तो सभी प्रथम मासिक का ही पिण्ड शेषान्न ही हो जायेगा।
भोजन देने के लिये सर्वप्रथम आसन सहित भोजन पात्र के चारों और अपसव्य क्रम से जल का मण्डल बनाये (घेरा बनाये)। यह ध्यान रखे कि भोजन के समय आसन और भोजनपात्र के मध्य अन्य वस्तुयें न रहे। पहले भूस्वामी का अन्न अपने बांयी और वेदी के पूर्व भाग में उत्सर्ग करे। फिर दक्षिण में प्रेत/पितर आदि के भोजन पात्र में अन्न/घी/सब्जी/दही/मधु आदि परोसे।
वहीं भोजन के निकट एक पात्र में जल व दूसरे पात्र में घी दे। प्रायः लोग मंत्र पढ़ना मात्र श्राद्ध समझते हैं विधि-वस्तु का महत्व नहीं समझ पाते, और लाखों के भोज करने के बाद पूरे श्राद्ध में 5-10 चम्मच मात्र घी भी पितर के लिये विधिपूवर्क देना बर्बादी समझते हैं और नहीं दे पाते। भोजन में 100-150 ग्राम मधु भी नहीं दे पाते और ऐसा श्राद्ध विधि के ज्ञान का अभाव होने के कारण करते हैं।
इसके साथ ही भले ही प्रत्येक मासिक में ब्राह्मण को भोजन नहीं करा सकते लेकिन ब्राह्मण भूखे न रहें इसका ध्यान रखना चाहिये 2-2 घंटे पर यथारुचि फलाहार कराते रहना चाहिये। एक और बात यह भी है कि महापात्र को जल-चाय-फलाहार आदि के लिये उठकर श्राद्धस्थला से हटने के लिये भी कहा जाता है यह भी गलत है। यदि महापात्र स्वयं अलग जाकर चाय-फलाहार आदि करें तो ठीक किन्तु यजमान का प्रयास यही रहना चाहिये की महापात्र श्राद्धस्थला में ही जल-चाय आदि पियें। यदि ब्राह्मण को दिन भर भूखे रहकर श्राद्ध कराते रहे तो वह श्राद्ध पितर के लिये तृप्तिकारक नहीं हो पायेगा।
यदि मधु न परोसा गया हो तो मधुमती ऋचा से मधु दे यदि अन्न में पहले दे दिया गया हो तो भोजन पात्र का स्पर्श मात्र करे। फिर पृथ्वी ते पात्रं आदि मंत्रों को पढ़ते हुये दोनों हाथों से पात्रालंभन करे। फिर अंगुष्ठ निवेशन करके मोटक हस्त से अन्न का उत्सर्ग करे।
- फिर सव्य होकर 3 बार गायत्री जप, अपसव्य होकर मधुमती ऋचा पाठ, अन्नहीनं मंत्र पाठ करे, पुनः सव्य पूर्वाभिमुख होकर गायत्री जप करते हुये आसनी के नीचे कुशा रखे, पुनः दक्षिणाभिमुख अपसव्य होकर मधुमती ऋचा का पाठ करे।
- फिर रक्षोघ्न सूक्त, पितृ सूक्त, पुरुष सूक्त आदि ऋचाओं का पाठ करे।
विकिरदान : वेदी अथवा भोजन के पश्चिम भाग में एक त्रिकुशा (दक्षिणाग्र) रखकर जल से सिक्त करे। एक पूड़े में तिल-घी-अन्न लेकर मधुमती ऋचा का पाठ करते हुये उसमें मधु देकर जल से भर दे। फिर अनग्निदग्धा मंत्र से पितृतीर्थ से पूर्व सिक्त कुशाओं पर बिखेर दे।
- विकिरदान किसके लिये किया जाता है : विकिरदान पितरों के भृत्यादि हेतु किया जाता है।
- विकिरदान कहां देना चाहिये : विकिरदान पितरों के उच्छिष्ट के निकट देना चाहिये।
पूर्वाभिमुख सव्य होकर आचमन करे, विष्णु भगवान का स्मरण करके गायत्री जप करे। फिर दक्षिणाभिमुख-अपसव्य-पातितवामजानु होकर मधुमती ऋचा का पाठ करे। फिर चतुरस्र दक्षिणप्लव वेदी निर्माण करके बांयें हाथ से दर्भपिंजली दाहिने हाथ में लेकर दोनों हाथों से वेदी पर प्रादेश प्रमाण दक्षिणाग्र रेखा अपहता मंत्र से करे।
पूर्वाभिमुख सव्य होकर आचमन करे, विष्णु भगवान का स्मरण करके गायत्री जप करे। फिर दक्षिणाभिमुख-अपसव्य-पातितवामजानु होकर मधुमती ऋचा का पाठ करे। फिर चतुरस्र दक्षिणप्लव वेदी निर्माण करके बांयें हाथ से दर्भपिंजली दाहिने हाथ में लेकर दोनों हाथों से वेदी पर प्रादेश प्रमाण दक्षिणाग्र रेखा अपहता मंत्र से करे। दर्भपिंजली को ईशानकोण में त्याग दे।
फिर रेखा पर ये रूपाणि मंत्र अंगार भ्रमण करके वेदी के दक्षिण में गिरा दे। फिर रेखा पर छिन्नमूल कुशा बिछाकर जल से सिक्त करे। पूर्वाभिमुख सव्य होकर तीन बार पितृगायत्री जपे।
अत्रावन : फिर दक्षिणाभिमुख अपसव्य होकर एक पूड़े में तिल-जल-फूल-चन्दन लेकर बांयें हाथ में रखे। दाहिने हाथ में मोड़ा-तिल-जल लेकर अत्रावन का उत्सर्ग करके आधा जल कुशाओं पर दे।
पिण्डदान : फिर तिल-जल-घृत-मधु आदि मिलकर पिण्ड निर्माण करके घृत-मधु और लगाकर बांयें हाथ में रखे, दांयें हाथ में मोड़ा-तिल-जल लेकर पिण्डोत्सर्ग करके वेदी के ऊपर आस्तरित कुशाओं पर दाहिने हाथ के पितृतीर्थ से दे। पिण्ड के नीचे रखे कुशाओं में हाथ पोंछे। सव्य-पूर्वाभिमुख होकर आचमन करके भगवान विष्णु का स्मरण करे।
अपसव्य-दक्षिणाभिमुख होकर अत्र पितर मंत्र से वामावर्त मुख घुमाते हुये उत्तर की ओर करते हुये दीर्घ श्वास लेकर पुनः वापस घुमाते हुये भास्वर मूर्ति रूप में पितर का ध्यान करते हुए अमीमदन्त मंत्र से पश्चिम दिशा में श्वास त्याग करे।
प्रत्यवन : फिर अवशिष्ट जल सहित अवनेजन पूड़े को उठाकर बांयें हाथ में रखे, दाहिने हाथ में मोड़ा-तिल-जल लेकर प्रत्यवन उत्सर्ग करके दाहिने हाथ में लेकर पितृतीर्थ से पिण्ड पर दे।
नीवीं विसर्जन करके सव्य पूर्वाभिमुख होकर आचमन करे। पुनः अपसव्य दक्षिणाभिमुख होकर मोटक हस्त होकर दोनों हाथों से वस्त्र (सूत्र) प्रदान करे। सूत्र देते समय बायां हाथ आगे और दायां हाथ पीछे रखे। एतत्ते पितरवासः से सूत्र प्रदान करके फिर उत्सर्ग करे।
पिंडार्चन : पिण्ड पूजन मौन रहते हुये ही करे। पान, सुपारी, फूल, चन्दन, अक्षत, इत्यादि पिण्ड पर चढ़ाये। फिर पिण्ड शेषान्न अलग किये गये भाग में से पिण्ड बनाने के बाद जो शेष अन्न रहता है उसे पिण्ड शेषान्न कहते हैं और इसीलिये पहले पिण्ड नहीं बनाना चाहिये। पिण्ड जिस समय देना हो उसी समय बनाये और मासिक श्राद्ध में अलग-अलग 15 भाग करके प्रत्येक मासिक और सपिण्डी के लिये 1-1 भाग का प्रयोग करे यह पहले भी कहा जा चुका है।
पिण्ड के चारों और अपसव्य क्रम से पिण्ड शेषान्न बिखेड़े। पिण्ड शेषान्न भी भृत्य भाग ही होता है।
फिर भोजन पात्र पर क्रमशः शिवा आपः सन्तु से जल, सौमनस्यमस्तु से पुष्प और अक्षतंचारिष्टमस्तु से अक्षत चढ़ा कर पिण्ड पर अक्षय्योदक दे। फिर सव्य-पूर्वाभिमुख होकर दक्षिण की ओर देखते हुये अघोरः पितास्तु कहते हुये पिण्ड पर पूर्वाग्र वारिधारा (जलधारा) देकर गोत्रन्नो वर्द्धतां पढ़ते हुये आषीश प्रार्थना करे। फिर अपसव्य-दक्षिणाभिमुख होकर पिण्ड पर चढ़े द्रव्यों को हटाकर त्रिकुशा (दक्षिणाग्र) रखे और मोटक हस्त होकर ऊर्जंवहन्ती मंत्र से दक्षिणाग्र वारिधारा (दुग्ध) दे।
फिर नम्र होकर (झुकते हुये) पिण्ड को सूंघकर दोनों हाथों से उठाकर फिर रख दे, पिण्ड के नीचे रखे छिन्नमूल कुशाओं और अंगारभ्रमण की अग्नि को अग्नि में दे दे। न्युब्ज किये हुये (उल्टा रखे हुये) अर्घपात्र को उत्तान (सीधा) कर दे।
दक्षिणा : फिर मोटक, तिल, जल, दक्षिणा आदि लेकर दक्षिणा दे। ब्राह्मण दक्षिणा लेकर स्वस्ति करे। फिर सव्य-पूर्वाभिमुख होकर तीन बार पितृ गायत्री पढ़े।
दीप प्रच्छादन : फिर अपसव्य होकर दीप का प्रच्छादन करे। प्रच्छादन का अर्थ दीप को बुझाना नहीं होता है लेकिन प्रच्छादन करने के बाद दीपक बुझता अवश्य है। दोनों हाथों से प्रच्छादन करने पर नहीं बुझेगा। किसी बड़े पत्ते या ढ़कनी आदि से प्रच्छादन करने पर बुझ जायेगा, अथवा अधिक मात्रा में चावल (अक्षत) से ढंकने (प्रच्छादन) करने पर भी बुझ जायेगा। अतः इस प्रकार प्रच्छादन करे कि दीपक बुझ भी जाये, किन्तु बुझाये नहीं।
फिर हाथ-पैर धोकर अथवा जल छिड़क कर पूर्वाभिमुख-सव्य होकर आचमन करे, भगवान विष्णु का स्मरण करे प्रमादात् आदि मंत्र पढ़े। पिण्ड वेदी को कनिष्ठा अङ्गुली से विघटित कर दे।
श्राद्ध में प्रदान की गयी उपयोग की वस्तुयें ब्राह्मण को दे व अन्य वस्तुओं को जल में विसर्जित कर दे। यहां ध्यान रखने वाली बात यह है कि पात्र ब्राह्मण ही होता है इसलिये यजमान सभी वस्तुयें ब्राह्मण को ही दे। ब्राह्मण को देने का तात्पर्य यह है कि श्राद्ध स्थला पर अन्य (नापित) आदि न ले।
लेकिन मृतक का दुर्भाग्य यह होता है कि श्राद्ध समाप्त होते ही सभी लोग भौतिकदृष्टि वाले हो जाते हैं और श्राद्धस्थला में ही सामग्रियों को ब्राह्मण से छीन लेते हैं, यजमान भी सबका हिस्सा कहने लगते हैं पितर की तृप्ति को भूल जाते हैं। पितर की तृप्ति चाहने वाला यजमान अपने सामने बंटवारा न कराये, इसका तात्पर्य यह है कि किसी प्रकार का बंटवारा हो ही नहीं।
नापित आदि को लेना हो तो ब्राह्मण के घर तक सभी वस्तुयें पंहुचा दे और सेवा के निमित्त ब्राह्मण स्वेच्छा से जो दें वह ग्रहण करे। ऐसा करने पर कोई दोषी नहीं होगा। श्राद्ध स्थला में बंटवारा करने से सभी दोषी होते हैं, ब्राह्मण भी दोषी होता है, यजमान भी दोषी होता है और बांटकर हड़पने वाला तो नरकगामी होता ही है।
नापित आदि यदि ब्राह्मण से घर पर वस्तुयें पंहुचा देगा तो उससे ब्राह्मण की सेवा हो जाएगी, फिर ब्राह्मण जो प्रदान करेगा वह सेवा का मूल्य होगा और ब्राह्मण को देना ही होगा क्योंकि निःशुल्क सेवा लेना भी निषिद्ध है, एवं इससे जिसका श्राद्ध किया गया उसके लिये भी कोई हानि नहीं होगी। प्राचीनकाल में यही परंपरा रही होगी जो कालांतर से हड़पनीति में परिवर्तित हो गई।
- अब कुछ लोगों के मन में यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि ब्राह्मण का क्या दोष तो पुराणों में ऐसी कई कथायें हैं जिसमें सामग्री पर अधिकार के लिये विवाद हुआ और उसका निर्णय भी किया गया। ब्राह्मण इसलिये दोषी होगा कि यह जानते हुये उसका भाग उसे प्राप्त नहीं होगा और यजमान भी ऐसा ही प्रयास करेगा कि कुछ औरों को बांटकर दे दें, शास्त्रविरुद्ध अमर्यादित कर्म का ज्ञान होते हुये भी ब्राह्मण उपस्थित होता है इसलिये ब्राह्मण भी दोषी होगा।
- यजमान इसलिये दोषी होगा क्योंकि वह वचन तो देता है ब्राह्मण को परन्तु ब्राह्मण के घर तक पहुंचे यह सुनिश्चित नहीं करता है, ब्राह्मण को वचन देकर भी उसमें से अन्य को प्रदान कर देता है, अपने पितर का हित भी नहीं सोचता अर्थात श्रद्धा रहित कर्म करता है, और यदि श्रद्धा ही नहीं तो श्राद्ध कैसा ?
- नापित आदि लड़कर ब्राह्मण से हड़पने वालों के दोष तो बहुत सारे पौराणिक कथाओं में वर्णित हैं कि ब्राह्मण धन हड़पने से कितना दोष होता है। हिस्सा कहकर, लड़कर बंटवारा करने में ब्राह्मण संपत्ति हड़पने जैसा ही है और वही दोष सिद्ध होता है एवं यह दोष पुनः यजमान के लिये भी सिद्ध होता है।
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दौहित्र (नाती) मातामह श्राद्ध (नाना) का – श्राद्ध कैसे करें
कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।
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