रुद्राष्टक स्तोत्र गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में वर्णित है। इस स्तोत्र का भक्ति पूर्वक पाठ करने से भगवान शिव शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं। इस आलेख में रुद्राष्टक स्तोत्र संस्कृत में दिया गया है साथ ही विशेष लाभ हेतु हिन्दी अर्थ भी दिया गया है।
रुद्राष्टक स्तोत्र संस्कृत में अर्थ सहित – rudrashtak stotra
काक भुशुण्डि भी भगवान शिव के भक्त थे किन्तु गुरु जी के प्रति विरोध भाव रखते थे। विरोध भाव का कारण था काक भुशुण्डि का रामद्रोही होना। काक भुशुण्डि ने स्वयं गरुड़ जी को अपनी कथा सुनाते हुये कहा कि एक बार मैं भगवान शिव की अराधना कर रहा था उसी समय मेरे गुरु जी आ गये। विरोध के कारण मैंने गुरुजी का आदर-सत्कार नहीं किया जिससे भगवान शिव रुष्ट हो गये और मुझे श्राप दे दिया :
बैठि रहेसि अजगर इव पापी। सर्प होहि खल मल मति व्यापी॥
महा बिटप कोटर महुँ जाई। रहु अधमाधम अधगति पाई॥
“अरे पापी ! तुम गुरु के आने पर भी अजगर की तरह बैठा ही रहा, अरे दुष्ट तेरी बुद्धि पाप से ढँक गयी है इसलिये तू सर्प बन जा। अरे अधम से भी अधम जा किसी वृक्ष के कोटर में अधोगति को प्राप्त कर।”
उसी समय सज्जन गुरु जी का हृदय द्रवित हुआ और उन्होंने भगवान शिव कि स्तुति किया। गुरु जी द्वारा किया गया स्तवन भगवान शिव को प्रसन्न करने वाला था जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने वरदान मांगने के लिये कहा तो गुरु जी ने मेरे ऊपर कृपा करने को कहा जिसपर भगवान शिव ने जो हजारों जन्म लेने का श्राप दिया था उसको तो अटल बताया किन्तु जन्म-मरण का दुःख नहीं होगा, और बुढ़ापा से मुक्त रहेगा । और यह भी कहा कि इसकी स्मृति बनी रहेगी। सर्वत्र अबाध गति रहेगी।
रुद्राष्टक स्तोत्र
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् ।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥१॥
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं, गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालं, गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥२॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा, लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥३॥
चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं, प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् ।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥४॥
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् ।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं, भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥५॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी, सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी ।
चिदानन्द संदोह मोहापहारी, प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥६॥
न यावत् उमानाथ पादारविन्दं, भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं, प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥७॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजां, नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं, प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥८॥
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥
॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं श्रीरुद्राष्टकं संपूर्णम् ॥
रुद्राष्टक का हिंदी अर्थ
हे मोक्षस्वरुप, सर्व्यवापी, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर तथा सबके स्वामी श्री शिवजी, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निजस्वरुप में स्थित अर्थात माया आदि से रहित, गुणों से रहित, भेद रहित, इच्छा रहित, चेतन आकाशरूप एवं आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करने वाले दिगम्बर अर्थात आकाश को भी आच्छादित करने वाले, आपको मैं भजता हूँ ॥१॥
निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय अर्थात तीनों गुणों से अतीत, वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलाशपति, विकराल, महाकाल के काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार से परे, आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२॥
जो हिम के समान गौरवर्ण तथा गंभीर हैं, जिनके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है, जिनके सिर पर सुन्दर गंगा जी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा और गले में सर्प सुशोभित हैं ॥३॥
जिनके कानों में, कुण्डल हिल रहे हैं, सुन्दर भ्रुकुटी और विशाल नेत्र हैं, जो प्रसन्नमुख, नीलकंठ और दयालु हैं। बाघ के चर्म का वस्त्र धारण किये और मुण्डमाला पहने हैं, सबके प्यारे और सबके नाथ, कल्याण करने वाले, श्री शंकर जी को मैं भजता हूँ ॥४॥
प्रचंड (रुद्ररूप) श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखंड, अजन्मा, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश वाले, तीनों प्रकार के शूलों (दुखों) को निर्मूल करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण किये हुए, भाव (प्रेम) के द्वारा प्राप्त होने वाले, भवानी के पति श्री शंकर जी को मैं भजता हूँ ॥५॥
कलाओं से परे, कल्याण स्वरूप, कल्प का अंत (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनंद देने वाले, त्रिपुर के शत्रु, सच्चिदानन्दघन, मोह को हराने वाले, मन को मथ डालने वाले कामदेव के शत्रु, हे प्रभु प्रसन्न होइये ॥६॥
जब तक पार्वती के पति (शंकरजी) आपके चरणकमलों को मनुष्य नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इस लोक में ओर न ही परलोक में सुख-शान्ति मिलती है और न उनके तापों का नाश होता है। अत: हे समस्त जीवों के अन्दर (हृदय में) निवास करनेवाले प्रभो, प्रसन्न होइये ॥७॥
मैं न तो योग जानता हूँ, न जप और पूजा ही। हे शम्भो, मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमस्कार करता हूँ। हे ईश्वर, हे शम्भो, मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥८॥
भगवान रुद्र की स्तुति का यह अष्टक भगवान हर (शिव) को प्रसन्न करने के लिये ब्राह्मण (गुरु जी) द्वारा कहा गया। जो भी मनुष्य भक्ति-भाव से इस स्तोत्र का पाठ करते हैं भगवान शम्भु उसपर प्रसन्न होते हैं।
रुद्राष्टक स्तोत्र का भाव
- रुद्राष्टक में पहले भगवान शिव के निर्गुण स्वरूप का स्तवन किया गया है।
- फिर आगे सगुण स्वरूप का वर्णन किया गया है।
- उसके बाद यह भी बताया गया है कि जब तक भगवान शङ्कर के चरणकमलों का भजन न किया जाय तब तक सुख और शांति की प्राप्ति नहीं हो सकती एवं विविध प्रकार के संतापों का निवारण नहीं हो सकता।
- फिर अंत में भक्त का ये भाव होता है कि वह योग, जप, पूजा कुछ भी नहीं जनता है केवल भगवान शिव के शरणागत है। जरा एवं जन्म-मरण दुःखों से पीड़ित है एवं इन सभी प्रकार के दुःखों निवारण करने वाले भगवान शिव प्रसन्न हों।
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