द्वादशाह विधि | सपिण्डीकरण सहित – छन्दोग

द्वादशाह विधि | सपिण्डीकरण सहित – छन्दोग

बारहवें दिन किये जाने वाले श्राद्ध को द्वादश से द्वादशाह कर्म भी कहा जाता है। वर्त्तमान युग में द्वादशाह श्राद्ध का तात्पर्य होता है आद्यश्राद्ध के अतिरिक्त सम्पूर्ण प्रेतश्राद्ध। इस आलेख में छन्दोगी द्वादशाह श्राद्ध की विधि बताई गयी है। मासिक श्राद्ध और सपिण्डीकरण श्राद्ध द्वादशाह के दिन किया जाता है जो यहां दिया गया है। श्राद्ध करने की विधि और श्राद्ध के मंत्रों को विशेष शुद्ध रखने का प्रयास किया गया है, यदि फिर भी कहीं, किसी प्रकार की त्रुटि मिले तो अवश्य अवगत करें।

द्वादशाह विधि | सपिण्डीकरण सहित – छन्दोग

छन्दोगी श्राद्ध की विधि वाजसनेयी श्राद्ध की अपेक्षा कुछ जटिल है। यद्यपि कश्यप-काश्यप-वत्स-शाण्डिल्य-कौशिक-धनञ्जय गोत्र मुख्य रूप से छन्दोगी कहे गये हैं लेकिन मुख्य रूप से छन्दोगी विधि का पालन करते हुये शाण्डिल्य गोत्री ही पाये जाते हैं। शाण्डिल्य के अतिरिक्त अन्य गोत्र वाले कहीं छन्दोगी तो कहीं वाजसनेयी विधि के कर्म करते हुये देखे जाते हैं। 6 मुख्य गोत्रों को छन्दोगी कहा गया है और इनके प्रवर भी सहगामी ही होते हैं अर्थात इनके प्रवर भी छन्दोगी में आते हैं।

द्वादशाह श्राद्ध की कुछ जानकारी वाजसनेयी द्वादशाह विधि में भी दी गयी है अतः पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं है। यहां मासिक श्राद्ध विधि और सपिण्डीकरण विधि दी जा रही है। दान विधि के लिये यथाशीघ्र एक अन्य आलेख प्रकाशित की जायेगी। एवं श्राद्ध विषयक अन्य जानकारी जिन आलेखों में दी गयी है वो नीचे दिये जा रहे हैं जिस पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

14 मासिक श्राद्ध और सपिंडीकरण (प्रेत का पितृ पंक्ति मिलन) श्राद्ध द्वादशाह को अर्थात बारहवें दिन किया जाता है। इसे मुख्य रूप से द्वादशाह या द्वादशाह श्राद्ध ही कहा जाता है। अर्थात द्वादशाह विधि में मासिक श्राद्ध और सपिंडीकरण श्राद्ध दोनों किया जाता है। तत्पश्चात गृहप्रवेश करके प्राङ्गण में कलश स्थापन, गणेश पूजन आदि किया जाता है। यदि 11 माह के भीतर अधिकमास पर रहा हो तो 15 मासिक श्राद्ध किया जाता है अन्यथा 14 मासिक श्राद्ध होता है।

मासिक श्राद्ध विधि

मासिक श्राद्ध भी एकोद्दिष्ट विधि से ही होता है अतः आद्य श्राद्ध और मासिक श्राद्ध में अधिक अंतर नहीं होता किंचित अंतर ही होता है। चूंकि सभी निर्देश व विधिवर्णन पूर्व में भी कई बार किया गया है विशेष रूप से आद्य श्राद्ध विधि में इसलिये यहां संकेतमात्र करते हुये मासिक श्राद्ध के मंत्र दिये जा रहे हैं ताकि आलेख का अतिविस्तार न हो क्योंकि सपिण्डन श्राद्ध विधि भी इसी में समाहित करना है।

निर्देश :

  1. जिस क्रिया में स.द.त्रि. अंकित किया गया है उसका तात्पर्य है – सव्य, दक्षिणाभिमुख, त्रिकुशहस्त।
  2. जिस क्रिया में अ.द.मो. अंकित किया गया है उसका तात्पर्य है – अपसव्य, दक्षिणाभिमुख, मोटकहस्त।
  3. जिस क्रिया में स.पू.त्रि. अंकित किया गया है उसका तात्पर्य है – सव्य, पूर्वाभिमुख, त्रिकुशहस्त।
  4. आचमन : आचमन करने के लिये कहा गया है 2 बार आचमन करे और फिर ओठों को अंगुष्ठमूल से पोंछकर हाथ धो ले।
  5. जलस्पर्श : जहां कही जलस्पर्श कहा गया है जलस्पर्श का तात्पर्य भी आचमन ही होता है, अतः एक अन्य पात्र में जलस्पर्श करने के जल रखे जिसमें हाथ धोया जा सके।

सव्य-अपसव्य क्रम और त्रिकुशा-मोड़ा आदि के सम्बन्ध में अन्य पद्धतियों में किञ्चित अंतर संभव है।

सर्वप्रथम शुद्धिकरण करे, तीन बार आचमन कर कुशादि धारण करते हुए आत्मशुद्धि करे :

  • पवित्रीकरण मंत्र : ॐ अपवित्रः पवित्रोऽ वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याऽभ्यन्तरः शुचिः पुण्डरीकाक्षः पुनातु । ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥ श्राद्ध की सभी वस्तुओं पर जल छिड़क कर शरीर पर भी जल छिड़के।
  • दिग्रक्षण मंत्र : ॐ नमो नमस्ते गोविन्द पुराण पुरूषोत्तम । इदं श्राद्धं हृषीकेश रक्ष त्वं सर्वतो दिशः ॥
  • पञ्चगव्य निर्माण, प्राशन, प्रोक्षण आदि भी करे। अंगारभ्रमण, गौरमृत्तिका आच्छादनादि भी विधि के अनुसार करे।

दीप जलाकर यदि पाककर्त्ता द्वारा पाककर्म हुआ हो तो श्राद्धकर्त्ता पाककर्त्ता से पूछे “सिद्धम्” और पाककर्त्ता कहे “ॐ सिद्धम्” ॥ यदि पाककर्ता न हो तो पूछने की आवश्यकता नहीं है।

पूर्वाभिमुख सव्य त्रिकुशा, तिल, जल आदि द्रव्य लेकर संकल्प कर। द्वादशाह के दिन 14 मासिक श्राद्धों का यदि अलग-अलग करना हो तो संकल्प भी अलग-अलग ही किया जाता है प्रथम मासिक श्राद्ध की तरह ही अन्य सभी मासिक होते हैं केवल संकल्प व अन्यत्र जहां कहीं मासिक पद आता है उसीमें परिवर्तन होता है, और यदि कई मासिक एक साथ किये जायें तो उसके अनुसार भी उत्सर्ग वाक्य में परिवर्तन होता है । त्रिकुशा-तिल-जल आदि लेकर आद्यश्राद्ध का संकल्प करे :

प्रथम मासिक श्राद्ध संकल्प : ॐ अद्य …….… गोत्रस्य पितुः ……. प्रेतस्य (माता के श्राद्ध में …….. गोत्रायाः ……… मातुः ………. प्रेतायाः कहे) प्रेतत्वविमुक्ति हेतु षोडश (सप्तदश) श्राद्धान्तर्गत प्रथम (द्वितीय/तृतीयादि मासिक अनुसार) मासिक श्राद्धं अहं करिष्ये ॥ स.पू.त्रि. संकल्प कर तिल जलादि भूमि पर गिराये त्रिकुशा सहित।

मासिक श्राद्ध विधि
मासिक श्राद्ध विधि
  • गायत्री जप : त्रिकुशा लेकर तीन बार गायत्री मंत्र जप करे। तीन बार देवताभ्यः मंत्र पढ़े : ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्तु ते ॥३॥ स.पू.त्रि.
  • इसके बाद दक्षिणाभिमुख-अपसव्य-पातितवामजानु होकर पूर्वकल्पित दक्षिणाग्र आसन को तिल-जल से प्रोक्षित करे, फिर मोटक, तिल, जल से आसन उत्सर्ग करे :
  • आसन : ॐ अद्य ……….. गोत्र पितः ……….. प्रेत प्रथम मासिक श्राद्धे इदं आसनं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो. ॥ (स्त्रीलिंगे : ……… गोत्रे मातः ……… प्रेते) पितृतीर्थ से पूर्वकल्पित आसन पर छिड़के।

अर्घ्य स्थापन – अर्घ्यपात्र में दक्षिणाग्र पवित्री देकर, शन्नो देवी मंत्र से जल दे, तिलोऽसि मंत्र से तिल दे : फिर बिना मंत्र के पुष्प-चंदन भी दे :

  • जल : ॐ शन्नो देवीरभिष्टये शन्नो भवन्तु पीतये शंय्योरभि स्रवन्तुनः॥ अर्घ्य पात्र में जल दे। स.द.त्रि.
  • तिल : ॐ तिलोऽसि पितृ देवत्यो गोसवो देवनिर्मितः। प्रत्नद्भिः पृक्त: स्वधया पितृन् लोकान् प्रीणाहि नः स्वधा ॥ स.द.त्रि.

अर्घ्य पात्र में जल-तिल देकर बिना मंत्र के पुष्प-चंदन भी दे। अर्घ्य पात्र को बांये हाथ में लेकर पवित्री निकाल कर भोजन पात्र पर उत्तराग्र रखे, अन्य जल से सिक्त करे। दांये हाथ से अर्घ्य पात्र को (अधोमुख करके) ढंककर अगले मंत्रों से अभिमन्त्रण, उत्सर्जन और न्युब्जीकरण करे : –

  • अर्घ्याभिमंत्रन : ॐ या दिव्या आपः पयसा सम्बभूबुर्या आंतरिक्षा उत पार्थिवीर्या:। हिरण्यवर्णा याज्ञियास्ता न आपः शिवा: शं स्योना: सुहवा भवन्तु ॥ स.द.त्रि.; फिर दाहिने हाथ में मोटक, तिल, जल लेकर अर्घ्योत्सर्ग करे :
  • अर्घ्योत्सर्ग : ॐ अद्य ……… गोत्र पितः …… प्रेत प्रथम मासिक श्राद्धे इदमर्घ्यं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो.; फिर अर्घपात्र दाहिने हाथ में लेकर पूर्वसिक्त कुशा पर पितृतीर्थ से दे ।
  • न्युब्जीकरन : ॐ पित्रे स्थानमसि ॥ (ॐ मात्रे स्थानमसि) अ.द.मो.; भोजन पात्रस्थित कुशा को पुनः अर्घ्य पात्र में रखकर आसन के पश्चिम भाग में अधोमुख कर दे। यह अधोमुखी पूड़ा दक्षिणा देने तक न हिले ऐसी व्यवस्था रखे।

अ.द.मो. भोजन पात्र और आसन को अपसव्य क्रम से जल से घेरे (यह ध्यान रखे कि आसन और भोजन पात्र के मध्य अन्य सामग्रियां न रहे)। वाम भाग अर्थात पिंडवेदी के पूर्व में भूस्वामि का अन्न देकर अगले मंत्र से उत्सर्ग करे :-

अन्नादि परोसकर अधोमुखी दाहिने हाथ से प्रेतान्न का स्पर्श कर (अथवा मधु दे) मधुव्वाता मंत्र पढ़े , दाहिने हाथ के नीचे अधोमुखी बांया हाथ लगाते हुए पृथिवी ते …… आदि मन्त्र पढ़े। (भोजनपात्र में तिल न रहे इसका ध्यान रखे अर्थात भोजनपात्र की सफाई कर ले) अवगाहन करने के लिये अन्य पूड़े में सतिल-जल-घृत रखे

पात्रालम्भन : 

  • ॐ पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखे अमृते ऽअमृतं जुहोमि स्वाहा ॥
  • ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् समूढ़मस्य पां सुले ॥
  • ॐ कृष्ण कव्यमिदं रक्षमदियं ॥ अ.द.त्रि.

बांये हाथ को अन्न में लगाकर रखते हुए दाहिने हाथ के अंगूठे से क्रमशः अन्न, जल और अन्न का स्पर्श अगले मन्त्र से करे :-

  • सव्य-त्रिगायत्री जप करे।
  • अपसव्य-दक्षिणाभिमुख मधुमती ऋचा पाठ करे।
  • ॐ अन्नहीनं क्रियाहीनं विधिहीनं च यद्भवेत्। तत्सर्वमच्छिद्रमस्तु ॥ अ.द.त्रि. ॥
  • सव्य-पूर्वाभिमुख गायत्री मंत्र से संकल्प वाले कुश को थोड़ा तोड़ कर आसन के नीचे रखे।
  • पुनः अपसव्य-दक्षिणाभिमुख  “मधुमती ऋचा” पाठ करे ।

ॐ कृणुष्वपाजः प्रसितिन्न पृथिवीं याहि राजे वामवां इभेन । तृष्वीमनु प्रसितिं द्रूनाणोऽस्तासि विध्य रक्षसस्तपिष्ठैः । तवभ्रमास आसुया पतन्त्यनुस्पृस धृषता शोशुचानः । तपूं ष्यग्ने जुह्वा पतङ्गानसन्दितो विसृज विश्वगुल्काः । प्रतिष्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायुर्विशो अस्याऽअदब्धः । यो नो दूरे अघसं सो यो अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत । उदग्ने तिष्ठ प्रत्या तनुष्वन्य मित्रां ओषता तिग्महेते । यो नो ऽअरातिं समिधानचक्रे नीचा तं धक्ष्यत सन्न शुष्कम् । उर्ध्वो भव प्रतिविध्या ध्यस्मदा विष्कृणुष्व दैव्यान्यग्ने अवस्थिरा तनुहि यातु यूनाम् जामिमजामिं प्रमृणीहि शत्रून् ॥ पाठ कर भूमि पर तिल छिड़के

ॐ उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सौम्यासः । असूंऽयईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु अङ्गिरसो नः पितरः सौम्यासः । तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासोऽअनुहिरे सोमपीथं वशिष्ठाः तेभिर्यमः सं रराणो हवीं स्युसन्नुसद्भिः प्रतिकाममत्तु ॥

  • ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । भूमिं सर्वतस्पृत्त्वात्त्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ इत्यादि पुरुषसूक्त पाठ
  • ॐ आशुः शिषाणो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभनश्चर्षनिनां । संक्रदनो निमिष एकवीरः शतं सेना अजयत्साकमिन्द्रः ॥
  • ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ॥
  • ॐ नमस्तुभ्यं विरूपाक्ष नमस्तेनेक चक्षुषे । नमः पिनाकहस्ताय वज्रहस्ताय वै नमः ॥
  • ॐ सप्तव्याधा दशार्णेषु मृगाः कालञ्जरे गिरौ । चक्रवाकाः शरद्वीपे हन्साः सरसि मानसे ॥
  • तेऽपि जाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा वेदपारगाः । प्रस्थिता दूरमध्यानौ यूयं तेभ्योवसीदथ ॥
  • ॐ नमस्येहं पितृन् स्वर्गे ये वसन्त्यधिदेवता। देवैरपि हि तृप्यन्तु ये च श्राद्ध स्वधोत्तरैः ॥
  • ॐ रुची रुची रुचिः ॥ पाठ करे।

विकिरदान : पिंडवेदी के पश्चिम भाग में एक त्रिकुशा रख कर जल से सिक्त कर दे, एक पुरे में अन्नादि लेकर मधुमती ऋचा से मधु दे, जल से आप्लावित करके बांये हाथ के पितृतीर्थ से मोड़ा द्वारा त्रिकुशा पर अगले मन्त्र से दे :-

ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्तु ते ॥३॥ स.पू.त्रि.

दक्षिणाभिमुख-अपसव्य होकर एक पूड़े में तिल-जल-चंदन-पुष्प लेकर बांये हाथ में रखे, दांये हाथ में मोड़ा-तिल-जल लेकर अगले मंत्र से अवनेजन उत्सर्ग करे :

अत्रावन : ॐ अद्य …………. गोत्र पितः ……… प्रेत आद्य श्राद्ध पिण्डस्थाने अत्रावने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो.

अत्रावन का उत्सर्ग करते हुए पुरे का जल पिंडवेदी के कुशाओं पर गिरावे। छन्दोग श्राद्ध में प्रत्यवन पिण्डपात्र प्रक्षालन जल का होता है अतः अत्रावन का शेष न रखे।

तदुत्तर तिल-जल-घृत-मधु मिश्रित पिण्ड निर्माण करे (पिण्ड निर्माण श्राद्ध से पहले न करे, पिण्ड-दान काल में ही करे), निर्मित पिण्ड पिण्डाधार पात्र में रखकर पिण्ड पर घृत और मधु दे । फिर पिण्ड निर्माण करके बांये हाथ में पिण्ड लेकर उत्सर्ग करे :-

पिण्ड : ॐ अद्य …………. गोत्र पितः ……… प्रेत प्रथम मासिक श्राद्धे एष पिण्डः ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो.

  • पिण्ड दाहिने हाथ में लेकर पितृतीर्थ से वेदी के कुशाओं पर रखे। 
  • जलस्पर्श करे।
  • पिंडतलस्थ कुशाओं में हाथ पोछ ले।
  • स.पू.त्रि. – दो बार आचमन करके हरिस्मरण करे।

फिर दक्षिणाभिमुख-अपसव्य होकर जिस पात्र में पिण्ड रखा गया था उस पात्र को प्रक्षाल कर उसी प्रक्षालन जल को एक पूड़े में ले, तिल-पुष्प-चंदन देकर बांये हाथ में रखे, दांये हाथ में मोड़ा-तिल-जल लेकर प्रत्यवन उत्सर्ग करे :

प्रत्यवन का उत्सर्ग कर पिण्ड पर दे दे। जलस्पर्श करे।

  1. ॐ अत्र पितर्मादयस्व यथाभाग मा वृषायस्व ॥ भास्वरमूर्ति पिता का ध्यान करते हुए उत्तर से श्वास ले।
  2. ॐ अमीमदत पिता यथाभाग मा वृषायिष्ट॥ दक्षिण की ओर श्वास छोड़े।
  • नीवीं विसर्जन या डाँरकडोर ससारे।
  • फिर स.पू.त्रि. आचमन करे। 
  • हरिस्मरण करे।
  • फिर दक्षिणाभिमुख-अपसव्य होकर :

पिण्डपूजन : ॐ एतत्ते पितर्वासः ॥ (ॐ एतत्ते मातर्वासः) दोनों हाथों से (बांया हाथ आगे, दाहिना पीछे) पकड़ कर सूता पिण्ड पर दे। अ.द.मो.; फिर तिल, जल लेकर वस्त्रोत्सर्ग करे :

पान, पुष्प, चन्दन, द्रव्यादि भी चुपचाप पिण्ड पर चढ़ा दे। पिंडशेषान्न पिंड के चारों और अपसव्य क्रम से बिखेड़ दे । करबद्ध होकर अगला मंत्र पढ़े –

ॐ वसंताय नमस्तुभ्यं ग्रीष्माय च नमो नमः। वर्षाभ्यश्च शरत्संज्ञ ऋतवे च नमः सदा॥
हेमंताय नमस्तुभ्यं नमस्ते शिशिराय च। मास संवत्सरेभ्यश्च दिवसेभ्यो नमः सदा॥

ॐ वसन्तादि षडऋतुभ्यो नमः॥ – पुष्प पिण्ड पर चढ़ा दे।

  • ॐ शिवा: आपः सन्तु ॥ भोजनपात्र पर जल दे।
  • ॐ सौमनस्यमस्तु ॥ भोजनपात्र पर फूल दे।
  • ॐ अक्षतंचारिष्टमस्तु ॥ भोजनपात्र पर अक्षत दे।

तिल, मधु, घृत मिश्रित जल (अक्षय्योदक) एक पूड़े में लेकर बांये हाथ में रखे, दांये हाथ में मोड़ा-तिल-जल लेकर उत्सर्ग करके दांये हाथ से पिण्ड पर दक्षिणाग्र दे :

आशीष प्रार्थना : पूर्वाभिमुख प्रणाम करते हुए पढ़े – ॐ गोत्रन्नो वर्द्धतां ॥

वारिधारा : ॐ ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिश्रुतम् । स्वधास्थ तर्पयत् मे पितरम् ॥

थोड़ा नम्र होकर पिण्ड को सूँघ ले और उठाकर फिर रख दे। पिण्ड के नीचे वाले कुशों को निकाल कर आग में दे दे। अर्घ्यपात्र को उत्तान कर दे। मोड़ा, तिल, जल, द्रव्यादि लेकर दक्षिणा करे :-

दक्षिणा : ॐ अद्य …… गोत्रस्य पितुः ……… प्रेतस्य कृतैतत् प्रथम मासिक श्राद्ध प्रतिष्ठार्थं एतावत् द्रव्यमूल्यक रजतं चन्द्रदैवतं ………. गोत्राय ………. शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे ॥ दक्षिणा लेकर ब्राह्मण ॐ स्वस्ति कहे ।

पू.स.त्रि. होकर आचमन कर तीन बार देवताभ्यः मन्त्र पढ़े : ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्तु ते ॥३॥ फिर वामदेव गान करे :

ॐ कयानश्चित्र आ भुव दूती सदा वृधः सखा । कया शचिष्ठया वृता ॥
कस्त्वा सत्यो मदानां मंहिष्ठो मत्सदन्धसः । दृढाचिदारु ये वसु ॥
अभीषुणः सखीनामविता जरितॄणां शतं भवास्यूतये ॥

ॐ स्वस्ति न ऽइन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो ऽअरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु । ॐ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

ॐ प्राजापत्यं वै वामदेव्यं प्रजापतावेव प्रतिष्ठायोतिष्ठन्ति ।
ॐ पशवो वै वामदेव्यं पशुष्वेव प्रतिष्ठायोत्तिष्ठन्ति ।
ॐ शान्तिर्वै वामदेव्यं शान्तावेव प्रतिष्ठायोत्तिष्ठन्ति । ॐ अत एतत्कर्माच्छिद्रमस्तु ॥

द.अप. दीप को हाथों से ढंके या किसी पत्रादि से आच्छादन कर दे। हाथ-पैर धोकर पू.स. आचमन कर अगला मन्त्र पढे :-

ॐ प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेत्ताध्वरेषुयत् । स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः ॥

॥ ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः ॥

पिण्डवेदि को कनिष्ठिका अङ्गुलि से थोडा तोड़ दे। सूर्य भगवान को प्रणाम कर ले। श्राद्ध की सभी उपयोगी वस्तुयें ब्राह्मण को दे, पत्र-पुष्पादि जल में प्रवाहित करे।

सपिंडीकरण विधि

लेखविस्तारभयात् सपिण्डीकरण विषयक चर्चा किये बिना सपिंडी श्राद्ध विधि दी जा रही है। सपिण्डीकरण विषयक चर्चा अन्य आलेख में करेंगे :

सर्वप्रथम शुद्धिकरण करे, तीन बार आचमन कर कुशादि धारण करते हुए आत्मशुद्धि करे :

  • पवित्रीकरण मंत्र : ॐ अपवित्रः पवित्रोऽ वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याऽभ्यन्तरः शुचिः पुण्डरीकाक्षः पुनातु । ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॥
  • दिग्रक्षण मंत्र : ॐ नमो नमस्ते गोविन्द पुराण पुरूषोत्तम । इदं श्राद्धं हृषीकेश रक्ष त्वं सर्वतो दिशः ॥

विश्वेदेव श्राद्ध

आसन : कल्पित विश्वेदेव श्राद्ध स्थान पर पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख बैठकर, कल्पित त्रिकुशात्मक विश्वेदेवासन को सिक्त करके त्रिकुशा-जौ-जल से विश्वेदेव आसन उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….… गोत्रस्य …….. पितुः ……. प्रेतस्य सपिण्डीकरण निमित्तक श्राद्धे …….. गोत्राणां पितामह – प्रपितामह – वृद्धप्रपितामहानाम् …….. शर्मणां सम्बन्धिनो विश्वेदेवा इदं आसनं वो नमः ॥ सीधे हाथ विश्वेदेवासन का उत्सर्ग करे।

आवाहन :- करबद्ध विश्वेदेवों का आवाहन करे – ॐ विश्वान् देवानहं आवाहयिष्ये, विश्वेदेवा स आगत शृणुताम् इमं हवं एनं बर्हिनिषीदत ॥

विश्वेदेव श्राद्ध
विश्वेदेव श्राद्ध

यवविकिरण : विश्वदेवा के भोजनपात्र पर जौ छिड़के – ॐ यवोऽसि यवयास्मद्वेषो यवयारातीः ॥ फिर अगले 3 मंत्रों को पढ़े : 

  1. ॐ विश्वेदेवाः शृणुतेमं हवं मे येऽअन्तरिक्षे य उपपद्यविष्ट येऽअग्निजिह्वा उतवा यजत्रा आसद्याऽस्मिन् बर्हिषि मादयध्वम् ॥
  2. ॐ ओषधयः समवदन्तः सोमेन सह राज्ञा यस्मै कृणोति ब्राह्मणस्तं राजन् पारयामसि
  3. ॐ आगच्छन्तु महाभागा विश्वेदेवा महाबलाः । ये यत्र योजिताः श्राद्धे सावधाना भवन्तु ते ॥

अर्घ्यस्थापन :- अर्घ्य पूड़ा में पवित्री (कुश) देकर इन मंत्रों से क्रमशः जल व जौ दें –

  • ॐ शन्नो देवीरभिष्टये शन्नो भवन्तु पीतये शंय्योरभि स्रवन्तुनः॥ – जल।
  • ॐ यवोऽसि यवयास्मद्वेषो यवयारातीः ॥ – जौ । फूल एवं चन्दन भी दे दें (बिना मंत्र के) ।
  • फिर अर्घ्यपात्र को बांये हाथ में ले पूड़ा का पैंता (कुश) निकाल कर विश्वेदेवा के भोजन पात्र पर पूर्वाग्र रखकर अन्य जल से सिक्त कर दे ।

अर्ध्याभिमन्त्रण :- उत्तान दाहिने हाथ से अर्घ्यपूड़ा को ढंक (उत्तान) कर यह मंत्र पढ़े – ॐ या दिव्या आपः पयसा सम्बभूबुर्या आंतरिक्षा उत पार्थीवीर्या:। हिरण्यवर्णा याज्ञियास्ता न आपः शिवा: शं स्योना: सुहवा भवन्तु ॥

अर्घोत्सर्ग :- त्रिकुशा, जौ, जल लेकर अर्थ्योत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….… गोत्रस्य …….. पितुः ……. प्रेतस्य सपिण्डीकरण निमित्तक श्राद्धे …….. गोत्राणां पितामह – प्रपितामह – वृद्धप्रपितामहानाम् …….. शर्मणां सम्बन्धिनो विश्वेदेवा एषोऽर्घः वो नमः ॥ जौ, जल पूड़ा पर छिड़क कर भोजन पात्रस्थ कुश पर अर्घ दे ।

पैंता (कुश) को पुनः पूड़ा में रखकर पूड़ा को आसन के दक्षिण भाग में इस मंत्र से उत्तान रखे और दक्षिणापर्यंत हिलावे नहीं – ॐ विश्वेभ्यः देवेभ्यः स्थानमसि ॥

गन्धादि : त्रिकुशा, जौ, जल लेकर गन्धादि का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….… गोत्रस्य …….. पितुः ……. प्रेतस्य सपिण्डीकरण निमित्तक श्राद्धे …….. गोत्राणां पितामह – प्रपितामह – वृद्धप्रपितामहानाम् …….. शर्मणां सम्बन्धिनो विश्वेदेवा एतानि गंध पुष्पधूपदीपताम्बूल यज्ञोपवीत- वस्त्रादिऽआच्छादनानि वो नमः ॥

भूस्वामि अन्नोत्सर्ग :- आसन सहित विश्वेदेवा के भोजन पात्र का जल से प्रदक्षिणक्रमानुसार मण्डल करे । दक्षि० अपसव्य होकर अपने वाम भाग में (पिण्डवेदी से पूर्व), मोड़ा-तिल-जल भूस्वामि के अन्न का उत्सर्ग करे – ॐ इदमन्नम् एतद् भूस्वामि पितृभ्यो नमः ॥

पूर्वा० सव्य हो त्रिकुशहस्त विश्वेदेवा के भोजनपात्र में अन्नादि, घी, मधु, जौ देकर जलपात्र वा पूड़ा में जल व घी दे ।

मधुप्रक्षेप (व्यवहारात् अन्नस्पर्श) :- त्रिकुश लेकर भोजनपात्र के अन्न में उत्तान दाहिना हाथ लगावे – ॐ मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः माध्वीर्न: सन्त्वोषधिः मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः मधुद्यौरस्तु नः पिता मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमां२ अस्तु सूर्यः माध्वीर्गावो भवन्तुनः ॥ ॐ मधु मधु मधु ॥

पात्रालम्भन : दाहिने हाथ के नीचे उन्मुख बायें हाथ से विश्वेदेवान्न पात्र का स्पर्श करे –

  • ॐ पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखे अमृते ऽअमृतं जुहोमि स्वाहा ॥
  • ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् समूढ़मस्य पां सुले ॥
  • ॐ कृष्ण हव्यमिदं रक्षमदियं ॥ अ.द.त्रि.

अवगाहन : बांये हाथ को पूर्ववत रखे हुए दाहिने हाथ के अँगूठा से विश्वेदेवान्न, पूड़ा का जल घी और फिर अन्न में अंगुष्ठ निवेषण करे – ॐ इदमन्नम् ॥ (अन्न) । ॐ इमा आपः ॥ (जल) । ॐ इदमाज्यम् ॥ (घी)। ॐ इदं हविः ॥ (अन्न) बाएं हाथ को भोजन में लगाकर रखते हुए दाहिने हाथ में जौ लेकर इस मंत्र से विश्वेदेवान्न पर छिड़के –

विश्वेदेव श्राद्ध के बाद हाथ-पैर धोकर पितृश्राद्ध करे।

सपिंडी श्राद्ध – प्रेत सहित पितृ श्राद्ध

छन्दोग श्राद्ध में विशेषता : छन्दोग श्राद्ध में पितृ श्राद्ध में अर्घ्य, अर्चन, अवनेजन, पिण्ड, प्रत्यवनेजन, और वस्त्र के उत्सर्ग वाक्य में “ये चात्रत्वानुयाँश्च त्वमनु तस्मै” पद प्रयोग किया जाता है। लेकिन इसके कुछ अपवाद भी कहे गये हैं : प्रेतश्राद्धे स्त्रियाश्राद्धे श्राद्धे स्त्रीकर्तृके तथा। सपिण्डानां तथा श्राद्धे ये चात्रत्वा न प्रयोजयेत् ॥ – प्रेतश्राद्ध में अर्थात प्रेत के निमित्त उत्सर्ग वाक्यों में, स्त्री श्राद्ध में, यदि स्त्री श्राद्ध करे तो और यदि सपिण्ड का श्राद्ध हो तो “ये चात्रत्वानुयाँश्च त्वमनु तस्मै” पद का प्रयोग न करे।

प्रेतासन उत्सर्ग करने के बाद पितामहादि पितरों के आसन को जल से सिक्त करे, तीन मोड़ा, तिल, जल लेकर पितामह, प्रपितामह एवं वृद्ध प्रपितामहों के आसनों का भी उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्घे ……… गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः …….. शर्माणः इमानि आसनानि त्रिधा विभक्तानि वः स्वधा ॥ (…….. गोत्राः पितामही-प्रपितामही-वृद्धप्रपितामह्यः  ……… देव्यः) 

तिल, जल पश्चिम-पूर्व क्रम से तीनों कल्पित पितृ आसनों पर क्रमिक रूप से छिड़कें।

आवाहन :- पितरों के निमित पढे – 

  • ॐ पितृन् अहं आवाहयिष्ये, ॐ उशन्तस्त्वा निधीमह्युशन्तः समिधीमहि । उशन्नुशत आवह पितृन् हविषे अत्तवे ॥
  • ॐ एत पितरः सोम्यासो गंभीरेभिः पथिभिः पूर्विणेभिः। दत्तास्मभ्यं द्रविणेहि भद्रं रयिञ्च नः सर्ववीरं नियच्छत ॥
  • ॐ आयन्तु नः पितरः सोम्यासोऽ अग्निष्वाता: पथिभिर्देवयानै: अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तोऽधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान् ॥

तिलविकिरण :- पितामहादि के भोजनपात्रों पर तिल छिड़के – ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षां सि वेदिषदः ॥

अर्घ्यस्थापन :- चारों अर्घ्यपुटकों में पवित्री देकर अगले दोनों मंत्रों से जल व तिल दें :-

  • जल : अर्घ्य पात्र में जल दे – ॐ शन्नो देवीरभिष्टये शन्नो भवन्तु पीतये शंय्योरभि स्रवन्तुनः॥ स.द.त्रि.
  • तिल : अर्घ्य पात्र में तिल दे – ॐ तिलोऽसि पितृ देवत्यो गोसवो देवनिर्मितः। प्रत्नद्भिः पृक्त: स्वधया पितृन् लोकान् प्रीणाहि नः स्वधा ॥ स.द.त्रि.

समंत्र जल और तिल देने के बाद बिना मंत्र के ही फूल, चन्दन भी दे दें।

अर्ध्याभिमंत्रण :- प्रेतार्घपूड़ा को दांये हाथ से उठाकर बांये हाथ में रखे, उससे पैंता/पवित्री निकाल कर प्रेत भोजनपात्र पर उत्तराग्र रखकर अन्य जल से सिक्त कर दे। पूड़ा को दाहिने हाथ से (अधोमुख करके) ढंककर यह मंत्र पढ़े :- ॐ या दिव्या आपः पयसा सम्बभूबुर्या आंतरिक्षा उत पार्थिवीर्या:। हिरण्यवर्णा याज्ञियास्ता न आपः शिवा: शं स्योना: सुहवा भवन्तु ॥

अर्घ्योत्सर्ग : फिर दाहिने हाथ में मोटक, तिल, जल लेकर अर्घ्योत्सर्ग करे – ॐ अद्य ……… गोत्र पितः …… प्रेत सपिण्डीकरण श्राद्धे इदमर्घ्यं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो.; फिर अर्घपात्र दाहिने हाथ में लेकर पूर्वसिक्त कुशा पर पितृतीर्थ से चतुर्थांश मात्र जल दे। पुनः अर्घपात्र को बांये हाथ में रखकर दाहिने हाथ से पवित्री उठाकर अर्घपात्र में दक्षिणाग्र रखे। अर्घपात्र को दाहिने हाथ में लेकर जल सहित यथावत वेदी पर रख दे।

पितामहादि अर्घ्य : तदूत्तर तीन त्रिकुशा लेकर पितामहादिकों के अर्घ्यपात्रों से पैंता/पवित्री निकाल कर भोजन पात्र पर उत्तराग्र रखकर जल से सिक्त करे, तीनों अर्घ्यपुटकों को दोनों हाथों से ढंक कर ॐ या दिव्या ….. मंत्र पढ़े । त्रिक मोड़ा-तिल-जल से अर्घ्यों का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्घे ……… गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः …….. शर्माणः इमानि अर्घ्यानि ये चात्र यूयमनुयाँश्च यूयमनु तेभ्यः वः स्वधा ॥

एक (पश्चिम वाला) अर्घ्यपात्र दाहिने हाथ में लेकर सामने के भोजनपात्रस्थ उतराग्र पवित्री पर पितृतीर्थ से चतुर्थांश जल देकर पवित्री को पुनः पूड़ा में रख पूड़ा यथास्थान रखे; पुनः बीच वाले दूसरे व फिर तीसरे पूड़े से भी उसी प्रकार चतुर्थांश अर्घ्य देकर पवित्री को पूड़ा में रखकर पूर्ववत यथास्थान रखे ।

पूर्वा० सव्य हो आचमन कर “ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः” पढ़ कर हरिस्मरण करे ।

अर्घ्यसंयोजन :- दक्षि० अपसव्य-मोटकहस्त होकर अग्रिम मंत्र से प्रेतार्घपात्र का जल अलग से पूर्वाग्र रखे हुए तीन खाली पूड़ों में से दो पूड़ों में समंत्र व एक में बिना मंत्र के एक-एक तिहाई जल दे – 

ॐ ये समानाः समनसः पितरो यमराज्ये । तेषां लोकः स्वधा नमो यज्ञो देवेषु कल्पताम् ॥
ॐ ये समानाः समनसो जीवा जीवेषु मामकाः। तेषां श्रीर्मयि कल्पतामस्मिंल्लोके शतं समाः ॥ 

तदूत्तर पितामह सम्बन्धी पूड़े का समस्त जल प्रेतपूड़ा में लेकर ॐ ये समानाः समाः …… मंत्र पढ़कर पितामह के पूड़ा में सभी जल गिरा दे; पुनः पूर्ववत् प्रपितामह संबंधी पूड़ा का जल प्रेतपूड़ा में लेकर प्रपितामह के अर्घ्यपूड़ा में समंत्र दे दे । इसी विधि से समंत्र वृद्धप्रपितामह के अर्घ्यपूड़ा में भी जल दे ।

न्युब्जीकरण :- प्रेत मोड़ा लेकर, पवित्री सहित प्रेतार्घपूड़ा को इस मंत्र से प्रेतासन से पश्चिम अधोमुख कर दे – ॐ पित्रे (मात्रे) स्थानमसि ॥ दक्षिणा देने तक उस पूड़ा को नहीं हिलावे । 

तदुत्तर वृद्धप्रपितामह के अर्घ्यपूड़ा का जल और पवित्री प्रपितामह के अर्घ्यपूड़ा में देकर यथास्थान रखे, फिर प्रपितामह के अर्घ्यपूड़ा का जल और पवित्री पितामह के अर्घ्यपूड़ा में गिराकर यथास्थान रखे, फिर पितामहार्घपात्र को उठा कर प्रपितामहार्घपात्र में रखे फिर दोनों अर्घ्यपात्रों को उठाकर वृद्ध-प्रपितामहार्घपात्र में रखकर तीनों पूड़ा को पितामहादिकों के आसन से पश्चिम भाग में अधोमुख कर दे – ॐ पितृभ्यः स्थानमसि ॥ दक्षिणा देने तक उन पूड़ों को न हिलावे ।

गन्धादि :- प्रेतमोड़ा, तिल, जल लेकर प्रेत के गन्धादि का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य ……… गोत्र पितः …… प्रेत सपिण्डीकरण श्राद्धे एतानि गन्धपुष्पधूपदीपताम्बूल यज्ञोपवीता ऽऽच्छादनानि / विद्यमानोपकरणानि ते मया दीयन्ते तवोपतिष्ठन्ताम् ॥

फिर त्रिक मोड़ा, तिल, जल लेकर पितामहादि तीनों के गन्धादि का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्घे ……… गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः …….. शर्माणः  एतानि गन्ध पुष्प धूप दीप ताम्बूल यज्ञोपवीत ऽऽच्छादनानि/विद्यमानोपकरणानि ये चात्र यूयमनुयाँश्च यूयमनु तेभ्यः वः स्वधा ॥

प्रथम पिता के भोजनपात्र व आसन के चारों ओर जल से मण्डल (अप्रदक्षिण) कर दे । पुनः क्रमशः पितामहादिकों के भोजनपात्र व आसन के चारों ओर भी जल से अपसव्य मण्डल करे ।

अग्नौकरण :- पूर्वा० सव्य होकर एक पूड़ा में जल रखे, दूसरे पूड़े में सिद्धान्न, घी व जौ रखे। पातित-दक्षिणजानु होकर अनामिका और अंगूठा से पूड़ा का अन्नादि लेकर जल वाले पूड़े में दो बार आहुति प्रदान करे –

  1. स्वाहा सोमाय पितृमते ॥ पहली आहुति ।
  2. स्वाहा अग्नये कव्यवाहनाय ॥ दूसरी आहुति दे ।

अप० दक्षि० पितामहादि के भोजन पात्र पर थोड़ा-थोड़ा हुतशेषान्न दे। प्रेत भोजनपात्र पर पुरुषाहार-परिमित प्रेतान्न, दूध, दही, घी, मधु, व्यञ्जनादि परोस कर रख दे । एक पात्र में तिल युत जल भोजन के उत्तरभाग में रख दे। अग्नौकरण हुतशेषान्न पितामहादि पाक में मिलाकर पुनः पितामहादि तीनों के लिए भी भोजन परोसे व तीन पात्रों में तिल युत घृत-जल देकर भोजनपात्र के निकट रखे।

मधुप्रक्षेप (व्यवहारात् अन्नस्पर्श) : प्रेतत्रिकुशा लेकर भोजनपात्र के अन्न में मधु दे या अधोमुखी दाहिना हाथ लगावे – ॐ मधुव्वाता ऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः माध्वीर्न: सन्त्वोषधिः मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः मधुद्यौरस्तु नः पिता मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमां२ अस्तु सूर्यः माध्वीर्गावो भवन्तुनः ॥ ॐ मधुमधुमधु ॥

पात्रालम्भन :- दाहिने हाथ के नीचे अधोमुख बायें हाथ से भोजनपात्र का स्पर्श करे – 

  • ॐ पृथिवी ते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखे अमृते ऽअमृतं जुहोमि स्वाहा ॥
  • ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् समूढ़मस्य पाँ सूले॥
  • ॐ कृष्ण कव्यमिदं रक्षमदियं ॥

अवगाहन :- बांये हाथ को भोजनपात्र में लगाए रखते हुए ही भोजनपात्र का अन्न पूड़ा का जल, घी और फिर अन्न में अङ्गुष्ठ निवेश करे –

भोजन :- दाहिने हाथ मे मोड़ा, तिल, जल लेकर प्रेतान्न का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य ……… गोत्र पितः …… प्रेत सपिण्डीकरण श्राद्धे इदमन्नं सोपकरणं ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥

पितामहादिक भोजन :– पुनः पूर्ववत् पितामहादिकों के भोजनों का त्रिक-त्रिकुशा लेकर अधोमुखी दाहिने हाथ से स्पर्श कर “ॐ मधुव्वाता ….. मधु” मंत्र का पाठ करके दाहिने हाथ के नीचे बायां हाथ भी भोजनपात्र में लगा दे व “ॐ पृथिवी ते …… मदीयम्” का पाठ करे । 

अवगाहन :- दाहिना हाथ हटा ले व अंगूठे से अन्न, जल, घी व अन्न का मंत्र पढ़ते हुए स्पर्श करे – ॐ इदमन्नम् ॥ (अन्न) । ॐ इमा आपः ॥ (जल) । ॐ इदं हविः ॥ (अन्न)

अन्नोत्सर्ग :- दाहिने हाथ में त्रिक मोड़ा, तिल, जल लेकर पितामहादिकों के भोजन का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्धे ……… गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः …….. शर्माणः इमानि अन्नानि सोपकरणानि त्रिधाविभक्तानि ये चात्र यूयमनुयाँश्च यूयमनु तेभ्यः वः स्वधा ॥ 

  • बाएं हाथ को हटाकर तीन बार गायत्री जप करे ।
  • दक्षि० अप० “मधुमती ऋचा” और यह मंत्र पढे – ॐ अन्नहीनं क्रियाहीनं विधिहीनं च यद्भवेत्। तत्सर्वमच्छिद्रमस्तु ॥
  • गायत्री जप कर आसन के नीचे कुशा रखे ।
  • पुनः अपसव्य दक्षिणाभिमुख  “मधुमती ऋचा” पाठ करे ।

ॐ कृणुष्वपाजः प्रसितिन्न पृथिवीं याहि राजे वामवां इभेन । तृष्वीमनु प्रसितिं द्रूनाणोऽस्तासि विध्य रक्षसस्तपिष्ठैः । तवभ्रमास आसुया पतन्त्यनुस्पृस धृषता शोशुचानः । तपूं ष्यग्ने जुह्वा पतङ्गानसन्दितो विसृज विश्वगुल्काः । प्रतिष्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायुर्विशो अस्याऽअदब्धः । यो नो दूरे अघसं सो यो अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत । उदग्ने तिष्ठ प्रत्या तनुष्वन्य मित्रां ओषता तिग्महेते । यो नो ऽअरातिं समिधानचक्रे नीचा तं धक्ष्यत सन्न शुष्कम् । उर्ध्वो भव प्रतिविध्या ध्यस्मदा विष्कृणुष्व दैव्यान्यग्ने अवस्थिरा तनुहि यातु यूनाम् जामिमजामिं प्रमृणीहि शत्रून् ॥ पाठ कर भूमि पर तिल छिड़के

ॐ उदीरतामवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सौम्यासः । असूंऽयईयुरवृका ऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु अङ्गिरसो नः पितरः सौम्यासः । तेषां वयं सुमतौ यज्ञियानामपि भद्रे सौमनसे स्याम ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासोऽअनुहिरे सोमपीथं वशिष्ठाः तेभिर्यमः सं रराणो हवीं स्युसन्नुसद्भिः प्रतिकाममत्तु ॥

  • ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । भूमिं सर्वतस्पृत्त्वात्त्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥ इत्यादि पुरुषसूक्त पाठ
  • ॐ आशुः शिषाणो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभनश्चर्षनिनां । संक्रदनो निमिष एकवीरः शतं सेना अजयत्साकमिन्द्रः ॥
  • ॐ नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ॥
  • ॐ नमस्तुभ्यं विरूपाक्ष नमस्तेनेक चक्षुषे । नमः पिनाकहस्ताय वज्रहस्ताय वै नमः ॥
  • ॐ सप्तव्याधा दशार्णेषु मृगाः कालञ्जरे गिरौ । चक्रवाकाः शरद्वीपे हन्साः सरसि मानसे ॥
  • तेऽपि जाताः कुरुक्षेत्रे ब्राह्मणा वेदपारगाः । प्रस्थिता दूरमध्यानौ यूयं तेभ्योवसीदथ ॥
  • ॐ नमस्येहं पितृन् स्वर्गे ये वसन्त्यधिदेवता। देवैरपि हि तृप्यन्तु ये च श्राद्ध स्वधोत्तरैः ॥
  • ॐ रुची रुची रुचिः ॥ पाठ करे।

त्रिकुश धारण कर पूर्वा० सव्य हो आचमन कर “ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः” पढ़कर त्रिगायत्री जपे । फिर दक्षि० अप० होकर मधुमती ऋचा पाठ करे ।

उल्लेखन :- दक्षि० अप० होकर बालुकामयी एक हाथ लंबा-चौड़ा और 4 अंगुल ऊँचा दक्षिणप्लव वेदी (प्रेतपिण्डवेदी) निर्माण करे, बालुकामयी पिंडवेदी को जल से सिक्त कर दर्भपिञ्जलि से प्रेत-पिण्डस्थान में प्रादेशमात्र – दक्षिणाग्र रेखा करे – ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षां सि वेदिषदः ॥ दर्भपिञ्जलि उत्तर में में त्याग दे।

पुनः पितामहादि के लिये भी बालुका से एक हाथ लंबा-चौड़ा और 4 अंगुल ऊँचा दक्षिणप्लव पिण्ड वेदी (पितरपिण्डवेदी) निर्माण करे, बालुकामयी पिंडवेदी को जल से सिक्त कर पिण्ड वेदी पर ॐ अपहता ऽअसुरा रक्षां सि वेदिषदः ॥ – मंत्र से पूर्ववत तीन रेखायें उल्लिखित करे । दर्भपिञ्जलि उत्तर में में त्याग दे।

सभी प्रादेशप्रमाण रेखाओं पर नौ (मुष्टिपरिमित) छिन्नमूल कुश रखकर जल से सिक्त कर दे।

दक्षिणाभिमुख-अपसव्य होकर एक पूड़े में तिल-जल-चंदन-पुष्प लेकर बांये हाथ में रखे, दांये हाथ में प्रेतमोड़ा-तिल-जल लेकर अगले मंत्र से अवनेजन उत्सर्ग करे :

अत्रावन : ॐ अद्य …………. गोत्र पितः ……… प्रेत सपिण्डीकरण श्राद्धपिण्डस्थाने अत्रावने निक्ष्व ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो. ॥ जलस्पर्श करे ॥

पुनः त्रिकमोड़ा, तिल, जल लेकर पूर्वस्थापित पितामहादिक अवनेजन के तीन पूड़ाओं का इस मंत्र से उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्धे ……… गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः …….. शर्माणः पिण्डस्थाने अत्रावनेषु निग्ध्वं ये चात्र यूयमनुयाँश्च यूयमनु तेभ्यः वः स्वधा ॥ उत्सर्गोपरांत क्रमशः अवनेजन पात्रों का आधा जल बारी-बारी दक्षिणाग्र तीन जगह वेदी के कुशाओं पर पितृतीर्थ से दे दे । जलस्पर्श करे ॥

पिण्ड निर्माण : प्रेतश्राद्धशेषान्न में तिल-घी-मधु आदि मिलाकर प्रेतपिण्ड निर्माण करके पिण्डपात्र में रखे, पिण्ड पर पुनः घृत-मधु दे। हाथ धोकर पितृश्राद्धशेषान्न में अग्नौकरणशेषान्न देकर तिल-घी-मधु आदि मिलाकर 3 पितृपिण्ड निर्माण करके अलग-अलग 3 पिण्डपात्रों में रखे, पिण्डों पर पुनः घृत-मधु दे।

पिण्ड :- प्रेत-पिण्ड बनाकर बाएं हाथ में रखे, दाहिने हाथ में प्रेतमोड़ा, तिल, जल लेकर पिण्डोत्सर्ग करे – ॐ अद्य ……… गोत्र पितः …… प्रेत सपिण्डीकरण श्राद्धे एष पिण्डः ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ अ.द.मो. ॥ पिण्ड को दाएं हाथ में लेकर पितृतीर्थ से प्रेत-पिण्डस्थान के कुशों पर रखे । जलस्पर्श करे ॥

पुनः पितामह, प्रपितामह व वृद्ध-प्रपितामहों के पिण्डों का भी बारी-बारी से तत्तत् मोड़ा, तिल-जल लेकर उत्सर्ग करे –

  1. ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः ……… प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्धे ……… गोत्राः पितामह ……… शर्मन् एष पिण्डः ये चात्रत्वानुयाँश्च त्वमनु तस्मै ते स्वधा ॥ जलस्पर्श करे ॥
  2. ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्धे ……… गोत्राः प्रपितामह ….….. शर्मन् एष पिण्डः ये चात्रत्वानुयाँश्च त्वमनु तस्मै ते स्वधा ॥ जलस्पर्श करे ॥
  3. ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्धे ……… गोत्राः वृद्धप्रपितामहाः …….. शर्मन् एष पिण्डः ये चात्रत्वानुयाँश्च त्वमनु तस्मै ते स्वधा ॥ जलस्पर्श करे ॥

उत्सर्गोपरांत पिण्डों को पितामहादिकों के पिण्डस्थान पर दाहिने हाथ के पितृतीर्थ से स्थापित रखकर पितामहादिकों के पिण्डतलस्थ कुशों में हाथ पोंछे – ॐ लेपभागभुजस्तृप्यन्तु ॥

पूर्वा० सव्य हो आचमन कर “ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः” पढ़कर हरिस्मरण करे । 

फिर दक्षिणाभिमुख-अपसव्य होकर जिस पात्र में पिण्ड रखा गया था उस पात्र को प्रक्षालन कर उसी प्रक्षालित जल को एक पूड़े में ले, तिल-पुष्प-चंदन देकर बांये हाथ में रखे, दांये हाथ में मोड़ा-तिल-जल लेकर प्रत्यवन उत्सर्ग करे :

पुनः उसी प्रकार जिस पात्र में पितामहादि का पिण्ड रखा गया था उस पात्र का प्रक्षालन कर उसी प्रक्षालित जल को तीन पूड़ों में ले, तिल-पुष्प-चंदन देकर बांये हाथ में रखे, दांये हाथ में त्रिकमोड़ा-तिल-जल लेकर प्रत्यवन उत्सर्ग करे :

 अद्य …….. गोत्रस्य पितुः ………. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्धे ……… गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः ……….. शर्माणः श्राद्ध पिण्डेषु अत्र प्रत्यवनेषु निग्ध्वं ये चात्र यूयमनुयाँश्च यूयमनु तेभ्यः वः स्वधा ॥ पितामहादिकों के प्रत्यवन पूड़ा का जल पितृतीर्थ से उनके-उनके पिण्डों पर दे । जलस्पर्श करे ॥

  1. ॐ अत्र पितर्मादयस्व यथाभाग मा वृषायस्व ॥ करबद्ध उत्तर मुंह कर भास्वरमूर्ति पिता का ध्यान करते हुए उत्तर से श्वास ले।
  2. ॐ अमीमदत पिता यथाभाग मा वृषायिष्ट ॥ ईशान की ओर श्वास छोड़े।

पुनः करबद्ध उत्तर मुंह कर इस मंत्र से श्वास ले, सांस को रोक कर पितामहादिकों का ध्यान करे ।

  • ॐ अत्र पितरोमादयध्वं यथाभाग मा वृषादयध्वम् ॥ उत्तर से श्वास ले।
  • ॐ अमीमदन्त पितरो यथाभाग मा वृषायिषत ॥ ईशान की ओर श्वास छोड़े।

दाहिने कोहनी से नीवीं (डांर) ससार कर, पूर्वा०सव्य हो जलस्पर्श करे ॥ हरिस्मरण करे। अप०द० हो प्रेतमोड़ा धारण कर प्रेतपिण्ड पर सूत्र दे – ॐ एतत्ते पितर्वासः/मातर्वासः ॥

त्रिकमोड़ा लेकर पितामहादिकों के पिण्डों पर तीन सूता दे – ॐ एतद् वः पितरो वासः ॥ पितामहादिक तीनों के पिण्डों पर तीन सूता चढ़ा दे । 

वस्त्रोत्सर्ग :- प्रेत-मोड़ा, तिल, जल ले प्रेत-सूत्र का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य ……… गोत्र पितः …..… प्रेत सपिण्डीकरण  श्राद्धपिण्डे एतद्वासः ते मया दीयते तवोपतिष्ठताम् ॥ जलस्पर्श करे ॥

त्रिकमोड़ा, तिल, जल लेकर पितामहादिकों के सूत्र का उत्सर्ग करे – ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्धे ……… गोत्राः पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहाः …….. शर्माणः श्राद्ध पिण्डेषु इमानि वासांसि ये चात्र यूयमनुयाँश्च यूयमनु तेभ्यः वः स्वधा ॥ जलस्पर्श करे ॥

हाथ धोकर पितरों का ध्यान करते हुए बिना मंत्र के पहले प्रेतपिण्ड पर पान, सुपारी, पुष्प चन्दनादि चढ़ाकर पिण्ड के चारों ओर पिण्ड शेषान्न बिखेर दे, फिर पितामहादिकों के पिण्डों पर पान, सुपारी, पुष्प, चन्दनादि चढ़ाकर पिण्ड के चारों ओर पिण्ड शेषान्न बिखेरे । 

पिण्डच्छेदन :- पुनः त्रिकुशा के मूल से पिण्डस्थ पानादिकों को हटा कर स्वर्ण/रजत शलाका को दोनों हाथ (बांए हाथ में जड़भाग) से पकड़कर ‘ॐ ये समानाः मंत्र पढते हुए प्रेत-पिण्ड का तृतीय भाग काटे, पुनः दुबारा मंत्र पढ़ कर दुबारा तृतीय भाग काटे, प्रेत-पिण्ड को दो बार तृतीयांश काटने पर तीन भाग बनेगा –

ॐ ये समानाः समनसः पितरो यमराज्ये । तेषां लोकः स्वधा नमो यज्ञो देवेषु कल्पताम् ॥
ॐ ये समानाः समनसो जीवा जीवेषु मामकाः। तेषां श्रीर्मयि कल्पतामस्मिंल्लोके शतं समाः ॥ 

पिण्डसम्मेलन :- एक-एक भाग को ‘ॐ ये समानाः……. समाः‘ मंत्र पढ़ते हुए क्रमशः पितामहादिकों के तीनों पिण्ड में मिला दे । पुनः सब पिण्डों को एकत्र मिला कर गोल करे, फिर पिता पितामहादिकों का ध्यान करते हुए पिण्ड पर पितृतीर्थ से चार अंजलि जल दे ।

पिण्डपूजन :- चन्दन-फूल-माला-पान-मखान-द्रव्यादि चढ़ाकर पिण्ड पूजा करे । पिण्डशेषान्न पिण्ड के समीप बिखेर दे। करबद्ध होकर अगला मंत्र पढ़े –

ॐ वसंताय नमस्तुभ्यं ग्रीष्माय च नमो नमः। वर्षाभ्यश्च शरत्संज्ञ ऋतवे च नमः सदा॥
हेमंताय नमस्तुभ्यं नमस्ते शिशिराय च। मास संवत्सरेभ्यश्च दिवसेभ्यो नमः सदा॥

ॐ वसन्तादि षडऋतुभ्यो नमः॥ – पुष्प पिण्ड पर चढ़ा दे।

पूर्वा० सव्य त्रिकुश-हस्त हो कर विश्वेदेवान्न पर, फिर दक्षि० अप० मोटकहस्त प्रेत, फिर पितामहादि चारों के भोजनों पर अगले मंत्र पढ़ते हुए क्रमशः जल, फूल व अक्षत चढ़ावे :

ॐ शिवा आपः सन्तु ॥ जल । ॐ सौमनस्यमस्तु ॥ फूल । ॐ अक्षतंचारिष्टमस्तु ॥ अक्षत ।

अक्षय्योदक :- तदूत्तर चार पूड़ा में जल, चन्दन, फूल, तिल, घी, मधु देकर अक्षय्योदक बना ले । प्रेतमोड़ा तिल, जल लेकर प्रेत के अक्षय्योदक का उत्सर्ग कर पिण्ड पर पूड़ा का जल दे दे – ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डीकरण  श्राद्धपिण्डे  दत्तैतदन्नपानादिकमुपतिष्ठताम् ॥ 

पुनः त्रिकमोड़ा, तिल, जल लेकर तीनों अक्षय्योदकों का उत्सर्ग कर पितामहादिकों के वास्ते पिण्ड पर दे – ॐ अद्य …….. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डिकरण निमित्तक श्राद्धे …….. गोत्रेभ्यो पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहेभ्यो ………. शर्मणेभ्यो दत्तैतदन्न पानादिकानि अक्षय्यानि सन्तु ॥

जलधारा :- पूर्वा० सव्य हो दक्षिण की ओर देखते हुए अंजलि से पिण्ड पर पूर्वाग्र जलधारा दे – ॐ अघोराः पितरः सन्तु ॥ (अंजलिबद्ध)

आशीषप्रार्थना :- पूर्वा० प्रणाम कर दक्षिणदिशा देखते हुए पढ़े – ॐ गोत्रन्नो वर्द्धतां

पूर्वा० सव्य विश्वेदेवों का विसर्जन जल लेकर कर दे – ॐ विश्वेदेवाः प्रीयन्ताम् ॥ – विश्वेदेवार्घपात्र का चालन कर दे।

अपसव्य-दक्षिणाभिमुख – थोड़ा नम्र होकर पिण्ड को सूँघ ले और उठाकर फिर रख दे। पिण्ड के नीचे वाले कुशों को निकाल कर आग में दे दे। अर्घ्यपात्र को उत्तान कर दे। दक्षिणा करे :-

विश्वेदेव श्राद्धदक्षिणा :- पूर्वा० सव्य० हो त्रिकुशा, तिल, जल लेकर विश्वेदेवश्राद्ध की दक्षिणा करे – ॐ अद्य …… गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य (…….. गोत्रायाः मातुः प्रेतायाः) सपिण्डीकरण निमित्तक श्राद्धे ……….. गोत्राणां पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम् ………. शर्मसम्बन्धिनां विश्वेषां देवानां कृतैतत् श्राद्धप्रतिष्ठार्थम् एतावत् द्रव्यमूल्यक हिरण्यं अग्निदैवतं यथानाम गोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणां अहं ददे ॥

प्रेतश्राद्ध दक्षिणा :- अप० दक्षि० प्रेतमोड़ा, तिल, जल ले करे प्रेत श्राद्ध का दक्षिणा करे – ॐ अद्य ……. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य कृतैतत् सपिण्डीकरण श्राद्धप्रतिष्ठार्थम् एतावत् द्रव्यमूल्यकं रजतं चन्द्र दैवतं ……… गोत्राय ……… शर्मणे ब्राह्मणाय दक्षिणां तुभ्यमहं सम्प्रददे ॥ मंत्र का पढ़कर ब्राह्मण को दक्षिणा दे और ब्राह्मण ‘ॐ स्वस्ति’ कहकर दक्षिणा ले लें ।

पितामहादित्रय श्राद्ध दक्षिणा :- पुनः त्रिकमोड़ा, तिल, जल लेकर पितामहादिक श्राद्ध की दक्षिणा करे – ॐ अद्य ……. गोत्रस्य पितुः …….. प्रेतस्य सपिण्डीकरणनिमित्तक श्राद्धे ………. गोत्राणां ………. पितामह-प्रपितामह-वृद्धप्रपितामहानाम् शर्मणां कृतैतानि श्राद्धानि प्रतिष्ठार्थम् एतावत् द्रव्यमूल्यकं रजतं चन्द्रदैवतं यथानाम गोत्राय ब्राह्मणाय दक्षिणामहं ददे ॥

तीन बार देवताभ्यः मन्त्र पढ़े : ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्तु ते ॥३॥ फिर वामदेव गान करे :

ॐ कयानश्चित्र आ भुव दूती सदा वृधः सखा । कया शचिष्ठया वृता ॥
कस्त्वा सत्यो मदानां मंहिष्ठो मत्सदन्धसः । दृढाचिदारु ये वसु ॥
अभीषुणः सखीनामविता जरितॄणां शतं भवास्यूतये ॥

ॐ स्वस्ति न ऽइन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो ऽअरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु । ॐ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

ॐ प्राजापत्यं वै वामदेव्यं प्रजापतावेव प्रतिष्ठायोतिष्ठन्ति ।
ॐ पशवो वै वामदेव्यं पशुष्वेव प्रतिष्ठायोत्तिष्ठन्ति ।
ॐ शान्तिर्वै वामदेव्यं शान्तावेव प्रतिष्ठायोत्तिष्ठन्ति । ॐ अत एतत्कर्माच्छिद्रमस्तु ॥

द.अप. दीप को हाथों से ढंके या किसी पत्रादि से आच्छादन कर दे। हाथ-पैर धोकर पू.स. आचमन कर अगला मन्त्र पढे :-

ॐ प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेत्ताध्वरेषुयत् । स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः ॥

॥ ॐ विष्णुर्विष्णुर्हरिर्हरिः ॥

पिण्डवेदि को कनिष्ठिका अङ्गुलि से थोडा तोड़ दे। सूर्य भगवान को प्रणाम कर ले। श्राद्ध की सभी उपयोगी वस्तुयें ब्राह्मण को दे, पत्र-पुष्पादि जल में प्रवाहित करे।

ब्राह्मण (महापात्र) भोजन कराकर, दक्षिणा देकर, स्नान करे, धारित वस्त्र त्याग कर नया वस्त्र-यज्ञोपवीतादि धारण करे। गृहप्रांगण में जाकर कलश पूजन करे। देव-निमित्तक ब्राह्मण (पुरोहित वर्ग) भोजन कराकर दक्षिणा देकर स्वयं भी भोजन करे।

कर्मकांड विधि में शास्त्रोक्त प्रमाणों के साथ प्रामाणिक चर्चा की जाती है एवं कई महत्वपूर्ण विषयों की चर्चा पूर्व भी की जा चुकी है। तथापि सनातनद्रोही उचित तथ्य को जनसामान्य तक पहुंचने में अवरोध उत्पन्न करते हैं। एक बड़ा वैश्विक समूह है जो सनातन विरोध की बातों को प्रचारित करता है। गूगल भी उसी समूह का सहयोग करते पाया जा रहा है अतः जनसामान्य तक उचित बातों को जनसामान्य ही पहुंचा सकता है इसके लिये आपको भी अधिकतम लोगों से साझा करने की आवश्यकता है।

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