स्वर्ग और नरक कहीं नहीं है, स्वर्ग और नरक सब यहीं संसार में ही है, सुख ही स्वर्ग और दुःख नरक है। इस प्रकार का वक्तव्य मात्र सामान्य लोग ही नहीं देते हैं, बड़े-बड़े कथावक्ता और विद्वान भी अपने प्रवचन में बोलते हैं। और जब इस प्रकार समझाने लगते हैं तो प्रमाण भले ही कुछ भी न दे पायें किन्तु तर्क-वितर्क-कुतर्कों की झड़ी इस प्रकार लगा देते हैं कि सुनने वाला पूर्णरूप से सहमत हो जाता है कि वास्तव में संसार से पृथक स्वर्ग नरक नामक कुछ भी नहीं होता है, सब इसी संसार में है और सुख ही स्वर्ग है दुःख ही नरक है। इस आलेख में इस विषय को ही गंभीरता से समझाया गया है कि सच्चाई क्या है ?
स्वर्ग नरक क्या है ? स्वर्ग नरक सब यहीं है, सुख ही स्वर्ग और दुःख नरक है
शास्त्रों में जो प्रमाण है वह बताता है कि स्वर्ग और नरक है एवं संसार से पृथक लोकों में है। यमपुरी के राजा यमराज हैं और उन्हें ही धर्मराज भी कहा जाता है मरणोपरांत सभी जीवों के कर्म का निश्चय और तदनुसार दण्ड-पुरस्कार का निर्णय धर्मराज ही करते हैं। नरक यमपुरी में ही अवस्थित है किन्तु स्वर्ग यमपुरी से पृथक है जिसे अमरावती भी कहा जाता है, जहां इंद्र का शासन चलता है।
शास्त्रों में ऐसा प्रमाण नहीं है जो यह सिद्ध करता हो कि स्वर्ग और नरक कुछ भी पृथक नहीं है और संसार में ही स्वर्ग नरक है, ऐसा प्रमाण नहीं मिलता है कि सुख ही स्वर्ग है और दुःख ही नरक है। काव्यों में सुख की स्वर्ग से और दुःख की नरक से उपमा करने की परंपरा अवश्य रही है। जब कोई मनुष्य अतिसुखी होता है या प्रतीत होता है तो ऐसा बोल सकता है स्वर्गीय सुख और बोलते पाया जाता है लेकिन ये उपमा करने के लिये होता है। इसी प्रकार दुःखी व्यक्ति के लिये नरक की उपमा भी किया जाता है। किन्तु उपमा करने का तात्पर्य ये तो नहीं होता कि जिससे उपमा दी जाती है वही अवास्तविक हो, असत्य हो।
स्वर्ग नरक क्या है
स्वर्ग व नरक की चर्चा विभिन्न शास्त्र-पुराणों में किया गया है किन्तु गरुड़पुराण में विशेष रूप से किया गया है। यम का वर्णन वेदों में भी किया गया है, यज्ञ का उद्देश्य मोक्ष के साथ-साथ स्वर्गप्राप्ति भी बताया गया है। मोक्ष से चूकने पर स्वर्ग में स्थान मिलता है और स्वर्ग से भी चूकने वाला जीव नरक जाता है। जो शास्त्रों के सम्यक अध्ययन से रहित होता है वही ऐसा बोल सकता है कि स्वर्ग नरक सब इसी संसार में है पृथक नहीं। जो शास्त्रों का अध्ययन करने वाला होता है वो शास्त्रों के कथन को असत्य नहीं कह सकता है। शास्त्रों पर ईश्वर पर अविश्वास करना ही नास्तिकता है, आत्मा को नहीं मानना ही नास्तिकता है।
अर्थात यदि कोई बड़े-से-बड़े कथावाचक भी प्रवचन में यदि ऐसा कहते हैं कि स्वर्ग नरक सब इसी संसार में है पृथक कुछ भी नहीं, सुख ही स्वर्ग और दुःख ही नरक है ऐसा वक्तव्य देने का तात्पर्य है शास्त्रों के वचन को मिथ्या बताना। जो शास्त्रों के वचन को मिथ्या बताता है, जिज्ञासा के स्थान पर आलोचना का आश्रय लेता है वह निश्चित रूप से नास्तिक की श्रेणी में ही गण्य है। ऐसे नास्तिकों को पाखंडी-ढोंगी आदि भी कहा जा सकता है क्योंकि ये लोग ऐसा भी नहीं कहते कि मैं नास्तिक हूँ, धर्म के नाम पर ही व्यापार भी करते हैं और शास्त्रकथन को असत्य भी कहते हैं।
स्वर्ग की विशेषता है कि वहां दुःख नहीं होता सुख-ही-सुख मिलता है, स्वर्ग में इच्छाओं की भी पूर्ति होती रहती है क्योंकि वहां कामधेनु, कल्पवृक्ष आदि भी होते हैं। चूंकि स्वर्ग में सुख ही सुख होता है इसलिये सुख की उपमा स्वर्ग से की जाती है। इसी प्रकार नरक में दुःख ही दुःख मिलता है, नरक में सुख नहीं मिलता और इसी कारण दुःख की उपमा नरक से की जाती है।
स्वर्ग : मनुष्य जो कर्म करता है वह दो प्रकार का होता है पुण्य और पाप। देहि (जीव) की आसक्ति के कारण मृत्यु के उपरांत पुण्य कर्मों के फलस्वरूप दिव्य सुख की प्राप्ति हेतु जिस लोक में वास करता है और दिव्य सुखों को भोगता है उस लोक को स्वर्गलोक कहा गया है।
नरक : उसी प्रकार मनुष्य की कर्मासक्ति के कारण मृत्यु के उपरांत देही (जीव) पाप कर्मों के फलस्वरूप जहां असह्य दुःख प्राप्त करता है उसे नरक कहा गया है। नरक का तात्पर्य संसार में दुःख की प्राप्ति नहीं है यह भवरोग है नरक नहीं।
सुख का अर्थ स्वर्ग नहीं और दुःख का तात्पर्य नरक नहीं
सुख का अर्थ स्वर्ग नहीं : जैसे किसी सुंदर लड़की को स्वर्ग की अप्सरा, परी आदि कह दिया जाता है तो इसका यह अर्थ नहीं होता कि वो स्वर्ग की अप्सरा, परी आदि है, अपितु ये सुंदरता को प्रकट करने में असमर्थ होने पर उपमा दिया जाता है। स्वर्ग की अप्सरा कहने से भी यह भाव ही प्रकट होता है कि स्वर्ग अन्यत्र ही है। जैसे कोई किसी को बहुत प्रेम करता है तो उसके बारे में ऐसा बोला जाता है कि वही इसका प्राण है, यह उपमा मात्र ही होता है। किसी को चाणक्य कहा जाता है तो इसका तात्पर्य होता है कि वह व्यक्ति बहुत ही बुद्धिमान है, राजनीति का ज्ञाता है आदि, न कि वह व्यक्ति चाणक्य हो जाता है।
इसी प्रकार जब सुख को स्वर्ग कहा जाता है तो यह मात्र उपमा दी जाती है न कि सुख ही स्वर्ग है।
दुःख का तात्पर्य नरक नहीं : जब कोई व्यक्ति अधिक सोता है तो उसको कुम्भकर्ण की उपमा दी जाती है, जब कोई स्त्री बहुत भयावह दिखती है अथवा क्रूरकर्मा होती है तो उसे चुड़ैल, राक्षसी आदि कह दिया जाता है, कोई बुद्धिहीन मनुष्य हो तो उसे बैल-वरद कह दिया जाता वरदराज की कहानी पढ़ें किन्तु बैल कहने का तात्पर्य यह नहीं होता है कि वो व्यक्ति वास्तव में बैल ही है उपमा दी गई है, विशेष मुर्ख हो तो गधा भी कह दिया जाता है किन्तु यह उपमा मात्र ही होता है।
इसी प्रकार जब दुःख को नरक कहा जाता है तो यह मात्र उपमा दी जाती है न कि दुःख ही नरक है।
खंडन
शुभ कर्मों से स्वर्ग और अशुभ कर्मों से नरक की प्राप्ति होती है, यदि किसी का शुभ कर्म भी हो और अशुभ कर्म भी हो तो स्वर्ग और नरक अलग-अलग भोगना होता है न कि एक साथ ही दोनों का भोग होता है। एक साथ हंसना और रोना दोनों नहीं होता। किन्तु संसार में मनुष्य एक ही समय सुख और दुःख दोनों प्राप्त करता रहता है फिर उसे स्वर्ग में कहा जायेगा या नरक में।
- बाइक चलाते एक व्यक्ति को नौकरी लगने की सूचना मिली, उसी समय दुर्घटना हो गई। यदि संसार में ही स्वर्ग और नरक है तो वह व्यक्ति स्वर्ग में है या नरक में ?
- एक व्यक्ति का विवाह हो रहा है, सभी बहुत प्रसन्न हैं, नाच-गा रहे हैं, उसी समय उसके पिता को हृदयाघात हो गया। अब वह व्यक्ति स्वर्ग में है या नरक में ?
- एक व्यक्ति अस्वस्थ होने के कारण बहुत दुःखी है, लेकिन उसे धन की कोई कमी नहीं है, सभी सुविधायें उपलब्ध हैं,। वह स्वर्ग में है या नरक में ?
- एक व्यक्ति को बहुत चिकित्सा के उपरांत पुत्र की प्राप्ति हुई, किन्तु पत्नी की मृत्यु हो गयी। वह स्वर्ग में है या नरक में ?
इस तरह के लाखों प्रश्न हो सकते हैं और मात्र इन प्रश्नों से ही उन कुतर्कियों का ये कथन कि संसार में ही स्वर्ग और नरक है, सुख ही स्वर्ग है और दुःख ही नरक है खंडित हो जाता है।
कोरी कल्पना
ऊपर संसार में ही सुख के स्वर्ग और दुःख के नरक होने का खंडन हो गया है, यह मात्र नास्तिकों की कोरी कल्पना होती है। तथापि वो नास्तिक शास्त्रों को ही कल्पना पर आधारित सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। ऐसे प्रयास करने वाले भले ही कथा क्यों न कह रहे हों, प्रख्यात कथावाचक क्यों न हों चुंकि स्वयं ही शास्त्रों को कल्पना अर्थात असत्य मानते हैं और लोगों को बताते भी हैं अतः वो निश्चित रूपेण नास्तिकों की श्रेणी में ही गण्य हैं।
कल्पना शास्त्रों में लिखी बातें नहीं हैं, कल्पना वो है जिसके आधार पर शास्त्रों की बातों को असत्य या कल्पना कहने का अनर्थ किया जाता है।
स्वर्ग और नरक को कल्पना कहने के कारण
स्वर्ग और नरक को कल्पना कहने के कारण कई बताये जा सकते हैं किन्तु मुख्य कारण एक ही है और वो है नास्तिकता। किन्तु नास्तिकता मात्र को पूर्व शताब्दी तक ही मुख्य कारण माना जा सकता है। वर्त्तमान में तो पूरे विश्व में सनातन शास्त्रों को असत्य, भ्रामक आदि सिद्ध करने का निरर्थक प्रयास किया जा रहा है। मतांतरण आदि का कुचक्र करने में इससे बल मिलता है।
षड्यंत्रकारियों के कुचक्र में जो व्यक्ति फंस जाता है उसका मतांतरण करना सरल हो जाता है। जो अपने शास्त्रों में विश्वास रखता है उसका मतांतरण करना संभव नहीं होता है। इसलिये षड्यंत्रकारी ऐसा प्रयास बड़े जोर-शोर से करने में जुटे हैं जिससे सनातन के सभी शास्त्र असत्य हैं ऐसा सिद्ध हो।
यदि षड्यंत्रकारी स्वयं इस प्रकार का प्रचार-प्रसार करें तो निंदा की पात्र बनेंगे, उनका विरोध हो सकता है। किन्तु यदि किसी पाखंडी को विद्वान, कथावाचक आदि बनाकर उनके द्वारा प्रचारित करायें तो सांप भी मर जायेगी और लाठी भी नहीं टूटेगा। इसलिये षड्यंत्रकारियों ने ढेरों पाखंडियों का भी जाल बिछा रखा है। उन पाखंडियों को पहचानने का सबसे सरल उपाय यही होता है कि वो जो वक्तव्य देते हैं वो शास्त्रसम्मत होते हैं या शास्त्रविरुद्ध।
सिद्धि
इस आलेख में जो चर्चा की गयी है वह तर्क से की गयी है। तर्क से सिद्धि नहीं होती है। अतः इस आलेख के प्रभाव से स्वर्ग और नरक की पृथक सिद्धि नहीं होती है। स्वर्ग और नरक की पृथक सिद्धि शास्त्रों के प्रमाण से होती है। इसी प्रकार यदि कोई यह कहते हैं कि सुख ही स्वर्ग है और दुःख ही नरक है, सब इसी संसार में है पृथक नहीं तो उनके तर्क से इस तथ्य की सिद्धि नहीं हो सकती। सिद्धि के लिये शास्त्रों के प्रमाण की अपेक्षा होती है जो प्रस्तुत नहीं किया जाता।
एक अलग विषय ये है कि नास्तिकों की भी प्राचीन परंपरा रही है। समस्या नास्तिकों द्वारा इस प्रकार के कुतर्क करने से है भी नहीं। समस्या तो वो बड़े-बड़े पाखंडियों से होती है जो भागवत-रामायण आदि कथा करते हुये ऐसा वक्तव्य देने लगते हैं और कुतर्क करने लगते हैं। अर्थात एक तरफ वो स्वयं को आस्तिक भी मानते हैं, आध्यात्मिक भी मानते हैं और दूसरी तरफ शास्त्रों में अविश्वास करके नास्तिकता का भी प्रसार करते हैं।
निष्कर्ष : जैसे अधिक सोनेवाले व्यक्ति को कुम्भकर्ण कह दिया जाता है, अतिसुन्दरी को अप्सरा या परी आदि की उपमा दी जाती है, किसी क्रूरकर्मा स्त्री को चुड़ैल-डायन-राक्षसी आदि कहा जाता है, उसी प्रकार सुख को स्वर्ग की और दुःख को नरक की उपमा से अलंकृत किया जाता है। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि उपमा ही सही होता है, सिद्धि हेतु शास्त्रों के प्रमाण की भी आवश्यकता होती है, तर्क वह होता है जो उन प्रमाणों के विश्लेषण में प्रयुक्त होता है। जो उन प्रमाणों के विरुद्ध विश्लेषण करने के लिये बका जाता है उसे तर्क नहीं कुतर्क कहते हैं।
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