राहु की तरह ही केतु भी छाया ग्रह ही है, अर्थात सूर्य और चंद्र पथ का दूसरा संक्रमण बिंदु है और इसकी भी पिण्डात्मक उपस्थिति नहीं है। जिस दैत्य का सिर कटा हुआ धर राहु है वही सिर केतु है। अष्टोत्तरशतनाम का एक विशेष लाभ ज्योतिषियों के लिये भी होता है कि इसके द्वारा फलादेश संबंधी ज्ञान भी मिलता है। केतु की एक विशेषता यह है कि यह शुभ करना हो या अशुभ अचानक करता है अर्थात केतु के प्रभाव अचानक परिवर्तनकारी होते हैं।
केतु ग्रह के 108 नाम वाले स्तोत्र को केतु अष्टोत्तरशत नामावली कहा जाता है। स्तोत्रों में देवताओं के 108 नाम अर्थात अष्टोत्तरशत नामों का भी विशेष होता है। यहां केतु का अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र दिया गया है।
केतु के 108 नाम (केतु अष्टोत्तर शतनामावली) – Ketu Ashtottara Shatanamavali
शृणु नामानि जप्यानि केतो रथ महामते ।
केतुः स्थूलशिराश्चैव शिरोमात्रो ध्वजाकृतिः ॥१॥
नवग्रहयुतः सिंहिकासुरीगर्भसम्भवः ।
महाभीतिकरश्चित्रवर्णो वै पिंगलाक्षकः ॥२॥
स फलोधूम्रसंकाषः तीक्ष्णदंष्ट्रो महोरगः ।
रक्तनेत्रश्चित्रकारी तीव्रकोपो महासुरः ॥३॥
क्रूरकण्ठः क्रोधनिधिश्छायाग्रहविशेषकः ।
अन्त्यग्रहो महाशीर्षो सूर्यारिः पुष्पवद्ग्रही ॥४॥
वरहस्तो गदापाणिश्चित्रवस्त्रधरस्तथा ।
चित्रध्वजपताकश्च घोरश्चित्ररथश्शिखी ॥५॥
कुलुत्थभक्षकश्चैव वैदूर्याभरण स्तथा ।
उत्पातजनकः शुक्रमित्रं मन्दसखस्तथा ॥६॥
गदाधरः नाकपतिः अन्तर्वेदीश्वरस्तथा ।
जैमिनीगोत्रजश्चित्रगुप्तात्मा दक्षिणामुखः ॥७॥
मुकुन्दवरपात्रं च महासुरकुलोद्भवः ।
घनवर्णो लम्बदेहो मृत्युपुत्रस्तथैव च ॥८॥
उत्पातरूपधारी चाऽदृश्यः कालाग्निसन्निभः ।
नृपीडो ग्रहकारी च सर्वोपद्रवकारकः ॥९॥
चित्रप्रसूतो ह्यनलः सर्वव्याधिविनाशकः ।
अपसव्यप्रचारी च नवमे पापदायकः ॥१०॥
पञ्चमे शोकदश्चोपरागखेचर एव च ।
अतिपुरुषकर्मा च तुरीये च सुखप्रदः ॥११॥
तृतीये वैरदः पापग्रहश्च स्फोटककारकः ।
प्राणनाथः पञ्चमे तु श्रमकारक एव च ॥१२॥
द्वितीयेऽस्फुटवाग्दाता विषाकुलितवक्त्रकः ।
कामरूपी सिंहदन्तः सत्येऽप्यनृतवानपि ॥१३॥
चतुर्थे मातृनाशश्च नवमे पितृनाशकः ।
अन्त्ये वैरप्रदश्चैव सुतानन्दनबन्धकः ॥१४॥
सर्पाक्षिजातोऽनंगश्च कर्मराश्युद्भवस्तथा ।
उपान्ते कीर्तिदश्चैव सप्तमे कलहप्रदः ॥१५॥
अष्टमे व्याधिकर्ता च धने बहुसुखप्रदः ।
जनने रोगदश्चोर्ध्वमूर्धजो ग्रहनायकः ॥१६॥
पापदृष्टिः खेचरश्च शाम्भवोऽशेषपूजितः ।
शाश्वतश्च नटश्चैव शुभाऽशुभफलप्रदः ॥१७॥
धूम्रश्चैव सुधापायी ह्यजितो भक्तवत्सलः ।
सिंहासनः केतुमूर्ती रवीन्दुद्युतिनाशकः ॥१८॥
अमरः पीडकोऽमर्त्यो विष्णुदृष्टोऽसुरेश्वरः ।
भक्तरक्षोऽथ वैचित्र्यकपटस्यन्दनस्तथा ॥१९॥
विचित्रफलदायी च भक्ताभीष्टफलप्रदः ।
एतत्केतुग्रहस्योक्तं नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ॥२०॥
यो भक्त्येदं जपेत्केतुर्नाम्नामष्टोत्तरं शतम् ।
स तु केतोः प्रसादेन सर्वाभीष्टं समाप्नुयात् ॥२१॥
॥ इति केतु अष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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