शुक्र स्वभाविक रूप से शुभग्रह हैं और दैत्य-दानवों के गुरु रूप में जाने जाते हैं अतः सौम्य-शुभ होते हुये भी चंद्र-गुरु से इनकी मित्रता नहीं है अपितु क्रूरग्रह शनि से घनिष्ठ मित्रता है। ग्रहमैत्री में शुक्र व शनि की मैत्री ही सर्वाधिक घनिष्ट कही जाती है। अर्थात शुक्र शुभ होते हुये भी कई बार शनि का फल प्रदान करने लगते हैं। शुक्र ग्रह के 108 नाम वाले स्तोत्र को शुक्र अष्टोत्तरशत नामावली कहा जाता है। स्तोत्रों में देवताओं के 108 नाम अर्थात अष्टोत्तरशत नामों का भी विशेष होता है। यहां शुक्र का अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्र दिया गया है।
शुक्र अष्टोत्तर शतनामावली (शुक्र ग्रह के 108 नाम) – Shukra ashtottara shatanamavali
शुक्रः शुचिः शुभगुणः शुभदः शुभलक्षणः ।
शोभनाक्षः शुभ्ररूपः शुद्धस्फटिकभास्वरः ॥१॥
दीनार्तिहारको दैत्यगुरुः देवाभिवन्दितः ।
काव्यासक्तः कामपालः कविः कल्याणदायकः ॥२॥
भद्रमूर्तिर्भद्रगुणो भार्गवो भक्तपालनः ।
भोगदो भुवनाध्यक्षो भुक्तिमुक्तिफलप्रदः ॥३॥
चारुशीलश्चारुरूपश्चारुचन्द्रनिभाननः ।
निधिर्निखिलशास्त्रज्ञो नीतिविद्याधुरन्धरः ॥४॥
सर्वलक्षणसम्पन्नः सर्वापद्गुणवर्जितः ।
समानाधिकनिर्मुक्तः सकलागमपारगः ॥५॥
भृगुर्भोगकरो भूमिसुरपालनतत्परः ।
मनस्वी मानदो मान्यो मायातीतो महाषयः ॥६॥
बलिप्रसन्नोऽभयदो बली बलपराक्रमः ।
भवपाशपरित्यागो बलिबन्धविमोचकः ॥७॥
धनाशयो धनाध्यक्षो कम्बुग्रीवः कलाधरः ।
कारुण्यरससम्पूर्णः कल्याणगुणवर्धनः ॥८॥
श्वेताम्बरः श्वेतवपुः चतुर्भुजसमन्वितः ।
अक्षमालाधरोऽचिन्त्यः अक्षीणगुणभासुरः ॥९॥
नक्षत्रगणसञ्चारो नयदो नीतिमार्गदः ।
हर्षप्रदो हृषीकेशः क्लेशनाशकरः कविः ॥ १०॥
चिन्तितार्थप्रदः शान्तमतिः चित्तसमाधिकृत् ।
आधिव्याधिहरो भूरिविक्रमः पुण्यदायकः ॥११॥
पुराणपुरुषः पूज्यः पुरुहूतादिसन्नुतः ।
अजेयो विजितारातिर्विविधाभरणोज्ज्वलः ॥१२॥
कुन्दपुष्पप्रतीकाशो मन्दहासो महामतिः ।
मुक्ताफलसमानाभो मुक्तिदो मुनिसन्नुतः ॥१३॥
रत्नसिंहासनारूढो रथस्थो रजतप्रभः ।
सूर्यप्राग्देशसञ्चारः सुरशत्रुसुहृत् कविः ॥१४॥
तुलावृषभराशीशो दुर्धरो धर्मपालकः ।
भाग्यदो भव्यचारित्रो भवपाशविमोचकः ॥१५॥
गौडदेशेश्वरो गोप्ता गुणी गुणविभूषणः ।
ज्येष्ठानक्षत्रसम्भूतो ज्येष्ठः श्रेष्ठः शुचिस्मितः ॥१६॥
अपवर्गप्रदोऽनन्तः सन्तानफलदायकः ।
सर्वैश्वर्यप्रदः सर्वगीर्वाणगणसन्नुतः ॥१७॥
एवं शुक्रग्रहस्यैव क्रमादष्टोत्तरं शतम् ।
सर्वपापप्रशमनम् सर्वपुण्यफलप्रदम् ॥१८॥
यः पठेच्छ्रुणुयाद्वापि सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥१९॥
॥ इति शुक्र अष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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